Magazine - Year 1969 - Version 2
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Language: HINDI
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अगले दिन सौम्य समता की प्रतिष्ठापना होनी ही है
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अलग होने से वे वर्ग, वर्ण, भाषा, देश, सम्प्रदाय आदि के आधार पर बने छुट-पुट संगठन परस्पर टकराते रहे और विभीषिकाएँ उत्पन्न करते रहे। सच्चा और स्थिर लाभ तो तभी हो सकता था जब वे समग्र रूप से एक आधार पर संगठित होते। समय आ गया कि अब उस भूल का परिमार्जन परिष्कार किया जाय।
युग-निर्माण योजना के अंतर्गत प्रबल प्रयास यह किया जा रहा है कि समस्त मानव-जाति का प्रेम, सौजन्य, सद्भाव, आत्मीयता, समता, ममता आदि उच्च अध्यात्म आदर्शों की आधार शिला पर एकत्रित और संबद्ध किया जाय। सारा विश्व एक कुटुम्ब बने। मनुष्य मात्र में आत्मीयता और उदारता की प्रवृत्ति जगे और लोग एक दूसरे को सुख-सम्पन्न बनाने के लिये अपने स्वार्थों, सुविधाओं एवं विकास उन संकीर्णताओं का नष्ट करेगा जिसके कारण मानवीय शक्तियों का पिछले दिनों घोर दुरुपयोग होता रहा है। गायत्री महामंत्र के तत्त्व-ज्ञान को विकसित कर हम सार्वभौम विवेक को जागृत करने चले हैं। विश्वास करना चाहिये कि विवेकशीलता जैसे-जैसे विकसित होगी, भिन्नताओं की भाषा में सोचने की अपेक्षा मानव मस्तिष्क एकता के आधार ढूंढ़ेगा और अपने प्रसुप्त साहस को जमा कर विश्व-बन्धुत्व के-वसुधैव कुटुम्बकम् के लक्ष्य को प्राप्त करके रहेगा।
युग-निर्माण के चार आधारों में प्रथम था एकता। जिसका उपरोक्त पंक्तियों में और पिछले अंक में कुछ चर्चा की जा चुकी है। दूसरा आधार है-समता एकता की भाँति ही हमें सार्वभौम समता के लिये प्रयत्न करना है। मनुष्य-मनुष्य के बीच जो आकाश-पाताल जैसा अन्तर आज दिखलाई पड़ रहा है उसे मिटाने और घटाने के लिए हमें साहसपूर्ण कदम बढ़ाने होंगे। असमानता, ईर्ष्या और द्वेष उत्पन्न करती है। उससे गिरे हुये वर्ग में हीनता, दीनता एवं पतनोन्मुख प्रवृत्तियाँ बढ़ती है और उठे हुए वर्ग में विलासिता, अहंकार, लोभ एवं अनुदारता जैसे दोष-दुर्गुण बढ़ते चले जाते है। असमानता इतनी ही सह्य और क्षम्य है जितनों हाथ की पाँच उँगलियों में होती हे। परिस्थिति और आवश्यकता में अन्तर होने से मनुष्यों का स्तर थोड़ा नीचा-ऊँचा भी रखा जा सकता है पर उसकी वैसी अति नहीं होनी चाहिये जैसी आज है। असमानता ने मनुष्य जाति के बीच भारी खाई उत्पन्न की है और एकता की जड़ पर भयानक कुठाराघात किया है। ईर्ष्या और द्वेष की आग भड़काने का युद्ध और संघर्षों की विभीषिकाएँ उत्पन्न करने का-अपराध और पाप बढ़ाने का कारण यह असमानता ही है, जिसने एक ही समाज को असंख्य गुटों में विभक्त किया और अगणित प्रकार की विकृतियाँ उत्पन्न करके सरल-सौजन्य को बेहतर कुचल-मसल डाला। सभी मनुष्य, भगवान् के समान प्रिय पुत्र है। सभी के कर्तव्य और अधिकार एक से है। सभी की प्रकृति प्रदत्त अनुदानों का समान रूप से लाभ उठाने का अधिकार है। असमानता प्राकृतिक नहीं हैं, ईश्वर प्रदत्त नहीं है। उसका सृजन मानवीय दुष्टता और दुर्बुद्धि ने किया है। समय आ गया कि उस भूल को सुधार कर हम खाई पाटें और पुल बाँधें।
इन दिनों मनुष्य-मनुष्य के बीच असमानता जिन आधारों पर उपस्थित है उनमें प्रमुख यह हैं (1) जाति, (2) लिंग, (3) धन, (4) पद। हमें विचारना होगा कि क्या प्रचलित मान्यतायें सही है? यदि वे अनुपयुक्त, अनावश्यक, असत्य सिद्ध होती है तो विवेक का तकाजा यही है कि बिना पूर्ण मान्यताओं का मोह किये उन्हें हटाने के लिये तत्पर हों और समता की वह प्रक्रिया कार्यान्वित करे जिससे प्रेम और प्रसन्नता की, सुख और सन्तोष की धारा वह चले।
जिस युग-निर्माण आन्दोलन के लिए हमारी जीवन साधना रही है-जिसके लिये हम जलते और तपते रहे हैं-जिसके लिये अपने समस्त साधनों को प्रयुक्त कर रहे हैं और जिसके लिये जीवित हैं उसका दूसरा चरण समता ही हैं। असमानता निस्सन्देह अस्वाभाविक और अवांछनीय हैं। जब तक वह विद्यमान् है संसार में अशान्ति ही रहेगी। अज्ञान और अन्याय का सम्मिश्रित स्वरूप असमानता के रूप में प्रकट होता है। इस दो जीभ वाली विश्व विभीषिका को आस्तीन में छिपी सर्पिणी की तरह साथ रख कर हम चैन से नहीं बैठ सकते।
गाय, घोड़ा, बन्दर, तीतर, कबूतर, मोर आदि पशु-पक्षियों की तरह मनुष्य की भी एक जाति है। ऋतु और परिस्थिति के कारण उनके रंग-रूप में आकृति-प्रकृति में थोड़ा अन्तर हो सकता है पर उससे उसके स्तर में कोई अन्तर नहीं आता। भेड़ों की आकृति रंग-रूप में थोड़ा अन्तर हो सकता है, पहचानने के लिये उनके नाम भी काली भेड़, सफेद भेड़ आदि हो सकते हैं पर इससे उनके दर्जे में कोई अन्तर नहीं आता। मनुष्य भी एक प्राणी है और उस प्रकार के समस्त जीवों की एक ही जाति एवं स्थिति हैं। काले, गोरे और पीले रंगों के कारण आज संसार में बड़ी असमानता फैली है। गरम देशों में जन्मे लोग काली चमड़ी के होते हैं। ठण्डे देशों में जो पैदा होते हैं वे गोरे होते हैं। मध्य एशिया के मंगोल नस्ल के पीले रंग तिरछी आँखों और चपटी नाक वाले पाये जाते हैं। यह रंग-भेद केवल उत्पत्ति स्थान की जलवायु का अन्तर मात्र बताता है। किन्तु इस आधार पर उनके स्तर को नीचा-ऊँचा नहीं माना जा सकता। गोरे लोग, काली चमड़ी वालों को अपने से केवल रंग के आधार पर नीचा समझे, उनसे घृणा करें, दूर रखें और सार्वभौम मानवीय अधिकारों से उन्हें वंचित करें यह अन्याय हैं। संसार में गोरे-काले और पीले के रंग भेद को लेकर नीच-ऊँच की मान्यता बुरी तरह फैली हुई हैं। दक्षिण अफ्रीका के मूल निवासियों तथा भारतीयों के साथ वहाँ के निवासी गोरे जो नीच-ऊँच की असमानता फैलाये हुये थे उसके विरुद्ध महात्मा गाँधी ने सत्याग्रह चलाया था। अमेरिका में अभी भी चोर संघर्ष हो रहा है। राष्ट्र-संघ ने तथा विश्व के सभी विचारशील लोगों ने इस वर्ण भेद को अन्यायमूलक और अवांछनीय घोषित किया हैं। अब्राहम लिंकन, केनेडी, लूथर किंग आदि गोरे विचारकों ने आगे बढ़कर अपने वर्ग की इस संदर्भ में घोर निन्दा की ओर प्रतिरोध में भारी त्याग भी किये। फिर भी गोरों का आग्रह अपनी सफेद चमड़ी के आधार पर उच्चता सिद्ध करने की ही है और यह दुराग्रह अभी भी संसार के अनेक भागों में द्वेष और अशान्ति फैलाये चले जा रहे हैं। आशा करनी चाहिये कि इस अन्याय और दुराग्रह का एक दिन अन्त हो होकर रहेगा। विवेकवान् मनुष्य निकट भविष्य में ही यह अनुभव करने लगेगा कि चमड़ी के रंग पर आधारित नीच-ऊँच की मान्यता अनुचित थी। और न्याय एवं सचाई का यह दबाव अन्ततः पड़ेगा ही कि जो अनुचित है उसे इच्छा या अनिच्छा से छेड़ देने के लिये विवश किया जाय।
संसार में अन्यत्र तो गोरी-काली चमड़ी के आधार पर यह वर्ण भेद की निन्दनीय असमानता चल रही है पर भारतवासियों ने तो इस दिशा में गज़ब ही कर दिया है। एक ही परम्परा, एक ही रक्त, एक ही वशं, एक ही रंग के लोग कल्पित जाति-पाँति के आधार पर एक दूसरे की नीच-ऊँच मानने लगे हैं। और इस विषमता की अति इस सीमा तक पहुँच गई है कि तथाकथित नीची जाति वालों को छूते, पास बिठाने तक में इनकार करते हैं और मानवीय सामाजिकता के सामान्य शिष्टाचार एवं अधिकार तक से इनकार करते हैं। संसार का विचारशील वर्ग इस प्रकार के व्यवहार की अनीति एवं दुष्टतापूर्ण ही मानता है। आदर्शवादी, धार्मिक और आध्यात्मिक कहे जाने वाले हिन्दू समाज के माथे पर एक अति व्यंग और उपहास भरा ऐसा लाँछन हे जिसने उसकी गरिमा का मूल्य बुरी तरह गिरा दिया है।
किसी समय चार वर्णों का सृजन गुण, कर्म, स्वभाव के आधार पर व्यवसायों के विभाजन की दृष्टि से किया गया था, उस व्यवस्था के निर्माताओं ने यह कल्पना तक नहीं को थी कि कोई ऐसा भी समय आ सकता है जब लोग इस विभाजन की जन्म, वंश के आधार पर मानने लगेंगे और इन वर्णों के बीच ऊँच-नीच की मान्यता चल पड़ेगी वह कल्पनातीत अनहोनी आज हो रही है। सवर्ण और हरिजनों के बीच हो यह खाइयाँ नहीं है। स्वयं सवर्ण, सवर्ण के बीच और छूत-अछूत के बीच जातियों और उपजातियों के आधार पर यह ऊँच नीच की मान्यता बुरी तरह पनप रही हे। एक ही जाति के लोग अपनी उपजातियों को ऊँचा-नीचा मानते है। एक ही उपजाती के लोग अपने में ‘विश्वा’ आदि का निराधार मान्यतायें सोच कर नीच-ऊँच बन बैठे है। एक अछूत दूसरी जाति के अछूत के साथ ऊँच-नीच अपनाये बैठा है। इस प्रकार जातियों और उपजातियों में बटा हुआ भारतवर्ष-हिन्दू समाज-बुरी तरह से विलगाव के रोग से ग्रसित हर दृष्टि से दीन-दुर्बल होता चला जा रहा है। देखने भर के लिए हम एक है पर नारंगी के भीतर जिस प्रकार टुकड़े-टुकड़े के भीतर छोटे टुकड़े उभरे रहते है उसी प्रकार हम जातियों-उपजातियों और नीच-ऊँच की मूढ़ मान्यताओं में बुरी तरह चिपके हुए है। उसका दुष्परिणाम जातीय जीवन की अस्त-व्यस्तता फूट और पृथकता के रूप में तो देखा ही जाता है। सबसे बड़ी कठिनाई विवाह-शादी में होती है। अपनी ही उपजाती को संकीर्ण परिधि में अच्छे लड़की-लड़के मिलते नहीं तो दहेज और कन्या-विक्रय जैसी दुष्टताएँ पनपती है। आर्थिक स्थिति नष्ट होती है और उपयुक्त जोड़े न मिलने से दाम्पत्य जीवन विषम बनते हैं। ढूँढ़-खोज में अनावश्यक समय और शक्ति खर्च होती है, अकारण परेशानी बढ़ती है सो अलग। यह विष राजनीति तक में प्रवेश कर चुका है और अब चुनावों में जीतने के लिये जाति-पाँति के आधार पर वोटरों का समर्थन प्राप्त करना एक प्रमुख तथ्य बन गया है। यह परिपाटी प्रजातन्त्र के मूल आधार को ही नष्ट करने आ रही है। भीतर ही भीतर जो दुर्बुद्धि पनप रही है उससे देश के टुकड़े-टुकड़े हो जाने-गृह-युद्ध खड़ा हो जाने-तथा जातीय जीवन की एकता नष्ट हो जाने का पूरा खतरा मौजूद है।
इस प्रकार की असमानताओं का अन्त करके ही उस नये युग का सूत्रपात किया जा सकेगा जिसके चार चरणों में ‘समता’ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वसुधैव कुटुम्बकम् के आदर्श से इस प्रकार की पृथकताओं और असमानताओं का कोई तालमेल नहीं। दोनों ही साथ-साथ नहीं चल सकती। अन्धकार और प्रकाश साथ-साथ नहीं रह सकते। विश्वबन्धुत्व और विश्व-कुटुम्ब कर परिपाटी अपनाने के सत्परिणामों से लाभान्वित होना है तो वर्ण भेद की अनीति और अज्ञान मूलक कड़ियों से चिपका नहीं रहा जा सकता। रंग-भेद वर्ण-भेद जाति भेद, ऊँच-नीच की मूढ़तायें क्रमशः हमें घटानी और हटानी ही पड़ेगी। मनुष्य जाति एक है। इन एकता में जाति-पाँति की-वर्ण भेद की असमानता बुरी तरह अवरोध उत्पन्न कर रही है। आज नहीं तो कल इसे छोड़ना ही होगा। परिस्थितियाँ इसके लिये विवश करेंगी। समझदारी कस तकाजा उदारता और व्यापकता और व्यापकता बनाने का हैं। संकीर्णता की परिधि में आगे बढ़ना ही होगा। आज भले ही यह बात गले न उतरे पर कल तो यह एक अनिवार्य आवश्यकता अनुभव होगी। जातीय जीवन में मनुष्य मात्र के नैसर्गिक और नागरिक अधिकारों को सम्मान के स्तर पर मान्यता देनी होगी। अच्छा हो कि विवशता आने से पूर्व उसे हम विवेकशीलता के आधार पर ही स्वीकृति और सहमति प्रदान करें।
असमानताओं में दूसरी असमानता लिंग भेद की है। नर-नारी के बीच पिछले सामन्तवादी अन्धकार युग में आकाश-पाताल जैसी खाई उत्पन्न हो गई थी। वह धीरे-धीरे कम तो हो रही है पर अभी वह मूढ़ता अवांछनीय रूप में विद्यमान् है। पिछले दिनों तो नारी का मूल्य भेड़-बकरी जितना रह गया था। उन्हें दान कर या बेच देने में कुछ भी अनुचित नहीं माना जाता था, पति कभी भी पत्नी का परित्याग कर सकता था। पशुओं के मुँह पर नकाब नहीं चढ़ाये जाते पर स्त्रियाँ मुँह पर नकाब चढ़ाकर पुरुषों के आगे निकल सकती थीं। पति के मर जाने पर स्त्रियों के आजीवन वैधव्य या सती बनकर जल जाना ही मार्ग था पर पुरुष पत्नी के मरने के बाद ही नहीं, उसके जीवित रहते हुए भी अनेकों पत्नियाँ रख सकते थे। पत्नी के दुराचारिणी होने पर उसको हत्या तक कर दी जाती थी पर पति खुले आम वैसा ही दुराचरण करने के लिये स्वतन्त्र थे। उत्तराधिकार से पत्नियाँ वंचित थीं। कन्या का जन्म दुर्भाग्य और पुत्र का जन्म सौभाग्य माना जाता था, वधू तब स्वीकार की जाती थी जब वह अपने पिता की सारी सम्पत्ति भी दहेज में लेकर आवे। कम दहेज मिलने पर मर्मान्तक प्रताड़नायें अभी वधुओं को सहनी पड़ती हैं। शिक्षा से, स्वावलम्बन से उन्हें वंचित रहना पड़ता था। एक तरह से अपाहिज एवं घर के पिंजड़े में बन्द पंछी जैसी स्थिति उनकी थी। यद्यपि समय ने थोड़ा सुधार किया है। बड़े नगरों में अपेक्षाकृत स्थिति कुछ अधिक सुधरी है पर पिछड़े हुए देहातों में तो अभी भी वही दुर्दशा हैं।
नर और नारी-दो घटकों से मिलकर समाज बना है। दोनों की ही स्थिति समान है। गाड़ी के दो पहियों की तरह दोनों की स्थिति-उपयोगिता-कर्तव्य एवं अधिकार समान हैं। इनमें से न कोई महत्त्वहीन है और न महत्त्वपूर्ण न्याय की पुकार है कि दोनों को अपने व्यक्तित्व समान रूप से विकसित करने का अवसर मिले। दोनों के लिये नियम, कर्तव्य, कानून एवं अधिकार एक हैं। यदि घूँघट मारना, पर्दा करना अच्छी बात है तो वह पुरुषों और स्त्रियों पर समान रूप से प्रयुक्त कराया जाय। पतिव्रत धर्म की तरह पत्नीव्रत भी आवश्यक है। पर्दा करके स्त्रियाँ पतिव्रत धर्म बचा सकती हैं तो पुरुषों के लिए भी वैसी ही व्यवस्था कर के पत्नीव्रत धर्म का पालन कराया जाना चाहिये। स्त्रियाँ पति के साथ सती होती हों तो पतियों को भी ठीक वैसा ही अनुकरण उपस्थित करना चाहिये। एकांगी, पक्षपातपूर्ण कानून, प्रतिबंध न्याय की कसौटी पर खरे सिद्ध न होंगे और उनका समर्थन देर तक नहीं हो सकता। अगला समय अनीति सहन नहीं करेगा भले ही वह किसी वर्ग की क्यों न हो। राजतन्त्र समाप्त हो गये अब वर्ग तन्त्र भी समाप्त होने जा रहा है। नये युग में किसी को इस आधार पर ऊँच-नीच न माना जायेगा कि उसका अमुक वंश में जन्म हुआ है। बड़प्पन के आधार केवल गुण, कर्म, स्वभाव रह जायेंगे रंग-जाति या वंश के आधार पर किसी को न तो अहंकार करने का अवसर रहेगा और न इस कारण किसी को हीनता-दीनता अनुभव करनी पड़ेगी।
तीसरी असमानता धन के आधार पर हैं धनी और निर्धन की समानता के कारण एक व्यक्ति देवताओं जैसी सुख-सुविधायें भोगता है और अप्रत्याशित सम्मान पाता है। दूसरी ओर निर्धन व्यक्ति उच्च वस्त्र, घर, चिकित्सा, शिक्षा जैसी सुविधाओं से वंचित रह जाता है। यह विषमता न ईश्वर प्रदत्त है न भाग्य का खेल, और न पुरुषार्थ को न्यूनाधिकता पर अवलम्बित। यह समाज में प्रचलित अर्थ प्रणाली के दोषपूर्ण होने का परिणाम है। पूँजी पर व्यक्ति का अधिकार न होकर समाज का स्वामित्व हो। हर व्यक्ति को अपनी क्षमता के अनुरूप श्रम करने को बाध्य होना पड़े और आवश्यकताओं के अनुरूप साधन मिलें तो गरीब-अमीर का वर्तमान भेद देखते-देखते नष्ट हो सकता हैं और हर व्यक्ति सुख-शान्ति पूर्वक जीवनयापन की सुविधायें सहज ही पा सकता है। संग्रह पर उत्तराधिकार नियन्त्रण रहे तो एक जगह पहाड़ जैसी अमीरी-दूसरी खाई जैसी गरीबी के विक्षोभ उत्पन्न करने वाले दृश्य देखने को न मिलें। न किसी को अहंकार में उद्धत होना पड़े, न व्यसन-व्यभिचार में डूबना पड़े-न कोई दाने-दाने को मोहताज रहे और न किसी को कष्टसाध्य जिन्दगी जीने को विवश होना पड़े। निस्सन्देह प्रचलित अर्थतन्त्र आदि दोषपूर्ण हैं। उसी के कारण ठगी, चोरी, जुआ, शोषण, विलासिता आदि अगणित प्रकार के अपराध और ईर्ष्या-द्वेष के मनोविकार उत्पन्न होते हैं। इसे बदला ही जाना चाहिये।
जिन देशों ने पूँजीवाद व्यवस्था को बदल कर उसके स्थान पर समाजवादी व्यवस्था प्रचलित की है वहाँ से उपरोक्त दोष प्रायः समाप्त हो गये हैं। वहाँ हर व्यक्ति को उपलब्ध उपभोग सामग्री एवं सुविधाओं का लाभ समान रूप से मिलता है और किसी को अनिश्चित भविष्य की आशंका से संग्रह करने के लिए चिन्तित नहीं रहना पड़ता। यही प्रणाली, प्राचीन काल में प्रचलित थी। तब इसे दान पद्धति कहते थे। जो अधिक उपार्जन कर सकते थे उसका आन्तरिक उपभोग या संग्रह नहीं करते थे। वरन् सामान्य अतिरिक्तों की तरह सादा जीवन जीते हुए अतिरिक्त उपार्जन को दान रूप में लौटा देते थे। अब मनुष्य अधिक स्वार्थी, विलासी और लालची हो गया है। दान अब कर्तव्य नहीं रहा। वरन् स्वार्थ के प्रलोभन पर-यश-सम्मान के लालच पर-ही उसका लंगड़ा-लूला स्वरूप प्रचलित है। जहाँ थोड़ा-बहुत प्रचलित है भी वहाँ उसका लाभ पात्रों को नहीं कुपात्रों को मिलता है। समाज की असमानता दूर करने में उससे सहायता नहीं मिलती। वरन् एक ओर अहंकार दूसरी ओर दीनता की दुष्प्रवृत्तियाँ पनपती हैं। प्राचीन काल में ऐसा न था। तब अध्यात्मिक साम्यवाद प्रचलित था। परिग्रह के-संग्रह को-अतिरिक्त उपभोग को, विलासिता को पाप माना जाता था। अब वे परम्परायें न रहीं तो राज-सत्ता के नियन्त्रण में धन के ऊपर समाज का स्वामित्व एवं वितरण व्यवस्था रहने की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। अगले दिनों यही प्रणाली प्रचलित होगी। अर्थतन्त्र पर व्यक्ति का नहीं समाज को नियन्त्रण होना न्यायोचित हैं। मनुष्य के स्वाभाविक आदर्शों की रक्षा इसी से होगी। धरती की पीठ पर जो भी जन्मे हैं उन्हें प्रकृति प्रदत्त सुविधाओं का समान लाभ मिलना ही चाहिये। व्यक्ति की आवश्यकता और उपयोगिता को दृष्टि से अन्तर रह भी सकता है वह हाथ की पाँच उँगलियों के अनुपात की तरह इतना न्यून होना चाहिये कि उससे विकृतियाँ उत्पन्न न हों।
जिस नव युग की आराधना में हम संलग्न हैं उसकी अर्थ प्रणाली में समानता को ही आधार माना जायेगा। गरीब और अमीर दोनों का ही अस्तित्व न रहेगा। प्रस्तुत परिस्थितियों के अनुरूप साधनों के काम चलाकर हर किसी को सन्तोष करना पड़ेगा। तब लालच से प्रेरित असंख्य अपराधों की तथा ईर्ष्या-द्वेष के कारण उत्पन्न होने वाली आत्मिक अशान्ति की कोई गुँजाइश न रहेगी। न कोई निठल्ला रहेगा न किसी को बेतरह पिसना पड़ेगा। आवश्यकता इस बात की है कि हम जनसाधारण को इस अवश्यम्भावी परिवर्तन से परिचित करायें। सम्पन्न लोगों में अभी से उस व्याख्या के अनुरूप ढलने की-अनावश्यक संग्रह को उत्तराधिकारियों के लिये जोड़ने-गाँठने की ममता छोड़कर उसे उपयोगों कार्यों में खर्च कर देने की प्रवृत्ति आ जाये और राजतन्त्र का स्वरूप ऐसा बदलें जिससे आर्थिक समानता का लक्ष्य पूरा किया जाना सम्भव हो सकें।
चौथी असमानता ‘पद’ को है। प्रतिभाशाली एवं सुयोग्य व्यक्तियों को उनकी अतिरिक्त क्षमता के अनुरूप काम सौंपें जायें यह ठीक है। उन्हें अपनी ईश्वर प्रदत्त विशेषताओं और विभूतियों का लाभ जन साधारण को देते हुए अपना भाग्य सराहना चाहिये एवं महत्त्वपूर्ण कार्य करने का अवसर पाने का सन्तोष करना चाहिये। इतना ही उनके लिये काफी है। पद के कारण अत्यधिक सुविधा एवं सम्मान का मिलना गलत है। इस प्रलोभन में पद प्राप्त करने के लिये अयोग्य लोगों में भी उसके लिये लिप्सा एवं प्रतिद्वंद्विता पैदा होती है और अनेक अव्यवस्थाओं का जन्म होता है।
आज बड़े सरकारी अफसरों को जो ठाट-बाट वेतन एवं असाधारण, अस्वाभाविक, अनावश्यक सम्मान उपलब्ध होता है इससे उनका जन संपर्क एवं सेवा क्षेत्र कुण्ठित होता हैं तथा राजा-रंक जैसी खाई बढ़ती चली जाती हैं। चुनावों में खड़े होने वाले अयोग्य व्यक्तियों में उपहासास्पद प्रतिद्वंद्विता देखते ही बनती है। महन्त और मठाधीशों को अकारण जो धन-सम्मान मिलता है उससे अवांछनीय व्यक्ति ही उन पदों पर जा दीखते है। यदि उच्च पदों पर शान्त, सन्तोष एवं सेवा के अनुपात से उपलब्ध लोक-श्रद्धा मात्र क्षण ही लाभ मिले और आज जो आर्थिक लाभ, अहंकार पूर्ति के अवसर एवं यश-सम्मान पद अकारण मिलते हैं वे न मिलें तो अवांछनीय व्यक्तियों को उसके लिए धमाचौकड़ी मचाने का आकर्षण न रह जाय और केवल उदात्त व्यक्ति ही उत्कृष्ट आदर्श लेकर उन महान् उत्तरदायित्वों को अपने कंधों पर उठाने के लिये तैयार हो।
धन के द्वारा यदि सुख, साधन, सम्मान आदि न मिले तो फिर कोई धनी बनने के लिये अवांछनीय मार्ग न अपनाये। इसी प्रकार पद के कारण यदि भौतिक लाभ न मिले तो उसके लिए अवांछनीय प्रतिस्पर्धा की गुँजाइश न रहे। सुयोग्य, सेवाभावी सज्जनों के कन्धे पर ही वे उत्तरदायित्व और वे पद को गौरवान्वित करने वाले अनुकरणीय आदर्शों की स्थापना करने में समर्थ हो सकें। प्राचीन प्रणाली यही है। राजा जनक-राज्य प्रमुख तो थे पर अपनी आजीविका हल चला कर थोड़ी-सी कृषि द्वारा उपार्जित करते थे। महर्षि चाणक्य गुप्त साम्राज्य के महामंत्री थे पर वे भूतों जैसी सादगी का ही जीवनयापन करते थे पर उन्होंने अतिरिक्त सुविधायें नहीं ली थी। ईश्वरचंद्र विद्यासागर 500) मासिक वेतन पाते थे पर अपना गुजारा 50) मासिक में करके शेष धन असमर्थ छात्रों की शिक्षा व्यवस्था में करते थे। उच्च पदों के महान् उत्तरदायित्व का ठीक तरह सहन कर सकने को क्षमता इस प्रकार के उदार उच्च चरित्र व्यक्तियों में हो ही सकती है। जो लोभी, विलासी और अहंकारी बनेंगे तो उससे अन्ततः समाज का अहित ही होगा। प्राचीन काल की ब्राह्मण परम्परा की विशेषता यही है कि मूर्धन्य व्यक्तियों को-वर्चस्व सम्पन्न पदाधिकारियों का साधारण जनता के स्तर का ही नहीं वरन् उससे भी कुछ हल्का भौतिक लाभ लेकर सन्तुष्ट होना चाहिये। पदों के कारण आज जन साधारण में जो असमता, विषमता उत्पन्न हो रही है यदि वह समाप्त न की जाएगी तो हमारा नेतृत्व हर क्षेत्र में केवल अवांछनीय व्यक्ति ही करेंगे और उसका दुष्परिणाम अनन्त काल तक जनता को भोगना पड़ेगा। धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक हर क्षेत्र में पद का गौरव तभी रहेगा जब उसका भार सुयोग्य व्यक्ति वहन करें। और नैतिक सुयोग्यता की एक महत्त्वपूर्ण कसौटी यह है कि पदाधिकारी जन-साधारण को उपलब्ध होने वाली-अथवा अपने लोक कार्यों के लिए अनिवार्य सुविधाओं के अतिरिक्त व्यक्तिगत लाभ देने वाली सभी सुविधाओं से इनकार कर दे। आज पदों का वर्तमान स्वरूप असमानता फैलाने और नेतृत्व को सुयोग्य हाथों से छीन कर अयोग्य हाथों में दे देना का निर्मित बना हुआ है। वर्ण, लिंग, धन की ही तरह ही पदों का भी स्वरूप बदलना पड़ेगा अन्यथा किसी भी संस्था का स्वरूप निर्मल न रह सकेगा। अपनों से अपनी बात कहते हुये हमें इन पंक्तियों द्वारा यह स्पष्ट कर देना है कि नया युग तेजी से बढ़ता चला आ रहा है। उसे कोई रोक न सकेगा। प्राचीन काल की महान् परम्पराओं को अब पुनः प्रतिष्ठित किया जाना है और मध्यकालीन अन्धकार युग की दुष्ट विषमताओं का तिरोधान होना है। महाकाल उसके लिये आवश्यक व्यवस्था बना रहे हैं और तदनुकूल आधार उत्पन्न कर रहे है। युग का परिवर्तन अवश्यम्भावी है। हमारा छोटा-सा जीवन इसी की घोषणा करने-सूचना देने के लिये है। परिस्थिति के अनुरूप जो समय रहते बदल सकेंगे वे सन्तोष और प्राप्त करेंगे और जो बदलेंगे नहीं, मूढ़ता के लिये दुराग्रह करेंगे वे बुरी तरह कुचले जायेंगे। उनके हाथ अपयश, असन्तोष एवं पश्चाताप के अतिरिक्त और कुछ न लगेगा।
हमने अपना जीवन नव युग की पूर्व सूचना देने-महाकाल के इस महान् प्रयोजन में सम्मिलित होने के लिये प्रबुद्ध आत्माओं को निमन्त्रण देने में लगा दिया। जिस काम के लिये हम आये थे पूरा होने को है। अगले दिन उनकी प्रेरणा से एक से एक बढ़कर प्रतिभाशाली और प्रबुद्ध आत्मायें सामने आयेंगी। ये ऐसा एक व्यापक संघर्ष विश्वव्यापी परिमाण में प्रस्तुत करेगी जो असमानता के सारे कारणों को तोड़-मरोड़ कर फेंक दे और समता की मंगलमयी परिस्थितियों का शुभारम्भ करके इसी धरती पर
स्वर्ग का वातावरण सम्भव कर दिखावें।
*समाप्त*