Magazine - Year 1991 - Version 2
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Language: HINDI
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परम पूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी-साधना से सिद्धि
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इस अंक में “अमृतवाणी” स्तम्भ के अंतर्गत परमपूज्य गुरुदेव द्वारा सूक्ष्मीकरण साधना के दौरान 21 अप्रैल 1984 को “साधना से सिद्धि” विषय पर परिजनों के लिए दिया गया टेप संदेश प्रस्तुत है। उद्बोधन को यथावत् दिए जाने का पूरा प्रयास किया गया है।
भाइयों,
आप में से सैकड़ों व्यक्ति शिकायत करते पाए गए हैं कि हमें अपनी साधना से सिद्धि नहीं मिली। हमने इतना जप किया, इतना पूजा पाठ किया, इतना भजन किया लेकिन हमको तो कोई चमत्कार दिखाई नहीं पड़ा। मेरे ख्याल से अधिकाँश आदमी आप में ऐसे हैं जो ऐसी शिकायत करते पाए जाते हैं। तो क्या यह ऋषियों की धोखेबाजी है, ऐसा ही एक बौद्धिक मायाजाल है? न, ऐसी बात नहीं। अगर आपने ऐसा विचार किया है, व आप निराश हो गए हैं कि पूजा पाठ-साधना से कोई लाभ नहीं होता तो आप मन से अपने इन विचारों को निकाल दीजिए। मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि “साधना से सिद्धि-’ अवश्य मिलती है।
आपके सामने मैं एक ऐसा गवाह पेश करना चाहता हूँ, जिससे आप चाहे तो जिरह भी कर सकते है व इम्तहान लेना चाहें तो वह भी ले सकते हैं। कौन है वह गवाह? वह मैं स्वयं हूँ। आप मुझे किसी भी प्रयोगशाला में, किसी भी अदालत में खड़ा कर दीजिए व देखिए कि इस आदमी ने साधना की है ‘व’ इसे सिद्धियाँ मिली हैं कि नहीं? आप जिरह कीजिए व प्रमाण मिलने पर ही इसे सच मानिए।
वास्तव में साधना से सिद्धि का जुड़ा हुआ संबंध है। ऐसा जैसे कि बोने व काटने के बीच होता है। बोयेंगे तो आप काटेंगे भी। इसी तरह आप साधना करेंगे तो सिद्धियाँ भी आपको मिलेंगी। हमने साधना सही ढंग से की है व आपने गलत ढंग से की है। इसीलिए आप शिकायत करते पाए जाते हैं। गलत यह कि मात्र बीज बोना ही काफी नहीं, उसमें खाद-पानी देना भी उतना ही जरूरी है। खाद आप देंगे नहीं, पानी आप लगाएँगे नहीं तो आपकी उम्मीद लगाना कि फसल पैदा होगी, पेड़ में फल लगेंगे गलत है। साधना का बीज बोया हमने पर खाद पानी भी साथ लगाया। इसीलिए फला। कैसे लगाया जाता है खाद-पानी। चलिए मैं आपको दो घटनाएँ अपने जीवन की सुना देता हूँ। सारी तो बहुत अधिक हैं, मुश्किल पड़ेंगी। पर दो घटनाएँ सुना देता हूँ।
एक यह कि हमारे पिताजी दस वर्ष की उम्र में हमें महामना मालवीय जी के पास हिंदू विश्वविद्यालय में ले गए थे व हमारा दीक्षा संस्कार कराया था। मालवीय जी ने हमें गायत्री मंत्र दिया था, एक जनेऊ पहनाया था व एक खास बात हमारे कान में कही थी, जो अभी तक याद है। वह यह कि “गायत्री ही कामधेनु है। कामधेनु होते हुए भी मात्र ब्राह्मण की कामधेनु है। कामधेनु स्वर्गलोक की एक गाय है, जिसका दूध पीकर देवता अजर-अमर हो जाते हैं। गायत्री मंत्र सबके लिए नहीं, मात्र ब्राह्मण के लिए कामधेनु है। इसके लिए ब्राह्मण बनना चाहिए। ब्राह्मण उसे कहते है जो औसत नागरिक के हिसाब से गुजारा कर ले व बचे समय को समाज के लिए लगा दे। ज्ञान और विचार में लीन रहे। स्वार्थ को परमार्थ में बदल दें।” मैंने यह बात अच्छी तरह समझ ली। पिताजी व मालवीय जी से पूछकर समाधान कर लिया व बात पत्थर की लकीर की तरह मन में बैठ गयी है।
मैं गायत्री मंत्र का जप करने लगा। जप के साथ यह ध्यान मन में बना रहा कि मुझे ब्राह्मण बनना है। बराबर यही ख्याल रहा। इसका फल क्या हुआ? पाँच साल के भीतर ब्राह्मण इतना विकसित हुआ कि एक और गुरु मेरे घर आए पंद्रह साल की आयु में। यह मेरे जीवन की दूसरी घटना। गुरु स्वयं घर आए। हम नहीं गए उनकी तलाश में। गुरु तलाश करते हुए स्वयं आते हैं। उनकी तलाश करना बेकार है क्योंकि पात्रता जब तक विकसित नहीं होती तब तक कोई गुरु नहीं आता। कच्चे फल होते हैं तो खाने के लिए कोई चिड़िया नहीं आती किन्तु फल के पकने की सुगंध आते ही जाने कहाँ-कहाँ से चिड़िया आ जाती हैं, वह फल खाने लगती हैं। ऐसा ही हुआ। मैंने ब्राह्मणत्व का जीवन जिया। बदले में सूक्ष्म शरीर से मेरे गुरु मेरे पास आए व हमसे कहा कि गायत्री का तो बाकी हिस्सा रह गया है, मंत्र तो यही है पर इसके साथ एक और सिद्धाँत है बोया और काटा। क्या मतलब है? जो कुछ भी तुम्हारे पास है, उसे भगवान के खेत में बीज की तरह बोना शुरू करो और तुम्हारे पास सौ गुना ज्यादा होता चला जाएगा। मक्का, बाजरा खेत में बोते हैं तो एक दाने के बदले सौ दाने पैदा हो जाते हैं। तू बोना और काटना शुरू कर। मैंने कहा कहाँ? तो उनने कहा-भगवान के खेत में। मैंने पूछा भगवान का खेत कहाँ है तो उनने कहा-सारा समाज भगवान का ही विराट रूप है। किसी ने भी आज तक भगवान को आँख से नहीं देखा है क्योंकि वह निराकार है, व्यापक है। कैसे उसे देख सकेंगे। आग को तो देख सकते हैं पर गर्मी को कैसे देखेंगे? हवा को कैसे देखेंगे? भगवान को देखा नहीं जा सकता, अनुभव किया जा सकता है बस! तुझे चमत्कार मिलता है कि नहीं। हमने कहा- हमारे पास तो कुछ भी नहीं है। यह हम कुरता-धोती पहने बैठे हैं बस! उनने कहा- तीन चीजें तो तू भगवन् के यहाँ से लेकर आया है। एक तूने अपने पुरुषार्थ से कमाई है। चाहे इस जन्म में कमाई हो। चाहे पिछले जन्मों की कमाई हो। चार चीजें तेरे पास है- यह शरीर व उसके साथ जुड़ी तीन चीजें समय, श्रम व बुद्धि। चौथी तेरी सम्पत्ति। इन सबको भगवान के लिए लगा। तू लगाएगा तो देखेगा कि यह सौगुना ज्यादा होकर आ रहा है।
सूक्ष्म शरीर धारी उन गुरु का भी मैंने कहना मानना शुरू कर दिया। मैंने मालवीय जी के कहे अनुसार अपने जीवन को ब्राह्मण जैसा बनाने की कोशिश की। ब्राह्मण माने संयमी। संयमी माने वह जिसने अपनी इन्द्रियों पर, धन, समय व विचारों पर नियंत्रण कर लिया हो। सारी शक्तियाँ एकाग्र हो गयी। जैसे आप फैली बारूद को जलाते हैं तो भक्क से जल जाती है एवं इकट्ठी की बारूद को गोली के रूप में चलाते हैं तो कमाल दिखाती है। एकाग्रता इसी का नाम है। इस तरह हमने अपने आप को एकाग्र कर लिया, अपने आप पर संयम कर लिया। ध्यान की एकाग्रता में क्या रखा है? आप चाहें घण्टों बैठें। ध्यान की नहीं समग्र ही एकाग्रता। हमने अपने आपको ब्राह्मण बनाने की कोशिश की दस साल से पंद्रह साल की उम्र तक। पाँच वर्ष तक पूरा यत्न रहा कि ब्राह्मण का चिंतन, व्यवहार जैसा होना चाहिए, वैसा हो। हम ब्राह्मण बन गए। क्यों? आप नहीं थे क्या? कौम से तो हम ब्राह्मण थे, एक धनाढ्य ब्राह्मण के घर जन्म हुआ है हमारा, पर कोई भी आदमी जन्म से ब्राह्मण नहीं होता है। हमने कर्म से अपने आप को ब्राह्मण बनाया। जब हमारी उमर काफी हो गयी तो हमारे पास हिंदुस्तान के बड़े पहुँचे हुए, ऊँचे आदमी आए। उनने यह सुना था कि इस आदमी की जबान से जो कुछ निकल जाता है, वह सौ फीसदी सच हो जाता है। कैसे हो जाता है? शृंगी ऋषि का नाम आपने सुना होगा। उनने एक शाप दिया तो राजा परीक्षित मिट्टी में मिल गया व वरदान दिया तो राजा दशरथ जिसे बच्चे नहीं होते थे, एक साथ चार बच्चे हुए उनको यह ब्राह्मण की जिह्वा है। हर आदमी नहीं होता ब्राह्मण। ब्राह्मण कौम से नहीं, कर्म से। उनने पूछा- कि यह सिद्धियाँ आपको कैसे मिली, हमें भी सिखा दीजिए। हमने उनसे कहा कि जितनी भी सिद्धियाँ हमने पाई है, यह हमारे ब्राह्मण बनने की सिद्धियाँ हैं। ब्राह्मणत्व का ही चमत्कार देखा है अब तक लोगों ने। साधना व तप को तो तिजोरी में बन्द करके रखा है। उसको हम सारे संसार के एक बड़े काम में खर्च करेंगे। यह जो कह देते है तो उससे किसी का भला हो जाता है। यह मात्र ब्राह्मण की विशेषता है।
किन्तु जब हमने पहली किताब छापी व उसका नाम रखा “गायत्री ब्राह्मण की कामधेनु है” तो लोग शिकायत करने लगे कि पुराणखण्डी पण्डित भी यही कहते हैं कि गायत्री मात्र ब्राह्मणों को जपनी चाहिए और कौमों को नहीं तो हमने कहा सब पागल हैं। क्या विषय चल रहा है व कहीं से कहीं ले जाते हैं। वंश जन्म से नहीं, कर्म से चलता है। महात्मा गाँधी बनिया नहीं, ब्राह्मण थे। हमने अपने को कर्म से ब्राह्मण बनाया। जब लोगों की शिकायतें किताब के संबंध में आई तो मैंने कहा अरे! यह तो लोगों ने गलत मतलब निकाल लिया। मैं क्या कहना चाहता था ये क्या समझे। मैं कर्म से ब्राह्मण कह रहा था, इनने जन्म से मतलब निकाल लिया। दुबारा किताब छपी तो मैंने ब्राह्मण शब्द निकालकर लिखा “गायत्री ही कामधेनु है।” बस! इतना ही नाम किन्तु अभी भी मेरा विश्वास है कि गायत्री मात्र ब्राह्मण की कामधेनु है और किसी की है क्या? चोर की है? नहीं। ठग की, उठाईगीरे व जालसाज की भी नहीं। साधना करने से पहले ब्राह्मण बनना पड़ता है। कपड़े को रँगने से पहले धोना पड़ता है। मैले कपड़े पर कभी भी रंग नहीं चढ़ता। अपने आपको शुद्ध व पवित्र बनाने के लिए, जीवन का शोधन करने के लिए सेवा करनी पड़ती है। परोपकार और पुण्य इन दोनों के बिना कोई साधना सफल नहीं हो सकती।
ब्राह्मण- साधू पहले सारा जीवन सेवा करते थे। आज तो साधु का नाम भी नहीं दिखाई पड़ता। आज तो यह बाबाजी दिखाई पड़ता। जो भीख माँगते हैं व माला घुमाते हैं कि किसी तरह ऋद्धि मिल जाए, सिद्धि मिल जाए, बैकुण्ठ मिल जाए। इसी जंगल में रहते हैं। हमने अपना जीवन पुराने ऋषियों के जीवन के आधार पर सेवा में लगाया। पूजा जो भी करनी हो रात्रि में सोने से पहले व दिन में सूरज उगने से पहले कर ली। सूर्य निकलने से अस्त होने तक हम समाज सेवा में लगे रहते हैं। यहीं हमारा भजन है, यही हमारी पूजा है।
हमने चारों संपत्तियों को गुरु के कहे अनुसार समाज के खेत में बोया। समय को हमने समाज में लगा दिया। श्रम भी हमारा इसी निमित्त लगा। हमारे पसीने की एक बूंद भी व्यापार-पैसा कमाने में खर्च नहीं हुई। मात्र यही सोचती रही कि लोक कल्याण कैसे हो सकता है? समाज में सत्प्रवृत्ति कैसे बढ़ाई जाय इसी में बुद्धि लगी। इन तीनों चीजों को बोने से आपको क्या मिला? समय का हमने ठीक उपयोग किया तो उसे हमने पाँच गुना बढ़ा लिया। अभी तक की हमारी जिन्दगी का लेखा जोखा ले तो देखें कितना बड़ा संगठन हमने अकेले खड़ा कर दिया। चौबीस लाख के चौबीस पुरश्चरण संपन्न किए। शरीर के वजन से भी ज्यादा साहित्य लिखकर रख दिया। पाँच आदमी निरन्तर आठ घण्टे रोज लगें तो जितना काम हो उतना हमने रोजाना किया। हमारा समय पाँच सौगुना होकर पास चला आया। थोड़ी सी जिन्दगी में जो कमाल करके दिखा दिया वह दो सौ वर्षों में भी नहीं हो सकता।
श्रम हमने किया जनता को सुखी बनाने के लिए हमारे घर से खाली हाथ कोई नहीं गया। हर आदमी का यह कहना है कि जो भी इनके घर आया, प्यासा, भूखा वापस नहीं गया। बिना दवादारु के नहीं