Magazine - Year 1956 - Version 2
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Language: HINDI
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मनुष्य के चार महान गुण
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(श्री बालकृष्ण)
प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो ने अपनी पुस्तक ‘रिपब्लिक’ में इन चार गुणों का वर्णन किया है—बुद्धिमत्ता, अभय, संयम और न्याय। उसने लिखा है कि जिस पुरुष में जितनी मात्रा में इनमें से जो-जो गुण विद्यमान होते हैं वह उतनी ही मात्रा में नेक अथवा उत्तम होता है। प्लेटो के लिखने के पश्चात् यूरोप के विचारशील विद्वानों ने इन गुणों को अपने विचार की कसौटी पर परखा और अपनाया। इस प्रकार इन गुणों का यूरोप में इतना मान और प्रचार हुआ कि यूरोप की जनता में ये चार गुण चार महान् गुण के नाम से विख्यात हुए। ईसाई धर्म ने इनके विपरीत धर्म और भक्ति के तीन गुण श्रद्धा, आशा और दान को महानता प्रदान की है। लेकिन राजनीतिक क्षेत्र में और साँसारिक प्रगति के उसूलों के अनुसार पश्चिम के विचारकों ने इन तीन ईश्वर-ज्ञान-विषयक गुणों की अपेक्षा उपर्युक्त चार को अधिक महान् माना है।
बुद्धिमत्ता
अब हम सर्वप्रथम बुद्धिमत्ता अथवा बुद्धि चातुर्य के विषय में कुछ लिखते हैं। प्लेटो ने भी अपनी कृति में अन्य गुणों की अपेक्षा सर्वप्रथम इसी का विवेचन किया है। इससे प्रकट होता है कि वह अपने विचार में इस गुण को सबसे विशिष्ट समझते थे। संसार में जिस मनुष्य ने भी महानता प्राप्त की है उसमें अन्य किसी भी विशेषता के साथ यह गुण प्रचुरता से विद्यमान था। प्लेटो ने लिखा है कि शासकों को यह गुण प्रचुरता से विद्यमान था। यह गुण अवश्य प्राप्त करना चाहिए।
प्रश्न यह है कि बुद्धिमत्ता किसे कहते हैं तथा यह कैसे प्राप्त होती है? मनुष्य में अन्य प्राणियों की अपेक्षा यह विशेषता है कि उसमें ईश्वरप्रदत्त बुद्धिशक्ति होती है। इसी बुद्धि के विकास तथा प्रौढ़ता को बुद्धिमत्ता कहते हैं। इस विकास और प्रौढ़ता के प्राप्त होने पर मनुष्य में अपनी आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक समस्याओं को समझने तथा उनका समाधान सोचने की शक्ति आती है, जीवन के विविध अंगों के विषयों में मन में एक सामंजस्य उत्पन्न होता है, तथा न केवल मनुष्य अपने विपक्षी-दल के षड़यंत्रों से अभिभावित नहीं होता बल्कि दुष्टों को अभिभूत करने की भी शक्ति उसमें उत्पन्न होती है। इसी भाव को लक्ष्य में रखकर हितोपदेशकार ने कहा है- ‘बुद्धिर्यस्य बलं तस्य निर्बुद्धेस्तु कुतो बलम्’ अर्थात् जिसमें बुद्धिमत्ता होती है उसी में बल होता है, बुद्धिहीन मनुष्य में बल कहाँ से आया।
अब प्रश्न रह जाता है कि यह बुद्धिमत्ता कैसे उत्पन्न होती है? जैसा कि हमने ऊपर निर्देश किया है, यह बुद्धि के विकास और प्रौढ़ता का परिणाम है। अतः हमें यह जानना होगा कि बुद्धि का विकास कैसे होता है और उसमें प्रौढ़ता कैसे उत्पन्न होती है। उत्तर है कि यह स्थिति प्राप्त होती है एक तो संसार की श्रेष्ठ कृतियों के अध्ययन से और दूसरे बुद्धिमान् पुरुषों के संपर्क से। भर्तृहरि ने कहा है—‘सत्संगतिः कथय कि न करीरि पुँसाम्’ अर्थात् कहो कि सत्संगति से मनुष्य क्या लाभ नहीं कर सकता अर्थात् सब कुछ लाभ कर सकता है।
कामनसेंस अर्थात् सामान्य समझ की संसार में बहुत प्रशंसा है। यह मनुष्य में जन्म−जन्मांतर के कर्मों और संस्कारों से फलीभूत होती है, जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य का बिना प्रयत्न और विचार किए स्वाभाविक रूप से हितकर और अहितकर का ज्ञान रहता है। इसके विपरीत बुद्धिमत्ता का उद्भव प्रयत्न और बुद्धि के श्रम से होता है, जिससे मनुष्य में अर्थ-अनर्थ, बल-अबल, नय-अनय तथा धर्म-अधर्म का विवेक उत्पन्न होता है। शासक में यदि यह स्वाभाविक समझ तथा प्रयत्नोत्पादित शिक्षित बुद्धिमत्ता विद्यमान हो तो उसे उत्तमोत्तम शासक बनने के लिए किसी गुण के अवलम्बन की इतनी आवश्यकता नहीं रहती।
अभय
अभय नाम के दूसरे गुण की परिभाषा करते हुए प्लेटो ने कहा है कि शिक्षा (काव्य, नाच, गाना, तथा शारीरिक व्यायाम आदि) के द्वारा सिपाहियों तथा नागरिकों के मन में यथार्थ और मिथ्या भय के साधनों के विषय में ऐसा दृष्टिकोण उत्पन्न कर देना चाहिए जो कि सुख, रंज, भय तथा इच्छा से विनष्ट न हो सके। हमारे विचार में इस प्रकार के विवेक से मिथ्या भय तो स्वतः ही लुप्त हो जाता है तथा यथार्थ भय के प्रतीकार के लिए और शिक्षा का आयोजन भी करना चाहिए जिससे कि सिपाही और नागरिक किसी वास्तविक भय के कारण अभिभूत न होकर उसको अभिभूत करना सीख सकें और यदि कभी ऐसी वस्तुस्थिति उपस्थित हो तो निर्भय होकर उसका सफलतापूर्वक प्रतिकार कर सकें। प्लेटो ने सैनिकों के लिए इस गुण की सर्वाधिक महत्ता बताई है। गत स्वातन्त्र्य-युद्ध में महात्मा गाँधी ने भी भारतवासियों में यही भावना अनवरत रूप से परिपूर्ण करने की चेष्टा की थी। उन्होंने कहा था कि अंग्रेजी शासन का भय हृदय से सर्वथा दूर कर हमें अपने कर्तव्य का परिपालन करते हुए और भारत का हित हृदय में रखते हुए विदेशीय शासन के साथ सहयोग बंद कर देना चाहिए तथा भयवश अंग्रेजी शासन की स्वार्थसाधक चेष्टाओं में सम्मिलित नहीं होना चाहिए। भय के कारण मनुष्य प्रायः बहुत अनर्थों का मूल बनता है। मिस्टर चर्चिल ने अपनी एक प्रसिद्ध नामक पुस्तक में लिखा है कि पश्चिम में अभय गुण को सर्व गुणों में विशिष्ट समझा जाता है और यह सबसे महान् गुण है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी दैवी सम्पत्ति की व्याख्या करते हुए सर्वप्रथम अभय का ही वर्णन है। अभय के बिना शासक राजनीतिक कर्म में और सिपाही युद्ध में अग्रसर नहीं हो सकते और नहीं नागरिक अपने नागरिकता-सम्बन्धी कर्तव्यों का यथेष्ट पालन कर सकते हैं। अभय के होने से मनुष्य के भयजनित सर्व अनर्थों का नाश हो जाता है। भय से मनुष्य की धार्मिक भावनाएं नष्ट हो जाती है, नैतिक पतन हो जाता है, परतंत्रता आती है, अधिक हानि होती है, बुद्धि नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है तथा सुख समाप्त हो जाता है। मैक्यावेकी ने लिखा है कि किसी भी पुरुष को अभिभूत कर उससे अपना स्वार्थ सिद्ध करने का सर्वोत्तम उपाय है उसे अपने से भयभीत कर देना। अतः मनुष्य को अभय गुण प्राप्त कर भय का प्रतीकार करना चाहिए।
संयम
प्लेटो ने तीसरा गुण संयम माना है। इसका अनुवाद मनोनिग्रह अथवा आत्मवश्यता भी हो सकता है परिभाषा करते हुए प्लेटो ने लिखा है कि मनुष्य की आत्मा के दो भाग होते हैं- एक उत्तम तथा दूसरा अधम। जो मनुष्य अपने सुखों और इच्छाओं को संयत करके अपनी आत्मा के अधम भाग को उत्तम भाग के अधीन कर देता है वह मनुष्य संयमी और आत्मवान् कहलाता है तथा जिस मनुष्य में बुरी शिक्षा और कुसंग के कारण मन का उत्तम भाग अधम से अभिभूत होता है उसे अपने मन का गुलाम तथा उसूलरहित कहा जाता है। इससे आगे प्लेटो ने लिखा है कि एक देश के उच्च शिक्षा युक्त तथा अच्छे घरों में उत्पन्न हुए लोगों में यह गुण अधिक मात्रा में होता है तथा बच्चों, स्त्रियों, नौकरों तथा निम्न स्तर के लोगों में कम मात्रा में होता है। संयत पुरुषों की इच्छाएं सरल और थोड़ी होती है और बुद्धि और विचार के अनुसार उदित और विलीन हो सकती हैं। इसके विपरीत असंयत पुरुषों में बहुत सारे उलझे हुए सुख, दुःख और इच्छाएं वर्तमान होते हैं। संयम का गुण देश की समस्त जनता अर्थात् शासक वर्ग, सिपाहियों तथा नागरिकों के लिए समान रूप से आवश्यक है।
अतः उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि संयम नामक गुण का अर्थ है मन को बुद्धि के अधीन कर देना और इस प्रकार की अधीनता से मनुष्य की इन्द्रियाँ स्वतः ही उसके वश में हो जाती हैं। कोटिल ने शासक के लिए आन्वीक्षि की विद्यापरिशीलन का फल प्रायः संयम-लाभ बताया है और इस गुण की महानता का वर्णन करते हुए लिखा है कि जिस मनुष्य की इन्द्रियाँ और मन वश में है वह सारे संसार का राज्य कर सकता है। इसके विपरीत असंयम की हानियाँ पाठकों को अच्छी तरह विदित है। जीवन असंयत होने से मनुष्य का स्वास्थ्य नष्ट हो जाता है, चाल-चलन दूषित समझा जाता है, तथा अंत में धन और राज्य तक नष्ट हो जाते हैं। इतिहास में बहुत से ऐसे शासकों के उदाहरण विद्यमान हैं जो संयम के अभाव के कारण अपने राज्य से वंचित हो गए। महाभारत में महाराज नहुष का उदाहरण इस दृष्टि से शिक्षा लेने योग्य है। इसके विपरीत राजा जनक तथा महाराजा रामचन्द्रजी के उदाहरण संयमित जीवन के मूर्तिमान रूप है।
न्याय
चौथा और अन्तिम गुण न्याय है। प्लेटो ने न्याय की परिभाषा करते हुए केवल मजिस्ट्रेट अथवा जज को न्याय और अन्याय का विधायक नहीं माना है, बल्कि जो पुरुष दंडयोग्य अपराध करता है उसके उस अपराध करने को भी अन्याय माना है। इसके अतिरिक्त जिस किसी आचार अथवा कानून से देश का अहित होता है प्लेटो ने उसे भी अन्याय माना है तथा लिखा है कि यह गुण ऊपर वर्णित शेष तीन गुणों की मूल भित्ति है अर्थात् कहीं पर भी उपयुक्त तीन गुण तभी विद्यमान हो सकते हैं जब कि वहाँ यह चतुर्थ गुण अर्थात् न्याय पहले से विद्यमान हो, लेकिन कहीं पर उपर्युक्त तीन गुण न होने पर भी यह चतुर्थ गुण विद्यमान हो सकता है और अपनी सत्ता से अन्य तीनों के भी उदय का कारण बन सकता है। प्लेटो के मतानुसार यह चतुर्थ गुण किसी भी देश के शासक और शासित अथवा समस्त जनता में समान रूप से वर्तमान होना चाहिए। प्लेटो ने लिखा है कि इस गुण से मनुष्य में उत्तमता और सामाजिकता दोनों विशिष्टताएं आती हैं, क्योंकि यदि मनुष्य अपने समाज के दूसरे मनुष्यों के प्रति न्यायानुकूल संयम युक्त व्यवहार न करे और अपनी शक्ति के अनुसार अपने स्वार्थानुकूल सब कर्म सम्पादन तथा लाभ प्राप्त करने में लग जाए तो कोई भी समाज स्थिर नहीं रह सकता।