Magazine - Year 1947 - Version 2
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Language: HINDI
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अपने प्रभु की खोज
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(श्री. महावीर प्रसाद विद्यार्थी, ‘साहित्य-रत्न’)
जिसे खोजता वन-वन में, तू खोज उसे अपने मन में।
मन की शीतल सुरभित कुँजों में मन मोहन रमता है।
जहाँ प्रेम की कालिन्दी का अमृत कल-कल करता है,
लीलामय वह उसी मधुर मधुबन में, करता है क्रीड़ा,
राग रसीला मुरली का वह रोम-रोम में भरता है॥
देख हृदय की आँखों से, प्रतिबिम्ब उसी का जीवन में।
जिसे खोजता वन-वन में, तू खोज उसे अपने मन में॥
कहाँ-कहाँ सुख की मृगतृष्णा मानव को भटकाती है।
यही, यही तो मानव को दानव-सा क्रूर बनाती है,
कौर छीन भूखों के मुँह से यह घर भरती है अपना,
पृथ्वी को कर पाप-रंक मय मन्द-मन्द मुसकाती है॥
फूल, शूल दोनों है चुन ले चाहे जो इस उपवन में।
जिसे खोजता वन-वन में, तू खोज उसे अपने मन में॥
सागर की मँझदार ओर तू नौका अपनी खेता है।
देख, क्षितिज-तल में विनाश तेरा अंगड़ाई लेता है,
दलन दूसरों का करके चाहता पहनना जय-माला,
तुझे ‘अहम्’ के आगे मानव! कुछ न दिखाई देता है॥
ढहकर तेरे महल तुझे ही कर देंगे विनष्ट क्षण में।
जिसे खोजता वन-वन में, तू खोज उसे अपने मन में॥
नव जीवन संचार करे मरु में तेरी जीवन धारा।
‘युक्ताहार विहार बने तेरा पथ-दर्शक ध्रुवतारा
इन्द्रिय भोगों की अतृप्त है तृष्णा अन्ध न हो मानव!
सुखमय वासस्थान बने तेरा यह पृथ्वीतल प्यारा॥
उतर स्वर्ग आएगा भू पर, रस छलकेगा कण-कण में।
जिसे खोजता वन-वन में तू, खोज उसे अपने मन में॥
*समाप्त*