Magazine - Year 1960 - Version 2
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Language: HINDI
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जागरण का शंख (kavita)
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आज संस्कृति की रक्षा, हित, नूतन पाठ पढ़ाना है।
मर-मर कर जीना क्या जीवन? हँस-हँस कदम बढ़ाना है॥
उठो, सुप्त ओ ऋषि सन्तानों! निशि गत हुई-भोर आया।
देखो नव-प्रकाश ऊषा का, जो है पूर्व ओर छाया॥
पशु-पक्षी सब सजग हो उठे, छेड़ मधुर प्रेरक, गाने।
कृषक श्रमिक सब श्रम-पूजा हित प्रस्थित हुए लक्ष्य पाने॥
जगो, नया विश्वास हृदय ले, जग को तुम्हें जगाना है।
कुपथ छोड़, सद्पथ संस्कृति को, फिर से तुम्हें दिखाना है॥
निज अतीत की ओर निहारो, सोचो तनिक विचार करो।
त्याग, दया, ममता, करुणा शुचि, बुद्ध देव-सी हृदय घरो॥
शरणागत-वत्सल ‘शिवि’ का क्या नाम भूल ही जाओगे?
‘रन्ति देव’ की अतिथि-अर्चना, सहज भूल क्या पाओगे?
ध्रुव सी निष्ठा, भागीरथ सा यत्न सदैव सिखाना है।
गुरु गोविन्द सुबन सी श्रद्धा, देकर प्राण निभाना है॥
आज विषमता खड़ी हुई है दिखा भयावह अपना रूप।
और स्वार्थ के वशीभूत हो मनुज पड़ा है अन्धे कूप॥
कैसे हो तम दूर पंथ का, सतयुग का सुन्दर निर्माण?
दीप बुझ गये बिना स्नेह के, जग का जीवन है त्रियमाण!!
गाकर दीपक राग, बुझे दीपों को पुनः जलाना है।
अंजनि-नन्द-सा-श्रमकर, सीता की सुधि फिर लाना है॥
दिव्य-संस्कृति के मन्दिर का, शिलान्यास करना होगा।
बलि-वेदी को आज विहँस, सिरःसुमनों से भरना होगा॥
गिर-गिर कर उठ, सँभल-सँभल, गिरि शृंगों पर चढ़ना होगा।
लक्ष्य-पूर्ति-हित कंटक पथ पर, साहस ले बढ़ना होगा?
शंख जागरण का अब फिर से, मिलकर तुम्हें बजाना है।
नये राष्ट्र की नई मूर्ति को, मिलकर आज सजाना है॥
*समाप्त*