Books - सर्वतोमुखी उन्नति
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Language: HINDI
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उन्नति करना ही जीवन का मूल मंत्र है
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आगे बढ़ना, निरन्तर ऊपर उठने की चेष्टा करते रहना एक नैसर्गिक नियम है। प्रकृति का हर एक परमाणु आगे बढ़ने के लिये हलचल कर रहा है। सूर्य को देखिये, चन्द्रमा को देखिये, नक्षत्रों को देखिये, सभी अग्रसर हो रहे हैं। नदियां दौड़ रही हैं, वायु बह रही है, पौधे ऊपर उठ रहे हैं। प्रकृति के परमाणुओं का अन्वेषण करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रत्येक सबसे छोटा विद्युत घटक (इलेक्ट्रोन) भी प्रति सैकिण्ड सैकड़ों मील की चाल से घूमता हुआ आगे बढ़ रहा है।
जब प्रकृति के जड़ दिखाई पड़ने वाले पदार्थ दिन-रात अग्रसर होने में तल्लीन हैं, तो चैतन्य जीव का क्या कहना? प्रत्येक जन्म में बढ़ता जाता है। निरन्तर उन्नति करते रहना उसका ईश्वर प्रदत्त नियम है। उन्नति से संतुष्ट होने का, आगे बढ़ने की गति को रोक देने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। मनुष्य को तो अपनी संपूर्ण अपूर्णताओं से उठ कर इतना उन्नत बनना है जितना उसका पिता—ईश्वर है। जब तक जीव ब्राह्मी-स्थिति को प्राप्त नहीं कर लेता तब तक उसकी यात्रा समाप्त नहीं हो सकती। मामूली सी उन्नति कर लेने पर लोग कहने लगते हैं, कि अब इतना मिल गया, संतोष करना चाहिए ऐसे मनुष्य मानव-जीवन के वास्तविक महत्व से अनजान हैं। हमारी उन्नति का सर्वतोमुखी क्षेत्र इतना विशाल है कि उसमें एक जीवन क्या, अनेक जीवनों तक भी निरन्तर अग्रसर होते रहने की गुंजाइश है।
बराबर आगे बढ़ते रहने के लिए, बराबर नई शक्ति प्राप्त करते रहना आवश्यक है। आपकी उन्नति का क्रम कभी भी रुकना न चाहिए। निरन्तर कदम आगे बढ़ाये चलना है और महानता को बूंद-बूंद इकट्ठी करके अपनी लघुता का खाली घड़ा पूर्ण करना है। उस कर्महीन मनुष्य का अनुकरण करने से आपका काम न चलेगा जो पेट भरते ही हाथ-पैर फैलाकर सो जाता है और जब भूख बेचैन करती है तब करवट बदलता और कुड़कुड़ाता है। छोटी चींटी को देखिये वह भविष्य की चिन्ता करती है, आगे के लिए अपने बिल में दाने जमा करती है जिससे जीवन संघर्ष में अधिक दृढ़ता पूर्वक खड़ी रहे, इस दिन पानी बरसने के कारण बिल से बाहर निकलने का अवसर न मिले तो भी जीवित रह सके। छोटी मधु मक्खी भविष्य की चिंता के साथ आज का कार्यक्रम निर्धारित करती है। आज की जरूरत पूरी करके चुप बैठे रहना उचित नहीं, इस जन्म और अगले जन्म में आपको लगातार उन्नति पथ पर चलना है, तो यह अत्यंत आवश्यक है कि यात्रा में बल देते रहने योग्य भोजन की व्यवस्था का ध्यान रखा जाय। इस समय आप जितना बल संचय कर रहे हैं वह आगे चलकर बहुत लाभदायक सिद्ध होगा। उसकी क्षमता से भविष्य का यात्रा-क्रम अधिक तेजी और सरलता से चलता रहेगा।
योग साधना के फल स्वरूप सिद्धियां प्राप्त होती हैं, अष्ट सिद्धि, नव निद्धि के लिए लालायित होकर अनेक साधक कठोर साधनाऐं करते हैं, विजयी बनने के लिए मृत्यु की छाया में रण क्षेत्र की ओर कदम बढ़ाते हैं, स्वर्ग लाभ के लिए दुर्गम वन पर्वतों की यात्रा करते हैं, धनी बनने के लिए एड़ी से चोटी तक पसीना बहाते हैं, बलवान बनने के लिये थक कर चूर-चूर करने वाले व्यायाम में प्रवृत्त होते हैं, विद्वान बनने के लिए रात-रात भर जागकर अध्ययन करते हैं। यह उदाहरण बताते हैं कि उन्नत बनने की आवश्यकता को हमारी अन्तःचेतना विशेष महत्व देती है और उस आवश्यकता को पूरा करने के लिए हम बड़ी से बड़ी जोखिम उठाने को, कठिन से कठिन प्रयत्न करने को तत्पर हो जाते हैं। नकली आवश्यकता और असली आवश्यकता की पहचान यह है कि नकल के लिए, संदिग्ध बात के लिए त्याग करने की तत्परता नहीं होती, असली आवश्यकता के लिए मनुष्य कष्ट सहने और कुर्बानी करने को तैयार रहता है। एक आदमी सिनेमा का शौकीन है उससे कहा जाय कि एक खेल देखने के बदले में तुम्हें अपनी उंगली काटनी पड़ेगी तो वह ऐसा खेल देखने में मना कर देगा क्योंकि खेल देखने की आवश्यकता नकली है, उसके लिए इतना बड़ा कष्ट सहन नहीं किया जा सकता। परन्तु यदि स्त्री, पुत्र आदि कोई प्रियजन अग्निकाण्ड में फंस गये हों तो उन्हें बचाने के लिये जलती हुई अग्नि शाखाओं में कूदा जा सकता है। फिर चाहे भले ही उसमें झुलस कर अपना भी शरीर जल जावे। सिनेमा का खेल देखने की आवश्यकता में कौन असली है कौन नकली उसकी पहचान उसके लिए त्याग करने की मात्रा के अनुसार जानी जा सकती है। हम देखते हैं कि उन्नति करने की लालसा मानव स्वभाव में इतनी तीव्र है कि वह उसके लिये कष्ट सहता है और जोखिम उठाता है। यह भूख असली है। असली आवश्यकता में इतना आकर्षक होता है कि उसके लिए तीव्र शक्ति से प्रयत्न करने को बाध्य होना पड़ता है। मौज में पड़े रहना किसी को बुरा नहीं लगता, पर उन्नति की ईश्वर-दत्त आकांक्षा इतनी तीव्र है कि उसके लिए मौज छोड़कर लोग कष्ट सहने को तत्पर हो जाते हैं।
देखा जाता है कि जो लोग उन्नतिशील स्वभाव के होते हैं उन्हें कहीं से न कहीं से आगे बढ़ाने वाली सहायतायें प्राप्त होती रहती हैं। कभी कभी तो अचानक ऐसी मदद मिल जाती है जिसकी पहले कुछ भी आशा नहीं थी। छोटे-छोटे आदमी बड़े बड़े काम कर डालते हैं, उन्हें अनायास ऐसे अवसर मिल जाते हैं जिससे बहुत बड़ी उन्नति का रास्ता खुल जाता है। साधारण बुद्धि के लोग उन्हें देखकर ऐसा कहा करते हैं कि अमुक व्यक्ति का भाग्योदय हुआ, इसके भाग्य ने अचानक ऐसे कारण उपस्थित कर दिये जिससे वह तरक्की की ओर बढ़ गया। हम इसे ईश्वर की कृपा कहते हैं। जो मनुष्य आगे बढ़ने की तीव्र इच्छा करते हैं, उन्नति के लिए सच्चे हृदय से जो जांफिसानी के साथ प्रयत्नशील है, उसके प्रशंसनीय उद्योग को देखकर ईश्वर प्रसन्न होता है, अपना सच्चा आज्ञापालक समझता है और उसे प्यार करता है। जिस पर उस परम पिता का विशेष स्नेह है उसे यदि वह कुछ विशेष सहायता दे देता है तो उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। एक प्रसिद्ध कहावत है कि—‘‘ईश्वर उसकी मदद करता है, जो अपनी मदद आप करता है।’’ उन्नतिशील स्वभाव के लोगों को—उनकी उचित प्रवृत्ति में सहायता करने के लिए, परम पिता परमात्मा ऐसे साधन उपस्थित कर देता है जिस से उसकी यात्रा सरल हो जाती है। अचानक, अनिश्चित एवं अज्ञात सहायताओं का मिल जाना इसी प्रकार संभव होता है।
आप ‘उन्नति करना’ अपने जीवन का मूल-मंत्र बना लीजिए, ज्ञान को अधिक बढ़ाइये, शरीर को स्वस्थ बलवान और सुन्दर बनाने की दिशा में अधिक प्रगति करते जाइए, प्रतिष्ठावान हूजिये, ऊंचे पद पर चढ़ने का उद्योग कीजिए, मित्र और स्नेहियों की संख्या बढ़ाइये, पुण्य संचय करिए, सद्गुणों से परिपूर्ण हूजिए, आत्म बल बढ़ाइये, बुद्धि को तीव्र करिए, अनुभव बढ़ाइये, विवेक को जाग्रत होने दीजिये। बढ़ना आगे बढ़ना— और आगे बढ़ना— यात्री का यही कार्यक्रम होना चाहिए।
अपने को असमर्थ, अशक्त एवं असहाय मत समझिए, ऐसे विचारों का परित्याग कर दीजिए कि साधनों के अभाव में हम किस प्रकार आगे बढ़ सकेंगे। स्मरण रखिए- शक्ति का स्रोत साधनों में नहीं, भावना में है। यदि आपकी आकांक्षाऐं आगे बढ़ने के लिए व्यग्र हो रही हैं, उन्नति करने की तीव्र इच्छाऐं बलवती हो रही हैं तो विश्वास रखिए साधन आप को प्राप्त होकर रहेंगे। ईश्वर उन लोगों की पीठ पर अप
जब प्रकृति के जड़ दिखाई पड़ने वाले पदार्थ दिन-रात अग्रसर होने में तल्लीन हैं, तो चैतन्य जीव का क्या कहना? प्रत्येक जन्म में बढ़ता जाता है। निरन्तर उन्नति करते रहना उसका ईश्वर प्रदत्त नियम है। उन्नति से संतुष्ट होने का, आगे बढ़ने की गति को रोक देने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। मनुष्य को तो अपनी संपूर्ण अपूर्णताओं से उठ कर इतना उन्नत बनना है जितना उसका पिता—ईश्वर है। जब तक जीव ब्राह्मी-स्थिति को प्राप्त नहीं कर लेता तब तक उसकी यात्रा समाप्त नहीं हो सकती। मामूली सी उन्नति कर लेने पर लोग कहने लगते हैं, कि अब इतना मिल गया, संतोष करना चाहिए ऐसे मनुष्य मानव-जीवन के वास्तविक महत्व से अनजान हैं। हमारी उन्नति का सर्वतोमुखी क्षेत्र इतना विशाल है कि उसमें एक जीवन क्या, अनेक जीवनों तक भी निरन्तर अग्रसर होते रहने की गुंजाइश है।
बराबर आगे बढ़ते रहने के लिए, बराबर नई शक्ति प्राप्त करते रहना आवश्यक है। आपकी उन्नति का क्रम कभी भी रुकना न चाहिए। निरन्तर कदम आगे बढ़ाये चलना है और महानता को बूंद-बूंद इकट्ठी करके अपनी लघुता का खाली घड़ा पूर्ण करना है। उस कर्महीन मनुष्य का अनुकरण करने से आपका काम न चलेगा जो पेट भरते ही हाथ-पैर फैलाकर सो जाता है और जब भूख बेचैन करती है तब करवट बदलता और कुड़कुड़ाता है। छोटी चींटी को देखिये वह भविष्य की चिन्ता करती है, आगे के लिए अपने बिल में दाने जमा करती है जिससे जीवन संघर्ष में अधिक दृढ़ता पूर्वक खड़ी रहे, इस दिन पानी बरसने के कारण बिल से बाहर निकलने का अवसर न मिले तो भी जीवित रह सके। छोटी मधु मक्खी भविष्य की चिंता के साथ आज का कार्यक्रम निर्धारित करती है। आज की जरूरत पूरी करके चुप बैठे रहना उचित नहीं, इस जन्म और अगले जन्म में आपको लगातार उन्नति पथ पर चलना है, तो यह अत्यंत आवश्यक है कि यात्रा में बल देते रहने योग्य भोजन की व्यवस्था का ध्यान रखा जाय। इस समय आप जितना बल संचय कर रहे हैं वह आगे चलकर बहुत लाभदायक सिद्ध होगा। उसकी क्षमता से भविष्य का यात्रा-क्रम अधिक तेजी और सरलता से चलता रहेगा।
योग साधना के फल स्वरूप सिद्धियां प्राप्त होती हैं, अष्ट सिद्धि, नव निद्धि के लिए लालायित होकर अनेक साधक कठोर साधनाऐं करते हैं, विजयी बनने के लिए मृत्यु की छाया में रण क्षेत्र की ओर कदम बढ़ाते हैं, स्वर्ग लाभ के लिए दुर्गम वन पर्वतों की यात्रा करते हैं, धनी बनने के लिए एड़ी से चोटी तक पसीना बहाते हैं, बलवान बनने के लिये थक कर चूर-चूर करने वाले व्यायाम में प्रवृत्त होते हैं, विद्वान बनने के लिए रात-रात भर जागकर अध्ययन करते हैं। यह उदाहरण बताते हैं कि उन्नत बनने की आवश्यकता को हमारी अन्तःचेतना विशेष महत्व देती है और उस आवश्यकता को पूरा करने के लिए हम बड़ी से बड़ी जोखिम उठाने को, कठिन से कठिन प्रयत्न करने को तत्पर हो जाते हैं। नकली आवश्यकता और असली आवश्यकता की पहचान यह है कि नकल के लिए, संदिग्ध बात के लिए त्याग करने की तत्परता नहीं होती, असली आवश्यकता के लिए मनुष्य कष्ट सहने और कुर्बानी करने को तैयार रहता है। एक आदमी सिनेमा का शौकीन है उससे कहा जाय कि एक खेल देखने के बदले में तुम्हें अपनी उंगली काटनी पड़ेगी तो वह ऐसा खेल देखने में मना कर देगा क्योंकि खेल देखने की आवश्यकता नकली है, उसके लिए इतना बड़ा कष्ट सहन नहीं किया जा सकता। परन्तु यदि स्त्री, पुत्र आदि कोई प्रियजन अग्निकाण्ड में फंस गये हों तो उन्हें बचाने के लिये जलती हुई अग्नि शाखाओं में कूदा जा सकता है। फिर चाहे भले ही उसमें झुलस कर अपना भी शरीर जल जावे। सिनेमा का खेल देखने की आवश्यकता में कौन असली है कौन नकली उसकी पहचान उसके लिए त्याग करने की मात्रा के अनुसार जानी जा सकती है। हम देखते हैं कि उन्नति करने की लालसा मानव स्वभाव में इतनी तीव्र है कि वह उसके लिये कष्ट सहता है और जोखिम उठाता है। यह भूख असली है। असली आवश्यकता में इतना आकर्षक होता है कि उसके लिए तीव्र शक्ति से प्रयत्न करने को बाध्य होना पड़ता है। मौज में पड़े रहना किसी को बुरा नहीं लगता, पर उन्नति की ईश्वर-दत्त आकांक्षा इतनी तीव्र है कि उसके लिए मौज छोड़कर लोग कष्ट सहने को तत्पर हो जाते हैं।
देखा जाता है कि जो लोग उन्नतिशील स्वभाव के होते हैं उन्हें कहीं से न कहीं से आगे बढ़ाने वाली सहायतायें प्राप्त होती रहती हैं। कभी कभी तो अचानक ऐसी मदद मिल जाती है जिसकी पहले कुछ भी आशा नहीं थी। छोटे-छोटे आदमी बड़े बड़े काम कर डालते हैं, उन्हें अनायास ऐसे अवसर मिल जाते हैं जिससे बहुत बड़ी उन्नति का रास्ता खुल जाता है। साधारण बुद्धि के लोग उन्हें देखकर ऐसा कहा करते हैं कि अमुक व्यक्ति का भाग्योदय हुआ, इसके भाग्य ने अचानक ऐसे कारण उपस्थित कर दिये जिससे वह तरक्की की ओर बढ़ गया। हम इसे ईश्वर की कृपा कहते हैं। जो मनुष्य आगे बढ़ने की तीव्र इच्छा करते हैं, उन्नति के लिए सच्चे हृदय से जो जांफिसानी के साथ प्रयत्नशील है, उसके प्रशंसनीय उद्योग को देखकर ईश्वर प्रसन्न होता है, अपना सच्चा आज्ञापालक समझता है और उसे प्यार करता है। जिस पर उस परम पिता का विशेष स्नेह है उसे यदि वह कुछ विशेष सहायता दे देता है तो उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। एक प्रसिद्ध कहावत है कि—‘‘ईश्वर उसकी मदद करता है, जो अपनी मदद आप करता है।’’ उन्नतिशील स्वभाव के लोगों को—उनकी उचित प्रवृत्ति में सहायता करने के लिए, परम पिता परमात्मा ऐसे साधन उपस्थित कर देता है जिस से उसकी यात्रा सरल हो जाती है। अचानक, अनिश्चित एवं अज्ञात सहायताओं का मिल जाना इसी प्रकार संभव होता है।
आप ‘उन्नति करना’ अपने जीवन का मूल-मंत्र बना लीजिए, ज्ञान को अधिक बढ़ाइये, शरीर को स्वस्थ बलवान और सुन्दर बनाने की दिशा में अधिक प्रगति करते जाइए, प्रतिष्ठावान हूजिये, ऊंचे पद पर चढ़ने का उद्योग कीजिए, मित्र और स्नेहियों की संख्या बढ़ाइये, पुण्य संचय करिए, सद्गुणों से परिपूर्ण हूजिए, आत्म बल बढ़ाइये, बुद्धि को तीव्र करिए, अनुभव बढ़ाइये, विवेक को जाग्रत होने दीजिये। बढ़ना आगे बढ़ना— और आगे बढ़ना— यात्री का यही कार्यक्रम होना चाहिए।
अपने को असमर्थ, अशक्त एवं असहाय मत समझिए, ऐसे विचारों का परित्याग कर दीजिए कि साधनों के अभाव में हम किस प्रकार आगे बढ़ सकेंगे। स्मरण रखिए- शक्ति का स्रोत साधनों में नहीं, भावना में है। यदि आपकी आकांक्षाऐं आगे बढ़ने के लिए व्यग्र हो रही हैं, उन्नति करने की तीव्र इच्छाऐं बलवती हो रही हैं तो विश्वास रखिए साधन आप को प्राप्त होकर रहेंगे। ईश्वर उन लोगों की पीठ पर अप