पवित्र, श्रद्धालु और धार्मिक बनें
इस संसार को माया इसलिए कहा गया है कि यहाँ भ्रान्तियों की भरमार है। जो जैसा है, वैसा नहीं दीखता। यहाँ हर प्रसंग में कबीर को उलटबांसियों की भरमार हैं। पहेली बुझाने की तरह हर बात पर सोचना पड़ता है। प्रस्तुत गोरख धन्धा बिना बुद्धि पर असाधारण जोर लगाए समझ में ही नहीं आता। तिलस्म की इस इमारत में भूल-भुलैया ही भरी पड़ी हे। आँख मिचौनी का बेल यहाँ कोई जादूगर खेलता खिलाता रहता है।
प्रस्तुत परिस्थितियों को विधि की विडम्बना नियति की प्रवंचना भी कहा जा सकता है पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर प्रतीत होता हैं कि मनुष्य की बुद्धिमत्ता परखने के लिये उस चतुर चित ने पग-पग पर कसौटियाँ बिछा रखी हैं, जिनके माध्यम से गुजरने वाले के स्तर का पता लगता रहे। लगता है नियन्ता ने अपने युवराज को क्रमशः अधिकाधिक अनुदान देने की व्यवस्था बनाई है और उपयुक्त अधिकारी को उपयुक्त जिम्मेदारियाँ-विभूतियाँ सौंपते चलने की योजना विनिर्मित की है।
दूरदर्शी और अदूरदर्शी का पता इस गुत्थी को सुलझा सकने, न सुलझा सकने से लग जाता है कि सच्चा स्वार्थ साधन किसमें है, किसमें नहीं। बाधक मात्र एक ही प्रवंचना होती है कि तात्कालिक आकर्षणों में यह चंचल मन इतना मचल जाता है कि बुद्धि को उसकी ललक पूरी करने तक का अवसर नहीं मिलता। तरकस से तीर निकल जाने पर पता चलता है कि निशाना जहाँ लगाना चाहिए था, वहाँ न लगकर कहीं से कहीं चला गया। सफलता और असफलता का निर्धारण यहीं हो जाता है। व्यवहार बुद्धि का आश्रय लेने वाले दूरदर्शी इसी कसौटी पर खरे उतरते एवं माया-प्रपंच से बचकर सफलता के साथ आत्मिक प्रगति के पथ पर प्रशस्त होते देखे जा सकते हैं।
अखण्ड ज्योति फ़रवरी 1973 पृष्ठ 1
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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