Magazine - Year 1999 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
*******
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
लोकों की मान्यता ओर परिकल्पना चाहे जितनी रहस्यमय हो अब इसे स्वीकारना ही होगा की दृश्य जगत से परे भी अनेक दुनिया है जहाँ मनुष्यों के तरह के ही लोग रहते है। उनकी अपनी सभ्यता और संस्कृति है : वे अपने प्रकार का जीवन जीते है। समय -समय पर प्रकाश में आने वाली घटनायें उसकी पुष्टि करती है।
प्रसंग उन दिनों का है,जब इंग्लैण्ड में हेनरी द्वितीय का शासन था। एक दिन हरी त्वचा वाले दो भाई -बहिन 'मेरी डी उलिपट्स ' नामक स्थान पर एक छिद्र से बाहर आए। उनके हाथ -पैर मनुष्यों जैसे अवश्य थे,पर चमड़ी का रंग गहरा हरा था।वे विचित्र प्रकार की पोशाक पहने था। वस्त्र किस पदार्थ का बना था, यह नहीं जाना जा सका। जब वे सुराख से बाहर आए, तो बड़ी देर तक आश्चर्यचकित हो मैदान में इधर उधर घूमते रहे। अंततः किसानों से उन्हें पकड़ लिया और वहां के एक संभ्रांत सज्जन रिचर्ड डी, कैल्नी के घर ले आए। कई महीनों के उपरांत उनका वर्ण बदल गया। वे सामान्य मनुष्यों के रंग के हो गए। इसी बीच रोगवश भाई की मृत्यु हो गई। बहिन जीवित रही और पृथ्वीवासी व्यक्ति की तरह विवाहित जीवन बिताती रही।
वे पृथ्वीलोक में किस प्रकार पहुंच गए? जब इस बारे में लड़की से प्रश्न किया गया, तो उसका कहना था की वे एक दिन भेड़ चराते हुए एक गुफाद्वार पर पहुंच गए। उससे अत्यंत मधुर ध्वनी आ रही थी। उसका संधान करने के लिए वे बड़ी देर तक उस मांद में घूमते रहे और अंततः इस लोक में पहुंच गए। लड़की का कहना था की इस जगत में आने के उपरांत वे बहुत समय तक यहाँ वहां फीते रहे। जब ऊब गए, तो पुनः अपने लोक में लोट जाने की इच्छा हुई। उन्होंने गुफा -द्वार खोजना प्रारम्भ किया, पर सफल न हो सके और ग्रामवासियों द्वारा पकड़ लिए गए।
उनका जगत क्या यही जैसा है? इस संबंध में उसने बताया की नहीं, वहां न तो यहाँ जैसी गर्मी है, न प्रकाश। उसे प्रकाशित करने वाला कोई सूर्य भी वहां नहीं है, फिर भी वहां अंधकार नहीं है। चांदनी जैसा एक मद्धिम शीतल प्रकाश वहां सदैव विद्यमान रहता है। वह स्वयं को संत मार्टिन की राज्य का बताया करती थी और यह भी की उसे पता नहीं उक्त लोक किस ओर है। वह प्रायः कहा करती की उसके अपने विश्व के निकट ही यहाँ जैसा प्रकाशवान एक अन्य लोक है : पर दोनों के बीच एक विशाल अगम्य नदी है। प्रस्तुत घटना का उल्लेख तत्कालीन समय के इंग्लैंड के प्रख्यात संत विलियम ऑफ न्युवर्ग ने अपने कृति "हिस्टोरिय रेरम एगिलकैरम 'में विस्तारपूर्वक किया है।
इस प्रकार की घटना क्यों एवं कैसे होती है, उसकी विवेचना करते हुए वैज्ञानिक कहते हैं की ऐसा दो विष्वों के मध्य की दीवार पर किसी छिद्र की उपस्थिति के कारण होता है। दुर्भाग्य से यदि कोई व्यक्ति उस सुरंग के द्वार पर पहुंच जाए, तो वह उससे खींचकर किसी अन्य लोक में चला जायगा, जहाँ से उसकी वापसी की संभावना नगण्य जितनी होगी, पर यदि किसी प्रकार यह संभव हुआ भी, तो उस व्यक्ति की स्थित वैसी ही होगी, जैसी स्मृतलुप्त व्यक्ति की अर्थात् वह घटना से पूर्व, मध्य और पश्चात् की सारी बातें भूल चूका होगा।
दूसरी संभाव्यता की चर्चा करते हुए विज्ञानवेत्ता कहते हैं की दुर्भाग्य ग्रस्त के लिए बाहर आने का एक अन्य तरीका यह हो सकता है की वह अतीन्द्रिय शक्तिसंपन्न हो। इस सामर्थ्य की द्वारा वह दो लोकों के मध्यवर्ती भित्ति में एक मानसिक आघात लगाकर दरवाजा उसी प्रकार खोलने में समर्थ हो सकेगा, जिस प्रकार चाभी ताले को एक झटके के साथ खोल लेती है। यदि झटके के साथ कोई ऐसी विभूति अनजाने में अथवा असावधानी-वश कभी दिक्काल के भंवर में फंसी भी तो वह उसी तरह उससे सुरक्षित बाहर आ जाएगी, जैसे गोताखोर समुद्र से :किन्तु इसके लिए उस द्वार को ढूंढ़ निकलना आवश्यक होगा . जिसके द्वारा वह उस दूसरे लोक में पहुंच गया। यदि इसमें वह विफल रहा तो उससे बाहर निकलने में किसी प्रकार सफल न हो सकेगा।
सम्प्रति ऐसी घटनाओं की व्याख्या वैज्ञानिक ब्लैकहोलों के आधार पर करते हैं। उनका अभिमत है की उपस्थित ही तर्कसंगत और मान्य हो सकती है इसमें कम में इसकी वैज्ञानिक मीमांसा संभव नहीं। अपनी धरती पर अब तक इस तरह के दो ब्लैक होल्स ढूंढ़े जा चुके हैं। इनमें से एक फ्लोरिडा, कोस्टरिका और वारमूडा के बीच वारमूडा त्रिकोण है, जबकि दूसरे की खोज इसी दशक के प्रारम्भ में पिछले दिनों सन १९९० में हुई। जापान, ताइवान तथा गुगआन के मध्य स्थित यह त्रिभुज 'ड्रेगंस त्रैएग्नल नाम से विख्यात है।
उपयुक्त घटना -प्रसंग में उस अलौकिक बालिका ने अपने वृत्तांत में एक लम्बी सुरंग से बहुत दूर चलने के उपरांत पृथ्वीलोक में निकलने की बात कही थी। विज्ञानं विशारद भी ब्लैकहोल में फंसे ही अनुमान लगाते हैं। मूर्धन्य भौतिकीविद् और गणितज्ञ प्रो. ज्ञान टेलर अपनी कृति 'ब्लैक होल -दी एंड ऑफ दी यूनिवर्स ' में लिखते है की श्याम -विवर के अंदर खिचाव इतना भीषण होता है की उसमें स्पेस पतली लम्बी गर्दन की शक्ल ग्रहण कर सकती है, जिसका दूसरा सिरा किसी अन्य जगत से जुड़ा हो। वे कहते हैं की यदि सचमुच ऐसा होता है ओर ब्लैकहोल के भीतर का व्यक्ति सुरक्षित बचा रहता है, तो वह उसे संकरी गली के माध्यम से किसी बिलकुल ही प्रथक विश्व में पहुंच जायेगा, वहां जीवित रहने पर भी वह किसी भी परिष्कृत यन्त्र से अपने लोक से सम्पर्क स्थापित करने में असफल रहेगा। ऐसी स्थित में वह अपना यान पुनः श्याम विवर में इस आशा के साथ प्रविष्ट करा सकता है की वह फिर इसके माध्यम से अपने लोक में पहुंच जायेगा :किन्तु उसका इस प्रकार का हर प्रयास निरर्थक साबित होगा और प्रत्येक प्रयत्न उसे हर बार एक नई दुनिया में पहुंचा देगा। इस प्रकार वह अपने मूल जगत में पहुंचने में कदाचित कभी भी सफल न हो सके।
यह ब्रह्मांडव्यापी श्याम विवर की चर्चा हुई। पृथ्वी -स्थित ब्लैकहोलों की संबंध में वैज्ञानिक एक दल का विश्वास है कि इस प्रकार के अनेक छोटे ब्लैकहोल्स इसके स्थल भाग में स्थित हो सकते हैं पर किन्हीं कारणों से उनके मुंह बंद रहते हैं और यदा -कदा ही खुलते हैं :किन्तु जब खुलते है तो उसी प्रकार की घटनायें देखने -सुनने को मिलती है,जैसा की ऊपर वर्णित है। इनके मुख कभी कभी ही क्यों खुलते है? इस सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने के लिए वैज्ञानिक अब पृथ्वी स्थित अपनी प्रयोगशाला में छोटे आकार के श्याम विवर विनिर्मित करने का प्रयास कर रहे है, ताकि उनकी प्रकृति के बारे में गहराई से अध्ययन ओर अनुसंधान किये जा सके। यदि ऐसा हुआ, तो फिर लोकांतर-यात्रा बिना किसी कठिनाई के शक्य हो सकेगी ओर व्यक्ति इच्छानुसार किसी भी लोक की यात्रा,किसी भी समय सुविधानुसार कर सकेगा।
प्राचीन समय में इस प्रकार की यात्रायें हुआ करती थी, इसका उल्लेख शास्त्रों में यत्र -तत्र मौजूद है, अब यह असंभव और अविश्वसनीय स्तर की इसलिए प्रतीत होती है, कि इन दिनों अध्यात्म तत्वज्ञान पाखंड बनकर रह गया है ओर आत्मविद्या चौराहों की बाजीगरी समझी जाने लगी है। लोग न तो कष्ट साध्य तपश्चर्या करने की तत्पर है न अध्यात्मिक अनुशासन को जीवन में उतारने को उद्यत। सब कुछ तूर्त–फूर्त में हस्तगत कर लेने को उतावले है। इतनी उच्चस्तरीय विद्या भला इतनी आसानी से कैसे उपलब्ध की जा सकती है,। ऐसे में प्रपंची धूर्तता अपनाते ओर सीधे -सरल लोगों की ठगना प्रारम्भ करते है। जो ठगे जाते है, उनकी आस्था धर्म -अध्यात्म से उठने लगती है वे गुह्य विद्या की चमत्कारी को धोखा की अतिरिक्त कुछ नहीं मानते। आज का अविश्वास इसी की परिणित है। इसका यह मतलब नहीं की धर्मग्रंथों में वर्णित सब कुछ कपोल -कल्पना मात्र है। यथार्थ तो यह है की बौद्धिक अनुमानों से आत्मा की गहराई का आकलन कर पाना संभव नहीं, जबकि आज उसकी नाप-तोल का आधार यही है।
गुह्यविद्या के प्रति सरल विश्वास न पनप पाने का एक कारण यह भी है।
किन्तु इतने से ही सत्य -तथ्य बदल तो नहीं सकते। लोकांतर भ्रमण ऐसा ही एक यथार्थ है, जो भूतकाल पात्र आज भी इसे निष्पक्ष कर सकते है ओर भविष्य में भी उसके संपादन बनी रहेगी। महाभारत के वनपर्व में कहोड़ मुनि द्वारा ऐसी ही एक लोकांतर यात्रा सम्पादित करने का वृत्तांत आता है जिसमें समुद्री मार्ग से वरुण लोक जाकर वहां उनके यज्ञायोजन करवाने और फिर सकुशल पृथ्वीलोक पर वापस लोट आने का उल्लेख करते हैं।
इसे कोई मिथक नहीं,एक सुविकसित विज्ञान माना जाना चाहिए। इससे इस बात की भी पुष्टि हो जाती है कि लोकों की मान्यता कोई शास्त्रीय अवधारण न होकर, एक वास्तविकता है। इसे हम जितनी जल्दी स्वीकारना कर सके, उतना ही अच्छा है।