नवरात्र पर्व वर्ष में दो बार आता है (चैत्र & आश्विन)। इस वर्ष चैत्र नवरात्री ८ अप्रैल (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा) कीे और रामनवमी १५ अप्रैल को है।
(१) चैत्र शुक्ल १ से ९ तक। चैत्र नवरात्र जिस दिन आरम्भ होता है, उसी दिन विक्रमी संवत् का नया वर्ष प्रारम्भ होता है। चैत्र नवरात्र का समापन दिवस भगवान् श्री राम का जन्म दिन रामनवमी होता है।
(२) दूसरा नवरात्र आश्विन शुक्ल१ से ९ तक पड़ता है। इससे लगा हुआ विजयदशमी पर्व आता है।
ऋतुओं के सन्धिकाल इन्हीं पर्वों पर पड़ते हैं। सन्धिकाल को उपासना की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। प्रातः और सायं, ब्राह्ममुहूर्त्त एवं गोधूलि वेला दिन और रात्रि के सन्धिकाल हैं। इन्हें उपासना के लिए उपयुक्त माना गया है। इसी प्रकार ऋतु सन्धिकाल के नौ-नौ दिन दोनों नवरात्रों में विशिष्ट रूप से साधना-अनुष्ठानों के लिए महत्त्वपूर्ण माने गये हैं।
नवरात्रि साधना को दो भागें में बाँटा जा सकता है : एक उन दिनों की जाने वाली जप संख्या एवं विधान प्रक्रिया। दूसरे आहार- विहार सम्बन्धी प्रतिबन्धों की तपश्चर्या ।। दोनों को मिलाकर ही अनुष्ठान पुरश्चरणों की विशेष साधना सम्पन्न होती है।
जप संख्या के बारे में विधान यह है कि ९ दिनों में २४ हजार गायत्री मन्त्रों का जप पूरा होना चाहिए। कारण २४ हजार जप का लघु गायत्री अनुष्ठान होता है। प्रतिदिन २७ माला जप करने से ९ दिन में२४० मालायें अथवा २४०० मंत्र जप पूरा हो जाता है। मोटा अनुपात घण्टे में ११- ११ माला का रहता है। इस प्रकार प्रायः२(१/२) घण्टे इस जप में लग जाते हैं। चूंकि उसमें संख्या विधान मुख्य है इसलिए गणना के लिए माला का उपयोग आवश्यक है। सामान्य उपासना में घड़ी की सहायता से ४५ मिनट का पता चल सकता है, पर जप में गति की न्यूनाधिकता रहने से संख्या की जानकारी बिना माला के नहीं हो सकती। अस्तु नवरात्रि साधना में गणना की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए माला का उपयोग आवश्यक माना गया है।
जिनसे न बन पड़े, वे प्रतिदिन १२ माला करके १०८ माला का अनुष्ठान कर सकते हैं।
उपासना की विधि सामान्य नियमों के अनुरूप ही है। स्नानादि से निवृत्त होकर आसन बिछाकर पूर्व को मुख करके बैठें। जिन्होंने कोई प्रतिमा या चित्र किसी स्थिर स्थान पर प्रतिष्ठित कर रखा हो वे दिशा का भेद छोड़कर उस प्रतिमा के सम्मुख ही बैठें। वरूण देव तथा अग्नि देव को साक्षी करने के लिए पास में जल पात्र रख लें और घृत का दीपक या अगरबत्ती जला लें सन्ध्यावन्दन करके, गायत्री माता का आवाहन करें। आवाहन मन्त्र जिन्हें याद न हो वे गायत्री शक्ति की मानसिक भावना करें। धूप, दीप, अक्षत, नैवेद्य, पुष्प, फल, चन्दन, दूर्वा, सुपारी आदि पूजा की जो मांगलिक वस्तुएँ उपलब्ध हों उनसे चित्र या प्रतिमा का पूजन कर लें। जो लोग निराकार को मानने वाले हों वे धूपबत्ती या दीपक की अग्नि को ही माता का प्रतीक मान कर उसे प्रणाम कर लें।
अपने गायत्री गुरू का भी इस समय पूजन वन्दन कर लेना चाहिए, यही शाप मोचन है।
इस तरह आत्म शुद्धि और देव पूजन के बाद जप आरम्भ हो जाता है। जप के साथ- साथ सविता देवता के प्रकाश का अपने में प्रवेश होते पूर्ववत् अनुभव किया जाता है। सूर्य अर्घ्य आदि अन्य सब बातें उसी प्रकार चलती हैं, जैसी दैनिक साधना में। हर दिन जो आधा घण्टा जप करना पड़ता था वह अलग से नहीं करना होता वरन् इन्हीं २७ मालाओं में सम्मिलित हो जाता है।
गायत्री मन्त्र एवं भावार्थ
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
भावार्थ : उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।
अनुष्ठान में पालन करने के लिए दो नियम अनिवार्य हैं।
- इन नौ दिनों ब्रह्मचर्य पालन अनिवार्य रूप से आवश्यक है।
- दूसरा अनिवार्य नियम है उपवास। जिनके लिए सम्भव हो वे नौ दिन फल, दूध पर रहें। एक समय अन्नाहार, एक समय फलाहार, दो समय दूध और फल, एक समय आहार, एक समय फल दूध का आहार, केवल दूध का आहार इनमें से जो भी उपवास अपनी सामर्थ्यानुकूल हो उसी के अनुसार साधना आरम्भ कर देनी चाहिए। जिनसे इतना भी न बन पड़े वे अन्नाहार पर भी रह सकते हैं, पर नमक और शक्कर छोड़कर अस्वाद व्रत का पालन उन्हें भी करना चाहिए। भोजन में अनेक वस्तुएँ न लेकर दो ही वस्तुएँ ली जायें। जैसे- रोटी, दाल। रोटी- शाक, चावल- दाल, दलिया, दही आदि।
अनुष्ठान में पालन करने के लिए तीन सामान्य नियम हैं
- कोमल शैया का त्याग
- अपनी शारीरिक सेवाएँ अपने हाथों करना
- हिंसा द्रव्यों का त्याग (चमड़े के जूते , रेशम, कस्तूरी, मांस, अण्डा )।
अनुष्ठान के दिनों में मनोविकारों और चरित्र दोनों पर कठोर दृष्टि रखी जाय और अवांछनीय उभारों को निरस्त करने के लिए अधिकाधिक प्रयत्नशील रहा जाय। असत्य भाषण, क्रोध, छल, कटुवचन , अशिष्ट आचरण, चोरी, चालाकी, जैसे अवांछनीय आचरणों से बचा जाना चाहिए, ईर्ष्या, द्वेष, कामुकता, प्रतिशोध जैसे दुर्भावनाओं से मन को जितना बचाया जा सके उतना अच्छा है। जिनसे बन पड़े वे अवकाश लेकर ऐसे वातावरण में रह सकते हैं जहाँ इस प्रकार की अवांछनीयताओं का अवसर ही न आवे। जिनके लिए ऐसा सम्भव नहीं, वे सामान्य जीवन यापन करते हुए अधिक से अधिक सदाचरण अपनाने के लिए सचेष्ट बने रहें ।।
संक्षिप्त गायत्री हवन पद्धति की प्रक्रिया बहुत ही सरल है। जप का शतांश हवन किया जाना चाहिए। पूर्णाहुति के बाद प्रसाद वितरण, कन्या भोजन आदि का प्रबन्ध अपनी सामर्थ्य के अनुसार करना चाहिए। गायत्री आद्य शक्ति- मातृु शक्ति है। उसका प्रतिनिधित्व कन्या करती है। अस्तु अन्तिम दिन कम से कम एक और अधिक जितनी सुविधा हो कन्याओं को भोजन कराना चाहिए।
अनुष्ठान के साथ दान की परम्परा जुड़ी हुई है। ज्ञानदान सर्वश्रेष्ठ है। इस दृष्टि से प्रत्येक साधक को चाहिए कि यथाशक्ति वितरण योग्य सस्ता युग साहित्य खरीदकर उन्हें उपयुक्त व्यक्तियों को साधना का प्रसाद कहकर दें।
जिन्हें नवरात्रि की साधनायें करनी हों, उन्हें दोनों बार समय से पूर्व उसकी सूचना हरिद्वार भेज देनी चाहिए, ताकि उन दिनों साधक के सुरक्षात्मक, संरक्षण और उस क्रम में रहने वाली भूलों के दोष परिमार्जन का लाभ मिलता रहे। विशेष साधना के लिए विशेष मार्ग- दर्शन एवं विशेष संरक्षण मिल सके तो उससे सफलता की सम्भावना अधिक बढ़ जाती है। वैसे प्रत्येक शुभ कर्म की संरक्षण भगवान स्वयं ही करते हैं।
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