युग निर्माण योजना
युग निर्माण योजना की सबसे बड़ी संपत्ति उस परिवार के परिजनों की निष्ठा है, जिसे कूटनीति एवं व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के आधार पर नहीं, धर्म और अध्यात्म की निष्ठा के आधार पर बोया, उगाया और बढ़ाया गया है। किसी को पदाधिकारी बनने की इच्छा नहीं, फोटो छपाने के लिए एक भी तैयार नहीं, नेता बनने के लिए कोई उत्सुक नहीं, कुछ कमाने के लिए नहीं, कुछ गंवाने के लिए जो आए हों उनके बीच इस प्रकार कल छल छद्म लेकर कोई घुसने का भी प्रयत्न करे तो उस मोर का पर लगाने वाले कौवे को सहज ही पहचान लिया जाता है और चलता कर दिया जाता है । यही कारण है कि इस विकासोन्मुखं हलचल में सम्मिलित होने के लिए कई व्यक्तिगत महत्वाकांक्षी आए पर वे अपनी दाल गलती न देखकर वापस लौट गए। यहाँ निस्पृह और भावनाशील, परमार्थ परायण, निष्ठा के धनी को ही सिर माथे पर रखा जाता है। धूर्तता को सिर पर पाँव रखकर उलटे लौटना पड़ता है। यह विशेषता इस संगठन में न होती तो महत्वकांक्षाओं ने अब तक इस अभियान को भी कब का निगलकर हजम कर लिया होता।
अखबारों में अपने लिए कोई स्थान नहीं, उन बेचारों को राजनीतिक हथकंडे और सिनेमा के करतब छापने से ही फुरसत नहीं, धनियों को अपनी यश-लोलुपता तथा धंधे-पानी का कुछ जुगाड़ बनता नहीं दीखता, इस दृष्टि से मिशन को साधनहीन कहा जा सकता है पर निष्ठा से भरे-पूरे और विश्व मानव की सेवा के लिए कुछ बढ़ चढ़कर अनुदान प्रस्तुत करने के लिए व्याकुल अंत: करण ही अपनी वह शक्ति है जिसके आधार पर देश के नहीं विश्व के कोने-कोने में, घर-घर और जन-जन के मन में इस प्रकाश की किरणें पहुँचने की आशा की जा रही है। एक से दस- एक से दस-एक से दस की रट लगाए हुए हम आज के थोड़े से व्यक्ति कल जन-मानस पर छा जाएंगे। इसे किसी को आश्चर्य नहीं मानना चाहिए। लगन संसार की सबसे बड़ी शक्ति है। दर्शकों को कार्यान्वित करने के लिए आतुर व्यक्ति भी यदि युग परिवर्तन के स्वप्न साकार नहीं कर सकते तो फिर और कौन उस भार को वहन करेगा?
इन आरंभिक दिनों में कुछ साधन मिल जाते तो कितना अच्छा होता। समाचार पत्रों ने अभियान का महत्व समझा होता और इन उदीयमान प्रवृत्तियों के प्रचार कार्य को अपनी कुछ पंक्तियों में स्थान दिया होता तो और भी अधिक सुविधा होती। कुछ साधन संपन्न ऐसे भी होते जो यश का बदला पाने की इच्छा के बिना पैसे से सहायता कर सके होते, कुछ कलाकार, साहित्यकार, गायक ऐसे मिले होते जो धन बटोरने की मृगतृष्णा में अपनी विभूतियाँ भी खो बैठने की अपेक्षा उन्हें नव-निर्माण के लिए समर्पित कर सके होते, कुछ प्रतिभाशाली लोग राजनीति की कुचालों में उलझे बार-बार लातें बटोरते फिरने की ललक छोड़कर अपने व्यक्तित्व को लोक-मंगल की इस युग पुकार को सुन सकने में लगा सके होते तो कितना अच्छा होता।
पर अभी उसका समय कहाँ आया है? फूल दिखने में देर है। अभी तो यहाँ बोने के दिन चल रहे हैं । भौरे, मधुमक्खियाँ, तितलियाँ आयेंगी तो बहुत, कलाप्रेमी और सौंदर्यपारखी भी चक्कर काटेंगे, पर इन बुआई के दिनों में एक घड़ा पानी और एक थैला खाद लेकर कौन आ सकता है? इस दुनिया में सफलता मिलने पर जयमाला पहनाई जाती है। इसके लिए प्रयास कर रहे साधनहीन को तो व्यंग्य-उपहास और तिरस्कार का ही पात्र बनाया जाता है। यह आशा हमें भी करनी चाहिए।
साधन संपन्न का यह स्वभाव होता है कि वह हर विशेषता को, हर प्रतिभा को अपने इशारे पर चलना चाहता है पर विश्व को नई दिशा देने वाले उनके पीछे चलने के लिए नहीं, उन्हीं की विकृति दिशा को सुधारने के लिए सन्नद्ध हैं। ऐसी स्थिति में उनमें खीज, असहयोग, उपवास तथा विरोध के भाव में, तो कोई आश्चर्य नहीं। निराशा की कोई बात नहीं।
अपना उपास्य जन-देवता है। उसकी शक्ति सबसे बड़ी है। जन-मानस का उभार शक्ति का स्रोत है। वह जिधर निकलता है उधर ही रास्ता बनता चला जाता है। नव-निर्माण की गंगा का अवतरण अपना रास्ता भी बना ही लेगा। मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का प्रयास आज अपने शैशव में भी आशा और विश्वास की हरियाली लहलहा रही है। कल उस पर फूल और फल भी लदे हुए देखे जा सकेंगे। एक से दस बनने की जो शपथ इस मिशन के परिजनों ने ली है वह अपना रंग दिखाएगी। असंभव दीखने वाला कार्य संभव हो सकेगा।
वांग्मय ६६ ३.२१,२२
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