भवानि शङ्करौ वन्दे श्रध्दा विश्वास रूपिणौ |
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम् ||
'भवानीशंकरौ वंदे' भवानी और शंकर की हम वंदना करते है। 'श्रद्धा विश्वास रूपिणौ' अर्थात श्रद्धा का नाम पार्वती और विश्वास का शंकर। श्रद्धा और विश्वास- का प्रतीक विग्रह मूर्ति हम मंदिरों में स्थापित करते हैं। इनके चरणों पर अपना मस्तक झुकाते,जल चढ़ाते, बेलपत्र चढ़ाते, आरती करते है। 'याभ्यांबिना न पश्यन्ति' श्रद्धा और विश्वास के बिना कोई सिद्धपुरुष भी भगवान को प्राप्त नहीं कर सकते।
क्यों शंकर की शक्ति / वरदान / चमत्कार हमें अब दिखाई नहीं पड़ते?
कहाँ चूक रह जाती है, कहाँ भूल रह जाती है।
चूक और गलती वहाँ हो गई, जहाँ भगवान शिव और पार्वती का असली स्वरूप हमको समझ में नहीं आया। उसके पीछे की फिलॉसफी समझ में नहीं आई|
आइये समझते है शिव शंकर का सही स्वरूप ताकि हम लोग भी शंकर भगवान के अनुदान प्राप्त कर सके.
शिव लिंग
यह सारा विश्व ही भगवान है। शंकर की गोल पिंडी बताता है कि वह विश्व- ब्रह्माण्ड गोल है, एटम गोल है, धरती माता, विश्व माता गोल है। इसको हम भगवान का स्वरूप मानें और विश्व के साथ वह व्यवहार करें जो हम अपने लिए चाहते हैं। शिव का आकार लिंग स्वरूप माना जाता है। उसका सृष्टि साकार होते हुए भी उसका आधार आत्मा है। ज्ञान की दृष्टि से उसके भौतिक सौंदर्य का कोई बड़ा महत्त्व नहीं है। मनुष्य को आत्मा की उपासना करनी चाहिए, उसी का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।
१.शिव का वाहन वृषभ / बैल “नंदी”
शिव का वाहन वृषभ शक्ति का पुंज भी है सौम्य- सात्त्विक बैल शक्ति का प्रतीक है, हिम्मत का प्रतीक है।
२.चाँद - शांति, संतुलन -
चंद्रमा मन की मुदितावस्था का प्रतीक है,चन्द्रमा पूर्ण ज्ञान का प्रतीक भी है, शंकर भक्त का मन सदैव चंद्रमा की भाँति प्रफुल्ल और उसी के समान खिला निःशंक होता है।
३.माँ गंगा की जलधारा -
सिर से गंगा की जलधारा बहने से आशय ज्ञानगंगा से है|गंगा जी यहाँ 'ज्ञान की प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति के रूप में अवतरित होती हैं।महान आध्यात्मिक शक्ति को संभालने के लिए शिवत्व ही उपयुक्त है |माँ गंगा उसकी ही जटाओं में आश्रय लेती हैं | मस्तिष्क के अंतराल में मात्र 'ग्रे मैटर' न भरा रहे, ज्ञान- विज्ञान का भंडार भी भरा रहना चाहिए, ताकि अपनी समस्याओं का समाधान हो एवं दूसरों को भी उलझन से उबारें। वातावरण को सुख- शांतिमय कर दें।अज्ञान से भरे लोगों को जीवनदान मिल सके| | शिव जैसा संकल्प शक्ति वाला महापुरुष ही उसे धारण कर सकता है| महान बौद्धिक क्रांतियों का सृजन भी कोई ऐसा व्यक्ति ही कर सकता है जिसके जीवन में भगवान शिव के आदर्श समाए हुए हों।वही ब्रह्मज्ञान को धारण कर उसे लोक हितार्थ प्रवाहित कर सकता है। ।
४.तीसरा नेत्र
-ज्ञानचक्षु , दूरदर्शी विवेकशीलता . जिससे कामदेव जलकर भस्म हो गया। | यह तृतीय नेत्र स्रष्टा ने प्रत्येक मनुष्य को दिया है। सामान्य परिस्थितियों में वह विवेक के रूप में जाग्रत रहता है पर वह अपने आप में इतना सशक्त और पूर्ण होता है कि काम वासना जैसे गहन प्रकोप भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। उन्हें भी जला डालने की क्षमता उसके विवेक में बनी रहती है।
५. गले में सांप
-शंकर भगवान ने गले में पड़े हुए काले विषधरोंसाँप का इस्तेमाल इस तरीके से किया है कि,उनके लिए वे फायदेमन्द हो गए, उपयोगी हो गए और काटने भी नहीं पाए।
६. नीलकंठ - मध्यवर्ती नीति अपनाना-
शिव ने उस हलाहल विष को अपने गले में धारण कर लिया, न उगला और न पीया। उगलते तो वातावरण में विषाक्तता फैलती, पीने पर पेट में कोलाहल मचता।शिक्षा यह है कि विषाक्तता को न तो आत्मसात् करें, न ही विक्षोभ उत्पन्न कर उसे उगलें। उसे कंठ तक ही प्रतिबंधित रखे। मध्यवर्ती नीति ही अपने जाये योगी पुरुष पर संसार के अपमान, कटुता आदि दुःख- कष्टों का कोई प्रभाव नहीं होता। उन्हें वह साधारण घटनाएँ मानकर आत्मसात् कर लेता है और विश्व कल्याण की अपनी आत्मिक वृत्ति निश्चल भाव से बनाए रहता है। खुद विष पीता है पर औरों के लिए अमृत लुटाता रहता है। यही योगसिद्धि है।
७. मुण्डों की माला -जीवन की अंतिम परिणति और सौगात
राजा व रंक समानता से इस शरीर को छोड़ते हैं।वे सभी एकसूत्र में पिरो दिए जाते हैं। यही समत्व योग है । जिस चेहरे को हम बीस बार शीशे में देखते हैं, सजाते संवारते हैं , वह मुंडों की हड्डियों का टुकड़ा मात्र है। जिस बाहरी रंग के टुकड़ों को हम देखते हैं, उसे उघाड़कर देखें तो मिलेगा कि इनसान की जो खूबसूरती है उसके पीछे सिर्फ हड्डी का टुकड़ा जमा हुआ पड़ा है।
८. डमरु –
शिव डमरू बजाते और मौज आने पर नृत्य भी करते हैं। यह प्रलयंकर की मस्ती का प्रतीक है। व्यक्ति उदास, निराश और खिन्न, विपन्न बैठकर अपनी उपलब्ध शक्तियों को न खोए, पुलकित- प्रफुल्लित जीवन जिए। शिव यही करते हैं, इसी नीति को अपनाते हैं। उनका डमरू ज्ञान, कला, साहित्य और विजय का प्रतीक है। यह पुकार- पुकारकर कहता है कि शिव कल्याण के देवता हैं। उनके हर शब्द में सत्यम्, शिवम् की ही ध्वनि निकलती है। डमरू से निकलने वाली सात्त्विकता की ध्वनि सभी को मंत्रमुग्ध सा कर देती है और जो भी उनके समीप आता है अपना सा बना लेती है।
९. त्रिशूल धारण – ज्ञान, कर्म और भक्ति
लोभ, मोह, अहंता के तीनों भवबंधन को ही नष्ट करने वाला ,साथ ही हर क्षेत्र में औचित्य की स्थापना कर सकने वाला एक एसा अस्त्र – त्रिशूल. यह शस्त्र त्रिशूल रूप में धारण किया गया- ज्ञान, कर्म और भक्ति की पैनी धाराओं का है।
१०. बाघम्बर -
वे बाघ का चर्म धारण करते है। जीवन में बाघ जैसे ही साहस और पौरुष की आवश्यकता है जिसमें अनर्थों और अनिष्टों से जूझा जा सके |
११. शरीर पर भस्म – प्ररिवर्तन से अप्रभावित
शिव बिखरी भस्म को शरीर पर मल लेते हैं, ताकि ऋतु प्रभावों का असर न पड़े। मृत्यु को जो भी जीवन के साथ गुँथा हुआ देखता है उस पर न आक्रोश के आतप का आक्रमण होता है और न भीरुता के शीत का । वह निर्विकल्प निर्भय बना रहता है।
१२. मरघट में वास -
उन्हें श्मशानवासी कहा जाता है। वे प्रकृतिक्रम के साथ गुँथकर पतझड़ के पीले पत्तों को गिराते तथा बसंत के पल्लव और फूल खिलाते रहते हैं। मरण भयावह नहीं है और न उसमें अशुचिता है। गंदगी जो सड़न से फैलती है। काया की विधिवत् अंत्येष्टि कर दी गई तो सड़न का प्रश्न ही नहीं रहा। हर व्यक्ति को मरण के रूप में शिवसत्ता का ज्ञान बना रहे, इसलिए उन्होंने अपना डेरा श्मशान में डाला है।
१३. हिमालय में वास
जीवन की कष्ट कठिनाइयों से जूझ कर शिवतत्व सफलताओं की ऊँचाइयों को प्राप्त करता है | जीवन संघर्षों से भरा हुआ है | जैसे हिमालय में खूंखार जानवर का भय होता है वैसा ही संघर्षमयी जीवन है | शिव भक्त उनसे घबराता नहीं है उन्हें उपयोगी बनाते हुए हिमालय रूपी ऊँचाइयों को प्राप्त करता है |
१४. शिव -गृहस्थ योगी -
गृहस्थ होकर भी पूर्ण योगी होना शिव जी के जीवन की महत्त्वपूर्ण घटना है। सांसारिक व्यवस्था को चलाते हुए भी वे योगी रहते हैं, पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। वे अपनी धर्मपत्नी को भी मातृ- शक्ति के रूप में देखते हैं। यह उनकी महानता का दूसरा आदर्श है। ऋद्धि- सिद्धियाँ उनके पास रहने में गर्व अनुभव करती हैं। यहाँ उन्होंने यह सिद्ध कर दिया है कि गृहस्थ रहकर भी आत्मकल्याण की साधना असंभव नहीं। जीवन में पवित्रता रखकर उसे हँसते- खेलते पूरा किया जा सकता है।
१५. शिव – पशुपतिनाथ
शिव को पशुपति कहा गया है। पशुत्व की परिधि में आने वाली दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों का नियन्त्रण करना पशुपति का काम है। नर- पशु के रूप में रह रहा जीव जब कल्याणकर्त्ता शिव की शरण में आता है तो सहज ही पशुता का निराकरण हो जाता है और क्रमश: मनुष्यत्व और देवत्व विकसित होने लगता है।
१६. शिव के गण – शिव के लिए समर्पित व्यक्तित्व
''तनु क्षीनकोउ अति पीन पावन कोउ अपावन तनु धरे।" – रामायण
शंकर जी ने भूत- पलीतों का, पिछड़ों का भी ध्यान रखा है और अपनी बरात में ले गए। शिव के गण भूत- पलीत जैसों का है। पिछड़ों, अपंगों, विक्षिप्तों को हमेशा साथ लेकर चलने से ही सेवा- सहयोग का प्रयोजन बनता है। शंकर जी के भक्त अगर हम सबको साथ लेकर चल नहीं सकते तो फिर हमें सोचने में मुश्किल पड़ेगी, समस्याओं का सामना करना पड़ेगा और फिर जिस आनंद में और खुशहाली में शंकर के भक्त रहते हैं हम रह नहीं पाएँगे।
२०. शिव के प्रधान गण – वीरभद्र-
वीरता अभद्र-अशिष्ट न हो,भद्रता – शालीनता डरपोक न हो, तभी शिवत्व की स्थापना होगी |
२२. शिव परिवार – एक आदर्श परिवार
शिवजी के परिवार में सभी अपने अपने व्यक्तित्व के धनी तथा स्वतंत्र रूप से उपयोगी हैं | अर्धांगनी माँ भवानी ज्येष्ठ पुत्र देव सेनापति कार्तिकेय तथा कनिष्ठ पुत्र प्रथम पूज्य गणपति हैं | सभी विभिन्न होते हुए भी एक साथ हैं | बैल -सिंह , सर्प -मोर प्रकृति में दुश्मन दिखाई देते हैं किन्तु शिवत्व के परिवार में ये एक दुसरे के साथ हैं |शिव के भक्त को शिव परिवार जैसा श्रेष्ठ संस्कार युक्त परिवार निर्माण के लिए तत्पर होना चाहिए |
२३. शिव को अर्पण-प्रसाद - भांग-भंग अर्थात विच्छेद- विनाश। माया और जीव की एकता का भंग, अज्ञान आवरण का भंग, संकीर्ण स्वार्थपरता का भंग, कषाय- कल्मषों का भंग। यही है शिव का रुचिकर आहार। जहाँ शिव की कृपा होगी वहाँ अंधकार की निशा भंग हो रही होगी और कल्याणकारक अरुणोदय वह पुण्य दर्शन मिल रहा होगा।
बेलपत्र- बेलपत्र को जल के साथ पीसकर छानकर पीने से बहुत दिनों तक मनुष्य बिना अन्न के जीवित रह सकता है | शरीर भली भांति स्थिर रह सकता है | शरीर की इन्द्रियां एवं चंचल मन की वृतियां एकाग्र होती हैं तथा गूढ़ तत्व विचार शक्ति जाग्रत होती है |अतः शिवतत्व की प्राप्ति हेतु बेलपत्र स्वीकार किया जाता है |
२४. शिव-मंत्र “ ॐ नमः शिवाय
“शिव' माने कल्याण। कल्याण की दृष्टि रखकर के हमको कदम उठाने चाहिए और हर क्रिया- कलाप एवं सोचने के तरीके का निर्माण करना चाहिए- यह शिव शब्द का अर्थ होता है। सुख हमारा कहाँ है? यह नहीं, वरन कल्याण हमारा कहाँ है? कल्याण को देखने की अगर हमारी दृष्टि पैदा हो जाए तो यह कह सकते हैं कि हमने भगवान शिव के नाम का अर्थ जान लिया। इसी भाव को बार बार याद करने की क्रिया है मन्त्र ।
२५. शिव- “ महामृत्युंजय मंत्र “
महामृत्युञ्जय मंत्र में शिव को त्र्यंबक और सुगंधि पुष्टि वर्धनम् गाया है। विवेक दान भक्ति को त्रिवर्ग कहते हैं। ज्ञान, कर्म और भक्ति भी त्र्यंबक है। इस त्रिवर्ग को अपनाकर मनुष्य का व्यक्तित्व प्रत्येक दृष्टि से परिपुष्ट व परिपक्व होता है। उसकी समर्थता और संपन्नता बढ़ती है। साथ ही श्रद्धा, सम्मान भरा सहयोग उपलब्ध करने वाली यशस्वी उपलब्धियाँ भी करतलगत होती हैं। यही सुगंध है। गुण कर्म स्वभाव की उत्कृष्टता का प्रतिफल यश और बल के रूप में प्राप्त होता है। इसमंन तनिक भी संदेह नहीं। इसी रहस्य का उद्घाटन महामृत्युञ्जय मंत्र में विस्तारपूर्वक किया गया है। फ़िर वह खर्बुजे की तरह मृत्यु बन्धन, मृत्यु के भय से मुक्त हो मोक्ष के अमरत्व को प्राप्त करता है |
२६. महाशिवरात्रि -
रात्रि नित्य- प्रलय और दिन नित्य- सृष्टि है। एक से अनेक की ओर कारण से कार्य की ओर जाना ही सृष्टि है |इसके विपरीत अनेक से एक और कार्य से कारण की ओर जाना प्रलय है। दिन में हमारा मन, प्राण और इंद्रियाँ हमारे भीतर से बाहर निकल बाहरी प्रपंच की ओर दौड़ती हैं | रात्रि में फिर बाहर से भीतर की ओर वापस आकर शिव की ओर प्रवृत्ति होती है। इसी से दिन सृष्टि का और रात्रि प्रलय की द्योतक है। समस्त भूतों का अस्तित्व मिटाकर परमात्मा से अल्प- समाधान की साधना ही शिव की साधना है। इस प्रकार शिवरात्रि का अर्थ होता है, वह रात्रि जो आत्मानंद प्रदान करने वाली है और जिसका शिव से विशेष संबंध है। फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में यह विशेषता सर्वाधिक पाई जाती है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार उस दिन चंद्रमा सूर्य के निकट होता है। इस कारण उसी समय जीव रूपी चंद्रमा का परमात्मा रूपी सूर्य के साथ भी योग होता है। अतएव फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को की गई साधना से जीवात्मा का शीघ्र विकास होता है।
३०. शिव उपासना उपासना का अर्थ है-
मनन और उन्हें ग्रहण करने का प्रयत्न करना, उस पथ पर अग्रसर होने की चेष्टा करना। सच्चे शिव के उपासक वही हैं, जो अपने मन में स्वार्थ भावना को त्यागकर परोपकार की मनोवृत्ति को अपनाते हैं |
आइये हम भी भगवान शंकर के भक्त बने उनके अनुदान वरदान पाएं