Magazine - Year 1950 - Version 2
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Language: HINDI
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अकेला चल रे
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(विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर)
अनसुनी करके तेरी बात, न दे जो कोई तेरा साथ।
तो तूही कसकर अपनी कमर, अकेला बढ़ चल आगे रे।
अरे ओ पथिक अभागे रे॥
अकेला चल, अकेला चल, अकेला ही चल आगे रे।
देखकर तुझे मिलन की बेर, सभी जो लें अपने मुख फेर
न दो बातें भी कोई करे, समय हो तेरे आगे रे।
अरे ओ पथिक अभागे रे॥
तो अकेला ही तू जी खोल, सुरीले मन मुरली के बोल।
अकेला गा-अकेला सुन, अरे ओ पथिक अभागे रे।
अकेला ही चल आगे रे॥
और सुन तेरी करुण पुकार, अँधेरी पावस निशि में द्वार।
न खोले ही, न दिखावें दीप, न कोई भी जो जागे रे॥
अरे ओ पथिक अभागे रे॥
तो तूही वज्रानल में डाल, जलाकर अपना उर-कंकाल।
अकेला जलता रह चिरकाल, अरे ओ पथिक अभागे रे।
अकेला ही चल आगे रे॥