Magazine - Year 1954 - Version 2
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Language: HINDI
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इस युग का यज्ञ (Kavita)
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[1]
जल जाती जिसकी वेदी पर जग में व्याप्त विषमता,
जीवन सौम्य, सरस कर देने की है जिसमें क्षमता,
अनाचार, अविचार, दुखद व्यापार जहाँ मिट जाते,
हिंसा-प्रतिहिंसा के दुर्बल भाव नहीं हैं आते,
शपथ जिसे निष्काम कर्म की, विज्ञ वही इस युग का।
जीवन को जागृति-मय कर दे, यज्ञ वही इस युग का॥
[2]
युद्ध, दमन, शोषण की जग में जली हुई है ज्वाला,
बना हुआ प्रति राष्ट्र रक्त की आहुति देने वाला,
सृष्टि-तत्व को यदि ताँडव का अभी न ज्ञान हुआ है,
व्यर्थ धर्म दर्शन संस्कृति का अनुसंधान हुआ है।
बहुत दूर है सत्य स्वयं जब शिव भय मान रहा है।
पर मेरा मनु शाँति यज्ञ का दृढ़ व्रत ठान रहा है॥
[3]
यश की मलय न मिले किंतु, संतोष सुरभि तो बिखरे,
जीवन के संघर्षों में विश्वास हृदय का बिखरे,
काँटे दूर न हों पर फिर भी हो सुमनों की रक्षा,
पथ स्वयं ही चरणों को दे लक्ष्य प्राप्ति की दीक्षा,
कर्म और फल दोनों का हो भागी करने वाला।
मानवता का अभिभावक यह जीवन-यज्ञ निराला॥
[4]
मन के कलुषित भाव स्वयं ही जल कर के मिट जायें,
मन-मरुथल में मधु से प्लावित हो सुरसरि लहराये,
मन्दिर-सा व्यक्तित्व सत्य की प्रतिमा को बिठलाये,
प्रति आगंतुक जहाँ अतिथि के सम ही आदर पाये।
स्वयं पूर्ण कर दे अभाव को जब मानस का सृष्टा।
भाव-यज्ञ के लिए चिरंतन है कवि मन की निष्ठा॥
*समाप्त*
(श्री शिवशंकर जी मिश्र एम. ए.)
(श्री शिवशंकर जी मिश्र एम. ए.)