Books - विवेक की कसौटी
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Language: HINDI
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विवेक और स्वतंत्र-चिंतन
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आधुनिक संसार में स्वतंत्र चिंतन का बडा़ महत्त्व है । प्राय: अन्य देशीय लोग भारतीयों पर अंधविश्वास का दोष लगाया करते हैं, पर यह त्रुटि हमारे देश में पिछले कुछ सौ वर्षों के अंधकार-काल में ही बड़ी है अन्यथा वैदिक साहित्य तो स्पष्ट रूप से स्वतंत्र चिंतन का समर्थन करता है । क्योंकि बिना स्वतंत्र चिंतन के विवेक जाग्रत नहीं होता और इसके बिना अनेक मार्गों में से अनुकूल श्रेष्ठ मार्ग का बोध हो सकना संभव नहीं है । दूसरों का अनुगमन करते रहने में कुछ सुविधा अवश्य जान पड़ती है, पर उसने साध्वी उन्नति का मार्ग अवरुद्ध हैं ।
जिस भांति आलसी, काहिल और विलासी वृत्ति के लोग अपने शरीर से पुरुषार्थ नहीं करना चाहते हैं उससे कतराते हैं, उसी भांति अनेक लोग विचार और मन के जगत में सदा परोपजीवी स्वभाव के होते हैं । वे चाहते हैं कि दूसरे हमें चिंतन और मनन करके विचार-दिशा प्रदान करें और मैं चुपचाप हाँके जाने वाले पशु की तरह केवल उस पथ का अनुसरण करता रहूँ । उस पथ के अच्छे और बुरे होने का उत्तरदायित्व मेरे ऊपर नहीं हो, कोई इसे बुरा होने का दोष मेरे सिर नहीं डाल सकता, पर ऐसा करते समय उसे यह पता नहीं होता कि आखिर अनेक पथों में से किसी एक राह को अपने चलने के लिए चयन कर लेने में भी उसका एकमात्र उत्तरदायित्व हो जाता है । इसलिए वे सभी भांति अपने को निर्दोष सिद्ध करने में सफल नहीं हो सकते । फिर भी ऐसे जनों का मानसिक और बौद्धिक आलस्य दूर नहीं हो पाता । ऐसे मनुष्यों की, उन भेडों से बहुत कुछ समता की जा सकती है, जो एक भेड़ के पीछे चलने की वृत्ति रखकर कुएँ में गिर सकती है । इस वृत्ति के मनुष्यों का व्यक्तित्व कभी निखर नहीं सकता । वह अपने जीवन में महान कार्य करने के लिए प्राय: अयोग्य ही सिद्ध होते हैं ।
अध्ययन तो अनेकों व्यक्ति करते हैं, पर सभी विद्वान नहीं हो पाते, इसका कारण क्या है ? कितने व्यक्ति हजारों पुस्तक पढ़ डालते हैं, कितनी रट भी लेते हूँ फिर भी यदि उनका कुछ निश्चित विचार नहीं है, स्वतंत्र चिंतन नहीं है तो वह उतना बडा विशाल पठन-अध्ययन भी उसके व्यक्तित्व को उसकी सत्ता के महत्त्व को स्थापित करने में असमर्थ ही रहता है, जबकि एक स्वतंत्र चिंतक और मननशील व्यक्ति अपने थोड़े से अध्ययन के सहारे समाज और राष्ट्र में अपना एक विशिष्ट व्यक्तित्व निर्मित कर लेता है ।
जिस भांति शरीर से उत्पन्न शिशुओं को मनुष्य अपनी संतान मानकर उसे स्नेह और प्यार देते हैं, उसके जीवन को विकसित उत्कर्ष भरा बनाने के लिए यथासंभव प्रयत्न करते हैं, उसी भाँति यदि हम अपने स्वतंत्र विचारों को सम्मान और स्नेह दे सके तो वे साधारण जैसे प्रतीत होने वाले विचार ही हमारे व्यक्तित्व को एक ऐसे विशेष रूप में गढ़ डालते हैं, जिस भांति हम अपनी संतान को अपना रंग-रूप प्रदान करते हैं ।
ऐसा नहीं करके यदि हमने केवल दूसरों के विचारों से अपने स्मृति भंडार को भरकर उसे सदा दूसरों का ही बनाए रखा, अन्न की भाँति खा और पचाकर उसे रक्त की भांति अपने विचार का अंग नहीं बना लिया उसका उपयोग नहीं किया व्यवहार में चरितार्थ नहीं किया तो हमारे वे सारे अध्ययन हमारे लिए केवल बोझ ही बनते हैं, हमारी शक्ति को नष्ट ही करते हैं, पुष्ट नहीं करते । इसलिए यदि हमें केवल भारवाही पशु न बनकर मानव बनने की अभिलाषा है, तो जिस वस्तु की हमें जिज्ञासा हो, उसे दूसरों से सुनकर, जानकर एवं अध्ययन करके ही निश्चित न हो जाएँ वरन वह ज्ञान यदि हमारे अंतरात्मा को स्वीकार है, तो उसे अपने अंग-अंग में उतर जाने दें, अपने मन, वाणी और व्यवहार को उससे ओत-प्रोत हो जाने दें । इसी का नाम स्वतंत्र चिंतन और मनन है, अन्यथा वह सत्त्वहीन है-कागज का फूल मात्र है ।
जिस भाँति माँ का दूध पीकर शस्य श्यामला भूमि का अन्न खाकर, जल पीकर, प्रकृति देवी से अन्य खाद्य ग्रहण कर हमारे शरीर परिपुष्ट होते और बढ़ते हैं, उसी भांति प्रत्येक व्यक्ति के मूलगत विचारों की भी दशा है । वह अपने परिपोषण के लिए सभी दिशाओं से पोषक तत्त्व ग्रहण कर बढ़ता जाता है, पर उन तत्त्वों में ही अपने को खो नहीं देता । जिसने अपने को उसी में खोया, वह फिर कोई वृक्ष या व्यक्ति नहीं बनता वरन स्वयं भी खाद्य-खाद बन जाता है और उसे चूसकर, अनुयायी बनाकर दूसरे बढ़ते और विकास करते हैं ।
अपने विचारों को निश्चित और विशिष्ट स्वरूप देने के लिए उसे वाणी और लेखन के द्वारा प्रकट करते रहना चाहिए । पुन: अभिव्यक्ति वाणी और लेखन का अनुशीलन कर उसे परिमार्जित और परिष्कृत बनाते जाना चाहिए । ऐसा अभ्यास करते-करते वह विचार हमारे आचरण में संक्रमित होने लगते हैं और एक दिन हम स्वयं उस विचार के मूर्तिमान स्वरूप बन जाते हैं । यह है सही शुद्ध, चिंतन-मनन का परिणाम ।
यह सृष्टि विविधात्मक रूप में ही अनंत है । इसलिए यहाँ की कोई भी रचना सृष्टि रूप और आकृति संपूर्णतया एक जैसी नहीं होती । इसलिए विवेकयुक्त व्यक्तिगत निर्माण करने के पहले हमें स्वयं अपना ही चिंतन और मनन करना चाहिए । हम कैसा बनना चाहते हैं, यह भी गंभीर चिंतन और मनन के फलस्वरूप अपने अंतर से ही उत्पन्न होता है, दूसरा इसे नहीं दे सकता ।
जिस भांति आलसी, काहिल और विलासी वृत्ति के लोग अपने शरीर से पुरुषार्थ नहीं करना चाहते हैं उससे कतराते हैं, उसी भांति अनेक लोग विचार और मन के जगत में सदा परोपजीवी स्वभाव के होते हैं । वे चाहते हैं कि दूसरे हमें चिंतन और मनन करके विचार-दिशा प्रदान करें और मैं चुपचाप हाँके जाने वाले पशु की तरह केवल उस पथ का अनुसरण करता रहूँ । उस पथ के अच्छे और बुरे होने का उत्तरदायित्व मेरे ऊपर नहीं हो, कोई इसे बुरा होने का दोष मेरे सिर नहीं डाल सकता, पर ऐसा करते समय उसे यह पता नहीं होता कि आखिर अनेक पथों में से किसी एक राह को अपने चलने के लिए चयन कर लेने में भी उसका एकमात्र उत्तरदायित्व हो जाता है । इसलिए वे सभी भांति अपने को निर्दोष सिद्ध करने में सफल नहीं हो सकते । फिर भी ऐसे जनों का मानसिक और बौद्धिक आलस्य दूर नहीं हो पाता । ऐसे मनुष्यों की, उन भेडों से बहुत कुछ समता की जा सकती है, जो एक भेड़ के पीछे चलने की वृत्ति रखकर कुएँ में गिर सकती है । इस वृत्ति के मनुष्यों का व्यक्तित्व कभी निखर नहीं सकता । वह अपने जीवन में महान कार्य करने के लिए प्राय: अयोग्य ही सिद्ध होते हैं ।
अध्ययन तो अनेकों व्यक्ति करते हैं, पर सभी विद्वान नहीं हो पाते, इसका कारण क्या है ? कितने व्यक्ति हजारों पुस्तक पढ़ डालते हैं, कितनी रट भी लेते हूँ फिर भी यदि उनका कुछ निश्चित विचार नहीं है, स्वतंत्र चिंतन नहीं है तो वह उतना बडा विशाल पठन-अध्ययन भी उसके व्यक्तित्व को उसकी सत्ता के महत्त्व को स्थापित करने में असमर्थ ही रहता है, जबकि एक स्वतंत्र चिंतक और मननशील व्यक्ति अपने थोड़े से अध्ययन के सहारे समाज और राष्ट्र में अपना एक विशिष्ट व्यक्तित्व निर्मित कर लेता है ।
जिस भांति शरीर से उत्पन्न शिशुओं को मनुष्य अपनी संतान मानकर उसे स्नेह और प्यार देते हैं, उसके जीवन को विकसित उत्कर्ष भरा बनाने के लिए यथासंभव प्रयत्न करते हैं, उसी भाँति यदि हम अपने स्वतंत्र विचारों को सम्मान और स्नेह दे सके तो वे साधारण जैसे प्रतीत होने वाले विचार ही हमारे व्यक्तित्व को एक ऐसे विशेष रूप में गढ़ डालते हैं, जिस भांति हम अपनी संतान को अपना रंग-रूप प्रदान करते हैं ।
ऐसा नहीं करके यदि हमने केवल दूसरों के विचारों से अपने स्मृति भंडार को भरकर उसे सदा दूसरों का ही बनाए रखा, अन्न की भाँति खा और पचाकर उसे रक्त की भांति अपने विचार का अंग नहीं बना लिया उसका उपयोग नहीं किया व्यवहार में चरितार्थ नहीं किया तो हमारे वे सारे अध्ययन हमारे लिए केवल बोझ ही बनते हैं, हमारी शक्ति को नष्ट ही करते हैं, पुष्ट नहीं करते । इसलिए यदि हमें केवल भारवाही पशु न बनकर मानव बनने की अभिलाषा है, तो जिस वस्तु की हमें जिज्ञासा हो, उसे दूसरों से सुनकर, जानकर एवं अध्ययन करके ही निश्चित न हो जाएँ वरन वह ज्ञान यदि हमारे अंतरात्मा को स्वीकार है, तो उसे अपने अंग-अंग में उतर जाने दें, अपने मन, वाणी और व्यवहार को उससे ओत-प्रोत हो जाने दें । इसी का नाम स्वतंत्र चिंतन और मनन है, अन्यथा वह सत्त्वहीन है-कागज का फूल मात्र है ।
जिस भाँति माँ का दूध पीकर शस्य श्यामला भूमि का अन्न खाकर, जल पीकर, प्रकृति देवी से अन्य खाद्य ग्रहण कर हमारे शरीर परिपुष्ट होते और बढ़ते हैं, उसी भांति प्रत्येक व्यक्ति के मूलगत विचारों की भी दशा है । वह अपने परिपोषण के लिए सभी दिशाओं से पोषक तत्त्व ग्रहण कर बढ़ता जाता है, पर उन तत्त्वों में ही अपने को खो नहीं देता । जिसने अपने को उसी में खोया, वह फिर कोई वृक्ष या व्यक्ति नहीं बनता वरन स्वयं भी खाद्य-खाद बन जाता है और उसे चूसकर, अनुयायी बनाकर दूसरे बढ़ते और विकास करते हैं ।
अपने विचारों को निश्चित और विशिष्ट स्वरूप देने के लिए उसे वाणी और लेखन के द्वारा प्रकट करते रहना चाहिए । पुन: अभिव्यक्ति वाणी और लेखन का अनुशीलन कर उसे परिमार्जित और परिष्कृत बनाते जाना चाहिए । ऐसा अभ्यास करते-करते वह विचार हमारे आचरण में संक्रमित होने लगते हैं और एक दिन हम स्वयं उस विचार के मूर्तिमान स्वरूप बन जाते हैं । यह है सही शुद्ध, चिंतन-मनन का परिणाम ।
यह सृष्टि विविधात्मक रूप में ही अनंत है । इसलिए यहाँ की कोई भी रचना सृष्टि रूप और आकृति संपूर्णतया एक जैसी नहीं होती । इसलिए विवेकयुक्त व्यक्तिगत निर्माण करने के पहले हमें स्वयं अपना ही चिंतन और मनन करना चाहिए । हम कैसा बनना चाहते हैं, यह भी गंभीर चिंतन और मनन के फलस्वरूप अपने अंतर से ही उत्पन्न होता है, दूसरा इसे नहीं दे सकता ।