Magazine - Year 1975 - Version 2
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Language: HINDI
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अपनों से अपनी बात - हम सब संगठन सूत्र में बँध ही जायं
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यह तथ्य हममें से प्रत्येक को भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि युग-निर्माण अभियान की सफलता असफलता पर मनुष्य जाति का भविष्य निर्भर है। मानवी सभ्यता के जीवन मरण का फैसला इन प्रयासों की सफलता असफलता के साथ जुड़ा हुआ है। इसका महत्व आज भले ही न समझा जाय पर जब कभी वास्तविकता समझने का प्रयत्न किया जायगा तो इसी निर्णय पर पहुँचना पड़ेगा कि लोक मानस को निष्कृष्टता के चंगुल से छुड़ाकर उसे परिष्कृत बनाने के अतिरिक्त कल्याण का और कोई मार्ग नहीं। भयंकर अग्निकाण्ड होने पर सबसे प्रमुख कार्य एक ही बन जाता है कि पानी से, धूल से, या जो कुछ मिल सके उसी से आग बुझाने का प्रयत्न किया जाय। छोटी-लोक-सेवा के नाम पर चल रहे उन उपहासास्पद कामों से दूर रहे जो मात्र आत्म विज्ञापन के लिए किए जाते हैं।
लोग अपनी नामवरी के लिए छुटपुट खेल खिलौने बनाने और उनसे खेलने में उलझें रहते हैं। तरह-तरह की चित्र विचित्र परमार्थ प्रवृत्तियों की हमारी सद्भावना अस्त-व्यस्त होती रहती है और वह मूल प्रयोजन भूख प्यास से मूर्च्छित पड़ा रहता है जिसके ऊपर सुख-शान्ति का समृद्धि और प्रगति का ही नहीं- समूची मानवी सत्ता का भविष्य निर्भर है। हमने अनेक बार अनुरोध किया है कि इस आपत्ति काल में अपने को अपने प्रयत्नों को बखेरें नहीं- केवल एक ही तथ्य को ध्यान में रखें- छोटी साज-सँभाल की जाती हरें और चढ़ती हुई आग की उपेक्षा की जाय तो फिर बात बनेगी नहीं।
प्रगति और समृद्धि के नाम पर अनेक क्षेत्रों में अनेक प्रयत्न चल रहे हैं। अखण्ड-ज्योति ने अपने प्रयासों को उस उद्गम पर केन्द्रित किया है जहाँ से विनाश और विकास के दोनों ही झरने फूटते हैं। विकृत चिन्तन का निवारण व जन-मानस में परिष्कृत दृष्टिकोण का प्रतिष्ठापन यही है हमारा विचार क्रान्ति अभियान- यही है इस युग का सर्वोपरि महत्वपूर्ण धर्मानुष्ठान -ज्ञान-यज्ञ। युग-निर्माण योजना इन्हीं प्रयत्नों में प्राण -प्रण से संलग्न है। उसने अपने प्रभाव क्षेत्र में एक ही बात गले उतारने का प्रयत्न किया है कि पुण्य परमार्थ की बात यदि किसी के मन में तनिक भी हो तो उसे अस्त व्यस्त दिशाओं में बखेरें नहीं केवल युग धर्म को ही प्राथमिकता दें और जनमानस के परिष्कार प्रयत्नों में विचार क्रान्ति अभियान में अपना, अपने परिवार का और समस्त मानव जाति का हित साधन देखें और इस विषम बेला में ध्यान योगी की तरह इसी एक लक्ष्य पर केन्द्रीभूत रखें।
इन दिनों हमें दो तथ्यों को अपनी मनोभूमि में अत्यधिक गहराई तक उतारना चाहिए (1) जन-मानस का परिष्कार किए बिना व्यक्ति और समाज का कल्याण सम्भव नहीं, इसलिए उसी पर आज हमारा सारा ध्यान केन्द्रित रहना चाहिए (2) इतना बड़ा प्रयोजन संघ शक्ति का उदय किए बिना और किसी तरह सम्भव नहीं हो सकता। व्यक्तिगत जीवन के सामान्य निर्वाह तक जन सहयोग के बिना सम्भव नहीं होते तो फिर युग परिवर्तन सा महान प्रयोजन तो उसके बिना सम्भव हो ही नहीं सकता। अस्तु यदि लोक मंगल की, उज्ज्वल भविष्य की कामना हो तो विचार क्रान्ति अभियान का अंग चलाना चाहिए और उसके लिए संघ शक्ति जुटाने में जन सहयोग एकत्रित करने में प्राण-प्रण से जुट जाना चाहिए।
अखण्ड-ज्योति के संचालक सूत्र अपने प्रिय परिजनों को लगभग इसी स्तर का उद्बोधन पिछले 37 वर्षों से करते रहे हैं। कभी संकेत रूप में कभी सुझाव रूप में, कभी अनुरोध रूप में कभी आदेश रूप में -परिजनों को इन्हीं तथ्यों को हृदयंगम करने के लिए कहा जाता समझाया जाता रहा है। अब वह प्रकरण इसी तरह बार-बार नहीं ठहराया जाता रह सकता कहने वाले सूत्र अपना बिस्तर समेट रहे है। अस्तु, बार -बार सुनाने का झंझट भी नहीं रहेगा। अब हमें ‘हाँ’ या “ना” में से एक का चयन कर लेना चाहिए ताकि अनुरोध और उपेक्षा का सिलसिला ही समाप्त हो जाय। दोनों पक्ष अपना मन हल्का करके निश्चित हो जाय। आशा-निराशा के झूले में झूलते रहना भी कम तक चलेगा? बात तो जमीन पर खड़े होने और कदम बढ़ाने से ही बनती है। मंजिल तो उसी से पार होती है।
इस बार किसी निर्णय पर पहुँचने का निश्चय किया गया है। पिछले अंक में गायत्री जयन्ती से गुरुपूर्णिमा तक के 18 जून से 23 जुलाई तक के 35 दिन इसी समुद्र मंथन के लिए घोषित किए गये थे। प्रत्येक परिजन से अनुरोध किया गया था कि यदि उसे अपना मिशन सचमुच ही उपयुक्त लगा हो तो सहमत रहने तक सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिए वरन् एक कदम आगे बढ़कर उसमें सहयोग का एक कण समन्वित करना चाहिए। सहमति को सक्रियता के रूप में विकसित होना चाहिए। समर्थन को योगदान के रूप में एक कदम आगे बढ़ाना चाहिए। यह अवधि उसी आत्म चिन्तन की है।
यों अब तक के युग निर्माण अभियान की सफलता में सारा श्रेय अखण्ड-ज्योति परिजनों का ही है, जिनके योगदान से संसार को आश्चर्यचकित कर देने की स्थिति तक उसने अपना वर्चस्व सिद्ध किया है । उस पर गर्व किया जा सकता है-सन्तोष नहीं। गर्व इसलिए कि इस परिवार में अनेक उच्चकोटि की आत्माएं जुटी हुई है और वे भौतिक लिप्सा से अपना मन पीछे हटाकर नवनिर्माण की युग पुकार पुरी करने के लिए बढ़ चढ़कर त्याग, बलिदान प्रस्तुत कर रहे हैं। गर्व इसलिए भी किया जा सकता है कि आज के अगणित संस्था संगठनों के बीच इतनी उत्कृष्ट जन शक्ति और कही भी तलाश नहीं की जा सकती। इतने पर भी असन्तोष इसलिए बना रहता है। उन युग सैनिकों की संख्या इतनी कम है जिसे देखकर दुख होता है। जिस उद्यान को इतने परिश्रम से इतनी आशाओं से पूरे जीवन का एकनिष्ठ तप करके सींचा गया है उसमें इतने थोड़े पेड़-पौधे इतनी थोड़ी मात्रा में फल-फूल दे सके तो यह स्थिति कष्टकर है। माली के लिए इसमें प्रसन्न होने का सन्तोष व्यक्त करने का कोई उत्साहपूर्वक अवसर नहीं है। अधिक से अधिक यह ईमानदारी से कर्तव्य पालन की बात स्मरण करके अपने मन को हल्का भर कर सकता है।
इस बार एक बार फिर पूरा साहस बटोरकर अन्तिम अनुरोध करने की बात सोची गई है और उसे पिछले अंक में व्यक्त किया गया है। कहा इतना ही गया है कि अखण्ड ज्योति परिवार का प्रत्येक परिजन अपने दैनिक आवश्यक एवं व्यक्तिगत कामों में एक महत्वपूर्ण कार्य युग साधना को भी सम्मिलित कर लें। उसे व्यक्तिगत कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों में गिनलें। किसी पर अहसान समझ कर नहीं वरन् अनिवार्य कर्तव्य के रूप में स्वीकार करे। इसके लिए 24 घण्टे में से न्यूनतम एक घण्टा लगाना आरम्भ कर दें।
जहाँ सच्ची सहानुभूति होगी वहाँ ‘फुरसत न मिलने’ का बहाना न किया जायगा। सूरज की तरह स्पष्ट है कि जिन कार्यों को मन से निरर्थक महत्व हीन माना होगा उन्हीं के लिए फुरसत न मिलेगी। जो कार्य ‘आवश्यक’ समझे जाते हैं उन्हें तो रोटी खाना छोड़कर भी पूरा किया जाता है और कार्यक्रमों में उन्हीं को प्राथमिकता दी जाती है। जिसने युग धर्म के निर्वाह में कुछ योगदान करने की आवश्यकता सच्चे मन से अनुभव की होगी वह फुरसत न मिलने जैसे उपहासास्पद शब्द होठों पर ला ही नहीं सकेगा। इस बहाने से कोई अपना मन बहला सकता है पर ईश्वर की- आत्मा को यहाँ तक कि हमें भी उस कथन से तनिक भी समाधान नहीं मिलेगा।
इस बार हम अपने प्रत्येक परिजन को यह समझाना चाहते हैं कि भगवत् भजन के समतुल्य ही युग साधना के लिए लगाया गया समय पवित्र एवं पुण्य फलदायक है। उसमें आत्म कल्याण, लोक-मंगल और भगवत् प्रसन्नता के तीनों ही तथ्य मिले हैं। इसलिए यह त्रिवेणी सर्वोत्कृष्ट परमार्थ प्रयोजनों में प्राथमिकता पाने योग्य है। इसके लिए एक घण्टा समय लगाना किसी को भारी नहीं पड़ना चाहिए। इसे समय का अपव्यय नहीं माना जाना चाहिए। वरन् जीवन लक्ष्य की पूर्ति के लिए आज की स्थिति में किए जा सकने वाले विवेकपूर्ण कार्यों में सर्वोपरि समझा जाना चाहिए।
यह समय दान किस कार्य में लगाना है इसका स्पष्टीकरण पिछले अंक में कर दिया है। हमें देव शक्तियों की संघटना खड़ी करनी है। भावभरी जागृत आत्माओं को एक सूत्र में पिरोकर युग देवता के चरणों पर चढ़ाने योग्य पुष्पहार बनाना है। संगठन के बिना युग परिवर्तन जैसे महान लक्ष्य की दिशा में एक इंच भी बढ़ सकना सम्भव न होगा, कार्य तो अनेकों करने पड़े है। बौद्धिक क्रान्ति, नैतिक क्रान्ति और सामाजिक क्रान्ति का विशाल कार्य क्षेत्र सुनसान पड़ा है। उसे उर्वर बनाने के लिए जिन प्रचारात्मक रचनात्मक और संघर्षात्मक कार्यों का अभियान खड़ा किया जाना है उनका सुविस्तृत उल्लेख शत सूत्री युग निर्माण योजना के रूप में अनेकों बार किया जा चुका है।
युगान्तरकारी कार्यक्रमों की रूपरेखा अनेकों बार प्रकाशित कर चुके है; उन क्रिया-कलापों का छकड़ा ज्यों-त्यों करके चलता, रेंगता भी देखा जा सकता है। पाक्षिक युग-निर्माण योजना में छपते रहने वाले समाचारों को पढ़कर यह आभास प्राप्त किया जा सकता है कि अभियान के अंतर्गत क्या हो चुका- क्या हो रहा है और क्या होने वाला है।
प्रश्न मूल पूँजी का है। संघ शक्ति के अभाव में जो बन पड़ रहा है उसे दूसरों की दृष्टि में कितना ही महत्व क्यों ने मिल रहा हो अपनी दृष्टि में नगण्य है। क्योंकि अखण्ड ज्योति परिवार के एक लाख परिजनों में से मात्र कुछ हजार की ही वै हलचलें है। यदि पूरा परिवार अपना एक एक बूँद सहयोग लेकर खड़ा हो जाय तो जो कुछ हो रहा है उसकी प्रगति सौ गुनी तीव्रगति पकड़ सकती है और जिसे आज आश्चर्य मात्र समझा जा रहा है वह कल चमत्कार बनकर सामने खड़ा हो सकता है।
यह बन पड़े तो हमें इस सम्भावना को सार्थक बना कर दिखाना चाहिए। आज कितने भी परिजन है उन सबको संघ सूत्र में आबद्ध हो जाना चाहिए। इसके लिए क्या करना चाहिए इसका सुझाव पिछले अंक में दिया जा चुका है। दो तीन उत्साही परिजनों की एक संगठनकर्ती टोली बने और वह वर्तमान अखण्ड-ज्योति सदस्यों के घर घर जाकर उनसे संपर्क साधे और कहे कि उन्हें संघबद्ध होने के अनुरोध को स्वीकार करना चाहिए। सदस्यता का शुल्क एक घण्टा समय प्रतिदिन ज्ञान-यज्ञ की शर्त पालन करना है। यह घण्टा नित्य न सही महीने में कुल मिलाकर 30 घण्टे सुविधानुसार दिये जा सकते हैं। यह समय आगे अन्य बड़े कामों में भी लग सकता है, पर इस वर्ष तो प्रधानतया दो ही कामों में लगता है। (1) युग-निर्माण परिवार की विचारगोष्ठियों में सम्मिलित होकर वर्तमान परिजनों के बीच घनिष्ठता पैदा करना और एक दूसरे को प्रोत्साहन देना और संगठन में सक्रियता उत्पन्न करना (2) ‘एक से दस’ योजना के अनुसार अपने परिवार, पड़ोस, परिचय क्षेत्र में कम से कम दस व्यक्तियों को अखण्ड-ज्योति युग निर्माण तथा दूसरा मिशन का साहित्य नियमित रूप से पढ़ाते रहने का क्रम चलाना। इससे अपना प्रभाव, प्रकाश एवं विस्तार क्षेत्र इसी वर्ष दस गुना हो जायगा।
संगठन टोली को स्थानीय अखण्ड-ज्योति सदस्यों के संपर्क में 23 जुलाई के गुरुपूर्णिमा पर्व तक कई बार आना चाहिए और उन्हें उस दिन के उत्सव में सम्मिलित रहने के लिए अनुरोध करना चाहिए। जो संगठन से रुचि दिखाये उनसे समय दान की प्रतिज्ञा उसी पावन पर्व पर करा लेनी चाहिए और भविष्य में चेष्टा चलती रहनी चाहिए कि की हुई प्रतिज्ञाएँ निभती रहे उनमें आलस्य, अनुत्साह उत्पन्न न होने पावे। बसन्त पर्व तक की अवधि के छह महीने यदि यह समय दान की प्रक्रिया नियमित रूप से कल गई तो विश्वास किया जाना चाहिए वह भविष्य में भी एक सरस अभ्यास के रूप में स्वभाव का अंग बन जायगी और अगले वर्ष जो गुरुपूर्णिमा पर्व मनाया जायगा उसमें यही आज के मात्र ‘पाठक’ दीखने वाले परिजन सृजन सैनिकों की अग्रिम पंक्ति में खड़े दिखाई देंगे। सोची हुई यह संगठन प्रक्रिया यदि साकार हो सकी तो आज की तुलना में अगले वर्ष की स्थिति कितनी अधिक उत्साहपूर्वक होगी इसकी कल्पना मात्र से आंखें चमक उठती है।
यह अंक पाठकों तक पहुँचने में जुलाई का प्रथम सप्ताह बीत चुका होगा। गुरुपूर्णिमा ता0 20 जुलाई के लगभग दो सप्ताह बचे होंगे। जहाँ अभी तक संगठन टोलियाँ सक्रिय न हुई हो वहाँ इन्हीं 15 दिनों में वह कार्य पूरा कर लेना चाहिए, गायत्री जयन्ती से गुरुपूर्णिमा तक के संगठन पुरश्चरण के लिए निर्धारित था। जहाँ कुछ प्रयास चल रहे है वहाँ इन 15 दिनों में पूरी तीव्रता उत्पन्न कर लेनी चाहिए। गुरुपूर्णिमा पर्व के समारोह में कितने परिजन एकत्रित हो सके और समय दान की प्रतिज्ञा ले सके इस बात पर उस समारोह की सफलता आँकी जायगी। वर्षा के दिन होने के कारण उस समय खुला अधिवेशन और बड़ा समारोह तो सम्भव नहीं हो सकता; फिर भी छाया वाले स्थान का प्रबन्ध करके स्वजन सम्मेलन तो हो ही सकता है। आम जनता के लिए वह समय सुविधा का नहीं होगा तो भी अपनों को अपनों के साथ मिल बैठने में- एक छोटा धर्मोत्सव मनाने में किसी न किसी प्रकार साधन जुट ही सकता है। प्रभात-फेरी, सामूहिक जप, छोटा गायत्री यज्ञ, सहगान कीर्तन, प्रवचन, लाल मशाल चित्र के सम्मुख पुष्पांजलि समर्पण, समय दान की प्रतिज्ञा, दीपदान आदि जैसी भी जहाँ व्यवस्था बन पड़े बना लेनी चाहिए। जहाँ अखण्ड-ज्योति का एक भी सदस्य है वहाँ किसी न किसी रूप में बसन्त पर्व और गुरुपूर्णिमा पर्व के दो आयोजन- छोटे या बड़े रूप में मनाये ही जाते रहने चाहिए। इस दिशा में क्या किया गया, किस रूप में कितनी सफलता मिली इसका विस्तृत विवरण शाँति-कुँज हरिद्वार, युग-निर्माण योजना मथुरा दोनों ही जगह भेजा जाना चाहिए। यह परम्परा इस वर्ष में तो सुनिश्चित ही कर देनी चाहिए और उसका शुभारम्भ करने में कही भी शिथिलता नहीं बरती जानी चाहिये।
इसी अवसर पर विशेष स्मरण रखने योग्य है कि महिला जागरण अभियान के शाखा संगठन, युग निर्माण संगठनों के साथ साथ ही समानान्तर चल पड़ने चाहिए। परिजनों को अपने अपने घरों की सक्रिय एवं शिक्षित महिलाएँ आगे धकेलनी चाहिए। और उन्हें सदस्य बना कर, संगठन का कार्यालय आदि नियत कर देना चाहिए। साप्ताहिक सत्संगों का चल पड़ना ही महिला शाखाओं की सजीवता और सक्रियता का प्रमाण बना जायगा। आगे तो उन्हें भी बहुत कुछ करना है पर बसन्त पर्व तक उन्हें साप्ताहिक सत्संगों को नियमित बना देने का लक्ष्य तो पूरा कर ही लेना चाहिए।
संगठन कर्ता टोलियों के कंधों पर दुहरा उत्तरदायित्व सौंपा गया है कि वे (1) अखण्ड ज्योति ग्राहकों को संघ बद्ध करे और युग निर्माण शाखा बनाये। (2) उनके परिवारों की सक्रिय महिलाओं को आगे बढ़ाकर महिला जागरण अभियान की शाखा खड़ी कर दे। इन दोनों संगठनों को बसन्त पर्व तक अपने पैर मजबूत करने चाहिए। छह महीने बाद, बसन्त पर्व से कुछ नये कदम उठाने के लिए कहा जायगा। हर छह माही पर एक एक कदम उठाते हुए पाँच वर्ष में दस कदम उठा सकेंगे और इतने में ही वह परिस्थिति उत्पन्न हो जायगी जिसे आशा जनक उत्साहपूर्वक न कह कर आश्चर्य चकित करने वाली कहा जा सकेगा।
हमें विदित है इस परिवार में पूर्व जन्मों की संग्रहित तेजस्विता वाली आत्माएँ ही बहुत करके एकत्रित की गयी है। उनके पास संस्कार सम्पदा की कमी नहीं। शक्ति और सामर्थ्य का संग्रहित भंडार भी बहुत बड़ा है। कमी केवल एक ही है- आत्म विस्मृति ने उन्हें मूर्छा ग्रसित कर दिया है। मेघनाद के शस्त्र प्रहार से वे लक्ष्मण की तरह मूर्छित होकर पड़ गये है। आवश्यकता उन हनुमानों की है जो जागृति की संजीवनी बूटी लाने और पिलाने का पर्वत उखाड़ने जैसा कठिन कार्य स्वयं कर सके। सूत्र संचालक और उनके परिवार को राम लक्ष्मण की उपमा दी जा सकती है। दोनों के सहयोग से हो चुके दैत्य को निरस्त किया जाना संभव होगा। लंका विजय और राम राज्य की स्थापना का लक्ष्य पूरा करने में हनुमानों की बढ़ी-चढ़ी भूमिका होनी चाहिए हर जगह दो-दो तीन-तीन सदस्यों की जो संगठनों टोलियाँ आगे बढ़कर आवेंगी उन्हें युग दृष्टा तत्वदर्शी निश्चित रूप से ही हनुमान की उपमा देंगे। महाकाल ने उन्हीं के कंधों पर उपरोक्त दोनों संगठनों के ढाँचे खड़े कर देने का उत्तरदायित्व सौंपा है। विश्वास किया जाना चाहिए कि जहाँ भी अखण्ड-ज्योति का थोड़ा बहुत प्रकाश पहुँचा होगा वहाँ एक-दो हनुमान भी अवश्य सजग रहे होंगे और वे युग के आमन्त्रण को स्वीकार करके समुद्र लाँघते और अपनी पूँछ जलाकर लंकादहन में निरत दिखाई पड़ेंगे।
अखण्ड-ज्योति परिवार से जुड़े हुए प्रायः सभी परिजन समय की विषमता को समझने हैं और यह मानते हैं कि उन्हें अपनी जागरुक आत्मा को सन्तोष देने के लिए कुछ न कुछ करना ही चाहिए। वे यह भी समझते हैं कि संगठन का आधार खड़ा किये बिना युग परिवर्तन जैसे महत्वपूर्ण कार्य सम्भव नहीं हो सकते। विचार क्रान्ति के अतिरिक्त युग की अनेकानेक समस्याओं के स्थिर समाधान का कोई दूसरा विकल्प नहीं। इतना सब समझते हुए भी आश्चर्य इसी बात का है इस जागरुक परिवार में से युगी उत्तरदायित्वों के निर्वाह में संलग्न कर्मवीरों की संख्या नगण्य है। उन नगण्य संख्या वालों के आधार पर ही अपने समय का अद्भुत कार्य सम्पन्न हो रहा है। होना यह चाहिए कि अपने प्रखर परिवार में नगण्य व्यक्ति ही आलस्यग्रस्त ढूंढ़ें जा सके है। सभी सक्रिय कर्मनिष्ठ का निर्वाह कर रहे हों। इस अभाव की पूर्ति के लिए संगठन टोलियों को आगे आना है। उन्हें अपनी व्यक्तिगत कामों में हर्ज करके भी राग-काज में जुटना हैं। वह संजीवनी बूटी उन्हें ही लानी-पिलानी है जिसके सहारे अपना लक्ष्मण जैसा समर्थ परिवार पुनः सक्षम, सक्रिय, सजीव होकर उठ खड़ा हो।
विचारशीलों और सद्भाव संपन्नों को कमी नहीं-अभाव तो आगे बढ़ाकर नेतृत्व करने का होता है। सत्प्रयोजनों के लिए आगे बढ़ने में विचारवान भी झेंपते सकुचाते रहते हैं। आगे बढ़कर जो दूसरों को झकझोर सके, सोतों को जगा सके, जगों को खड़ा कर सके, खड़ों को चला सके ऐसी प्रखर तेजस्विता किसी-किसी में ही पाई जाती है। जिनमें पाई जाती है उन्हें प्राणवान कह सकते हैं। आवश्यकता आज प्राणिवानों की है।
इस बार-इस विशेष अवसर पर तो हमें अपने विशाल परिवार में से ऐसे प्राणवान मोती ही ढूंढ़ने हैं। उनकी परख परीक्षा के लिए यह चुनौती प्रस्तुत की गई है कि हमारी सबसे बड़ी-सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता को पूरा करने के लिए अपना काम छोड़कर दरवाजे-दरवाजे पर धक्के खाने के लिए-व्यंग, उपहार, तिरस्कार, आरोप सहने के लिए आगे आवें और कम से कम इतना मनोयोग, इतना समय तो इस कार्य के लिए समर्पित कर ही दें। जितने में स्थानीय परिजनों का संगठित ढाँचा खड़ा हो सके और साथ ही महिला जागरण अभियान का शुभारम्भ सम्भव हो सके।
विगत 18 जून गायत्री जयन्ती से आरम्भ हुआ समुद्र मंथन अनुष्ठान निकटवर्ती 23 जून की 35 दिन की अवधि पूरी करने जा रहा है। समुद्र मंथन में 15 रत्न निकले थे। हमें एक की ही अपेक्षा है-प्रखर संगठन शक्ति का उदय। नर-पक्ष और नारी-पक्ष के दो पृथक संगठन इसलिए बनाने पड़े कि दोनों की समस्याओं और परिस्थितियों में इन दिनों इतना अधिक अन्तर आ गया है कि उन्हें सुधारने, सुलझाने के लिए दो पृथक मंच खाली करने पड़ रहे हैं। यों वे दोनों भी एक दूसरे के लिए पृथक तरह जुड़े हुए हैं- एक दूसरे के पूरक हैं और सफलता लिए परस्पर अन्योन्याश्रित हैं।
आज तो साहसी रीछ, वानरों को ढूंढ़कर एक में भर्ती करने का समय है। इन घड़ियों में, गोवर्धन उन में योगदान दे सकने योग्य दुस्साहसी ग्वाल-बालों तलाश है। आज तो भिक्षु-भिक्षुणियों को दीक्षा सम में सम्मिलित करके चीवर धारण कराने का पर्व है। मंगल प्रभात में गाँधी ने सत्याग्रही स्वयंसेवकों को है। ब्रह्ममुहूर्त के अरुणोदय की इस पुण्य वेला में जागरण का संदेश दसों दिशाओं में वितरित किया जा रहा है। जो सुन सकें, जो उठ सकें और जो कर सकें तो आना समस्त साहस समेट कर कुछ आगे बढ़ाने के लिए अपनी वरिष्ठता सिद्ध करें।