Magazine - Year 1956 - Version 2
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Language: HINDI
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भरत की अन्तर्भावना (Kavita)
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ऐश्वर्य, विभव, राज्याधिकार। तुझमें शाबित सारे विकार॥
प्रभुता-मद से भर जाता मन, भाई-भाई होता दुश्मन।
पति-प्राण ही जीवन हरती, खो देती सारा प्रेम प्यार॥ ऐश्वर्य॰॥
वात्सल्य सुधा की धारा ही, विष-अर्णव बनती सारा ही।
हित सुन उपहार लुटाती जो, उनका खो जाता है दुलार॥ ऐश्वर्य॰॥
वदनाम्बुज लख हर्षाती है, राजा हों राम मनाती है।
वेंसी माता ही घोर विपिन में, भेज रही हर्षित अपार॥ ऐ॰॥
जिसने तुझको ठुकराया है, तेरे हित क्षोभ न माया है।
उनकी पावन पादुका आज, तेरे शिर पर शोभित उदार॥ ऐ॰॥
उनका ही छोटा भाई हूँ, प्रण पालक का अनुयायी हूँ।
उस पर ही मोहावरण डाल, क्या चाह रहे हो विजय-हार॥ ऐश्वर्य॰॥
यह अलक जाल भी जटाजूट, शय्या कुश की साँथरी पूत।
वल्कल को धारण करता हूँ, राज्याभूषण देता उतार॥ ऐश्वर्य॰॥
षट्रत्न व्यञ्जन का सरस स्वाद, उस की भी होगी नहीं याद।
बिन स्वाद लिये ही खा लूँगा, फल-फूल-कंद बस एकबार॥ ऐ॰॥
नारी के संग तपस्या सह, चाहे हो काम वेग अहरह।
जीवन को परिपावन रखकर-प्रिय को सुमिरुंगा बार-बार॥ ऐ॰॥
सियाराम वियोग ज्वलित तन मन, माता, गुरु देव, सखा-परिजन।
उन की सेवा में रत रह कर कर लूँगा चौदह वर्ष पार॥ ऐश्वर्य॰॥
उनका है राज्य इसी कारण, लग जायेगा जीवन का क्षण।
पर पद्म-पत्र ज्यों करते हैं, पंकिल जल में भी नित विहार॥ ऐश्वर्य॰॥
शुभ, विमल पादुका साया से, मुझको भय लोभ न माया से।
मद-काम-क्रोध, ईर्ष्या अनोक, चाहे करले कितना प्रसार॥ ऐ॰॥
*समाप्त*