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सेवा और प्रार्थना
तुम मुझे प्रभु कहते हो, गुरु कहते हो, उत्तम कहते हो, मेरी सेवा करना चाहते हो और मेरे लिए सब कुछ बलिदान कर देने को तैयार रहते हो। किन्तु मैं तुम से फिर कहता हूँ, तुम मेरे लिये न तो कुछ करते हो और न करना चाहते हो।
तुम जो कुछ करना चाहते हो मेरे लिये करना चाहते हो जबकि मैं चाहता हूँ तुम औरों के लिये ही सब कुछ करो। औरों के लिये कुछ न करने पर तुम मेरे लिये कुछ न कर सकोगे। मैं तुमसे सच कहता हूँ कि यदि तुमने इन छोटों के लिये कुछ न किया तो मेरे लिये भी कुछ न किया।
मैं फिर कहता हूँ कि मुझे प्रसन्न करने का प्रयत्न मत करो, मेरी प्रसन्नता तो इन छोटे और गरीब आदमियों की प्रसन्नता है। मुझे प्रसन्न करने के स्थान पर इनको प्रसन्न करो, मेरी सेवा की जगह इनकी सेवा और...
विभूतियाँ महाकाल के चरणों में समर्पित करें
प्रचारात्मक, संगठनात्मक, रचनात्मक और संघर्षात्मक चतुर्विधि कार्यक्रमों को लेकर युग निर्माण योजना क्रमशः अपना क्षेत्र बनाती और बढ़ाती चली जायेगी। निःसन्देह इसके पीछे ईश्वरीय इच्छा और महाकाल की विधि व्यवस्था काम कर रहीं है, हम केवल उसके उद्घोषक मात्र है। यह आन्दोलन न तो शिथिल होने वाला है, न निरस्त। हमारे तपश्चर्या के लिये चले जाने के बाद वह घटेगा नहीं - हजार लाख गुना विकसित होगा। सो हममें से किसी को शंका कुशंकाओं के कुचक्र में भटकने की अपेक्षा अपना वह दृढ़ निश्चय परिपक्व करना चाहिए कि विश्व का नव निर्माण होना ही है और उससे अपने अभियान को, अपने परिवार को अति महत्वपूर्ण ऐतिहासिक भूमिका का सम्पादन करना ही है।
परिजनों को अपनी जन्म-जन्मान्तरों की उस उत्कृष्ट सुसंस्कारिता का च...
विचारों का अवतार
इस वक्त लोगों की इच्छा हो रही है कि भगवान अवतार लें जिसे मैं पुरानी भाषा में अवतार प्रेरणा कहता हूँ। तुलसीदास ने वर्णन किया है कि पृथ्वी संत्रस्त होकर गोरूप धारण कर भगवान से प्रार्थना करती है कि हे भगवन् आइये, हमें बचाइये। भारत को आज मैं उस मनःस्थिति में देख रहा हूँ। जिस मनःस्थिति में अवतार की आकाँक्षा होती है। यह जरूरी नहीं है कि मनुष्य का अवतार होगा । विचार का भी अवतार होता है, बल्कि विचार का ही अवतार होता है। लोग समझते हैं कि रामचन्द्र एक अवतार थे, कृष्ण,बुद्ध, अवतार थे। लेकिन उन्हें हमने अवतार बनाया है। वे आपके और मेरे जैसे मनुष्य थे ।
लेकिन उन्होंने एक विचार संचार सृष्टि में किया और वे उस विचार के मूर्ति रूप बन गए, इसलिए लोगों ने उन्हें अवतार माना। हम अपनी प्रार्थन...
मनुष्य को मनुष्य बनाने वाला धर्म
“मेरे देशवासियों! विषम परिस्थितियों का अन्त आ गया। काफी रो चुके, अब रोने की आवश्यकता नहीं रही। अब हमें अपनी आत्म शक्ति को जगाने का अवसर आया है। उठो, अपने पैरों पर खड़े हो और मनुष्य बनो। हम मनुष्य बनाने वाला ही धर्म चाहते हैं। सुख, सफलता ही क्या सत्य भी यदि शरीर, बुद्धि और आत्मा को कमजोर बनाये तो उसे विष की भाँति त्याग देने की दृढ़ता आप में होनी चाहिए।”
“जीवन-शक्ति विहीन धर्म कभी धर्म नहीं हो सकता। उसका तो स्वरूप ही बड़ा पवित्र, बलप्रद, ज्ञानयुक्त है। जो शक्ति दे, ज्ञान दे हृदय के अन्धकार को दूर कर नव स्फूर्ति भर दे। आओ, हम उस सत्य की, धर्म की वन्दना करें। कामना करें और जन जीवन में प्रवाहित होने दें। तोता बोल बहुत सकता है। पर वह आबद्ध कुछ कर नहीं ...
सार्वभौम सर्वजनीन-माँ की उपासना
दुनिया में जितने धर्म, सम्प्रदाय, देवता और भगवानों के प्रकार हैं उन्हें कुछ दिन मौन हो जाना चाहिए और एक नई उपासना पद्धति का प्रचलन करना चाहिए जिसमें केवल “माँ” की ही पूजा हो, माँ को ही भेंट चढ़ाई जाये?
माँ बच्चे को दूध ही नहीं पिलाती, पहले वह उसका रस, रक्त और हाड़-माँस से निर्माण भी करती है, पीछे उसके विकास, उसकी सुख-समृद्धि और समुन्नति के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर देती है। उसकी एक ही कामना रहती है, मेरे सब बच्चे परस्पर प्रेमपूर्वक रहें, मित्रता का आचरण करें, न्यायपूर्वक सम्पत्तियों का उपभोग करें, परस्पर ईर्ष्या-द्वेष का कारण न बनें। चिरशान्ति, विश्व-मैत्री और ‘‘सर्वे भवंतु सुखिनः” वह आदर्श है, जिनके कारण माँ सब देवताओं से बड़ी है।
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सच्चा आत्म-समर्पण करने वाली देवी
थाईजेन्ड ग्रीनलैण्ड पार्क में स्वामी विवेकानन्द का ओजस्वी भाषण हुआ। उन्होंने संसार के नव-निर्माण की आवश्यकता का प्रतिपादन करते हुए कहा- ‘‘यदि मुझे सच्चा आत्म-समर्पण करने वाले बीस लोक-सेवक मिल जायें, तो दुनिया का नक्शा ही बदल दूँ।”
भाषण बहुत पसन्द किया गया और उसकी सराहना भी की गई, पर सच्चे आत्म-समर्पण वाली माँग पूरा करने के लिए एक भी तैयार न हुआ।
दूसरे दिन प्रातःकाल स्वामीजी सोकर उठे तो उन्हें दरवाजे से सटी खड़ी एक महिला दिखाई दी। वह हाथ जोड़े खड़ी थी।
स्वामीजी ने उससे इतने सवेरे इस प्रकार आने का प्रयोजन पूछा, तो उसने रूंधे कंठ और भरी आँखों से कहा- भगवन्! कल आपने दुनिया का नक्शा बदलने के लिए सच्चे मन से आत्म-समर्पण ...
व्यर्थ का उलाहना
हे प्रभु ! हे जगत्-पिता, जगन्नियन्ता कैसे आप मौन, मन्दिर में बैठे हैं। क्या आप देख नहीं रहे हैं कि बाहर संसार में अन्याय और अनीति फैली हुई है। अत्याचारियों के आतंक और त्रास से संसार त्राहि-त्राहि कर रहा है। आप उठिये और बाहर आकर अत्याचारियों का विनाश करिये, संसार को त्रास और उत्पीड़न से बचाइये। देखिये, मैं कब से आपको पुकार रहा हूँ, विनय और प्रार्थना कर रहा हूँ। किन्तु आप अनसुनी करते जा रहे हैं। हे प्रभु, हे जगन्नियन्ता न जाने आप जल्दी क्यों नहीं सुनते। पुकारते-पुकारते मेरी वाणी शिथिल हो रही है किन्तु अभी तक आपने मेरी पुकार नहीं, सुनी कहते-कहते, प्रार्थी करुणा से रो पड़ा !
तभी मूर्ति ने गम्भीरता के साथ कहा- ‘मनुष्य मुझे संसार में आने के लिये न कहे- मैं मनुष्यों से ब...
अपनों के साथ दुर्व्यवहार
‘आप लोग मुझे क्षमा करें। आपको आज मैं “महिलाओं”, शब्द से संबोधन कर रहा हूँ। सचमुच हम लोग शताब्दियों से गुलामी करते-करते स्त्री जैसे हो गये हैं। आप लोग इस देश या दूसरे किसी देश में जाइए। आप देखेंगे कि यदि एक स्थान पर तीन स्त्रियाँ 5 मिनट के लिए भी इकट्ठी होंगी तो झगड़ा कर बैठेंगी। पाश्चात्य देशों में बड़ी-बड़ी सभाएं करके स्त्रियों की क्षमता और अधिकारों की घोषणा से आकाश को गूंजा देती हैं पर उसके दो दिन बीतते न बीतते आपस में झगड़ा कर बैठती हैं तब कोई पुरुष आकर प्रभुत्व जमा लेता है।
सभी जातियों में आप ऐसा ही देखेंगे। स्त्रियों को शासन में रखने के लिये अब भी पुरुषों की आवश्यकता है। हम लोग भी इसी तरह स्त्रियों के समान हो गये हैं। अगर कोई स्त्री आकर उनका नेतृत...
पवित्र, श्रद्धालु और धार्मिक बनें
इस संसार को माया इसलिए कहा गया है कि यहाँ भ्रान्तियों की भरमार है। जो जैसा है, वैसा नहीं दीखता। यहाँ हर प्रसंग में कबीर को उलटबांसियों की भरमार हैं। पहेली बुझाने की तरह हर बात पर सोचना पड़ता है। प्रस्तुत गोरख धन्धा बिना बुद्धि पर असाधारण जोर लगाए समझ में ही नहीं आता। तिलस्म की इस इमारत में भूल-भुलैया ही भरी पड़ी हे। आँख मिचौनी का बेल यहाँ कोई जादूगर खेलता खिलाता रहता है।
प्रस्तुत परिस्थितियों को विधि की विडम्बना नियति की प्रवंचना भी कहा जा सकता है पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर प्रतीत होता हैं कि मनुष्य की बुद्धिमत्ता परखने के लिये उस चतुर चित ने पग-पग पर कसौटियाँ बिछा रखी हैं, जिनके माध्यम से गुजरने वाले के स्तर का पता लगता रहे। लगता है नियन्ता ने अपने युवराज को क्रमश...
अन्धकार को दीपक की चुनौती
अन्धकार की अपनी शक्ति है। जब उसकी अनुकूलता का रात्रिकाल आता है, तब प्रतीत होता है कि समस्त संसार को उसने अपने अञ्चल में लपेट लिया। उसका प्रभाव- पुरुषार्थ देखते ही बनता है। आँखें यथा स्थान बनी रहती हैं। वस्तुएँ भी अपनी जगह पर रखी रहती हैं, किन्तु देखने लायक विडम्बना यह है कि हाथ को हाथ नहीं सूझ पड़ता। पैरों के समीप रखी हुई वस्तुएँ ठोकर लगने का कुयोग बना देती हैं।
अन्धकार डरावना होता है। उसके कारण एकाकीपन की अनुभूति होती है और रस्सी का साँप, झाड़ी का भूत बनकर खड़ा हो जाता है। नींद को धन्यवाद है कि वह चिरस्मृति के गर्त में धकेल देती है, अन्यथा जगने पर करवटें बदलते वह अवधि पर्वत जैसी भारी पड़े।
इतनी बड़ी भयंकरता की सत्ता स्वीकार करते हुए भी दीपक की सराहना करनी...