Books - बच्चों के व्यक्तित्व का विकास
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Language: HINDI
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बच्चों के व्यक्तित्व का विकास
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देवियों! भाइयों!!
मां अपने बच्चे के निर्माण करने के संबंध में अपने कर्त्तव्यों को प्रायः पांच वर्ष तक पूरा कर लेती है। पेट में जिस दिन से बच्चा आता है, उसी दिन से मां का कर्त्तव्य शुरू हो जाता है। बालक का स्वास्थ्य और बालक का मस्तिष्क विकास के लिए अपने चिंतन और उसको अपने आहार-विहार में किस तरह संयम बरतना चाहिए, यह क्रिया पांच साल तक जारी रहती है; क्योंकि माता का ही बच्चे से सबसे अधिक संबंध रहता है। मां के पास वह स्वयं रहता है, खेलता भी वह माता के पास है, बातचीत भी वह माता से ही ज्यादा करता है। गोदी में भी वह मां के पास आता है। माता का सबसे ज्यादा प्रभाव बच्चे पर तब तक होता है, जब तक उसकी उम्र पांच साल की होती है। पांच साल के बाद शिक्षण की जवाबदारी दूसरे लोगों के कंधों पर चली जाती है। मां की, अभिभावकों की जिम्मेदारी तो हमेशा ही रहेगी, उसमें तो कमी क्या हो सकती है, लेकिन मुख्यतया उसकी जिम्मेदारियां अभिभावकों पर चली जाती हैं, जिनमें पिता मुख्य है। पहले ही कहा जा चुका है कि शिक्षण स्कूलों में भले ही हो, लेकिन व्यक्तित्व का निर्माण घर की पाठशाला में ही होता है।
घर को एक पाठशाला के रूप में विकसित किया जाना चाहिए, अगर हमको भावी पीढ़ी को अच्छा बनाना है तब माता को अपना स्वभाव, पिता को अपना स्वभाव, घर वालों को अपना स्वभाव, काम करने का ढंग, घर की व्यवस्था इत्यादि का वातावरण ऐसे बनाना चाहिए, जिसमें कि गीली मिट्टी के तरीके से बने हुए बालक ढांचे में ढलते हुए चले जायें। अगर कोई चीज ढालनी होती है, तो सारी मशीन इस तरीके से बनायी जाती है, उसके पुर्जे ऐसे बनाये जाते हैं, जैसे मान लो लोहे की गोलियां ढालनी हैं, तो उसकी सारी मशीनें, ढांचे और डाइयां ऐसी बनायी जायेंगी, जो पिघला हुआ लोहा जहां से जाये, जिस नाली में होकर के जाये, बस वो गोली में बदलता हुआ चला जाये, नीचे निकलता हुआ चला जाये। अगर मशीन में नुक्स हुआ और मशीन ठीक नहीं होगी तो गोलियां साफ नहीं निकलेंगी, टेढ़ी हो जायेंगी और खराब हो जायेंगी। इसी तरीके से बच्चों को किस तरीके से बनाया जाना है? उनको सुयोग्य बनाया जाना है या बुरा। उनको सुसंस्कृत बनाया जाना है या कुसंस्कारी। इसके लिए केवल वाणी के द्वारा दिया जाने वाला शिक्षण पर्याप्त नहीं है। वाणी के द्वारा दिये गये शिक्षण को केवल कान ग्रहण करते हैं। यह ज्ञान स्वभाव में नहीं आता, अंतश्चेतना में नहीं आता।
अंतः चेतना में वो बातें आती हैं, जिनका अक्सर लोग देखा करते हैं, समझते हैं और उसी को लोग सही मानते हैं। कहने के बारे में यह खयाल है कि बात को बढ़ा−चढ़ा कर भी कहा जा सकता है और बात को ऐसे-वैसे भी कहा जा सकता है। ऐसे-वैसे कहने से क्या काम चलेगा? हमको जो कुछ भी बालकों को बनाना है, घर का वातावरण ठीक वैसा ही बनाया जाना चाहिए। इसके लिए अपने आपको ढालना चाहिए, पिता को, माता को, चाचा को, ताऊ को, बहिनों को। अगर वो नहीं ढले हैं, तो अभिभावकों का काम है कि एक बच्चे के लिए ही सही या अपने बच्चों के लिए सही घर के वातावरण को व्यवस्थित करें। अपनी दिनचर्या ठीक बनायें। उठने-बैठने का क्रम ठीक हो। सभ्यता और संस्कृति क्रम ठीक बने। एक-दूसरे के साथ में सभ्यता का व्यवहार करें। ऐसा नहीं हो कि कोई किसी के साथ में बुरा व्यवहार करे और बच्चों पर उसकी छाप पड़े। इसीलिए घर वस्तुतः एक पाठशाला बनाया जाना चाहिए। बच्चे पैदा करने हैं और बच्चों को सुविकसित-सुसंस्कृत बनाना है तो। और बच्चों को कूड़े-कबाड़े के तरीके से पालना है, चूहे-बिल्ली के बच्चों के तरीके से बच्चे पैदा करने हैं, तब तो वो कुछ भी बन जायें, तो बात अलग है। तब तो कुछ कहा नहीं जा सकता। घर का कोई भी आदमी चाहे जैसे रहे, चाहे जो कहे, चाहे जिस तरीके से सोए, चाहे जैसा आचरण करे और फिर चाहे जैसे बच्चे बन भी सकते हैं, भले भी बन सकते हैं। संभावना ज्यादा इसी बात की है कि वो बुरे ही बनेंगे या वो खोटे आदमी बनेंगे।
घर के वातावरण के लिए अभिभावकों की बहुत जिम्मेदारी है। स्कूलों में तो जो बच्चे पढ़ने के लिए जाते हैं, प्रायः 45-45 मिनट के 3-4-5 घण्टे पढ़ते हैं और चार-पांच घण्टे के बाद घर आ जाते हैं। बाकी सारे का सारा प्रभाव तो घर के वातावरण का ही पड़ता है। बीस घण्टे-अठारह घण्टे तो वो घर में ही रहते हैं। असली पाठशाला तो वही है। नकली पाठशाला स्कूल भी है। स्कूल में कोई आदमी पढ़ा करके कोई आदमी लम्बे-चौड़े ख्वाब देखना चाहता हो, तो वो गलत है। पहले जमाना अलग था, उस जमाने में अध्यापक जितना ध्यान पढ़ाई-लिखाई पर देते थे, उससे सौ गुना ध्यान इस पर देते थे कि जो बच्चे हमारे यहां पढ़ने के लिए आते हैं, उन पढ़ने वाले बालकों का संस्कार कैसे बने? स्वभाव कैसे बने? कर्म कैसे बने? उसके विचार करने का क्रम क्या है? काम करने की शैली क्या है? उसका रहन-सहन क्या होता है? उसको कैसा सुधारा जाय? वहां पढ़ाई का मूल उद्देश्य यही था। और जो मामूली ज्ञान है, उसका तो लोग वैसे ही पढ़ा देते थे। एक-दो घण्टे रोज पढ़ा दिया, काफी है। हिसाब पढ़ा दिया, एक घंटे रोज पढ़ा दिया, इतने समय में बस आदमी हिसाब का जानकार हो जायेगा। इतिहास है, दूसरी चीजें हैं, पढ़ना-लिखना हे, अक्षर ज्ञान है, व्याकरण है, यह सब छोटी-छोटी बातें हैं। इनका काम भी जीवन में कितना आता है? जरा सा काम आता है, उतनी जानकारियां एक-दो घण्टे में रोज दे देते थे और पढ़ाई चलती थी। बाकी पढ़ाई उस वक्त चला करती थी। अभिभावक इसी तरफ ध्यान देते थे और अभिभावकों के लिए आवश्यक था, लेकिन अब घर के वातावरण बिगड़ते चले जा रहे हैं और पीढ़ियां बिगड़ती चली जायेंगी। इसीलिए स्कूली शिक्षण ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि हमको घर के वातावरण को और अभिभावकों को, घर के रहन-सहन को सुधारना चाहिए, अगर हमको अगली पीढ़ियों को अच्छा बनाना है तब। इसके बाद! इसके बाद स्कूल के अध्यापकों का नम्बर आता है।
अध्यापक माता-पिता से श्रेष्ठ माने गये हैं। गुरू, गुरू को पिता से भी श्रेष्ठ माना गया है, माता से भी श्रेष्ठ माना गया है। क्यों? इसलिए माना गया है कि इन अभिभावकों को अक्षर ज्ञान का समय नहीं मिलता। समय भी मिलता है, तो उनके पास योग्यता नहीं होती। योग्यता भी होती है, तो थोड़ी देर के लिए बच्चों से दस-बीस मिनट के लिए मिल लेते हैं, अन्य धन्धों में लग जाते हैं। अध्यापक ही एक ऐसा है, सुसंस्कृत व्यक्ति, जिसके पास चार-पांच घण्टे रोज स्कूल में रहना पड़ता है। उसकी छाप आगे भी पड़ी रहती है। वो कल की बात को पूछ भी सकता है। अगली बात को बता भी सकता है। मां-बाप के बात में तीसरा नम्बर जो पड़ता है, अध्यापकों का पड़ता है, छोटे बच्चों के ऊपर, क्योंकि उसके लिए शासक वही है, मार्गदर्शक वही है, राजा वही है। उसका बहुत कुछ असर होता है बच्चों के दिमाग पर। और जो असर अध्यापक का है, उस असर को किस तरीके से इस्तेमाल किया जाय, ये अध्यापकों की बुद्धिमत्ता के ऊपर है।
एक विष्णु शर्मा थे। एक राजा की ये शिकायत थी कि उसके लड़के वाहियात हो गये, उजड्ड हो गये। वो पढ़ते-लिखते नहीं हैं और उनके काबू में नहीं आते। विष्णु शर्मा ने कहा कि हम पढ़ा देंगे आपके बच्चों को। बच्चों को बुलाया, उन्हें पढ़ने के लिए पट्टी-कलम दी, वो तो भाग गये, नहीं पढ़े। तब उन्होंने कहा एक और विधि है, अभी हम बताते हैं। उन बालकों को बुलाया और उनसे कहानी कहना शुरू कर दिया। बहुत-बहुत बढ़िया मजेदार कहानियां कहीं। बच्चों को पढ़ने में बहुत आनन्द आया, बहुत मजा आया और कहानियों को सुनने लगे। और कहानियों को सुनते-सुनते बालक इतने निष्णात हो गये राजनीति और अर्थ व्यवस्था में कि उनके पिता को बहुत प्रसन्नता हुई। उन्होंने एक लम्बी-चौड़ी रकम उन विष्णु शर्मा को दी। उन विष्णु शर्मा की लिखी हुई किताबों का नाम पंचतंत्र-हितोपदेश है, जो संस्कृत की बहुत महत्त्वपूर्ण पुस्तकें हैं।
इस तरीके से अगर अध्यापक चाहे, तो उसी पढ़ाई में से, जिसको दैनिक जीवन में पढ़ाना होता है, उसमें से भी वह कितना बड़ा काम कर सकता है, कितनी बड़ी व्यवस्था और जिम्मेदारी उठा सकता है, ये होना ही चाहिए। ये होना ही चाहिए अध्यापक को वेतन मिलता है और सरकारी कैरिकुलम पूरा करना पड़ता है और पाठ्यक्रम पास कराना पड़ता है और बच्चों को डिवीजन लाने के लिए मेहनत करनी पड़ती है, ठीक है। वह तो सब किया ही जाना चाहिए। इसके लिए अलग से कुछ काम करना नहीं है। इतिहास पढ़ाया जाये, इतिहास के निष्कर्ष इस तरीके से पढ़ाये जाये कि उन निष्कर्षों का लाभ बच्चों को मिले। हिस्ट्री से लेकर अनेक भाषाओं में पढ़ाये जाने वाले अनेक पाठ ऐसे आते हैं, जिनको इस ढंग से, इस रंग से अध्यापक पढ़ाये कि उसी में शिक्षण की पद्धति भरी पड़ी हो। फिर इसके अलावा भी थोड़ा-बहुत तो समय अध्यापक अपने बच्चों के लिए निकाल ही सकता है। थोड़ा वक्त तो दें ही सकता है। एक पंद्रह मिनट-आधा घण्टा उनसे मिल लिया जाय और उनकी कष्ट-कठिनाइयों को पूछ लिया जाय, घरेलू समस्याओं को पूछ लिया जाय।आजकल उनके दिमाग में क्या खुराफात चल रही है, उसको समझ लिया जाय। उसके मुताबिक सलाह-मशविरा दिया जाय। सफाई रखने की शिक्षा, अनुशासन की शिक्षा, बड़ों के पैर छूने और बड़ों को प्रणाम करने की शिक्षा। इस तरीके से अध्यापक चाहे तो बहुत आसानी से उन्हें प्रेरित कर सकता है और जरा भी उस पर दबाव नहीं पड़ सकता। इसके लिए कोई अतिरिक्त भार उसको अपने पर उठाना नहीं पड़ता। यदि अध्यापक चरित्रवान् हां, अध्यापक राष्ट्रसेवी हां, अध्यापक इस बात को समझते हों कि हमें केवल पढ़ाना, पढ़ाने भर के लिए ही नहीं है, हम दूसरे नौकरों के तरीके से नौकर नहीं हैं। अध्यापक की नौकरी केवल नौकरी नहीं हो सकती। इसलिए हम गुरू मानते हैं उसको। इसलिए उसका बड़ा ऊंचा सम्मान था समाज में और रहना चाहिए और रहेगा। वेतन कितना मिलता है, उसके ऊपर कोई दारोमदार नहीं है।चाणक्य, चाणक्य को कौन वेतन देता था? केवल फटे-पुराने कपड़े पहनते थे और जंगलों में रहते थे और फूस की झोंपड़ी में रहते थे। उनकी आवश्यकता कम थी। और उनको जो गुजारे को मिलता था, कम मिलता था। लेकिन इससे चाणक्य की महानता पर फर्क क्या आया? चाणक्य नालंदा विश्वविद्यालय की अनेक फैकल्टियों का डीन और उस तरह का जिसकी शिक्षा का कोई ठिकाना नहीं। बड़ा अध्ययनशील, नालंदा का विश्वविद्यालय, नालंदा का पुस्तकालय की सूझबूझ उसी की थी। गरीब रहने से और कम खर्च मिलने से हमको कर्त्तव्य को छोड़ देना चाहिए, ये क्या बात? कर्त्तव्य! कर्त्तव्य को पूरा करना अलग बात है। वह हमारी आध्यात्मिक, नैतिक, राष्ट्रीय और नागरिक जिम्मेदारी है। वेतन हमको कम मिलता है, तो यह सरकार से कहना चाहिए, लड़ना-झगड़ना चाहिए या कमाई के दूसरे सोर्स ढूंढ़ने चाहिए। जो भी करना चाहिए, क्योंकि हमको कम वेतन या ज्यादा वेतन मिलता है, इसलिए कम पढ़ायें या ज्यादा पढ़ायें, अपनी जिम्मेदारियों को कम करें या ज्यादा करें, ये तो खराब बात है। कम वेतन मिलता है तो वेतन के लिए दूसरे तरीके अख़्तियार करने चाहिए या इस काम को छोड़ देना चाहिए, दूसरा ज्यादा फायदे का काम करना चाहिए। लेकिन हम इस काम को छोड़ेंगे नहीं और इसे अच्छे तरीके से करेंगे नहीं, यह तो देश के साथ में विश्वासघात हो गया। अपनी आत्मा के साथ विश्वासघात हो गया और बच्चों के साथ विश्वासघात हो गया। अध्यापक को यह शोभा नहीं देता। ये दलील उसकी बिलकुल नाकारा है कि हमको कम वेतन मिलता है, इसलिए हम बच्चों के शिक्षण पर ध्यान नहीं देते। तो फिर आपने क्यों की थी नौकरी? पहले ही देख लेते कि यह काम कम वेतन का है तो हम दूसरा काम करेंगे। जब आपने जिम्मेदारी वहन की है, तो फिर आप गड़बड़ क्यों फैलाते हैं? गड़बड़ नहीं फैलाई जानी चाहिए। किसी वर्ग को नहीं फैलानी चाहिए, खास तौर से अध्यापकों को। क्योंकि मां और बाप के बाद तीसरा नम्बर है अध्यापक का।
अध्यापक राष्ट्र के निर्माण करने में कितना योगदान दे सकते हैं? इसका अगर किसी को इतिहास जानना हो, तो भारत वर्ष के इतिहास को देखकर के वे जान सकते हैं। प्राचीन काल के संत और ब्राह्मण अध्यापन का काम करते थे। अध्यापन का काम करते थे, उनके गांव-गांव में स्कूल थे, उनकी पाठशालाएं थीं। उन्हें दान-दक्षिणा तो मिलती थी। उस दान-दक्षिणा से अपना गुजारा कर लेते थे और उससे केवल अध्यापन का काम करते थे। हर ब्राह्मण अध्यापक होता था, हर संत अध्यापक होता था। बच्चों की शिक्षण एवं स्वास्थ्य की समस्या जहां तक थी, देहातों में रह कर के उस काम को ब्राह्मण लोग करते थे। और जो जहां तक मनुष्य की आत्मिक और आंतरिक और दूसरी समस्याएं, गहरी समस्याएं थीं, और जो बड़े वर्ग के लोग उनके पास आते थे, उनका शिक्षण तंत्र का काम संत महात्मा और साधुओं का था। वो मनुष्यों की मनोवैज्ञानिक, नैतिक और सामाजिक समस्याओं का हल प्रस्तुत करते थे। और छोटी शिक्षाएं, छोटे जीवन की शिक्षा के लिए ब्राह्मण काम करते थे।
प्राचीन काल में ब्राह्मण और साधु का बहुत सम्मान था। उनको गुरू भी कहते थे, उनके पांव छूते थे और उनका बहुत ही आदर करते थे। गरीब होते थे तो क्या! और वो गरीब होने पर भी उनका गौरव बहुत ही उच्च कोटि का माना जाता रहा। इसका कारण ये था कि उनकी जिम्मेदारी समाज के अन्य सारे के सारे वर्गों की अपेक्षा ज्यादा मूल्यवान् और ज्यादा महत्त्वपूर्ण थी। अध्यापक को अभी मैंने कहा न, माता-पिता के बाद दूसरा नम्बर आता है और यों भी कहा जा सकता है कि माता-पिता से ज्यादा पहला नम्बर आता है। माता-पिता से पहला नम्बर है अध्यापक का, क्योंकि माता-पिता के पास जो ज्ञान नहीं है, जो शिक्षा नहीं है, जो योग्यता नहीं है, पढ़ाने का ढंग नहीं है बेचारों को मालूम और मनोविज्ञान की जानकारी नहीं है, शिशु का विकास कैसे होता है, उसको समझ नहीं पाते हैं, वो सारी की सारी योग्यताएं अध्यापक के पास हैं। अध्यापक चाहें तो थोड़े समय में ही, केवल चार-पांच घण्टे अपने पास रखकर के भी जाने क्या से क्या सिखा सकता है, बालकों को क्या से क्या बना सकता है।
जिस अध्यापक के बच्चे अच्छे नहीं निकल सके, कुरूप निकले, कुपात्र निकले, बुरे काम करने वाले निकले, उच्छृंखल निकले, उसके बारे में दोष किसी को भी दिया जाय, पर अध्यापक उससे बच नहीं सकता। उसने अपने बालकों पर नैतिक दबाव डालने की कोशिश नहीं की। और, और उसने जो शिक्षण दिया, उसके भीतर से भावनाओं को भड़काने वाले और मनुष्य के अंतरंग को स्पर्श करने वाले शिक्षण उसके पास थे नहीं। अगर उसके पास रहे होते तो जरूर उसने बालकों के कोमल हृदय के अंतरंग को स्पर्श किया होता और उनकी भावनाओं को मोड़ देने में सफल हो गया होता। किसी बच्चे की डिवीजन न आये और एक साल फेल हो जाये, तो उससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है।
बनता-बिगड़ता इससे है कि उसका व्यक्तित्व सही रूप से बन न पाया। इसलिए हमारे अध्यापक का यह बहुत ही पवित्र और पुण्य और एक महान कर्त्तव्य है कि उसने वो काम उठाया है, अपने कंधे पर लिया है, तो उस काम में भूलचूक नहीं करनी चाहिए। सरकारी कैरिकुलम में भले ही ये बातें न हों और सरकारी पाठ्यक्रमों में यह बात भले ही जुड़ी न हो कि बच्चे को सामान्य ज्ञान के अतिरिक्त उसका नैतिक, बौद्धिक और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय कर्त्तव्यों का पालन करने के लिए प्रेरणा किस तरीके से दी जाय, पर समाज के लोग या अध्यापक अपने आप इसे कर सकते हैं। यों, यों सरकार का भी काम है कि जो आजकल की भार स्वरूप, बेकारी पैदा करने वाली, बेरोजगारी बढ़ाने वाली, उच्छृंखलता उत्पन्न करने वाली शिक्षा प्रणाली की प्रक्रिया है, उसको जड़-मूल से बदल दे ।
जिन राष्ट्रों ने अपने समाज को और अपनी भावी पीढ़ी को बनाने के लिए प्रयत्न किया है, उन्होंने पहला ध्यान शिक्षा के ऊपर दिया है। जर्मनी का उदाहरण है। जर्मनी के हिटलर के दिमाग में एक बात थी। अपने जर्मन नागरिकों को ऐसा हिम्मत वाला, ऐसा बहादुर और ऐसा महत्त्वाकांक्षी बना दिया जाये कि सारी दुनिया पर जर्मन जाति हावी हो जाये और सारी दुनिया पर उसका आधिपत्य हो जाय और चक्रवर्ती शासन हो जाय। इस तरह की इस आवश्यकता को पूरा करने के लिए उसने एक ही सुझाव पारित किया कि अपने देश का शिक्षण आमूलचूल बदल दिया। जो कुछ भी पाठ पढ़ाये जाते रह, और जो कुछ भी शिक्षण दिया जाता रहा, उसमें पूरा-पूरा पुट इस बात का लगाया जाता रहा। पहली किताब पढ़ने से लेकर एम.ए. पास होने तक हर पाठ, हर इतिहास और हर बात को इस तरीके से बालकों को सिखाया जाता रहे कि बच्चे के मन में महत्त्वाकांक्षा उत्पन्न हो जाय। उसके मन में शौर्य और पराक्रम की भावना उत्पन्न हो जाय। उसके मन में बढ़−चढ़ के काम करने का माद्दा उत्पन्न हो जाय। उसको नेतृत्व करने की और लड़ाई के मैदान में खड़े होने की हिम्मत पैदा हो जाय और जर्मन जाति का गौरव सारे विश्व पर छा देने की ललक पैदा हो जाय। इसी तरह के तेजस्वी और ओजस्वी अध्यापक उसने नियुक्त किए, इस प्रकार सारी शिक्षा प्रणाली को बदल दिया। उसका परिणाम, उसका परिणाम यह हुआ कि जब जर्मन पर हिटलर का शासन प्रारंभ हुआ, तो उसके थोड़े ही दिनों बाद लाखों की संख्या में, करोड़ों की संख्या में इस तरीके से शूरवीर नागरिक आ गये और इस तरीके से शूरवीर व्यक्ति आ गये कि उनका खून उबल रहा था, और जो ये कह रहे थे कि हम दुनिया पर छायेंगे। और हम सारी दुनिया का नेतृत्व करेंगे। बाकी किसी देश में वह शौर्य नहीं है, वह महत्त्वाकांक्षा नहीं है, जो हमारे अंदर है। इन सारी की सारी मनोभावनाओं का विकास करना इसलिए संभव हुआ कि वहां की शिक्षा प्रणाली आदि से अंत तक उसी ढांचे में ढाली गयी थी।पिछले दिनों कई देशों ने ऐसा किया है। जापान की विश्वस्तरीय शिक्षा और वहां का नागरिक अपने देश के लिए न जाने क्या से क्या करने को तैयार है। जिन दिनों में बौद्ध धर्म का बहुत विस्तार था जापान में और बौद्ध धर्म के प्रति बहुत निष्ठा थी, तब एक बाहर के आने वाले व्यक्ति ने बौद्ध बालक से ये पूछा कि अगर तुम्हारे देश पर बुद्ध भगवान हमला करें और हिंदुस्तान से हिंदुस्तानियों को लेकर को लेकर के जापान के ऊपर चढ़ाई करें; तो आप क्या करेंगे? तो उन्होंने कहा हम बुद्ध हैं हम बौद्ध हैं, धर्म के सिद्धांतों को मानते हैं, हम बौद्ध धर्म का मानते रहेंगे, लेकिन बुद्ध जो इसके संस्थापक हैं, हमारे देश पर हमला करेंगे, तो हम उनका सिर काट देंगे और जो भी लोग आयेंगे हम उनको तहस-नहस कर देंगे। धर्म की अपेक्षा, मजहब की अपेक्षा उन्होंने इस बात को आवश्यक समझा कि देश के प्रति निष्ठावान् हुआ जाय, अपने वर्ग के प्रति निष्ठावान् हुआ जाय। अपनी कौम के प्रति निष्ठावान् हुआ जाय। ये निष्ठावान् होना कोई जमीन-आसमान से नहीं आता, कोई अनायास ही अपने पेट में सीख के नहीं आता। बुद्धि और भावनाएं एकाएक नहीं बन जातीं। इसके लिए वातावरण बनाना पड़ता है, खास तौर से शिक्षा का। शिक्षा का वातावरण यदि ठीक तरीके से बना दिया जाय तो व्यक्ति चरित्रवान् बन सकते हैं। इंग्लैण्ड और दूसरे देशों की नैतिकता और नागरिकता के बारे में सारी दुनिया में सराहना की जाती है। वहां आम तौर से आदमी बेईमान नहीं होते। मूल्य ज्यादा रखें वह बात ठीक है, लेकिन आदमी अपनी इज्जत का सवाल रखता है।
शराबखाने में भी यह देखा है कि शराबी लोगों ने शराब पी और शराब पीकर के बेहोश हो गये। बेहोश हो गये तब उसकी जेब में जो दो हजार रुपये के नोट थे, तब शराबखाने के मालिक ने उस पैसे को गिना और संभाल कर रखा और संभालकर रखने के बाद में जितने पैसे की शराब पी थी, ठीक बिलकुल नये काने-कौड़ी का फरक नहीं किया, उतना ही बिल उसकी जेब में डाल दिया और बाकी पैसा जेब में से काट करके बाकी पैसों समेत टैक्सी मंगाई और टैक्सी किराये करके उसे भेज दिया, क्या मजाल कि एक कानी कौड़ी का फरक पड़े?
इस तरह की नैतिकता की शिक्षा जिन देशों में होती है, वास्तव में वही देश इस लायक होते हैं, जो अपने भीतर की अंतरंग व्यवस्था को कायम रख सकें और दूसरे दशों का भी मार्गदर्शन कर सकें। इंग्लैण्ड अपने उद्देश्य की दृष्टि से इस दुनिया में गये-गुजरे जमाने का बेहतरीन देश है और सभ्य देश है और उसने हमारे देश पर कितने वर्षों तक हुकूमत की। ये हुकूमत किस तरह से की, कैसे की, यह मैं नहीं कहता, मैं तो सिर्फ यही कहता हूं कि इतनी दर रहने वाले जरा से आदमी सात समुद्र पार करके आ गये और इतने बड़े देश के ऊपर हुकूमत कर सके। उनके अंदर ये गुणों की विशेषता नहीं है क्या? हम अपने देश की हिफाजत नहीं कर सके, अपनी आजादी की रक्षा नहीं कर सके। वो सात समुद्र पार करके आये। मैं अंग्रेजों की प्रशंसा नहीं करता, मैं तो इस बात की प्रशंसा करता हूं कि अगर मनुष्य के गुणों का विकास करने का और मनुष्य के चरित्र का विकास करने का क्रम बनाया जा सकता हो, तो छोटे-छोटे व्यक्ति, झोंपड़ों में रहने वाले व्यक्ति भी इतने महान् और इतने श्रेष्ठ बन सकते हैं कि क्या कहना! इस सारी की सारी व्यवस्था को बनाना हमारी शिक्षा प्रणाली का काम है। ये सरकार का काम है और सरकार को मजबूर करना चाहिए कि कूड़े-कबाड़े के तरीके से हमारे बालकों का दिमाग खराब करने वाली, पैसा खराब करने वाली और उसके भविष्य को अंधकार में धकेल देने वाली और उसको बेकार का आदमी बना देने वाली, जो शिक्षा प्रक्रिया है, उसको जड़-मूल से काट कर फैंक दिया जाय। और बिलकुल ही जिस तरीके से शासन बदल जाते हैं, गवर्नमेण्टें बदल जाती हैं, उसी तरीके से यह कूड़ा-कबाड़ा जैसी शिक्षा को खत्म कर दिया जाय। इससे तो अच्छा है कि आदमी बिना पढ़े रहे। बिना पढ़े आदमी आज से सौ वर्ष पहले थे, लेकिन उनको अपने चरित्र का ज्ञान था, अपने कर्त्तव्यों का ज्ञान था, अपने परिवार का ज्ञान था। आज का पढ़ा-लिखा आदमी सिर्फ नौकरी करना जानता है और पैसे कमाना जानता है। वह अपने मां-बाप के प्रति कर्त्तव्यों के प्रति भूल, बच्चों के प्रति भूल, समाज के प्रति भूल और अपनी नैतिक जिम्मेदारियों के प्रति भूल; भूलता ही भूलता चला जाता है और मुझे ऐसा मालूम होता है कि न मालूम शिक्षा में दोष है या वातावरण में दोष है। किसमें है दोष, लेकिन ऐसा कोई दोष जरूर है कि अभी भी बिना पढ़े की तुलना में यदि पढ़े को तोला जाये तो वो ज्यादा अनैतिक पाया जायेगा और गलत आदमी पाया जायेगा, देश के लिए हानिकारक पाया जायेगा। अपनी रोटी कमा ले, इससे क्या बना? अपनी रोटी तो कोई भी कमा सकता है। अपनी रोटी तो भेड़िया भी कमा लेता है। अपनी रोटी तो कुत्ता भी कमा लेता है। अपनी रोटी तो चूहा भी कमा लेता है। अपनी रोटी कोई ज्यादा कमा ले और पैसे खा ले और ज्यादा खुराक इकट्ठी कर ले और ज्यादा मौज-मजा से रह ले, यह क्या जीवन का लाभ हुआ और क्या समाज के लिए इसका अनुदान मिला? सिर्फ एक आदमी की बढ़ोत्तरी का कुछ मतलब नहीं निकलता। राई बराबर भी उससे फायदा नहीं होता।
सारा समाज गरीब हो और एक आदमी बैठकर रोटियां खाये, तो यह उस आदमी के लिए धिक्कार और शर्म की बात है। उसको जाहिल और जलील कहना चाहिए। यदि सारा देश गरीब रहता है और वो आदमी बैठकर इस तरीके से रोटियां खाता है, तो वह ऐसा कमीना आदमी है, उसको कमीना न कहा जाये तो क्या कहा जायेगा? ये कमीने आदमी मालदार भी हों तो क्या, अमीर भी हो जायें तो क्या? अमीर और मालदार और ज्यादा खाने वाले और ज्यादा पहनने वाले लोग अगर देश में पैदा किए जायें, तो उससे देश का कुछ भला नहीं हो सकता। सही बात तो ये है कि और भी बरबादी होगी, ईर्ष्या उत्पन्न होगी, डाह उत्पन्न होगा, उसकी देखा−देखी दूसरे लोग ऐसे गलत कदम उठायेंगे। ये शिक्षा आज की हमारी आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पा रही है। इसलिए सरकार पर जोर डाला जाना चाहिए कि इसको इस तरीके से बदल दिया जाय कि अगली पीढ़ियों में वो महत्वाकांक्षाएं उत्पन्न हों। अमीर बनने की नहीं, खुशहाल बनने की नहीं, ऐय्याश बनने की नहीं, मालदार बनने की नहीं और मौज-मजा उड़ाने की नहीं, बल्कि उनके मन में दूसरी ही कामना और दूसरी इच्छाएं उत्पन्न हों, जो कि व्यक्ति की महानता को विकसित करती है, समाज को श्रेष्ठ बनाती हैं और राष्ट्र की जड़ों को मजबूत करती हैं। ऐसी शिक्षा की जड़ें, ऐसे व्यक्तित्व विकास करने की जड़ें हमारी शिक्षाओं में ही सन्निहित हैं। उस शिक्षा का विकास करना हम में से हर आदमी का काम है। गलत शिक्षा चल रही है, उसको रोकना, उसको रोकने के लिए, परिवर्तन करने के लिए सरकार को मजबूर करना हमारा-आपका सबका काम है और वो किया जाना चाहिए। सरकार में ही अगर कोई विचारशील लोग हों, मैं नहीं जानता कि उसमें कैसे-कैसे लोग रहते हैं, लेकिन उनमें से अगर विचारशील लोग हों, तो उनको भी इस बात को समझना चाहिए कि अगर उन्होंने शिक्षा का परिवर्तन न किया, तो सारा राष्ट्र तहस-नहस हो जायेगा। चाहे वो नहर बना लें, चाहे वो बांध। शिक्षा के भीतर नैतिकता का समावेश आवश्यक है। ये कैसे किया जाना चाहिए, इस पर विचार करना विशेषज्ञों का काम है।
अब इसके बाद में तीसरा एक और वर्ग रह जाता है, जिसको स्वयं अध्यापक और विद्यार्थी कहते हैं। विद्यार्थी अगर ठीक तरीके से अपने आप को अनुशासन में रखना नहीं सीखें और इस बात को भूल जायें कि हमारे जीवन के प्राथमिक वर्ष हमारे भावी जीवन की नींव हैं, नींव अगर कमजोर बनी रही तो इमारत खड़ी नहीं हो सकती। तब इमारत खराब हो जायेगी, इमारत टूट-फूट जायेगी, इमारत तहस-नहस हो जायेगी। अगर हमारे भावी जीवन की इमारत, जो हमने सुंदर सपने के रूप में संजोकर रखी है, अगर उसकी जड़ छोटी उम्र में विद्यार्थी जीवन से ठीक तरीके से संभालकर नहीं रखी गयी, तो हमारी बेहतरीन इमारत नहीं बन सकती और हम खराब जिंदगी जिएंगे। इसीलिए प्राथमिक जीवन, जिसको हम विद्यार्थी जीवन कहते हैं, एक संयम का जीवन है, एक तपश्चर्या का जीवन है, योग साधना का जीवन है। उसको योग साधना के रूप में ही जिया जाना चाहिए। विद्यार्थियों को संयमी ही रहना चाहिए। शौक-मौज करने के लिए तो कितनी ही जिंदगी पड़ी है। कोमल उम्र जो है, उस पर जल्दी-जल्दी प्रभाव पड़ जाते हैं। उस समय सिनेमा जैसे वाहियात शौक, जिसमें कि अपने देश में सिवाय किसी का नैतिक चरित्र खराब करने के और कोई उद्देश्य उनका नहीं है। ये फिल्म बड़ी उपयोगी थी। जर्मनी और दूसरे देशों ने अपनी जनता को, अपने नागरिकों को वैज्ञानिक जानकारियां, स्वास्थ्य संबंधी जानकारियां, ऐतिहासिक जानकारियां, विश्व की अनेक समस्याओं की जानकारियों के बारे में फिल्म उद्योगों का उपयोग किया था और उनसे राष्ट्र को सुशिक्षित किया था, पर इस अभागे देश में तो सब ओर चौपट ही चौपट हो रहा है। सिनेमा को इस बात की खुली छूट दी गयी है कि लोगों के अंदर कामुकता भड़कायें, अनैतिकता पैदा करे और आदमी को बुरा आदमी बनाये। यही तो शिक्षण होता है सिनेमा के अंदर। इस तरह की वाहियात किस्म की फिल्मों से सिनेमा घर भरे पड़े हैं, बच्चों का और विद्यार्थियों का काम है कि उनसे अपने आप को बचा कर रखें। उन बुरी आदतों को, जो उन सिनेमा के पात्रों में देखी जाती हैं, इन सिनेमा की तस्वीरों में दिखाई जाती हैं, उन से अपने आपका बचाव करें। ये उनका काम है, विद्यार्थियों का काम है कि अपने समय को संभाल करके रखें। जीवन की नींव नीतियों पर रखी जाती है। अगर उन्होंने संयम से काम नहीं लिया, ब्रह्मचर्य से काम नहीं लिया और अपने आपको भड़काने वाली परिस्थितियों में रखा और कामुकता की परिस्थितियों में रखा, तो जरूर उनका ऐसी बुरी आदतों को सीखने के लिए मजबूर होना पड़ेगा, जो कि उनके शरीर को खोखला करके रख देंगी।
आज हम देखते हैं कि हमारे नवयुवकों के चेहरे पर न तेज है, न ओज, न उनकी आंखों में उम्मीदें हैं, और न उनका साहस; सारे के सारे ऐसा मालूम पड़ते हैं कि जवानी में कोई आदमी विलासी जैसे होते हैं, कामुक जैसे होते हैं, भड़ुए जैसे होते हैं, बूढ़े जैसे होते हैं, इस तरह के नवयुवक टूटे हुए, गिरे हुए, मरे हुए-से दिखाई पड़ते हैं। इसके कारण दूसरे भी हो सकते हैं, पर एक बड़ा कारण यह है कि ब्रह्मचर्य की जड़ें भीतर ही भीतर खोखली होती चली जाती हैं, बाहर से दिखाई नहीं पड़ता, वह छिपी हुई बात है, गुपचुप की बात है, लेकिन गुपचुप की बात के ऊपर से जब पर्दा उठाकर देखते है, तो उस नाली के भीतर बड़ी सड़न आती है। परस्पर नैतिक और अनैतिक जो क्रियाएं की जाती हैं, उनका जिक्र करना मेरे लिए मुनासिब नहीं है, लेकिन मैं ये इशारा करना चाहता हूं कि अवांछनीयता, जो विद्यार्थियों में पैदा होती है, कामुकता से संबंधित, गंदी किताबें पढ़-पढ़ करके और गंदी तस्वीरें देख करके, गंदी फिल्में देख करके और गंदे लोगों की सोहबत में रहकर के जो बुरी आदतें वो सीख लेते हैं, उससे उनका शरीर खोखला उस समय ही नहीं हो जाता, बल्कि सारी जिंदगी तबाह हो जाती है। बुढ़ापे का वक्त आता है, जवानी का वक्त आता है, वह किसी काम का नहीं रहता। बच्चे पैदा करते हैं, तो वो बिलकुल सड़े-गले बच्चे पैदा करते हैं और जब बुढ़ापा आता है, बुढ़ापा आने से पहले हजार बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। आंखें कमजोर, कमर में दर्द, मरे-मरे, दीखता नहीं है, कान से सुनाई नहीं पड़ता, सिर भन्नाता है। न जाने क्या-क्या दुनियाभर की बीमारियां इकट्ठी हो जाती हैं। ये बीमारियां किसी ने थोपी नहीं हैं, ये दवाओं से नहीं जा सकतीं।
जो जीवन का मूलभूत था ओजस्, जो जीवन को लम्ब बना सकता था और मजबूत बना सकता था, वह सारे का सारा सार उस छोटी और कच्ची उम्र में नष्ट हो जाता है, जबकि उसको छुआ भी नहीं जाना चाहिए था, जब उसको पकने देना चाहिए था, वह हमारा पका हुआ जीवन-तत्व आगे जीवन की नींव को मजबूत कर सकता था। लेकिन बालकपन में ही ऐसा बिगाड़ शुरू हो गया। प्रत्येक बच्चे को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हमको अपने शरीर की रक्षा कैसे करनी चाहिए और बुरी आदतों से कैसे बचना चाहिए? सारे का सारा समय और मनोयोग हमको अध्ययन में लगाना चाहिए, पढ़ने में लगाना चाहिए। खेलकूद हम खेलें बेशक स्वास्थ्य की दृष्टि से, लेकिन ऐसे खेलकूद नहीं होने चाहिए, जो समय की बरबादी करते हों-जैसे ताश खेलना, शतरंज खेलना, चौपड़ खेलना, इससे क्या मिलता है? इसमें कान लाभ मिलता है? गेंद खेली जाय समझ में आता है, क्रिकेट खेल लिया, फुटबॉल खेल लिया समझ में आता है। इससे व्यायाम होता है।
खेलकूदों के लिए भी समय निकाला जाय, मनोरंजन भी हो सकता है और साहस और शौर्य का शिक्षण भी हो सकता है। इस तरह के वाहियात खेल जो जुआरी के तरीके से, जो केवल मनोरंजन के लिए किए जाते हैं, उनसे क्या फायदा? इसी तरीके से जो आजकल रेडियो और ट्रांजिस्टर इतने सस्ते और सुलभ हो गये हैं, ये बच्चों को बहुत आकर्षित करते हैं। इसमें से भी हम देखते हैं कि इसमें लोकरंजन पर ही ज्यादा ध्यान रखा जाता है, सीलोन रेडियो किसी ने सुना है, तो उसको बहुत ना उम्मीदी होगी। और वह रेडियो के दूसरे गाने जिसमें से पचहत्तर फीसदी होते हैं, अगर सुने जायें तो आदमी को न उम्मीदी होती है और ये मालूम पड़ता है कि ये किसी व्यक्ति का निर्माण करने के लिए और समाज का निर्माण करने के लिए नहीं बनाये गये हैं। यों आंसू पोंछने के लिए सारे दिन में दो-चार अच्छे गीत और दो-चार अच्छे भाषण भी आ जाते हैं, जिससे कि वो अपने चेहरे के नकाब को अच्छा बनाये रख सकते हैं। बाकी ये मालूम पड़ता है कि यह खोखला करने वाली बातें हैं। मनोरंजन का यह भौंड़ा तरीका है। उस भौंड़े तरीके से यदि नवयुवक अपने आप को बचा करके रखें, व्यायाम किया करें, ब्रह्मचर्य से रहा करें, स्वाध्याय किया करें, ईश्वर भक्ति की बात ध्यान रखें और अनुशासन से रहें तो बहुत अच्छा होगा।
जो व्यक्ति छोटी उम्र में अनुशासन नहीं सीख सका, जिसने अनुशासन का पालन नहीं किया, वो कभी किसी आदमी को अनुशासन में नहीं रख सकता। अच्छा शिष्य ही अच्छा गुरू बन सकता है। जो अच्छा शिष्य नहीं रहा है, जो बुरा शिष्य रहा है, जो अपन अध्यापकों से लड़ता-झगड़ता रहा है और अपने अध्यापकों की अवज्ञा करता रहा है, कभी भी उसको भावी जीवन में यह मौका नहीं मिल सकता कि अगर उसको अध्यापक बनने के लिए मौका दिया जाय और अध्यापक बने, तो उसके बच्चे कहना मानें। जो बुरा लड़का रहा है, वो अच्छा बाप नहीं बन सकता और उसके बच्चे अच्छे नहीं हो सकते। ये अनुशासन छोटी उम्र में ही सीखना पड़ता है। वो आदमी जिसने छोटी उम्र में अपने बड़ों की आज्ञा का पालन नहीं किया, अनुशासन का पालन नहीं किया और मिलिटरी डिसिप्लिन अपने जीवन में स्थापित नहीं किया, वह कभी भी आगे जा करके दूसरों को अनुशासन में रखने में समर्थ नहीं हो सकता। उस आदमी को अगर फौज का कर्नल बना दिया जाय, कप्तान बना दिया जाय, तो कभी भी अपनी सेना को अनुशासन में नहीं रख सकता, इसलिए कि स्वयं अनुशासन पालन करना सीखा नहीं।
जो गुण अपने आप में हैं, सिर्फ उन्हीं गुणों को दूसरों को आदमी सिखा सकता है। इसीलिए जिन लोगों को बड़े-बड़े काम करने हैं और दूसरों से काम लेना है, उन्हें अनुशासित बनना चाहिए मान लीजिए आपको बड़ा अफसर बनना है और आगे अपने नीचे वाले सबोर्डिनेट से काम लेना है, उनको आज्ञा पालन करने वाला बनाना है, तो इससे पहले आपको स्वयं आज्ञा पालन करने वाला बनना होगा। अनुशासन प्रिय बनना होगा। कायदे-कानून के भीतर रहने वाला बनना होगा। मर्यादाओं में रहने वाला बनना होगा। आज बच्चों को इस तरह का शिक्षण और इस तरह की हवा नहीं दी जाती, बल्कि उच्छृंखलता की बात सिखाई जाती है।
परीक्षा देने के लिए जाते हैं, तो चाकू लेकर जाते हैं और नकल करने के लिए पर्चे लेकर जाते हैं। जहां उनके पर्चे जाते हैं, उन अध्यापकों के पास चक्कर लगाते हैं। जो नम्बर नहीं देते, उनको चाकू दिखाते हैं, न जाने क्या-क्या करते हैं। ये क्या बात हुई? इस तरीके से अगर पर्चा देकर पास भी हो जाय आदमी तो उसके अंदर वो विशेषताएं कहां से आयेंगी, जो कि जीवन का विकास करने के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। इस तरीके से कोई पास भी कर दे, गलत तरीके से और डिविजन भी ले आये, तो पास होने और डिविजन होने के बाद में अधिक से अधिक ये ही तो हो सकता है कि नौकरी मिल जाये, लेकिन नौकरी में सफलता और नौकरी में एफिशिएंसी और व्यक्तित्व का विकास और तरक्की करने का माद्दा और सफल नौकरी कैसे कर लेगा वो आदमी, जिसने कि परिपूर्ण रूप से, गहराई से, गंभीरता से शिक्षण प्राप्त नहीं किया है।
गंभीरता से शिक्षण जिनके पास होता है, उनके पास योग्यता होती है और योग्यता ही हमेशा काउण्ट करती है। योग्यता ही जिसके पास होती है, वही आगे विकास कर सकता है। योग्यता जिसके पास नहीं और उल्टा-पुल्टा सर्टिफिकेट छीन लाये और धमका लाये और नकली सर्टिफिकेट ले आये, जाली सर्टिफिकल ले आये, मास्टरों को धमका लिया, ये कर लिया और किसी तरह से पढ़ लिया। किताब में से एक-एक पन्ना पढ़ लिया और गैस पेपर खरीद कर ले आये, उसमें से थोड़े-से सवाल यहां से सीख लिए, थोड़े-से सवाल वहां से सीख लिए और जब काम पड़ेगा तब? जब किसी ऑफिस का इंचार्ज बनना पड़ेगा, और जब कोई बड़ा काम हाथ में आयेगा और जब अच्छे अनुवाद करने पड़ेंगे, अच्छे ड्राफ्ट बनाने पड़ेंगे, तब सारी पोल खुल जायेगी। तब बेढंगे तरह से इधर से उधर ही करते फिरेंगे। पता नहीं किताबी आदमी क्या होने वाला है? कुछ भी तो होने वाला नहीं है। उन्नति का पथ कैसे खुलने वाला है?
इसीलिए विद्या इसलिए नहीं है कि हम पास हो जायें, डिविजन ले आयें और खेलकूद पर प्रभुत्व बना लें, बल्कि विद्या इसलिए पढ़नी चाहिए कि हमारी योग्यताओं की वृद्धि हो, हमारे स्वभाव की वृद्धि हो। इस समय में केवल अनुशासन ही विद्यार्थियों के लिए आवश्यक है। राजनीति में काम करने का बहुत वक्त पड़ा हुआ है। लड़ाई-झगड़ा करने के लिए बहुत वक्त पड़ा हुआ है। सिनेमा देखने के लिए सारी जिंदगी ही भरी हुई पड़ी है। दूसरे शौक-मौज करने के लिए क्या यही वक्त रह गया है? यह नींव, नींव डालने का यह वक्त है। जीवन की फाउण्डेशन मजबूत करने का यह वक्त है-विद्यार्थी जीवन। विद्यार्थी जीवन। विद्यार्थी जीवन को अच्छे से अच्छा बनाया जाना चाहिए। शिक्षा तीन अंगों में बंटी हुई है। अभिभावक, जिनका काम है कि ऐसा वातावरण उत्पन्न करें, जिसमें बालकों का ठीक तरीके से विकास हो। अध्यापक, अपने शिक्षण के साथ-साथ में अपना स्कूली पाठ्यक्रम पूरा करने के साथ-साथ में बालकों को वो बातें भी सिखाएं, बताएं, जो उनके जीवन का विकास करने में, उनके व्यक्तित्व को परिष्कृत करने में समर्थ हैं। ये कार्य सरकारी पाठ्यक्रम को पूरा करते हुए वे अपनी तरफ से भी जोड़कर सिखा सकते हैं और सिखाया जा सकता है। इसके अलावा बच्चों का नम्बर आता है। वो स्वयं भी इसको सीखने के लिए इच्छुक न हों, सीखना नहीं चाहें, अध्यापक और अभिभावकों के कार्य में सहयोग नहीं करें, उच्छृंखलता ही बरतें, मनमानी ही बरतें, किसी की सुनें ही नहीं और मनमर्जी का व्यवहार करें, तो बेचारे अध्यापक भी क्या कर सकते हैं? ये तीनों वर्गों में बंटा हुआ है व्यक्तित्व का निर्माण शिक्षा की व्यवस्था, भावी जीवन का उन्नयन और अपने समाज के दृढ़ होने का स्वरूप। इस सबके बारे में हम सबको ध्यान देना चाहिए और समग्र शिक्षा का विकास करने के लिए तीनों वर्गों को अपने उत्तरदायित्वों को समझना चाहिए, ताकि हमारा देश समर्थ और समृद्ध बन सके।
मां अपने बच्चे के निर्माण करने के संबंध में अपने कर्त्तव्यों को प्रायः पांच वर्ष तक पूरा कर लेती है। पेट में जिस दिन से बच्चा आता है, उसी दिन से मां का कर्त्तव्य शुरू हो जाता है। बालक का स्वास्थ्य और बालक का मस्तिष्क विकास के लिए अपने चिंतन और उसको अपने आहार-विहार में किस तरह संयम बरतना चाहिए, यह क्रिया पांच साल तक जारी रहती है; क्योंकि माता का ही बच्चे से सबसे अधिक संबंध रहता है। मां के पास वह स्वयं रहता है, खेलता भी वह माता के पास है, बातचीत भी वह माता से ही ज्यादा करता है। गोदी में भी वह मां के पास आता है। माता का सबसे ज्यादा प्रभाव बच्चे पर तब तक होता है, जब तक उसकी उम्र पांच साल की होती है। पांच साल के बाद शिक्षण की जवाबदारी दूसरे लोगों के कंधों पर चली जाती है। मां की, अभिभावकों की जिम्मेदारी तो हमेशा ही रहेगी, उसमें तो कमी क्या हो सकती है, लेकिन मुख्यतया उसकी जिम्मेदारियां अभिभावकों पर चली जाती हैं, जिनमें पिता मुख्य है। पहले ही कहा जा चुका है कि शिक्षण स्कूलों में भले ही हो, लेकिन व्यक्तित्व का निर्माण घर की पाठशाला में ही होता है।
घर को एक पाठशाला के रूप में विकसित किया जाना चाहिए, अगर हमको भावी पीढ़ी को अच्छा बनाना है तब माता को अपना स्वभाव, पिता को अपना स्वभाव, घर वालों को अपना स्वभाव, काम करने का ढंग, घर की व्यवस्था इत्यादि का वातावरण ऐसे बनाना चाहिए, जिसमें कि गीली मिट्टी के तरीके से बने हुए बालक ढांचे में ढलते हुए चले जायें। अगर कोई चीज ढालनी होती है, तो सारी मशीन इस तरीके से बनायी जाती है, उसके पुर्जे ऐसे बनाये जाते हैं, जैसे मान लो लोहे की गोलियां ढालनी हैं, तो उसकी सारी मशीनें, ढांचे और डाइयां ऐसी बनायी जायेंगी, जो पिघला हुआ लोहा जहां से जाये, जिस नाली में होकर के जाये, बस वो गोली में बदलता हुआ चला जाये, नीचे निकलता हुआ चला जाये। अगर मशीन में नुक्स हुआ और मशीन ठीक नहीं होगी तो गोलियां साफ नहीं निकलेंगी, टेढ़ी हो जायेंगी और खराब हो जायेंगी। इसी तरीके से बच्चों को किस तरीके से बनाया जाना है? उनको सुयोग्य बनाया जाना है या बुरा। उनको सुसंस्कृत बनाया जाना है या कुसंस्कारी। इसके लिए केवल वाणी के द्वारा दिया जाने वाला शिक्षण पर्याप्त नहीं है। वाणी के द्वारा दिये गये शिक्षण को केवल कान ग्रहण करते हैं। यह ज्ञान स्वभाव में नहीं आता, अंतश्चेतना में नहीं आता।
अंतः चेतना में वो बातें आती हैं, जिनका अक्सर लोग देखा करते हैं, समझते हैं और उसी को लोग सही मानते हैं। कहने के बारे में यह खयाल है कि बात को बढ़ा−चढ़ा कर भी कहा जा सकता है और बात को ऐसे-वैसे भी कहा जा सकता है। ऐसे-वैसे कहने से क्या काम चलेगा? हमको जो कुछ भी बालकों को बनाना है, घर का वातावरण ठीक वैसा ही बनाया जाना चाहिए। इसके लिए अपने आपको ढालना चाहिए, पिता को, माता को, चाचा को, ताऊ को, बहिनों को। अगर वो नहीं ढले हैं, तो अभिभावकों का काम है कि एक बच्चे के लिए ही सही या अपने बच्चों के लिए सही घर के वातावरण को व्यवस्थित करें। अपनी दिनचर्या ठीक बनायें। उठने-बैठने का क्रम ठीक हो। सभ्यता और संस्कृति क्रम ठीक बने। एक-दूसरे के साथ में सभ्यता का व्यवहार करें। ऐसा नहीं हो कि कोई किसी के साथ में बुरा व्यवहार करे और बच्चों पर उसकी छाप पड़े। इसीलिए घर वस्तुतः एक पाठशाला बनाया जाना चाहिए। बच्चे पैदा करने हैं और बच्चों को सुविकसित-सुसंस्कृत बनाना है तो। और बच्चों को कूड़े-कबाड़े के तरीके से पालना है, चूहे-बिल्ली के बच्चों के तरीके से बच्चे पैदा करने हैं, तब तो वो कुछ भी बन जायें, तो बात अलग है। तब तो कुछ कहा नहीं जा सकता। घर का कोई भी आदमी चाहे जैसे रहे, चाहे जो कहे, चाहे जिस तरीके से सोए, चाहे जैसा आचरण करे और फिर चाहे जैसे बच्चे बन भी सकते हैं, भले भी बन सकते हैं। संभावना ज्यादा इसी बात की है कि वो बुरे ही बनेंगे या वो खोटे आदमी बनेंगे।
घर के वातावरण के लिए अभिभावकों की बहुत जिम्मेदारी है। स्कूलों में तो जो बच्चे पढ़ने के लिए जाते हैं, प्रायः 45-45 मिनट के 3-4-5 घण्टे पढ़ते हैं और चार-पांच घण्टे के बाद घर आ जाते हैं। बाकी सारे का सारा प्रभाव तो घर के वातावरण का ही पड़ता है। बीस घण्टे-अठारह घण्टे तो वो घर में ही रहते हैं। असली पाठशाला तो वही है। नकली पाठशाला स्कूल भी है। स्कूल में कोई आदमी पढ़ा करके कोई आदमी लम्बे-चौड़े ख्वाब देखना चाहता हो, तो वो गलत है। पहले जमाना अलग था, उस जमाने में अध्यापक जितना ध्यान पढ़ाई-लिखाई पर देते थे, उससे सौ गुना ध्यान इस पर देते थे कि जो बच्चे हमारे यहां पढ़ने के लिए आते हैं, उन पढ़ने वाले बालकों का संस्कार कैसे बने? स्वभाव कैसे बने? कर्म कैसे बने? उसके विचार करने का क्रम क्या है? काम करने की शैली क्या है? उसका रहन-सहन क्या होता है? उसको कैसा सुधारा जाय? वहां पढ़ाई का मूल उद्देश्य यही था। और जो मामूली ज्ञान है, उसका तो लोग वैसे ही पढ़ा देते थे। एक-दो घण्टे रोज पढ़ा दिया, काफी है। हिसाब पढ़ा दिया, एक घंटे रोज पढ़ा दिया, इतने समय में बस आदमी हिसाब का जानकार हो जायेगा। इतिहास है, दूसरी चीजें हैं, पढ़ना-लिखना हे, अक्षर ज्ञान है, व्याकरण है, यह सब छोटी-छोटी बातें हैं। इनका काम भी जीवन में कितना आता है? जरा सा काम आता है, उतनी जानकारियां एक-दो घण्टे में रोज दे देते थे और पढ़ाई चलती थी। बाकी पढ़ाई उस वक्त चला करती थी। अभिभावक इसी तरफ ध्यान देते थे और अभिभावकों के लिए आवश्यक था, लेकिन अब घर के वातावरण बिगड़ते चले जा रहे हैं और पीढ़ियां बिगड़ती चली जायेंगी। इसीलिए स्कूली शिक्षण ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि हमको घर के वातावरण को और अभिभावकों को, घर के रहन-सहन को सुधारना चाहिए, अगर हमको अगली पीढ़ियों को अच्छा बनाना है तब। इसके बाद! इसके बाद स्कूल के अध्यापकों का नम्बर आता है।
अध्यापक माता-पिता से श्रेष्ठ माने गये हैं। गुरू, गुरू को पिता से भी श्रेष्ठ माना गया है, माता से भी श्रेष्ठ माना गया है। क्यों? इसलिए माना गया है कि इन अभिभावकों को अक्षर ज्ञान का समय नहीं मिलता। समय भी मिलता है, तो उनके पास योग्यता नहीं होती। योग्यता भी होती है, तो थोड़ी देर के लिए बच्चों से दस-बीस मिनट के लिए मिल लेते हैं, अन्य धन्धों में लग जाते हैं। अध्यापक ही एक ऐसा है, सुसंस्कृत व्यक्ति, जिसके पास चार-पांच घण्टे रोज स्कूल में रहना पड़ता है। उसकी छाप आगे भी पड़ी रहती है। वो कल की बात को पूछ भी सकता है। अगली बात को बता भी सकता है। मां-बाप के बात में तीसरा नम्बर जो पड़ता है, अध्यापकों का पड़ता है, छोटे बच्चों के ऊपर, क्योंकि उसके लिए शासक वही है, मार्गदर्शक वही है, राजा वही है। उसका बहुत कुछ असर होता है बच्चों के दिमाग पर। और जो असर अध्यापक का है, उस असर को किस तरीके से इस्तेमाल किया जाय, ये अध्यापकों की बुद्धिमत्ता के ऊपर है।
एक विष्णु शर्मा थे। एक राजा की ये शिकायत थी कि उसके लड़के वाहियात हो गये, उजड्ड हो गये। वो पढ़ते-लिखते नहीं हैं और उनके काबू में नहीं आते। विष्णु शर्मा ने कहा कि हम पढ़ा देंगे आपके बच्चों को। बच्चों को बुलाया, उन्हें पढ़ने के लिए पट्टी-कलम दी, वो तो भाग गये, नहीं पढ़े। तब उन्होंने कहा एक और विधि है, अभी हम बताते हैं। उन बालकों को बुलाया और उनसे कहानी कहना शुरू कर दिया। बहुत-बहुत बढ़िया मजेदार कहानियां कहीं। बच्चों को पढ़ने में बहुत आनन्द आया, बहुत मजा आया और कहानियों को सुनने लगे। और कहानियों को सुनते-सुनते बालक इतने निष्णात हो गये राजनीति और अर्थ व्यवस्था में कि उनके पिता को बहुत प्रसन्नता हुई। उन्होंने एक लम्बी-चौड़ी रकम उन विष्णु शर्मा को दी। उन विष्णु शर्मा की लिखी हुई किताबों का नाम पंचतंत्र-हितोपदेश है, जो संस्कृत की बहुत महत्त्वपूर्ण पुस्तकें हैं।
इस तरीके से अगर अध्यापक चाहे, तो उसी पढ़ाई में से, जिसको दैनिक जीवन में पढ़ाना होता है, उसमें से भी वह कितना बड़ा काम कर सकता है, कितनी बड़ी व्यवस्था और जिम्मेदारी उठा सकता है, ये होना ही चाहिए। ये होना ही चाहिए अध्यापक को वेतन मिलता है और सरकारी कैरिकुलम पूरा करना पड़ता है और पाठ्यक्रम पास कराना पड़ता है और बच्चों को डिवीजन लाने के लिए मेहनत करनी पड़ती है, ठीक है। वह तो सब किया ही जाना चाहिए। इसके लिए अलग से कुछ काम करना नहीं है। इतिहास पढ़ाया जाये, इतिहास के निष्कर्ष इस तरीके से पढ़ाये जाये कि उन निष्कर्षों का लाभ बच्चों को मिले। हिस्ट्री से लेकर अनेक भाषाओं में पढ़ाये जाने वाले अनेक पाठ ऐसे आते हैं, जिनको इस ढंग से, इस रंग से अध्यापक पढ़ाये कि उसी में शिक्षण की पद्धति भरी पड़ी हो। फिर इसके अलावा भी थोड़ा-बहुत तो समय अध्यापक अपने बच्चों के लिए निकाल ही सकता है। थोड़ा वक्त तो दें ही सकता है। एक पंद्रह मिनट-आधा घण्टा उनसे मिल लिया जाय और उनकी कष्ट-कठिनाइयों को पूछ लिया जाय, घरेलू समस्याओं को पूछ लिया जाय।आजकल उनके दिमाग में क्या खुराफात चल रही है, उसको समझ लिया जाय। उसके मुताबिक सलाह-मशविरा दिया जाय। सफाई रखने की शिक्षा, अनुशासन की शिक्षा, बड़ों के पैर छूने और बड़ों को प्रणाम करने की शिक्षा। इस तरीके से अध्यापक चाहे तो बहुत आसानी से उन्हें प्रेरित कर सकता है और जरा भी उस पर दबाव नहीं पड़ सकता। इसके लिए कोई अतिरिक्त भार उसको अपने पर उठाना नहीं पड़ता। यदि अध्यापक चरित्रवान् हां, अध्यापक राष्ट्रसेवी हां, अध्यापक इस बात को समझते हों कि हमें केवल पढ़ाना, पढ़ाने भर के लिए ही नहीं है, हम दूसरे नौकरों के तरीके से नौकर नहीं हैं। अध्यापक की नौकरी केवल नौकरी नहीं हो सकती। इसलिए हम गुरू मानते हैं उसको। इसलिए उसका बड़ा ऊंचा सम्मान था समाज में और रहना चाहिए और रहेगा। वेतन कितना मिलता है, उसके ऊपर कोई दारोमदार नहीं है।चाणक्य, चाणक्य को कौन वेतन देता था? केवल फटे-पुराने कपड़े पहनते थे और जंगलों में रहते थे और फूस की झोंपड़ी में रहते थे। उनकी आवश्यकता कम थी। और उनको जो गुजारे को मिलता था, कम मिलता था। लेकिन इससे चाणक्य की महानता पर फर्क क्या आया? चाणक्य नालंदा विश्वविद्यालय की अनेक फैकल्टियों का डीन और उस तरह का जिसकी शिक्षा का कोई ठिकाना नहीं। बड़ा अध्ययनशील, नालंदा का विश्वविद्यालय, नालंदा का पुस्तकालय की सूझबूझ उसी की थी। गरीब रहने से और कम खर्च मिलने से हमको कर्त्तव्य को छोड़ देना चाहिए, ये क्या बात? कर्त्तव्य! कर्त्तव्य को पूरा करना अलग बात है। वह हमारी आध्यात्मिक, नैतिक, राष्ट्रीय और नागरिक जिम्मेदारी है। वेतन हमको कम मिलता है, तो यह सरकार से कहना चाहिए, लड़ना-झगड़ना चाहिए या कमाई के दूसरे सोर्स ढूंढ़ने चाहिए। जो भी करना चाहिए, क्योंकि हमको कम वेतन या ज्यादा वेतन मिलता है, इसलिए कम पढ़ायें या ज्यादा पढ़ायें, अपनी जिम्मेदारियों को कम करें या ज्यादा करें, ये तो खराब बात है। कम वेतन मिलता है तो वेतन के लिए दूसरे तरीके अख़्तियार करने चाहिए या इस काम को छोड़ देना चाहिए, दूसरा ज्यादा फायदे का काम करना चाहिए। लेकिन हम इस काम को छोड़ेंगे नहीं और इसे अच्छे तरीके से करेंगे नहीं, यह तो देश के साथ में विश्वासघात हो गया। अपनी आत्मा के साथ विश्वासघात हो गया और बच्चों के साथ विश्वासघात हो गया। अध्यापक को यह शोभा नहीं देता। ये दलील उसकी बिलकुल नाकारा है कि हमको कम वेतन मिलता है, इसलिए हम बच्चों के शिक्षण पर ध्यान नहीं देते। तो फिर आपने क्यों की थी नौकरी? पहले ही देख लेते कि यह काम कम वेतन का है तो हम दूसरा काम करेंगे। जब आपने जिम्मेदारी वहन की है, तो फिर आप गड़बड़ क्यों फैलाते हैं? गड़बड़ नहीं फैलाई जानी चाहिए। किसी वर्ग को नहीं फैलानी चाहिए, खास तौर से अध्यापकों को। क्योंकि मां और बाप के बाद तीसरा नम्बर है अध्यापक का।
अध्यापक राष्ट्र के निर्माण करने में कितना योगदान दे सकते हैं? इसका अगर किसी को इतिहास जानना हो, तो भारत वर्ष के इतिहास को देखकर के वे जान सकते हैं। प्राचीन काल के संत और ब्राह्मण अध्यापन का काम करते थे। अध्यापन का काम करते थे, उनके गांव-गांव में स्कूल थे, उनकी पाठशालाएं थीं। उन्हें दान-दक्षिणा तो मिलती थी। उस दान-दक्षिणा से अपना गुजारा कर लेते थे और उससे केवल अध्यापन का काम करते थे। हर ब्राह्मण अध्यापक होता था, हर संत अध्यापक होता था। बच्चों की शिक्षण एवं स्वास्थ्य की समस्या जहां तक थी, देहातों में रह कर के उस काम को ब्राह्मण लोग करते थे। और जो जहां तक मनुष्य की आत्मिक और आंतरिक और दूसरी समस्याएं, गहरी समस्याएं थीं, और जो बड़े वर्ग के लोग उनके पास आते थे, उनका शिक्षण तंत्र का काम संत महात्मा और साधुओं का था। वो मनुष्यों की मनोवैज्ञानिक, नैतिक और सामाजिक समस्याओं का हल प्रस्तुत करते थे। और छोटी शिक्षाएं, छोटे जीवन की शिक्षा के लिए ब्राह्मण काम करते थे।
प्राचीन काल में ब्राह्मण और साधु का बहुत सम्मान था। उनको गुरू भी कहते थे, उनके पांव छूते थे और उनका बहुत ही आदर करते थे। गरीब होते थे तो क्या! और वो गरीब होने पर भी उनका गौरव बहुत ही उच्च कोटि का माना जाता रहा। इसका कारण ये था कि उनकी जिम्मेदारी समाज के अन्य सारे के सारे वर्गों की अपेक्षा ज्यादा मूल्यवान् और ज्यादा महत्त्वपूर्ण थी। अध्यापक को अभी मैंने कहा न, माता-पिता के बाद दूसरा नम्बर आता है और यों भी कहा जा सकता है कि माता-पिता से ज्यादा पहला नम्बर आता है। माता-पिता से पहला नम्बर है अध्यापक का, क्योंकि माता-पिता के पास जो ज्ञान नहीं है, जो शिक्षा नहीं है, जो योग्यता नहीं है, पढ़ाने का ढंग नहीं है बेचारों को मालूम और मनोविज्ञान की जानकारी नहीं है, शिशु का विकास कैसे होता है, उसको समझ नहीं पाते हैं, वो सारी की सारी योग्यताएं अध्यापक के पास हैं। अध्यापक चाहें तो थोड़े समय में ही, केवल चार-पांच घण्टे अपने पास रखकर के भी जाने क्या से क्या सिखा सकता है, बालकों को क्या से क्या बना सकता है।
जिस अध्यापक के बच्चे अच्छे नहीं निकल सके, कुरूप निकले, कुपात्र निकले, बुरे काम करने वाले निकले, उच्छृंखल निकले, उसके बारे में दोष किसी को भी दिया जाय, पर अध्यापक उससे बच नहीं सकता। उसने अपने बालकों पर नैतिक दबाव डालने की कोशिश नहीं की। और, और उसने जो शिक्षण दिया, उसके भीतर से भावनाओं को भड़काने वाले और मनुष्य के अंतरंग को स्पर्श करने वाले शिक्षण उसके पास थे नहीं। अगर उसके पास रहे होते तो जरूर उसने बालकों के कोमल हृदय के अंतरंग को स्पर्श किया होता और उनकी भावनाओं को मोड़ देने में सफल हो गया होता। किसी बच्चे की डिवीजन न आये और एक साल फेल हो जाये, तो उससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है।
बनता-बिगड़ता इससे है कि उसका व्यक्तित्व सही रूप से बन न पाया। इसलिए हमारे अध्यापक का यह बहुत ही पवित्र और पुण्य और एक महान कर्त्तव्य है कि उसने वो काम उठाया है, अपने कंधे पर लिया है, तो उस काम में भूलचूक नहीं करनी चाहिए। सरकारी कैरिकुलम में भले ही ये बातें न हों और सरकारी पाठ्यक्रमों में यह बात भले ही जुड़ी न हो कि बच्चे को सामान्य ज्ञान के अतिरिक्त उसका नैतिक, बौद्धिक और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय कर्त्तव्यों का पालन करने के लिए प्रेरणा किस तरीके से दी जाय, पर समाज के लोग या अध्यापक अपने आप इसे कर सकते हैं। यों, यों सरकार का भी काम है कि जो आजकल की भार स्वरूप, बेकारी पैदा करने वाली, बेरोजगारी बढ़ाने वाली, उच्छृंखलता उत्पन्न करने वाली शिक्षा प्रणाली की प्रक्रिया है, उसको जड़-मूल से बदल दे ।
जिन राष्ट्रों ने अपने समाज को और अपनी भावी पीढ़ी को बनाने के लिए प्रयत्न किया है, उन्होंने पहला ध्यान शिक्षा के ऊपर दिया है। जर्मनी का उदाहरण है। जर्मनी के हिटलर के दिमाग में एक बात थी। अपने जर्मन नागरिकों को ऐसा हिम्मत वाला, ऐसा बहादुर और ऐसा महत्त्वाकांक्षी बना दिया जाये कि सारी दुनिया पर जर्मन जाति हावी हो जाये और सारी दुनिया पर उसका आधिपत्य हो जाय और चक्रवर्ती शासन हो जाय। इस तरह की इस आवश्यकता को पूरा करने के लिए उसने एक ही सुझाव पारित किया कि अपने देश का शिक्षण आमूलचूल बदल दिया। जो कुछ भी पाठ पढ़ाये जाते रह, और जो कुछ भी शिक्षण दिया जाता रहा, उसमें पूरा-पूरा पुट इस बात का लगाया जाता रहा। पहली किताब पढ़ने से लेकर एम.ए. पास होने तक हर पाठ, हर इतिहास और हर बात को इस तरीके से बालकों को सिखाया जाता रहे कि बच्चे के मन में महत्त्वाकांक्षा उत्पन्न हो जाय। उसके मन में शौर्य और पराक्रम की भावना उत्पन्न हो जाय। उसके मन में बढ़−चढ़ के काम करने का माद्दा उत्पन्न हो जाय। उसको नेतृत्व करने की और लड़ाई के मैदान में खड़े होने की हिम्मत पैदा हो जाय और जर्मन जाति का गौरव सारे विश्व पर छा देने की ललक पैदा हो जाय। इसी तरह के तेजस्वी और ओजस्वी अध्यापक उसने नियुक्त किए, इस प्रकार सारी शिक्षा प्रणाली को बदल दिया। उसका परिणाम, उसका परिणाम यह हुआ कि जब जर्मन पर हिटलर का शासन प्रारंभ हुआ, तो उसके थोड़े ही दिनों बाद लाखों की संख्या में, करोड़ों की संख्या में इस तरीके से शूरवीर नागरिक आ गये और इस तरीके से शूरवीर व्यक्ति आ गये कि उनका खून उबल रहा था, और जो ये कह रहे थे कि हम दुनिया पर छायेंगे। और हम सारी दुनिया का नेतृत्व करेंगे। बाकी किसी देश में वह शौर्य नहीं है, वह महत्त्वाकांक्षा नहीं है, जो हमारे अंदर है। इन सारी की सारी मनोभावनाओं का विकास करना इसलिए संभव हुआ कि वहां की शिक्षा प्रणाली आदि से अंत तक उसी ढांचे में ढाली गयी थी।पिछले दिनों कई देशों ने ऐसा किया है। जापान की विश्वस्तरीय शिक्षा और वहां का नागरिक अपने देश के लिए न जाने क्या से क्या करने को तैयार है। जिन दिनों में बौद्ध धर्म का बहुत विस्तार था जापान में और बौद्ध धर्म के प्रति बहुत निष्ठा थी, तब एक बाहर के आने वाले व्यक्ति ने बौद्ध बालक से ये पूछा कि अगर तुम्हारे देश पर बुद्ध भगवान हमला करें और हिंदुस्तान से हिंदुस्तानियों को लेकर को लेकर के जापान के ऊपर चढ़ाई करें; तो आप क्या करेंगे? तो उन्होंने कहा हम बुद्ध हैं हम बौद्ध हैं, धर्म के सिद्धांतों को मानते हैं, हम बौद्ध धर्म का मानते रहेंगे, लेकिन बुद्ध जो इसके संस्थापक हैं, हमारे देश पर हमला करेंगे, तो हम उनका सिर काट देंगे और जो भी लोग आयेंगे हम उनको तहस-नहस कर देंगे। धर्म की अपेक्षा, मजहब की अपेक्षा उन्होंने इस बात को आवश्यक समझा कि देश के प्रति निष्ठावान् हुआ जाय, अपने वर्ग के प्रति निष्ठावान् हुआ जाय। अपनी कौम के प्रति निष्ठावान् हुआ जाय। ये निष्ठावान् होना कोई जमीन-आसमान से नहीं आता, कोई अनायास ही अपने पेट में सीख के नहीं आता। बुद्धि और भावनाएं एकाएक नहीं बन जातीं। इसके लिए वातावरण बनाना पड़ता है, खास तौर से शिक्षा का। शिक्षा का वातावरण यदि ठीक तरीके से बना दिया जाय तो व्यक्ति चरित्रवान् बन सकते हैं। इंग्लैण्ड और दूसरे देशों की नैतिकता और नागरिकता के बारे में सारी दुनिया में सराहना की जाती है। वहां आम तौर से आदमी बेईमान नहीं होते। मूल्य ज्यादा रखें वह बात ठीक है, लेकिन आदमी अपनी इज्जत का सवाल रखता है।
शराबखाने में भी यह देखा है कि शराबी लोगों ने शराब पी और शराब पीकर के बेहोश हो गये। बेहोश हो गये तब उसकी जेब में जो दो हजार रुपये के नोट थे, तब शराबखाने के मालिक ने उस पैसे को गिना और संभाल कर रखा और संभालकर रखने के बाद में जितने पैसे की शराब पी थी, ठीक बिलकुल नये काने-कौड़ी का फरक नहीं किया, उतना ही बिल उसकी जेब में डाल दिया और बाकी पैसा जेब में से काट करके बाकी पैसों समेत टैक्सी मंगाई और टैक्सी किराये करके उसे भेज दिया, क्या मजाल कि एक कानी कौड़ी का फरक पड़े?
इस तरह की नैतिकता की शिक्षा जिन देशों में होती है, वास्तव में वही देश इस लायक होते हैं, जो अपने भीतर की अंतरंग व्यवस्था को कायम रख सकें और दूसरे दशों का भी मार्गदर्शन कर सकें। इंग्लैण्ड अपने उद्देश्य की दृष्टि से इस दुनिया में गये-गुजरे जमाने का बेहतरीन देश है और सभ्य देश है और उसने हमारे देश पर कितने वर्षों तक हुकूमत की। ये हुकूमत किस तरह से की, कैसे की, यह मैं नहीं कहता, मैं तो सिर्फ यही कहता हूं कि इतनी दर रहने वाले जरा से आदमी सात समुद्र पार करके आ गये और इतने बड़े देश के ऊपर हुकूमत कर सके। उनके अंदर ये गुणों की विशेषता नहीं है क्या? हम अपने देश की हिफाजत नहीं कर सके, अपनी आजादी की रक्षा नहीं कर सके। वो सात समुद्र पार करके आये। मैं अंग्रेजों की प्रशंसा नहीं करता, मैं तो इस बात की प्रशंसा करता हूं कि अगर मनुष्य के गुणों का विकास करने का और मनुष्य के चरित्र का विकास करने का क्रम बनाया जा सकता हो, तो छोटे-छोटे व्यक्ति, झोंपड़ों में रहने वाले व्यक्ति भी इतने महान् और इतने श्रेष्ठ बन सकते हैं कि क्या कहना! इस सारी की सारी व्यवस्था को बनाना हमारी शिक्षा प्रणाली का काम है। ये सरकार का काम है और सरकार को मजबूर करना चाहिए कि कूड़े-कबाड़े के तरीके से हमारे बालकों का दिमाग खराब करने वाली, पैसा खराब करने वाली और उसके भविष्य को अंधकार में धकेल देने वाली और उसको बेकार का आदमी बना देने वाली, जो शिक्षा प्रक्रिया है, उसको जड़-मूल से काट कर फैंक दिया जाय। और बिलकुल ही जिस तरीके से शासन बदल जाते हैं, गवर्नमेण्टें बदल जाती हैं, उसी तरीके से यह कूड़ा-कबाड़ा जैसी शिक्षा को खत्म कर दिया जाय। इससे तो अच्छा है कि आदमी बिना पढ़े रहे। बिना पढ़े आदमी आज से सौ वर्ष पहले थे, लेकिन उनको अपने चरित्र का ज्ञान था, अपने कर्त्तव्यों का ज्ञान था, अपने परिवार का ज्ञान था। आज का पढ़ा-लिखा आदमी सिर्फ नौकरी करना जानता है और पैसे कमाना जानता है। वह अपने मां-बाप के प्रति कर्त्तव्यों के प्रति भूल, बच्चों के प्रति भूल, समाज के प्रति भूल और अपनी नैतिक जिम्मेदारियों के प्रति भूल; भूलता ही भूलता चला जाता है और मुझे ऐसा मालूम होता है कि न मालूम शिक्षा में दोष है या वातावरण में दोष है। किसमें है दोष, लेकिन ऐसा कोई दोष जरूर है कि अभी भी बिना पढ़े की तुलना में यदि पढ़े को तोला जाये तो वो ज्यादा अनैतिक पाया जायेगा और गलत आदमी पाया जायेगा, देश के लिए हानिकारक पाया जायेगा। अपनी रोटी कमा ले, इससे क्या बना? अपनी रोटी तो कोई भी कमा सकता है। अपनी रोटी तो भेड़िया भी कमा लेता है। अपनी रोटी तो कुत्ता भी कमा लेता है। अपनी रोटी तो चूहा भी कमा लेता है। अपनी रोटी कोई ज्यादा कमा ले और पैसे खा ले और ज्यादा खुराक इकट्ठी कर ले और ज्यादा मौज-मजा से रह ले, यह क्या जीवन का लाभ हुआ और क्या समाज के लिए इसका अनुदान मिला? सिर्फ एक आदमी की बढ़ोत्तरी का कुछ मतलब नहीं निकलता। राई बराबर भी उससे फायदा नहीं होता।
सारा समाज गरीब हो और एक आदमी बैठकर रोटियां खाये, तो यह उस आदमी के लिए धिक्कार और शर्म की बात है। उसको जाहिल और जलील कहना चाहिए। यदि सारा देश गरीब रहता है और वो आदमी बैठकर इस तरीके से रोटियां खाता है, तो वह ऐसा कमीना आदमी है, उसको कमीना न कहा जाये तो क्या कहा जायेगा? ये कमीने आदमी मालदार भी हों तो क्या, अमीर भी हो जायें तो क्या? अमीर और मालदार और ज्यादा खाने वाले और ज्यादा पहनने वाले लोग अगर देश में पैदा किए जायें, तो उससे देश का कुछ भला नहीं हो सकता। सही बात तो ये है कि और भी बरबादी होगी, ईर्ष्या उत्पन्न होगी, डाह उत्पन्न होगा, उसकी देखा−देखी दूसरे लोग ऐसे गलत कदम उठायेंगे। ये शिक्षा आज की हमारी आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पा रही है। इसलिए सरकार पर जोर डाला जाना चाहिए कि इसको इस तरीके से बदल दिया जाय कि अगली पीढ़ियों में वो महत्वाकांक्षाएं उत्पन्न हों। अमीर बनने की नहीं, खुशहाल बनने की नहीं, ऐय्याश बनने की नहीं, मालदार बनने की नहीं और मौज-मजा उड़ाने की नहीं, बल्कि उनके मन में दूसरी ही कामना और दूसरी इच्छाएं उत्पन्न हों, जो कि व्यक्ति की महानता को विकसित करती है, समाज को श्रेष्ठ बनाती हैं और राष्ट्र की जड़ों को मजबूत करती हैं। ऐसी शिक्षा की जड़ें, ऐसे व्यक्तित्व विकास करने की जड़ें हमारी शिक्षाओं में ही सन्निहित हैं। उस शिक्षा का विकास करना हम में से हर आदमी का काम है। गलत शिक्षा चल रही है, उसको रोकना, उसको रोकने के लिए, परिवर्तन करने के लिए सरकार को मजबूर करना हमारा-आपका सबका काम है और वो किया जाना चाहिए। सरकार में ही अगर कोई विचारशील लोग हों, मैं नहीं जानता कि उसमें कैसे-कैसे लोग रहते हैं, लेकिन उनमें से अगर विचारशील लोग हों, तो उनको भी इस बात को समझना चाहिए कि अगर उन्होंने शिक्षा का परिवर्तन न किया, तो सारा राष्ट्र तहस-नहस हो जायेगा। चाहे वो नहर बना लें, चाहे वो बांध। शिक्षा के भीतर नैतिकता का समावेश आवश्यक है। ये कैसे किया जाना चाहिए, इस पर विचार करना विशेषज्ञों का काम है।
अब इसके बाद में तीसरा एक और वर्ग रह जाता है, जिसको स्वयं अध्यापक और विद्यार्थी कहते हैं। विद्यार्थी अगर ठीक तरीके से अपने आप को अनुशासन में रखना नहीं सीखें और इस बात को भूल जायें कि हमारे जीवन के प्राथमिक वर्ष हमारे भावी जीवन की नींव हैं, नींव अगर कमजोर बनी रही तो इमारत खड़ी नहीं हो सकती। तब इमारत खराब हो जायेगी, इमारत टूट-फूट जायेगी, इमारत तहस-नहस हो जायेगी। अगर हमारे भावी जीवन की इमारत, जो हमने सुंदर सपने के रूप में संजोकर रखी है, अगर उसकी जड़ छोटी उम्र में विद्यार्थी जीवन से ठीक तरीके से संभालकर नहीं रखी गयी, तो हमारी बेहतरीन इमारत नहीं बन सकती और हम खराब जिंदगी जिएंगे। इसीलिए प्राथमिक जीवन, जिसको हम विद्यार्थी जीवन कहते हैं, एक संयम का जीवन है, एक तपश्चर्या का जीवन है, योग साधना का जीवन है। उसको योग साधना के रूप में ही जिया जाना चाहिए। विद्यार्थियों को संयमी ही रहना चाहिए। शौक-मौज करने के लिए तो कितनी ही जिंदगी पड़ी है। कोमल उम्र जो है, उस पर जल्दी-जल्दी प्रभाव पड़ जाते हैं। उस समय सिनेमा जैसे वाहियात शौक, जिसमें कि अपने देश में सिवाय किसी का नैतिक चरित्र खराब करने के और कोई उद्देश्य उनका नहीं है। ये फिल्म बड़ी उपयोगी थी। जर्मनी और दूसरे देशों ने अपनी जनता को, अपने नागरिकों को वैज्ञानिक जानकारियां, स्वास्थ्य संबंधी जानकारियां, ऐतिहासिक जानकारियां, विश्व की अनेक समस्याओं की जानकारियों के बारे में फिल्म उद्योगों का उपयोग किया था और उनसे राष्ट्र को सुशिक्षित किया था, पर इस अभागे देश में तो सब ओर चौपट ही चौपट हो रहा है। सिनेमा को इस बात की खुली छूट दी गयी है कि लोगों के अंदर कामुकता भड़कायें, अनैतिकता पैदा करे और आदमी को बुरा आदमी बनाये। यही तो शिक्षण होता है सिनेमा के अंदर। इस तरह की वाहियात किस्म की फिल्मों से सिनेमा घर भरे पड़े हैं, बच्चों का और विद्यार्थियों का काम है कि उनसे अपने आप को बचा कर रखें। उन बुरी आदतों को, जो उन सिनेमा के पात्रों में देखी जाती हैं, इन सिनेमा की तस्वीरों में दिखाई जाती हैं, उन से अपने आपका बचाव करें। ये उनका काम है, विद्यार्थियों का काम है कि अपने समय को संभाल करके रखें। जीवन की नींव नीतियों पर रखी जाती है। अगर उन्होंने संयम से काम नहीं लिया, ब्रह्मचर्य से काम नहीं लिया और अपने आपको भड़काने वाली परिस्थितियों में रखा और कामुकता की परिस्थितियों में रखा, तो जरूर उनका ऐसी बुरी आदतों को सीखने के लिए मजबूर होना पड़ेगा, जो कि उनके शरीर को खोखला करके रख देंगी।
आज हम देखते हैं कि हमारे नवयुवकों के चेहरे पर न तेज है, न ओज, न उनकी आंखों में उम्मीदें हैं, और न उनका साहस; सारे के सारे ऐसा मालूम पड़ते हैं कि जवानी में कोई आदमी विलासी जैसे होते हैं, कामुक जैसे होते हैं, भड़ुए जैसे होते हैं, बूढ़े जैसे होते हैं, इस तरह के नवयुवक टूटे हुए, गिरे हुए, मरे हुए-से दिखाई पड़ते हैं। इसके कारण दूसरे भी हो सकते हैं, पर एक बड़ा कारण यह है कि ब्रह्मचर्य की जड़ें भीतर ही भीतर खोखली होती चली जाती हैं, बाहर से दिखाई नहीं पड़ता, वह छिपी हुई बात है, गुपचुप की बात है, लेकिन गुपचुप की बात के ऊपर से जब पर्दा उठाकर देखते है, तो उस नाली के भीतर बड़ी सड़न आती है। परस्पर नैतिक और अनैतिक जो क्रियाएं की जाती हैं, उनका जिक्र करना मेरे लिए मुनासिब नहीं है, लेकिन मैं ये इशारा करना चाहता हूं कि अवांछनीयता, जो विद्यार्थियों में पैदा होती है, कामुकता से संबंधित, गंदी किताबें पढ़-पढ़ करके और गंदी तस्वीरें देख करके, गंदी फिल्में देख करके और गंदे लोगों की सोहबत में रहकर के जो बुरी आदतें वो सीख लेते हैं, उससे उनका शरीर खोखला उस समय ही नहीं हो जाता, बल्कि सारी जिंदगी तबाह हो जाती है। बुढ़ापे का वक्त आता है, जवानी का वक्त आता है, वह किसी काम का नहीं रहता। बच्चे पैदा करते हैं, तो वो बिलकुल सड़े-गले बच्चे पैदा करते हैं और जब बुढ़ापा आता है, बुढ़ापा आने से पहले हजार बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। आंखें कमजोर, कमर में दर्द, मरे-मरे, दीखता नहीं है, कान से सुनाई नहीं पड़ता, सिर भन्नाता है। न जाने क्या-क्या दुनियाभर की बीमारियां इकट्ठी हो जाती हैं। ये बीमारियां किसी ने थोपी नहीं हैं, ये दवाओं से नहीं जा सकतीं।
जो जीवन का मूलभूत था ओजस्, जो जीवन को लम्ब बना सकता था और मजबूत बना सकता था, वह सारे का सारा सार उस छोटी और कच्ची उम्र में नष्ट हो जाता है, जबकि उसको छुआ भी नहीं जाना चाहिए था, जब उसको पकने देना चाहिए था, वह हमारा पका हुआ जीवन-तत्व आगे जीवन की नींव को मजबूत कर सकता था। लेकिन बालकपन में ही ऐसा बिगाड़ शुरू हो गया। प्रत्येक बच्चे को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हमको अपने शरीर की रक्षा कैसे करनी चाहिए और बुरी आदतों से कैसे बचना चाहिए? सारे का सारा समय और मनोयोग हमको अध्ययन में लगाना चाहिए, पढ़ने में लगाना चाहिए। खेलकूद हम खेलें बेशक स्वास्थ्य की दृष्टि से, लेकिन ऐसे खेलकूद नहीं होने चाहिए, जो समय की बरबादी करते हों-जैसे ताश खेलना, शतरंज खेलना, चौपड़ खेलना, इससे क्या मिलता है? इसमें कान लाभ मिलता है? गेंद खेली जाय समझ में आता है, क्रिकेट खेल लिया, फुटबॉल खेल लिया समझ में आता है। इससे व्यायाम होता है।
खेलकूदों के लिए भी समय निकाला जाय, मनोरंजन भी हो सकता है और साहस और शौर्य का शिक्षण भी हो सकता है। इस तरह के वाहियात खेल जो जुआरी के तरीके से, जो केवल मनोरंजन के लिए किए जाते हैं, उनसे क्या फायदा? इसी तरीके से जो आजकल रेडियो और ट्रांजिस्टर इतने सस्ते और सुलभ हो गये हैं, ये बच्चों को बहुत आकर्षित करते हैं। इसमें से भी हम देखते हैं कि इसमें लोकरंजन पर ही ज्यादा ध्यान रखा जाता है, सीलोन रेडियो किसी ने सुना है, तो उसको बहुत ना उम्मीदी होगी। और वह रेडियो के दूसरे गाने जिसमें से पचहत्तर फीसदी होते हैं, अगर सुने जायें तो आदमी को न उम्मीदी होती है और ये मालूम पड़ता है कि ये किसी व्यक्ति का निर्माण करने के लिए और समाज का निर्माण करने के लिए नहीं बनाये गये हैं। यों आंसू पोंछने के लिए सारे दिन में दो-चार अच्छे गीत और दो-चार अच्छे भाषण भी आ जाते हैं, जिससे कि वो अपने चेहरे के नकाब को अच्छा बनाये रख सकते हैं। बाकी ये मालूम पड़ता है कि यह खोखला करने वाली बातें हैं। मनोरंजन का यह भौंड़ा तरीका है। उस भौंड़े तरीके से यदि नवयुवक अपने आप को बचा करके रखें, व्यायाम किया करें, ब्रह्मचर्य से रहा करें, स्वाध्याय किया करें, ईश्वर भक्ति की बात ध्यान रखें और अनुशासन से रहें तो बहुत अच्छा होगा।
जो व्यक्ति छोटी उम्र में अनुशासन नहीं सीख सका, जिसने अनुशासन का पालन नहीं किया, वो कभी किसी आदमी को अनुशासन में नहीं रख सकता। अच्छा शिष्य ही अच्छा गुरू बन सकता है। जो अच्छा शिष्य नहीं रहा है, जो बुरा शिष्य रहा है, जो अपन अध्यापकों से लड़ता-झगड़ता रहा है और अपने अध्यापकों की अवज्ञा करता रहा है, कभी भी उसको भावी जीवन में यह मौका नहीं मिल सकता कि अगर उसको अध्यापक बनने के लिए मौका दिया जाय और अध्यापक बने, तो उसके बच्चे कहना मानें। जो बुरा लड़का रहा है, वो अच्छा बाप नहीं बन सकता और उसके बच्चे अच्छे नहीं हो सकते। ये अनुशासन छोटी उम्र में ही सीखना पड़ता है। वो आदमी जिसने छोटी उम्र में अपने बड़ों की आज्ञा का पालन नहीं किया, अनुशासन का पालन नहीं किया और मिलिटरी डिसिप्लिन अपने जीवन में स्थापित नहीं किया, वह कभी भी आगे जा करके दूसरों को अनुशासन में रखने में समर्थ नहीं हो सकता। उस आदमी को अगर फौज का कर्नल बना दिया जाय, कप्तान बना दिया जाय, तो कभी भी अपनी सेना को अनुशासन में नहीं रख सकता, इसलिए कि स्वयं अनुशासन पालन करना सीखा नहीं।
जो गुण अपने आप में हैं, सिर्फ उन्हीं गुणों को दूसरों को आदमी सिखा सकता है। इसीलिए जिन लोगों को बड़े-बड़े काम करने हैं और दूसरों से काम लेना है, उन्हें अनुशासित बनना चाहिए मान लीजिए आपको बड़ा अफसर बनना है और आगे अपने नीचे वाले सबोर्डिनेट से काम लेना है, उनको आज्ञा पालन करने वाला बनाना है, तो इससे पहले आपको स्वयं आज्ञा पालन करने वाला बनना होगा। अनुशासन प्रिय बनना होगा। कायदे-कानून के भीतर रहने वाला बनना होगा। मर्यादाओं में रहने वाला बनना होगा। आज बच्चों को इस तरह का शिक्षण और इस तरह की हवा नहीं दी जाती, बल्कि उच्छृंखलता की बात सिखाई जाती है।
परीक्षा देने के लिए जाते हैं, तो चाकू लेकर जाते हैं और नकल करने के लिए पर्चे लेकर जाते हैं। जहां उनके पर्चे जाते हैं, उन अध्यापकों के पास चक्कर लगाते हैं। जो नम्बर नहीं देते, उनको चाकू दिखाते हैं, न जाने क्या-क्या करते हैं। ये क्या बात हुई? इस तरीके से अगर पर्चा देकर पास भी हो जाय आदमी तो उसके अंदर वो विशेषताएं कहां से आयेंगी, जो कि जीवन का विकास करने के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। इस तरीके से कोई पास भी कर दे, गलत तरीके से और डिविजन भी ले आये, तो पास होने और डिविजन होने के बाद में अधिक से अधिक ये ही तो हो सकता है कि नौकरी मिल जाये, लेकिन नौकरी में सफलता और नौकरी में एफिशिएंसी और व्यक्तित्व का विकास और तरक्की करने का माद्दा और सफल नौकरी कैसे कर लेगा वो आदमी, जिसने कि परिपूर्ण रूप से, गहराई से, गंभीरता से शिक्षण प्राप्त नहीं किया है।
गंभीरता से शिक्षण जिनके पास होता है, उनके पास योग्यता होती है और योग्यता ही हमेशा काउण्ट करती है। योग्यता ही जिसके पास होती है, वही आगे विकास कर सकता है। योग्यता जिसके पास नहीं और उल्टा-पुल्टा सर्टिफिकेट छीन लाये और धमका लाये और नकली सर्टिफिकेट ले आये, जाली सर्टिफिकल ले आये, मास्टरों को धमका लिया, ये कर लिया और किसी तरह से पढ़ लिया। किताब में से एक-एक पन्ना पढ़ लिया और गैस पेपर खरीद कर ले आये, उसमें से थोड़े-से सवाल यहां से सीख लिए, थोड़े-से सवाल वहां से सीख लिए और जब काम पड़ेगा तब? जब किसी ऑफिस का इंचार्ज बनना पड़ेगा, और जब कोई बड़ा काम हाथ में आयेगा और जब अच्छे अनुवाद करने पड़ेंगे, अच्छे ड्राफ्ट बनाने पड़ेंगे, तब सारी पोल खुल जायेगी। तब बेढंगे तरह से इधर से उधर ही करते फिरेंगे। पता नहीं किताबी आदमी क्या होने वाला है? कुछ भी तो होने वाला नहीं है। उन्नति का पथ कैसे खुलने वाला है?
इसीलिए विद्या इसलिए नहीं है कि हम पास हो जायें, डिविजन ले आयें और खेलकूद पर प्रभुत्व बना लें, बल्कि विद्या इसलिए पढ़नी चाहिए कि हमारी योग्यताओं की वृद्धि हो, हमारे स्वभाव की वृद्धि हो। इस समय में केवल अनुशासन ही विद्यार्थियों के लिए आवश्यक है। राजनीति में काम करने का बहुत वक्त पड़ा हुआ है। लड़ाई-झगड़ा करने के लिए बहुत वक्त पड़ा हुआ है। सिनेमा देखने के लिए सारी जिंदगी ही भरी हुई पड़ी है। दूसरे शौक-मौज करने के लिए क्या यही वक्त रह गया है? यह नींव, नींव डालने का यह वक्त है। जीवन की फाउण्डेशन मजबूत करने का यह वक्त है-विद्यार्थी जीवन। विद्यार्थी जीवन। विद्यार्थी जीवन को अच्छे से अच्छा बनाया जाना चाहिए। शिक्षा तीन अंगों में बंटी हुई है। अभिभावक, जिनका काम है कि ऐसा वातावरण उत्पन्न करें, जिसमें बालकों का ठीक तरीके से विकास हो। अध्यापक, अपने शिक्षण के साथ-साथ में अपना स्कूली पाठ्यक्रम पूरा करने के साथ-साथ में बालकों को वो बातें भी सिखाएं, बताएं, जो उनके जीवन का विकास करने में, उनके व्यक्तित्व को परिष्कृत करने में समर्थ हैं। ये कार्य सरकारी पाठ्यक्रम को पूरा करते हुए वे अपनी तरफ से भी जोड़कर सिखा सकते हैं और सिखाया जा सकता है। इसके अलावा बच्चों का नम्बर आता है। वो स्वयं भी इसको सीखने के लिए इच्छुक न हों, सीखना नहीं चाहें, अध्यापक और अभिभावकों के कार्य में सहयोग नहीं करें, उच्छृंखलता ही बरतें, मनमानी ही बरतें, किसी की सुनें ही नहीं और मनमर्जी का व्यवहार करें, तो बेचारे अध्यापक भी क्या कर सकते हैं? ये तीनों वर्गों में बंटा हुआ है व्यक्तित्व का निर्माण शिक्षा की व्यवस्था, भावी जीवन का उन्नयन और अपने समाज के दृढ़ होने का स्वरूप। इस सबके बारे में हम सबको ध्यान देना चाहिए और समग्र शिक्षा का विकास करने के लिए तीनों वर्गों को अपने उत्तरदायित्वों को समझना चाहिए, ताकि हमारा देश समर्थ और समृद्ध बन सके।