Magazine - Year 1953 - Version 2
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Language: HINDI
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सम्बोधन
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मानव मानवता के दानी!!
ठोकर खाकर गिरे हुए जन को यदि तुरंत उठा न सके, तो
क्षुधा ज्वाल से पीड़ित को यदि तुम निज भाग खिला न सके तो।
पीड़ा से व्याकुल प्राणी को यदि तुम हृदय लगा न सके तो।
यदि परित्यक्त, उपेक्षित, शोषित को निशंक अपना न सके तो।
व्यर्थ तुम्हारा धन, वैभव, यश, व्यर्थ तुम्हारा कर वरदानी।
मानव! मानवता के दानी!!
सबलों से असहाय कुचलते निर्बलों को यदि बचा न पाये।
अत्याचार रहे सहते चुपचाप भीरु सा बदन छिपाये।
पिसते रहे पद दलित लेकिन उनको तुमने छुड़ा न पाया।
मानवता का पतन देखते रहे न जल आँखों में आया।
तो यह व्यर्थ तुम्हारा जीवन, निष्फल प्रतिभा, सत्ता, वाणी।
मानव! मानवता के दानी!!
नहीं हृदय में हूक उठी यदि देख भाग्य पीड़ित का क्रन्दन।
अंतस् पिघला नहीं देखकर भूखों की नंगों की तड़पन।
संघर्षों से घबराये, हतबुद्धि हुए निष्क्रिय कायर बन।
त्याग चुके कर्तव्यों, उत्तरदायित्वों को कर छोटा मन।
तो धिक्कार तुम्हारे पौरुष धिक् जीवन धिक् नई जवानी।
मानव! मानवता के दानी!!
आज्ञ बुद्धि है कुँठित, व्यापक भय, दुख तिमिर निराशा-यह क्यों?
आज धर्म क्रन्दन करता सा, आज पाप हँसता सा-यह क्यों?
लुप्त हुआ देवत्व, असुरता का जगती पर शासन-यह क्यों?
उलटी बहती है क्यों गंगा? आग उगलता है क्यों पानी?
मानव! मानवता के दानी!!
बुझे दीप फिर जलें, आज कवियों, वह दीपक राग सुनाओ!
हे वादक, सहृदयता की टूटी वीण को भी झनकाओ !
विद्वज्जनों, पढ़ाओ समता, दया, प्रेम, करुणा की गीता।
अहे चारणो ! कहो-”पाप हारा,” “पशु हारा है,” “मानव जाता॥”
उठे न्याय का खड्ग रुके शैतानी की मन मानी।
मानव! मानवता के दानी!!
(श्री लक्ष्मीनारायण जी टंडन प्रेमी, एम. ए.) *समाप्त*
(श्री लक्ष्मीनारायण जी टंडन प्रेमी, एम. ए.) *समाप्त*