Magazine - Year 2003 - Version 2
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Language: HINDI
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तालमेल बिठाकर जीवन जीना सीखें
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तालमेल जिन्दगी जीने की सबसे गहरी जरूरत है। रिश्तों की गरमाहट, सम्बन्धों की गरिमा तथा विचारों व भावनाओं के स्पर्श में तालमेल पनपता एवं विकसित होता है। मनुष्य जीवन को हवा, पानी और धूप के समान ही इसकी आवश्यकता है। इसके प्रभाव में वैयक्तिक विकास, पारिवारिक शान्ति एवं सामाजिक समृद्धि होती है, परन्तु इसका अभाव अत्यन्त भयावह एवं भीषण होता है। जिस प्रकार भूकम्प भौगोलिक मानचित्र को बदलकर रख देता है ठीक उसी प्रकार तालमेल का अभाव इंसान की आन्तरिक चेतना को, इंसान से इंसान को, परिवार, समाज एवं विश्व-राष्ट्र को खण्डित-विखण्डित एवं विभाजित करके रख देता है। इसका दर्द, पीड़ा और कसक असहनीय होती है। आज हम सभी इसी अभिशाप से अभिशप्त हैं।
भारतीय संस्कृति की सर्वोपरि विशेषता रही है तालमेल एवं सामंजस्य का भाव। इसी विशेषता के कारण ही मात्र अपने देश में संयुक्त परिवार का अस्तित्व चिरकाल से विद्यमान रहा है। हमारे प्राचीन संयुक्त परिवार, हमारे सच्चे तालमेल, एकजुटता तथा संगठन के प्रतीक-पर्याय थे। वहाँ पर सम्बन्धों की सरस संवेदनायें बहती थीं, रिश्तों के संवेदनशील धागे बुनते-मजबूत होते थे, एक अनजाना आनन्द उमड़ता-घुमड़ता रहता था। परन्तु पिछले दो दशकों में संयुक्त परिवार का भव्य भवन, खण्डहरों का अवशेष बनकर अपनी दर्द भरी दास्ता बयान करता नजर आता है। और जो संयुक्त परिवार बच भी गये हैं उन्हें बमुश्किल किसी तरह से निभाया जाता है, मुर्दे की तरह ढोया जाता है। संयुक्त परिवार के टूटने-बिखरने के साथ ही एकल परिवार की बाढ़ सी आ गयी है। परन्तु आज की स्थिति यह है कि एकल परिवार भी खण्डों में खण्डित हो रहे हैं। पति और पत्नी के बीच तालमेल नहीं बन पड़ रहा है, जिसके कारण दर्द भरे तलाक हो रहे हैं। परिणामस्वरूप आज का आदमी बेहद अकेला रह गया है। भीड़ और कोलाहल के बीच व्यक्ति एकदम एकाकी और अन्तर टूटा, सर्वहारा सा रह गया है।
वस्तुतः आधुनिक विज्ञान के महाविकास की महायात्रा के चरम बिन्दु पर खड़े आज के व्यक्ति की सर्वोपरि समस्या है तालमेल का अभाव। तलाक रूपी पश्चिमी परिवार का अछूत एवं संक्रामक रोग हमारे भारतीय परिवार में नग्न नर्तन करता दिखाई दे रहा है। आज की गहन समस्या है पति का पत्नी के साथ न निभ पाना, पिता का पुत्र के साथ मतभेद तथा बेटी का माँ के साथ गहरा वैचारिक मतान्तर। यह समस्या व्यक्ति और परिवार तक ही सीमित व सिमटी नहीं है बल्कि दफ्तर, शिक्षालयों, संस्थाओं, संगठनों तथा समाज-राष्ट्र के हर कोने में पसरी पड़ी है। हम तालमेल करते तो हैं परन्तु मन से नहीं बेमन से, दबाववश, मन मारकर और जबरदस्ती । साथ ही हम सम्बन्धों की शुरुआत करते तो वही गरमाहट से, उत्साह-उमंग से हैं, परन्तु दूर तक निभा नहीं पाते और असफल हो जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? क्यों हम तालमेल नहीं कर पाते? असफल क्यों होते हैं? असफलता का वह बिन्दु कहाँ है?
इन जटिल, अनुत्तरित एवं हताशा पैदा करने वाले प्रश्नों के जवाब हैं-हर कदम पर खड़ा हमारा घनीभूत अहंकार, हमारी दूषित दृष्टि, हमारी कुत्सित भावना, हमारे दिग्भ्रमित मूल्य एवं मान्यताएँ तथा हमारी कमजोर-दुर्बल मानसिक संरचना। हमारे विचारों और भावनाओं का पैमाना अत्यन्त छोटा एवं क्षुद्र है। इस क्षुद्रता के संग स्थायी तालमेल की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। सम्बन्धों के लिए हमारे आदर्श, मूल्य एवं मानदण्ड स्पष्ट एवं सजीव नहीं रह गये हैं। जबकि सच्चे तालमेल के लिए परिष्कृत मूल्य एवं मानदण्ड तथा उदात्त भावनाओं की आवश्यकता है। इसी के अभाव में हमारे सारे सम्बन्ध एवं रिश्ते शीशे के समान दरकते-टूटते हैं और इस टूटन-दरकन में हमें गहरी पीड़ा एवं टीस मिलती है।
सम्बन्ध दो प्रकार के होते हैं-वस्तुपरक और व्यक्तिगत। व्यक्ति का व्यक्ति से सम्बन्ध टिकाऊ होता है। वस्तु से व्यक्ति का सम्बन्ध नहीं होता है, अधिकार होता है। आज हम यही कर रहे हैं, व्यक्ति को वस्तु मानकर उस पर अधिकार का भाव रखते हैं। हम व्यक्ति से वस्तुपरक व्यवहार एवं बर्ताव करते हैं। सही मायने में देखें तो हम व्यक्तियों को वस्तुगत भाव से देखने के आदी एवं अभ्यस्त हो गये हैं। व्यक्ति से व्यक्ति के रूप में अपेक्षाएँ समाप्त हो गई है, उसे वस्तु के रूप में पहचान बनाने के प्रचलन हावी हो गया है। हजारों हजार साल की मानवीय विकास यात्रा के बाद भी हमने व्यक्ति के व्यक्तित्व का आदर एवं सम्मान करना नहीं सीखा है। इसी कारण आज जबकि मानव से अतिमानव की यात्रा प्रारम्भ हो चुकी है, मानव एक सच्चा इंसान बन पाने में असहाय महसूस कर रहा है।
मानव जीवन साधारण नहीं है, उसमें चेतना के उत्कर्ष एवं उसमें विकास की अपार सम्भावनाएँ सन्निहित हैं, दिव्य बीज दबा पड़ा है। वह चैतन्य है, जागृत, जीवन्त, सचेतन एवं सजीव है। हमें इसका सच्चा सम्मान करना चाहिए। जिस प्रकार हमें आदर-सम्मान तथा भावनात्मक बोध होता है उसी प्रकार सबमें यही भाव विद्यमान है। जैसे साँस लेने का अधिकार हममें है, वैसा ही अधिकार औरों का भी है। हमने अपना आदर-सम्मान तो स्वीकारा परन्तु औरों के लिए अमान्य कर दिया एवं नकार दिया। हम भूल गये कि जिनसे हम सम्बन्ध जोड़ रहे हैं, वह भी हमारे समान ही एक इंसान है, उसे भी प्यार एवं सम्मान चाहिए। परन्तु हमने व्यक्ति को वस्तु बना दिया और उससे वस्तुपरक अपेक्षाएँ रख लीं। और इस वस्तुपरक मान्यता को उछाला। आज के आधुनिक टी.वी. चैनल, उसके अत्याधुनिक सीरियल, अखबार तथा ढेर सारे मन को लुभाने वाले विज्ञापन इसी वस्तुपरकता की कहानी का बयान कर रहे हैं।
अतः आज हमारी सम्बन्धों की बुनियाद वस्तुपरक बनकर रह गयी है। हमने अपने सम्बन्धों में गणित का प्रयोग किया है। हमारी सारी श्रद्धा, भावना और विचार अंक गणित के समान जोड़-तोड़ करने वाले अंक बनकर सिमट गये हैं। ऐसे सम्बन्धों की अवधारणा इंसान और इंसानियत दोनों के लिए अपमान है और इस अंध अपेक्षा में मानवीय सम्भावनाओं की अपार क्षमता दफन हो गई है। विकास के बीज में घुन लग गया है। परिणामस्वरूप आदमी गहरी घुटन का शिकार हो गया है, जिससे मानसिक विक्षिप्तता और विकृति पैदा हो गई है। और यही वजह है कि आज बड़े पैमाने पर हिंसा, हत्या, आत्महत्या जैसे आत्मघाती अपराधों की बाढ़ आ गयी है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि बताती है कि यह कुछ नहीं मानवीय नासमझी है, तालमेल का गम्भीर अभाव है।
इन महासमस्याओं से मुक्ति पाने के लिए आवश्यक है सम्बन्धों की सही-सही और ठीक-ठीक समझ। इसकी शुरुआत व्यक्ति को सही ढंग से देखकर उसकी गरिमा का बोध करके ही की जा सकती है। सच्चे तालमेल के लिए हमारा दृष्टिकोण उदात्त तथा भावना निष्कपट होनी चाहिए। सम्बन्धों का निर्वाह किया जा सकता है यदि इसके बीच ‘हाइपर इमोशन’ तथा ‘हाइपो इमोशन’ दोनों को हावी न होने दिया जाय। ‘हाइपर इमोशन’ अर्थात् भावना का अतिरेक, अति अपेक्षा का भाव उत्पन्न करना है जबकि ‘हाइपो इमोशन’ अर्थात् भावना की न्यूनता जो छल और प्रवंचना को जन्म देती है। अतः सम्बन्धों के स्थायित्व के लिए इन दोनों को स्थान नहीं देना चाहिए। भावनात्मक आवेग भी सम्बन्धों को तार-तार कर देता है अतः इससे भी बचना चाहिए।
गीता में भगवान् कृष्ण ने देवता और मनुष्य के बीच दिव्य और दैवीय सम्बन्धों की ओर संकेत किया है। वस्तुतः मनुष्य में अनन्त सम्भावनाओं का महासागर भरा पड़ा है। मानवीय व्यक्तित्व बहुआयामी एवं बहुपक्षीय है। मानवीय व्यक्तित्व में विचार और भावनायें दोनों होती हैं और इनमें बड़े ही संवेदनशील तथा मर्म बिन्दु बिखरे पड़े होते हैं। इन मर्म बिन्दुओं पर मर्मान्तक चोट करने पर मृत्यु का महासंकट खड़ा हो सकता है। संवेदना के तार अति सूक्ष्म एवं कोमल होते हैं। और सम्बन्ध के धरातल में जितनी गहराई होगी सम्बन्ध उतने ही नाजुक होते हैं अतः ऐसे सम्बन्धों में कोई जल्दबाजी, उतावलापन या किसी प्रकार की छेड़खानी करने पर गहरे रिश्ते पल भर में टूट कर बिखर सकते हैं। रिश्तों की बुनियाद भावनाओं के ऊपर बनती-विकसित होती है। यह जितना सुखद है इसकी चुभन उतनी ही कष्टकारक होती है। भावनाओं की चुभन काँच की चुभन से भी ज्यादा पीड़ादायक होती है। इसलिए सम्बन्धों के संवेदनशील बिन्दुओं को स्पर्श किये बिना उन आयामों की तलाश करनी चाहिए, जिससे सम्बन्ध स्थायी और टिकाऊ हो सकें।
इसके लिए आवश्यकता है भावनात्मक परिपक्वता एवं गहरे बोध की। इनके समन्वय से गहरी अंतर्दृष्टि पनपती है। गहन अंतर्दृष्टि कुछ नहीं बल्कि विचारों और व्यवहारों के बीच का अंतर्संबंध है। यह अंतर्दृष्टि हमारे सम्बन्धों के बीच, रिश्तों के मध्य एक तादात्म्य, एक सच्चा तालमेल स्थापित करती है। अंतर्दृष्टि से भावनाओं और व्यवहार में तालमेल बना रहता है। अतः हमें न भावना का अतिरेक करना चाहिए और न ही संवेदनशून्य होना चाहिए। व्यवहार में संवेदना और विचारों को आवश्यकतानुरूप प्रयोग करना चाहिए। हमें समय और परिस्थिति के अनुरूप अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करना चाहिए। सम्बन्धों के दीर्घावधि निर्वाह के लिए यह अत्यावश्यक है। इससे सम्बन्धों को भले ही पूर्णता तक नहीं पहुँचाया जा सकता हो परन्तु बहुत दूर तक उनका निर्वाह किया जा सकता है।
भावना का क्षेत्र बड़ा ही कोमल, नाजुक होता है। भावनाओं को बड़ा मुश्किल से जीता जाता है। यूँ ही किसी पर भावनाओं को उड़ेला नहीं जा सकता। यह प्रक्रिया बड़ी लम्बी है अतः इसे दो पल में विनष्ट नहीं कर देना चाहिए। इसके लिए हमें सतत् अपने व्यवहार का पैनी दृष्टि से अवलोकन करते रहना चाहिए। निंदा, घृणा एवं बुरे बर्ताव से सदैव बचे रहना चाहिए। सदैव अच्छा ही अच्छा करते रहना चाहिए। सम्बन्धों के बीच दरार उत्पन्न करने वाली घृणा स्थायी नहीं होती है, यह तो टीस भरी कसक और गहन दर्द का अहसास भर है। दर्द पैदा होता है, क्योंकि तमाम कोशिशों के बावजूद, सम्बन्ध रिश्ते एवं मित्रता निभ नहीं पा रहे हैं। चाहते तो हैं परन्तु असफलता-निराशा हाथ लगती है। और इसी असफलता से उपजती है घृणा एवं द्वेष। अतः बड़े धैयपूर्वक इन कटु एवं तिक्त क्षणों को गुजर जाने देना चाहिए। सम्बन्धों के बीच तालमेल रखने के लिए गहरी सहनशीलता और अपार सहिष्णुता की आवश्यकता होती है। यही दोनों सच्चा तालमेल बनाने के मुख्य और केन्द्रबिन्दु हैं।
तालमेल को निभाने के लिए सदैव अच्छा बर्ताव करते रहना चाहिए। अच्छाई इंसानियत की सर्वोपरि विशेषता व महत्ता है। बुराई के बदले अच्छाई करना हिम्मत और साहस का कार्य है। बुराई के बदले कुछ न कहना बहुत बड़ी विजय है। यह कायरता नहीं शूरवीरों का क्षमादान है, जो एक दिन वैमनस्य के कड़वे अहसास से उबारकर थमेगा। बुराई के प्रति की जा रही हर अच्छाई बुराई करने वाले को शर्मिन्दा करती रहती है। अतः सदा अच्छाई एवं श्रेष्ठ कर्म को जीवन का ध्येय बनाना चाहिए। यही तालमेल का सच्चा आधार है। इस प्रकार सच्चे तालमेल के लिए निम्न गुणों का सतत् अहायास अपेक्षित होता है -
1. भ्रम एवं संदेह रहित बोध, 2. गहन अंतर्दृष्टि, 3. अपेक्षा का अभाव, 4. भावनात्मक परिपक्वता और 5. व्यक्तिगत अंतर्संबंधों की समझ।
इन गुणों का पालन करके ही सच्चे तालमेल का निर्वाह किया जा सकता है जो आज की सबसे बड़ी जरूरत है। इसी से वैयक्तिक उत्कर्ष शान्ति के साथ समाज व राष्ट्र के विकास का आधार प्रशस्त हो सकता है। अतः हम सबको सच्चे तालमेल के साथ ‘संघं शरणं गच्छामि’ के सूत्र को चरितार्थ करना चाहिए।