Magazine - Year 1951 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
तरण तारिणी माता
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(श्री हरिदयाल जी पटवारी, गोहाड़)
धार्मिक प्रवृत्ति मुझे अपने माता-पिता से विरासत में मिली। वे दोनों ही बड़े धार्मिक, साधु सेवी, चरित्रवान और प्रभु परायण थे। उनकी छाप मेरे ऊपर पड़ी। सत्साहित्य के स्वाध्याय और सत्पुरुषों के सत्संग से यह प्रवृत्ति और भी बढ़ी। मैं आत्मकल्याण का मार्ग प्यासे चातक की तरह ढूँढ़ने लगा। अनेक सूत्रों से मुझे एक ही उपाय दृष्टिगोचर हुआ -गायत्री उपासना। अखण्ड ज्योति के प्रकाश में मुझे वह मार्ग भी दिखाई दिया जिस पर चलकर पिता से उस दस गुनी ममता रखने वाली माता की आनन्दमयी गोद प्राप्त हो सकती है।
एक लम्बे अर्से से मैं गायत्री उपासना में प्रवृत्त हूँ। मुझे हर घड़ी यह अनुभव होता रहता है कि कोई दिव्य शक्ति शरीर को पार करती हुई अन्तः करण में प्रवेश कर रही है। कई बार स्वप्न में और कई बार अर्ध जागृत अवस्था में माता का साक्षात्कार हुआ है। उन क्षणों के आनन्द को याद करके आज भी देह रोमाँचित हो जाती है।
सभी कामनाएं और लालसाएं शान्त हो चूक हैं। इस वृद्धावस्था में केवल एक मात्र ही इच्छा है जन्म मरण की फाँसी पर बार-बार गला न फँसाना पड़े। भव सागर में बार-बार न डूबना उतरना पड़े इसी उद्देश्य के लिए माता का अंचल पकड़े हुए हूँ। गुरुदेव का आश्वासन है कि जब तक यह लक्ष पूरा न हो आएगा तब तक शरीर समाप्त न होगा।
इस साधना काल में दो बार मेरे प्राण अपनी यात्रा पूरी करने को तैयार हुए हैं, पर किसी गुप्त शक्ति द्वारा वापिस लौटा लिए गये हैं। मैं अपना प्राण ब्रह्म रंध्र में होकर ले जाना चाहता हूँ ताकि जीव ऊर्ध्व गति को प्राप्त हो, पर वह स्थिति प्राप्त नहीं हो पाई है, इसलिए शेष कमी को पूरी करने के लिए प्राण धारण किये रहना उचित प्रतीत होता है और इस पूर्ति तक के लिए मेरे गुप्त सहायक बार-बार मेरी यात्रा को रोक भी देते हैं।
गत वर्ष सितम्बर मास में मैंने मथुरा जाने का मिश्रण किया। ता॰ 17 को जाना था पर ता॰ 15 को अचानक ऐसा आकस्मिक शारीरिक आघात लगा कि लेने के देने पड़ गये। पहले दिल की धड़कन बढ़ी, फिर तीव्र ज्वर, फिर बेहोशी इठन, वेदना, का कोई ठिकाना न रहा। पसीने से सारा शरीर लथपथ हो गया। वैद्य और डॉक्टर बुलाये गये। स्थिति देख कर सभी गम्भीर हो रहे थे। मुझे स्पष्ट दीखने लगा कि अब बचना मुश्किल है। चारपाई से उठाकर जमीन पर ले लिया गया मैंने टूटे-फूटे अपने शब्दों तथा संकेतों की सहायता से गायत्री का अपना पूजा चित्र मँगाया। उसे श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया और अन्तिम विदा माँगी। प्राण वायु सारे शरीर में से एकत्रित होकर मस्तिष्क के मध्य में एकत्रित हो गई। परन्तु कई बड़े-बड़े झटके लगने पर भी वह त्रिकुटी से आगे नहीं बढ़ सकी कुछ देर अचेतन अवस्था में इसी प्रकार पड़ा रहा। फिर देखा कि जीव वापिस लौट रहा है और जिस शरीर में से खिच गया है उसमें पुनः वापिस लौट रहा है। आँखें खुली तो आकाश में गुरुदेव की प्रतिमा उड़ रही थी।
धीरे-धीरे अच्छा हो गया। अच्छा होकर मथुरा गया। मालूम हुआ कि अपूर्णता को पूर्ण करने में दूसरा जन्म लेना पड़ता और बहुत समय लग इस झंझट भरी अनिश्चितता से बचाने के लिए मुझे रोक लिया गया है। प्रभु की लीला अपार है उनकी कृपा की महिमा किस प्रकार कही जाय।
इसी बार फिर भी उपरोक्त आघात से मिलता शारीरिक आघात लगा। 15 लंघन हुए पर इस बार पहले की अपेक्षा अधिक शान्ति रही। दो बार जीवन बच गया। जो कमी थी वह सन्तोषजनक रीति से पूरी होती जा रही है बताये हम साधनों पर चलते हुए मैं ब्रह्म द्वार को खोल सकूँगा और जीवन को सार्थक कर सकूँगा ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है मुझ जैसे तुच्छ व्यक्ति को माता तार सकती है तो जो अधिक श्रद्धा और अधिक तपस्या करने वाले हैं वे भी अवश्य कर सकते हैं ऐसा निश्चित है।