Books - धर्मतंत्र की गरिमा एवं महत्ता
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धर्मतंत्र की गरिमा एवं महत्ता
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गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भुर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो ! भाइयो !!
आज भगवान् महावीर का और रामभक्त हनुमान का जन्मदिन है। जैन धर्म के प्रथम संस्थापक भगवान् महावीर का यह जन्म-दिवस है और आज ही हनुमान जी का भी है। भगवान् भक्त हनुमान भी आज ही जन्मे थे। वे हमारे प्रेरणा के स्त्रोत हैं। आज का दिन कितना शुभ है? भगवान् महावीर राजकुमार थे। उन्होंने सोचा कि राजकुमार होने की अपेक्षा संत होना अच्छा है, अतः हमें संत बनकर जीना चाहिए, क्योंकि राजकुमार की-राजा की शक्ति की अपेक्षा संत की शक्ति बड़ी है। संत समाज की जो सेवा कर सकता है, वह राजा नहीं कर सकता। यह विचार करने के बाद उन्होंने बुद्ध भगवान् की तरह अपना राजपाट छोड़ दिया और तपश्चर्या में निमग्न हो गये। यद्यपि वे चाहते तो राजसत्ता के माध्यम से समाज की सेवा कर सकते थे, लेकिन उन्होंने देखा कि राजसत्ता का दायरा बहुत सीमित है-बड़ा क्षुद्र है। धर्मतंत्र की शक्ति राज़तंत्र की तुलना में असंख्य गुनी अधिक है। राजसत्ता केवल भौतिक जीवन पर प्रभाव डाल सकती है, लेकिन हमारे अन्तःजीवन में प्रवेश नहीं कर सकती।
साथियो, हृदय-हृदय पर शासन किसका होता है? हृदय-हृदय पर शासन धर्मर्तंत्र का था, है और रहेगा। भौतिक वस्तुओं पर शासन सरकार का रहेगा और सरकार का था। बहुत दिन पहले की बात है, जब हमने राजनीति त्याग करके धर्मतंत्र में प्रवेश किया था। इसके पहले काँग्रेस आन्दोलन में जब तक रहा, तब बार-बार जेल जाता रहा। इसके पश्चात् जब इसको छोड़ा और धर्मतंत्र की ओर बढ़ा, तब लोगों ने बार-बार यही कहा कि राजसत्ता में जो आदमी होता है, वह मिनिस्टर बन जाता है और उसके पास मोटरें होती हैं और दुनिया उसका कहना मानती है। दुनिया में उसकी इज्जत होती है। तब मैंने कहा था कि मैं यह तो नहीं कहता कि राजसत्ता में कोई बुराई है और वह समाज की कोई सेवा नहीं कर सकती, लेकिन मैं यह अवश्य कहता हूँ कि राजसत्ता सीमित है सीमाबद्ध है। इसमें व्यक्ति किसी प्रान्त का मिनिस्टर हो सकता है और उसी प्रान्त के लोगों को प्रभावित कर सकता है। दक्षिण भारत का मुख्यमंत्री कौन है जरा बताइये? अगर वह मंत्री आए और आपके ऊपर प्रभाव डाले तो क्या कोई प्रभाव पड़ सकता है? नहीं, कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। लेकिन दक्षिण भारत के रहने वाले केरल निवासी जगतगुरु शंकराचार्य केरल को छोड़कर जब बाहर निकल गये और सारे हिन्दुस्तान में काम करते चले गये, चारों धाम की स्थापना करते चले गये, तो सारा देश उनके चरणों में नतमस्तक हो गया। यह धर्म की शक्ति का द्योतक है। अभी भी लोग हमसे बार-बार पूछते हैं कि आप राजसत्ता से दूर क्यों हैं? बेटे, राजसत्ता से राजतंत्र से उसके घपलों से हमारा कोई ताल्लुक नहीं है। हम उन लोगों में से हैं, जो यह जानते हैं कि मनुष्य के जीवन में राजनीति का क्या स्थान है?
राजनीति और आदमी अब जुड़ गया है। तिब्बत के दलाई लामा को राजनीति के कारण तिब्बत छोड़कर भाग जाना पड़ा। भगवान् बुद्ध का जन्मस्थान था तिब्बत जहाँ से पैदा होने के बाद बुद्धावतार न जाने कहाँ से कहाँ चला गया? चीन में न जाने क्या से क्या हो गया? कभी चीन में बौद्ध धर्म इतना फैला हुआ था कि हिन्दुस्तान से भी अधिक बौद्ध लोग चाइना में रहते थे। वहाँ अभी भी बौद्ध विहारों के खण्डहर बहुत ज्यादा हैं। चीन की लाइब्रेरियों में बौद्ध धर्म की इतनी अधिक पुस्तकें हैं कि दुनिया में और कहीं भी नहीं हैं। लेकिन क्या हो गया? चाइना से बौद्ध धर्म का सफाया हो गया। वहाँ अब कोई धर्म नहीं है-न हिन्दू धर्म है, न मुसलमान धर्म है, न ईसाई धर्म है, सब धर्म साफ हो गये। ऐसा इसलिए हो गया क्योंकि धर्मर्तंत्र अपनी गरिमा को-क्षमता को भूल गया। राजसत्ता की शक्ति कितनी बड़ी है और वह क्या कर सकती है? इसे देखना हो तो जर्मनी में पिछले दिनों हिटलर की शासन सत्ता को देख सकते हैं। उसने सारी की सारी शिक्षा प्रणाली को बदलकर रख दिया था और थोड़े ही दिनों में सारे देश को नाजी बना दिया था। राजसत्ता की शक्ति बड़ी जबर्दस्त है, इससे मैं इनकार नहीं करता हूँ, पर मैं यह कहता हूँ कि राजसत्ता को अच्छा बनाने के लिए ऊपर से काम करना ही काफी नहीं है। राजसत्ता की जड़ें जमीन में होनी चाहिए। आप ऊपर से देखभाल करेंगे, डालियों को झाड़ेंगे, पत्तों को साफ करेंगे, लेकिन जड़ों की ओर ध्यान नहीं देंगे तो पेड़ के चरमराकर गिर जाने का अंदेशा बना ही रहेगा। फिर बाग किस तरीके से बनेगा? यह काम केवल धर्मतंत्र कर सकता है। असली शक्ति-क्षमता धर्मतंत्र के हाथों में है। राजतंत्र केवल कानून बना सकता है, लोगों को रोक सकता है, लोगों को गिरफ्तार कर सकता है, लेकिन सारे देश में विद्यमान मुख्य समस्याओं को हल नहीं कर सकता।
कल मैं आपसे निवेदन कर रहा था कि कोई भी काम केवल कानून बना देने से पूरा नहीं हो सकता। कोई भी बुरा काम ऐसा नहीं है दुनिया में, जिसके खिलाफ गवर्नमेण्ट ने कानून न बनाये हों और जेलखाने न बनाये हों, पुलिस न हो। पर बताइये कौन-से कानून से कौन-सा पाप रुक गया? भ्रष्टाचार रुक गया? रिश्वतखोरी रुक गयी? मिलावट रुक गया। बताइये एक भी पाप रुक गया हो तो जबकि सारे के सारे कानून बने हुए हैं। कानून इनसान के ऊपर हुकूमत नहीं कर सकता और इनसान की इच्छाएँ नहीं बदल सकता। इनसान की इच्छाएँ बदलने की शक्ति धर्मतंत्र में है। राजतंत्र की अपेक्षा धर्मतंत्र बड़ा है। धर्मतंत्र की शक्ति का ठिकाना नहीं। उसकी ताकत बड़ी है, प्रभाव बड़ा है, अतः समस्याओं के समाधान में भी वही सफल हो सकता। धर्मतंत्र के बिना मनुष्य के ऊपर और कोई अंकुश नहीं रख सकता। समाज के ऊपर जब कभी अंकुश रखा जाएगा तो धर्म के द्वारा-भगवान के द्वारा रखा जाएगा। धर्म के अलावा और कोई अंकुश ऐसा नहीं है, जिससे मनुष्य को काबू में रखा जा सके और सही राह पर चलाया जा सके। समाजशास्त्र के कायदे-कानून चाहे जितने बनाइये, लेकिन कायदे और कानून बनाने के बाद में भी ऊँचे से ऊँचे आदमी भी गलत काम करते पाये और देखे गये हैं। कितने ही उच्चपदस्थ लोगों ने अपने-अपने देशों की मिट्टी पलीद कर दी है, यह किसी से छिपा नहीं है। कानूनों के नाम पर चाहे जो कुछ करते रहिये, कोई रोक-टोक नहीं है। अतः इससे कोई गारंटी नहीं कि कानून से अच्छे मनुष्य बन सकते हैं। अच्छे और शिष्ट मनुष्य जब कभी भी बनेंगे तो धर्मसत्ता के माध्यम से बनेंगे। राजसत्ता जनता के हृदय पर शासन नहीं कर सकती। जनता के हृदय के ऊपर शासन करने की क्षमता केवल धर्मतंत्र में है वही करेगा।
तो क्या करना पड़ेगा मित्रो ! राजनीति को परिपुष्ट बनाने के लिए और राजनीति को सही बनाने के लिए हमको एक काम करना पड़ेगा जो गाँधी जी ने हमको सलाह दी थी। गाँधी जी ने कहा था कि हमको-काँग्रेस संस्था को लोकसंस्था के रूप में बदल जाना चाहिए और राजनीति के काम और किसी के सुपुर्द कर देना चाहिए, ताकि उस पर अंकुश रखा जाए। हमको लोकशक्ति के रूप में जिसमें काँग्रेस का उदय हुआ था, उसी रूप में माना और जाना चाहिए। असली राजनीति की जड़ जमीन में है, जनता के पास में है। जनता को प्रभावशाली बना नहीं सके, जनता में उत्साह भर नहीं सके, जनता को नागरिकता की बात समझा नहीं सके, जनता को यह समझा नहीं सके कि क्रियाशीलता क्या होती है, इसका परिणाम यह हुआ कि जैसी हमारी जनता वैसी ही हमारी सरकार बनती चली आयी। दूध जैसा होगा मक्खन भी तो वैसा ही बनेगा, मलाई भी तो वैसी ही आयेगी। जनता का स्तर, जनता के विचार करने का क्रम, जनता का चरित्र जैसा जो कुछ भी होगा, गवर्नमेण्ट भी वैसी ही बनती हुई चली जाएगी। गवर्नमेण्ट को आप बदलना चाहें तो पहले जनता को बदलना पड़ता है। जनता जब बदल जाती है तो गवर्नमेण्ट बदल जाती है। उसकी इच्छा बदल जाती है, स्वरूप बदल जाता है।
गवर्नमेण्ट बनाने की जिम्मेदारी किसकी है? आपकी और हमारी। पाँच वर्ष बाद हमको यह अधिकार मिलता है कि हम किस तरीके से हुकूमत बदल सकते हैं और कैसे शासन बदल सकते हैं। अगर हमारे पास ईमानदारी न हो और हम कर्तव्यों को समझते न हों, हमको अपने हित का ध्यान न हो, ज्ञान न हो, नागरिक कर्तव्यों-अधिकारों का अनुभव न हो, तो क्या होगा कि जब कभी भी वोट देने का वक्त आयेगा तो इस बात की जिम्मेदारी का अनुभव हम नहीं करेंगे कि कहाँ और किसको वोट देना चाहिए और किसे नहीं देना चाहिए? तब हम क्या करेंगे? तब हम सिर्फ यही करेंगे कि जहाँ हमारा स्वार्थ प्रेरित करेगा, जो कोई आदमी जीप में बैठाकर ले जाएगा, जो कोई भी हमको मिठाई खिला देगा, शराब पिलाएगा, उसी आदमी को हम वोट देते चले जाएँगे। वोट देने का यदि हमारा यही क्रम रहा तो मैं यह पूछता हूँ कि फिर हमको अच्छी गवर्नमेण्ट सरकार कैसे मिल सकती है? अच्छी सरकार कभी नहीं मिल सकती। अगर यही क्रम बना रहा और जनता अपने नागरिक कर्तव्यों को नहीं समझती, नागरिक जिम्मेदारियों को नहीं समझती तो फिर यही होगा कि जो कोई व्यक्ति या पार्टी अमुक लोभ दिखाएगा, कोई पैसा दिखाएगा,कोई भय दिखाएगा, कोई जाति-बिरादरी की बातें कहेगा, कोई क्या कहेगा? कोई क्या कहेगा? उसी को समर्थन मिलता जाएगा। इस तरीके से क्या होता जाएगा कि जिस आदमी के अन्दर देश-भक्ति और नागरिक कर्तव्यों का उदय नहीं हुआ और उसे इस बात की जिम्मेदारी एवं जानकारी भी नहीं है कि वोट के नाम पर राष्ट्र की हुकूमत हमारे हाथ में सौंप दी गयी है, वह अपनी जिम्मेदारियों को कैसे निभा सकता है? अच्छी राजनीति चलाने और अच्छी गवर्नमेण्ट बनाने के लिए शासन-सत्ता में अच्छे व्यक्ति पहुँचने चाहिए। अच्छे व्यक्ति शासन में भेजने के लिए वोटों के इस्तेमाल का स्तर भी ऊँचा उठना चाहिए। क्रियापद्धति भी यही है। अच्छा देश और अच्छी राजनीति बनाने के लिए अगर हम जनता का चरित्र अच्छा नहीं बना सकते तो फिर यह उम्मीद नहीं रखनी चाहिए कि देश को अच्छी गवर्नमेण्ट मिल सकती है। अगर आप रिश्वत लेकर वोट दे सकते हैं, तो फिर आपको क्यों उम्मीद करनी चाहिए कि अच्छी सरकार मिल जाएगी। फिर तो यही समझना चाहिए कि जो बीज आपने बोये हैं वही काटना पड़ेगा।
लोग हमसे बार-बार यही पूछते हैं कि आप राजनीति में क्यों नहीं जाते? मित्रो! हम राजनीति से अलग नहीं है, किन्तु हमारी राजनीति वह राजनीति नहीं है जो सत्ता हथियाने वाली होती है। सत्ता हथियाने के बाद कोई भी आदमी बड़ा काम नहीं कर सकता, अगर जनता उसका साथ देने को तैयार न हो तब। जनता का साथ देने वाला पक्ष बहुत बड़ा पक्ष है और इस बड़े पक्ष की ओर आज तक किसी ने भी ध्यान नहीं दिया। हर आदमी का ध्यान केवल इस ओर गया कि अमुक आदमी को मिनिस्टर, अमुक आदमी की गवर्नमेण्ट बनाएँगे। आप किसी भी पार्टी की गवर्नमेण्ट बना दीजिये, किसी को मिनिस्टर बना दीजिए, उससे किसी का कुछ बनने वाला नहीं है। आपका काम तो जनता से बनेगा। बनना तो जनता को है, उठना तो जनता को है। जनता को अपने कर्तव्यों और अधिकारों का अगर हम बोध नहीं करा सके तो फिर कोई भी पार्टी चुन लीजिये, किसी का कुछ भला नहीं होने वाला है। कोई पार्टी ईमानदार तभी हो सकती है जब जनता ईमानदार होगी। तब गलत काम करने वाला कोई भी मिनिस्टर या अधिकारी क्यों न हो, जनता उसे गलत काम करने से रोक देगी और यह कहेगी कि आपको गलत काम नहीं करना चाहिए। अगर जनता कमजोर है और अपने अधिकारों, नागरिक कर्तव्यों का ज्ञान उसे नहीं है तो फिर जो कोई भी पार्टी आएगी, जो कुछ करेगी, जनता मूकदर्शक बनी देखती और उसके दुष्परिणामों को भुगतती रहेगी। जनता को कैसे बहकाया जा सकता है, कैसे पैसा लिया जा सकता है और किस तरीके से उलटी पट्टी पढ़ाई जा सकती है? वह सब कुछ होता रहेगा। यदि जनता समझदार और जागरूक है तो फिर इन चालाकियों की बारीकी को वह समझ जाएगी और नेताओं के मनसूबों पर पानी फेर देगी।
मित्रो ! वास्तविक शक्ति जनता के हाथ में है। जनता से बड़ा दैत्य, जनता से बड़ा राक्षस, जनता से बड़ा जालिम, जनता से बड़ा शक्तिशाली और कोई नहीं है। जनता के पास जो शक्ति है वह और किसी के पास नहीं है। वह चाहे जिसे शासन के शीर्ष पर बिठा दे और चाहे तो धूल में मिला दे। जनता के साहस से हमने आजादी की लड़ाई जीती। जनता के साहस से हमने गवर्नमेण्ट बनाया और काँग्रेस पार्टी को शासन पर बिठा दिया। शक्ति किसकी रही? गाँधी जी की? नहीं, गाँधी जी की नहीं, जनता की रही। हुकूमत की शक्ति जब-जब होगी जनता की होगी। किन्तु हमारे कर्तव्य क्या हैं, अधिकार क्या हैं और जनता को कैसा होना चाहिए, जब तक यह समझ विकसित नहीं होती, तब तक प्रयास सफल नहीं हो सकते। अभी तक लोगों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। ध्यान गया है तो केवल इतना कि गवर्नमेण्ट इस तरीके से बना देना चाहिए, पार्टी इस तरीके से बना देना चाहिए, हुकूमत इस तरीके से चलाना चाहिए, संविधान इस तरह से बना देने चाहिए और कानून ऐसे बना देने चाहिए। इस बात की जोर ध्यान देना चाहिए, उस बात पर ध्यान देना चाहिए। मित्रो! असली बात यह नहीं है, असली बात वह है जो जनता से ताल्लुक रखती है। जनता जहाँ जिस तरीके की होगी, वहाँ उसी तरीके की चीजें बनती चली जाएँगी। जहाँ जनता की मनोदशा अच्छी नहीं है, जहाँ जनता को अपने नागरिक कर्तव्यों और नागरिक जिम्मेदारियों का ज्ञान नहीं है, वहाँ अच्छी गवर्नमेण्ट नहीं हो सकती।
नागरिक कर्तव्यों, जिम्मेदारियों को समझाना, प्रत्येक नागरिक को उसके अधिकारों का बोध कराना, दूसरों के कष्ट-कठिनाइयों में भागीदार बनाना और उन्हें राष्ट्रीय दायित्वों को समझाने की जिम्मेदारी किसकी है? साथियो,यह धर्म की जिम्मेदारी है, यह हमारी जिम्मेदारी है और आपकी जिम्मेदारी है कि हम हर आदमी को वह काम करना सिखाएँ, जिससे एक अच्छे राष्ट्र का विकास हो सकता है। कानून इस काम को नहीं कर सकता, जनता इस काम को करेगी। जनता का ईमान जब जाग्रत होगा तब लोगों को यह भय होगा और दुःख भी होगा कि हम मसाले में मिलावट करेंगे तो जो खरीदकर उसे खाएगा, पेट में पथरी हो जाएगी। जो आदमी बीमार पड़ा हुआ है और अगर वह मिलावट वाला दूध पियेगा तो उसके जीवन-मरण का प्रश्न पैदा हो जाएगा। जब ये बातें हमारे दिमाग में आएँगी, अंतःकरण में आएँगी, विचारों में आएँगी, दूध में पानी और मिर्च-मसालों में मिट्टी व अनाज़ में कंकड़ मिलाना बंद कर देंगे। क्या इसे सरकार बंद कर सकती है? नहीं, सरकार नए-नए कायदे-कानून और नीतियाँ बनाती चली जाएगी और लोग अपने बचाव के लिए नए-नए तरीके ईजाद करते चले जाएँगे। अच्छा राष्ट्र बनाने के लिए जनता को अच्छा बनाया जाना नितान्त आवश्यक है। अच्छी जनता वह नहीं है, जो सम्पन्न होती है, मालदार होती है, वरन् अच्छी जनता वह है जो अपने फर्ज को समझती है, अपने कर्तव्यों को समझती है और अपनी जिम्मेदारी को समझती है। फर्ज, कर्तव्य और जिम्मेदारियों को समझना-यही, मित्रो! धर्म का उद्देश्य है , यही अध्यात्म का उद्देश्य है।
धर्म और अध्यात्म का उद्देश्य बहुत लोगों ने समझा और समझाया है, पर खाली उद्देश्य के बारे में मेरी कोई गम्भीर निष्ठा नहीं है। जब लोगों को खाली उद्देश्य समझाये जाते हैं कि मरने के बाद हम कौन-से लोक में चले जाते हैं और वह लोक किस तरह के हैं? स्वर्ग कहाँ है? स्वर्ग की लम्बाई, चौड़ाई कितनी है? हमको नहीं मालूम। हमको तो जिन्दगी की जानकारी है, जमीन की जानकारी है। हमको जमीन की जिम्मेदारी जाननी चाहिए, अपने कर्तव्यों को जानना चाहिए। भगवान महावीर जिनका कि आज जन्म-दिन है, उन्होंने यही समझा और लोगों को समझाया। उन्होंने यह जान लिया था कि राजसत्ता की अपेक्षा धर्मसत्ता की शक्ति अपार है और इसे ही उन्होंने अंगीकार किया। धर्मसत्ता लोगों के दिलों पर हुकूमत करती है और राजसत्ता जमीनों पर हुकूमत करती है, पैसे पर हुकूमत करती है, किलों पर हुकूमत करती है, व्यापार पर हुकूमत करती है और चीजों पर हुकूमत करती है, परन्तु दिलों पर हुकूमत नहीं कर सकती। दिलों पर हुकूमत करने की क्षमता केवल धर्म में है। इसलिए भगवान महावीर ने यही किया और राजसत्ता को त्याग दिया।। राजसत्ता त्यागने के पश्चात् उन्होंने धर्मसत्ता को सँभाला और जगह-जगह घूम करके धर्म की बात, अध्यात्म की बात, ईमानदारी की बात, नेकी की बात, शराफत की बात, कर्तव्य की बात लोगों को समझाते चले गये। लोगों में धर्म को जानने की इच्छा पैदा कर दी। यह सबसे बड़ी सेवा थी, जो भगवान महावीर ने की।
हनुमान जी जिनका कि आज जन्मदिन है, क्या वे मिनिस्टर नहीं बन सकते थे? हाँ, वे भगवान राम की हुकूमत में मिनिस्टर बन सकते थे, उनके मंत्री बन सकते थे, लेकिन वे मिनिस्टर नहीं बने। उन्होंने कहा-इस काम के लिए तो ढेरों आदमी विद्यमान हैं, लेकिन जो मुश्किल का काम है, कठिनाई का काम है, कष्ट का काम है, त्याग का काम है, बलिदान का काम है, वह कौन करेगा? हनुमान जी ने सेवा को सबसे बड़ा काम समझा, सत्ता को नहीं और शुरू से अंत तक उसी में निमग्न रहे, सत्ता की अपेक्षा सेवा को जब लोग अच्छा समझने लगेंगे तब मजा आ जाएगा और हमारा राष्ट्र राजनीति की दृष्टि से ही नहीं, आर्थिक दृष्टि से, सामाजिक दृष्टि से, नेकी की दृष्टि से उन्नति के शिखर पर जा पहुँचेगा और तब समस्त समस्याओं का समाधान होता हुआ चला जाएगा। हर समस्या का समाधान मित्रो ! व्यक्ति के दृष्टिकोण के साथ जुड़ा हुआ है। गवर्नमेण्ट हमारे रिश्तों को अच्छा कर देगी? नहीं कर सकती। हमारी सेहत को गवर्नमेण्ट अच्छा नहीं कर सकती। हमारा खान-पान ठीक नहीं है, ब्रह्मचर्य के ऊपर हमारा संयम नहीं है, आहार-विहार के ऊपर हमारा संयम नहीं है, सफाई-स्वच्छता का ज्ञान हमें नहीं है, तो क्या आप समझते हैं कि किसी भी देश की जनता के स्वास्थ्य की रक्षा करने की जिम्मेदारी कोई गवर्नमेण्ट उठा सकती है। नहीं उठा सकती है। यह तो स्वयं ही समझना होगा कि हमें क्या करना चाहिए, क्या खाना चाहिए और कैसे रहना चाहिए? अगर यह बातें समझ में आ जाएँगी तब हमारे स्वास्थ्य की समस्या का समाधान हो जाएगा। जनता के मन में यदि एक जाग्रति का भाव आ जाए कि हमें अपने प्रति, राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को निभाना है तो फिर क्या कुछ नहीं हो सकता? हर बात के लिए गवर्नमेण्ट से शिकायत करना या और किसी का मुख देखना मुनासिब नहीं है। कुछ काम ऐसे हैं जिन्हें हमें स्वय करना चाहिए।
जनता की शक्ति अपने आप में सबसे बड़ी शक्ति है। जनता की इस शक्ति को हम जाग्रत करेंगे और लोगों को यह बात बताएँगे कि अपनी समस्याओं का समाधान आप स्वयं कर सकते हैं और आपको करना ही चाहिए। स्वामी केशवानन्द जी के तरीके से हम हर एक आदमी से कहेंगे कि आप अपनी शिक्षा की व्यवस्था अपने तरीके से चलाएँ तो वह अच्छे तरीके से चल सकती है। स्वामी केशवानन्द बाइस वर्ष की उम्र में संत हो गये थे और जनता की शक्ति को संगठित करने में जुट गये थे। वे गाँव-पाँव घूमकर लोगों को शिक्षित करने लगे। जगह-जगह प्राथमिक पाठशालाएँ खुलवायीं, अध्यापक नियुक्त किये। घर-घर से बच्चों को लाते और उन्हें स्कूल में दाखिल कराते। अध्यापकों की तनख्वाह की पूर्ति घर-घर से एकत्र मुट्ठी-मुट्ठी भर अनाज से की जाती। इस तरह उनके प्रयास से साढ़े तीन सौ गावों में स्कूल चालू हो गये और सात कॉलेज। यह किसी राजनेता का नहीं, एक संत का प्रयास था जिसने जनता को जगाकर रख दिया था।
मित्रो ! क्या करना पड़ेगा? करना हमको वह पड़ेगा और वही महत्वपूर्ण काम है, जो स्वामी केशवानन्द करने में समर्थ हुए थे। अगर स्वामी केशवानन्द कलेक्टर होते तो क्या वे इतने महत्वपूर्ण कार्य करने में समर्थ हो सकते थे? उन्होंने साढ़े तीन सौ गाँवों में स्कूल बना दिये, सात कॉलेज बना दिये और जनता को स्वावलम्बी बना दिया। स्कूल बनाना, कालेज बनाना उतनी बड़ी बात नहीं है, जितनी कि जनता की स्वावलम्बी वृत्ति को जगाना। यह सबसे बड़ी बात है। जो भी राष्ट्र कभी उठे हैं, स्वावलम्बी होकर उठे हैं, अपने बलबूते पर उठे हैं , अपनी ताकत के आधार पर उठे हैं। दुनिया में जहाँ कहीं भी तरक्की हुई है, जनता ने अपने बाजुओं के बल से की है। परायी सहायता से न तो आज तक कोई उठा है और न कभी उठेगा। इसमें गवर्नमेण्ट भी शामिल है। गवर्नमेण्ट कहाँ तक सहायता कर सकती है? हम हर गाँव में जाएँगे, हर घर में जाएँगे और लोगों से यह कहेंगे कि समाज को ऊँचा उठाने के लिए आप सरकार का मुँह मत ताकते रहिए। आप हर रोज अपना एक घंटा समाज के लिए दीजिए। हमारे पास 24 घंटे होते हैं। 23 घण्टे हम अपने विभिन्न काम में लगाएँ, पर एक घण्टे का पसीना-एक घण्टे की मेहनत क्या हम समाज के लिए खर्च नहीं कर सकते? हाँ, हम एक घंटा रोज अपने समाज, देश, धर्म, जाति और संस्कृति के लिए खर्च कर सकते हैं। एक घण्टा कोई बड़ी चीज नहीं होती। इससे क्या हो सकता है? जिस गाँव में चार सौ घर हैं तो क्या उस गाँव के प्रत्येक घर से एक-एक व्यक्ति एक-एक घण्टा समय समाज, देश और संस्कृति के लिए नहीं निकाल सकते? चार सौ घण्टे का मतलब साठ आदमियों की पूरी मेहनत। साठ आदमी एक साथ मिलकर बाग लगाने के लिए, सफाई के लिए, स्कूल चलाने के लिए खड़े हो जाएँ तो फिर आप देखिये कि साल भर में क्या हो सकता है? जनता की इस शक्ति को हमें जगाना पड़ेगा। जनता के पास कर्तव्यों का उद्बोधन करने के लिए हमको जाना पड़ेगा। घर-घर जाकर लोगों को सफाई की, स्वच्छता की बात बतानी होगी। रहन-सहन की, खान-पान की बातें बतानी होंगी। गन्दगी की, बदबू की, अशिक्षा की कलंक-कालिमा जो देश पर छायी हुई है, उसे यदि दूर कर दें तो इससे बड़ा और कोई काम नहीं हो सकता।
तो गुरुजी क्या यही अध्यात्म है? हाँ बेटे, यही अध्यात्म है और यही धर्म है। यही भगवान की भक्ति है। हमको और आपको भगवान की यही भक्ति लोगों को सिखानी पड़ेगी। नागरिक कर्तव्यों का ज्ञान और समाज के प्रति जिम्मेदारी का आभास प्रत्येक व्यक्ति को कराना होगा। आध्यात्मिक ख्वाब दिखाने से काम नहीं बनेगा। इस बारे में मत पूछिये क्योंकि हिन्दू अलग तरीके से सोचता है और मुसलमान अलग तरीके से। एक कहता है कि मरने के बाद हम मृत्युलोक में जाएँगे तो दूसरा कहता है कि कयामत तक हम यहीं खड़े रहेंगे जब तक एक फरिश्ता नहीं आता। एक कहता है कि जब तक पिण्डदान नहीं दिया जाएगा, तब तक मृतात्मा चक्कर मारता-फिरता है और पिण्डदान खा करके स्वर्ग को चला जाता है। हमसे मत पूछिये इन बेकार की बातों को। हमसे तो यह पूछिये कि असली धर्म क्या है? बेटे, असली धर्म उस चीज का नाम है, जो मनुष्य की जिम्मेदारी को प्रभावित करता है और कर्तव्य का ज्ञान कराता है। इस धर्म को, इस अध्यात्म को, भगवान की इस भक्ति को हम भूल गये, परिणामस्वरूप हम गरीब हो गये, दीन-दुर्बल हो गये, असंगठित हो गये, अशिक्षित हो गये। ये अभिशाप है भगवान् की उस भक्ति को त्याग देने के, धर्म को त्याग देने के। धर्म अगर हमारे पास होता, भक्ति हमारे पास होती तो अविद्या और अशिक्षा क्यों आती? आपके लिए नहीं कहता, मैं अपने लिए कहता हूँ। आज हमारी संख्या-हम पंडितों की, संतों की, बाबाजियों की संख्या छप्पन लाख है और गाँव कितने हैं? सात लाख। हर गाँव पीछे आठ संत आते हैं। यदि हम उस धर्म के मूल स्वरूप को लेकर हर गाँव में चले जाएँ तो क्या हम लोग देश की समस्या को हल नहीं कर सकते? जब अकेले एक स्वामी केशवानन्द साढ़े तीन सौ गाँवों की अशिक्षा की समस्या को हल कर सकते थे तो हमारी संख्या तो उससे कई गुना अधिक है। इस समस्या को हमें ही दूर करना होगा और हम करेंगे। सरकार इसे दूर नहीं कर सकती। उसके लिए प्राइमरी स्कूल चलाना ही मुश्किल पड़ रहा है। हमारा देश इसलिए पिछड़ा हुआ है कि यहाँ अशिक्षा की भरमार है। इसे दूर करने के लिए हमें जनता को जाग्रत करना पड़ेगा। उसके कर्तव्यों का उद्बोधन करना पड़ेगा और उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करना पड़ेगा। यही हमारा कुरान है, यही हमारी गीता है और यही हमारी भागवत् है। इसके लिए हमको बहुत कुछ करना है। मित्रो ! आज भगवान महावीर का जन्म-दिन हमको यह सिखाने के लिए आया था कि धर्मसत्ता को राजनीति में जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। इस माध्यम से जो काम हम जनता में जाकर कर सकते हैं ,जनता को ऊँचा उठा सकते हैं, जनता की भावना को, कर्तव्य को ऊँचा उठा सकते हैं, वह हजार गवर्नमण्ट मिलकर भी नहीं कर सकती। यही भगवान महावीर का संदेश था और इसी क्रियाकलाप को उन्होंने अपने जीवन में धारण किया और सारी जिन्दगी को इसी काम में लगा दिया।
आज ही हनुमान जी का जन्म-दिन है। जिस दिन से उन्होंने सेवाव्रत धारण किया, उस दिन से जहाँ भी जरूरत पड़ी, वे चले गये। सीता खोज के लिए पुल बनाने की जरूरत पड़ी तो पुल बनाने के लिए चले गये। जब रावण के साथ लड़ने की जरूरत पड़ी तो उससे लड़ने चले गये। जहाँ पहाड़ उठाने की जरूरत पड़ी, वहाँ पहाड़ उठाने के लिए चले गये। जहाँ वैद्य को लाने की आवश्यकता पड़ गयी, वहाँ उसे घर सहित उठा लाये। हनुमान जी ने सारी जिन्दगी भर सेवाव्रत को धारण करके रखा। उन्होंने कहा-हमारा काम सेवा करना है और मुसीबत उठाना है। राजसत्ता का सुख, वैभव, मजा और लोभ-प्रलोभन क्या है? इससे उन्होंने अपने आपको सदैव दूर ही रखा। तो क्या राजनीति की कोई सेवा नहीं की हनुमान जी ने? भला हनुमान जी से बढ़कर राजनीति की सेवा और कौन कर सकता था? रावण को उखाड़ करके विभीषण की स्थापना करने की भूमिका किसने निभाई? हनुमान ने, नल-नील, अंगद और जामवन्त ने निभाई। यदि वे इस बात का झगड़ा करते कि हमको मिनिस्टर बना दीजिये, तब तो चकल्लस खड़ी हो जाती। उन्होंने कहा नहीं, राज तो विभीषण को करना चाहिए, हम तो सेवा करेंगे, व्यवस्था जमाएँगे। व्यवस्था जमाना और सेवा करना-मित्रो ! यह बहुत बड़ा काम है। बार-बार जो लोग हमसे पूछते हैं कि आप राजनीति में क्यों नहीं जाते? उनसे हमारा यही कहना है कि किसी जमाने में हम राजनीति में थे। उस जमाने में राजनीति में बहुत बड़ी जिम्मेदारी थी जब तक हिन्दुस्तान को स्वराज नहीं मिला था। राजनीति हमको बहुत प्यारी थी। कब? जब सेवा की राजनीति थी, त्याग की राजनीति थी, कष्ट उठाने की राजनीति थी, फर्ज की राजनीति थी। आजादी के लिए जेल जाने पिटाई खाने और फाँसी के फन्दे झूलने की राजनीति थी, तब हमको राजनीति बहुत प्यारी लगती थी।
मित्रो ! अब राजनीति में वह चीज आ गयी है जिसे हुकूमत की भूख कहते हैं, सत्ता की हविश कहते हैं, जिसमें वोट माँगेंगे, दूसरों का हक मारेंगे तब हमने राजनीति छोड़ दिया। हमने देखा इसको लेने के लिए तो ढेरों लोग तैयार हैं। उस एक ही डिब्बे में सारी की सारी भीड़ घुसी जा रही है। उसमें बैठने के लिए कोई कोहनी मारता है, तो कोई कुछ करता है। ऐसी स्थिति से हमको वहाँ क्यों जाना चाहिए? हमको वहाँ क्यों नहीं जाना चाहिए जहाँ पूरा का पूरा डिब्बा खाली पड़ा है। धर्म का क्षेत्र खाली पड़ा हुआ है। लोकसेवा का क्षेत्र खाली पड़ा हुआ है। जनता का क्षेत्र खाली पड़ा हुआ है। कर्तव्यों को जगाने वाला क्षेत्र खाली पड़ा हुआ है। मित्रो! हम वहीं चलेंगे और आपको भी वहीं चलना चाहिए। आज की राजनीति में जिसमें सत्ता की भूख है, उससे आपको दूर ही रहना चाहिए और वहाँ चलना चाहिए जहाँ राष्ट्र को ऊँचा उठाने वाला क्षेत्र मौजूद है। हमको जनता के पास जाना चाहिए और उन्हें प्रेरित करना चाहिए। इससे बड़ी राजनीति और राष्ट्रसेवा कोई और हो नहीं सकती जो कि आप करने के लिए चले हैं। मित्रो ! वानप्रस्थी बन करके आप समाज में जाना, लोगों के पास जाना और उन्हें उनके कर्तव्यों को सिखाना, फर्जों को सिखाना, लोगों को उनके नागरिक अधिकार समझाना और यह बताना कि भला आदमी शरीफ आदमी कैसा होना चाहिए? प्रत्येक आदमी को अपनी राष्ट्रीय जिम्मेदारियों के प्रति कैसे रहना चाहिए? अच्छा समाज बनाने के लिए गुण्डागर्दी तथा अन्य दूसरी बुराइयों के विरुद्ध कैसे खड़े होना चाहिए? यह शिक्षण करना हमारा और आपका काम है।
गुण्डागर्दी पुलिस से नहीं रुक सकती। इसे जब कभी रोकेंगे तो हम और आप ही रोकेंगे। कैसे और कब? जैसे जटायु ने सीता जी को रावण के चंगुल से छुड़ाकर उदाहरण प्रस्तुत किया था। उसने देखा कि कोई बदमाश एक सती सी स्त्री को चुराकर ले जा रहा है। वह किसी और की नहीं हमारी बेटी है, हमारे ही साथ गुण्डागर्दी की जा रही है, अतः हमको चलना चाहिए और आततायी से लड़ना चाहिए। हमारे पास तलवार नहीं है और रावण के पास है, पर इससे क्या हुआ हमारे पास आत्मबल तो है। आत्मबल बड़ा होता है, तलवार नहीं। वह रावण से लड़ने लगा। रावण ने उसके पंख काट दिये। जटायु घायल होकर जमीन पर गिरा हुआ था। रामचन्द्रजी आये और उसे उठाकर अपनी छाती से लगा लिया और कहा हम तुम्हें स्वर्ग भेज देते हैं। उसने कहा-स्वर्ग तो आप भेजिए मत, हमने तो केवल लोगों के सामने अपने फर्ज का, कर्तव्य का उदाहरण पेश किया है कि जहाँ कहीं भी गुण्डागर्दी या अत्याचार किया जा रहा है, उसका मुकाबला करने के लिए हर आदमी को उसके विरुद्ध उठ खड़ा होना चाहिए। अभी क्या होता है मित्रो! कि इतनी सारी बुराइयाँ होती रहती हैं, गुण्डे-बदमाश छुट्टल घूमते रहते हैं, यदि सारे के सारे लोग निश्चय कर लें कि हम सब मिलकर उनका मुकाबला करेंगे तो जनता भी साथ देगी और तब समाज में एक भी गुण्डा दिखाई नहीं देगा।
जनता के सहयोग के बिना राष्ट्र की समस्या का समाधान नहीं हो सकता। जनता का सहयोग कौन जगाएगा? जनता का सहयोग सरकार जगा नहीं सकती, इसे हम जगाएँगे। जिस तरह पक्षी के दो पंख होते हैं उसी तरह एक पंख राजसत्ता है तो दूसरी धर्मसत्ता जिसको हम जनसत्ता-लोकसत्ता कहते हैं। लोकसत्ता का उतना ही अच्छा होना आवश्यक है जितना कि सरकार का अच्छा होना। एक ही पंख से पक्षी उड़ नहीं सकता। फिर राजसत्ता में काम करने के लिए ढेरों व्यक्ति हैं। अतः दूसरे पंख का अर्थात् धर्मसत्ता का क्षेत्र हमें ही सँभालना पड़ेगा। जनता को धर्म का, कर्तव्यों का, ईमानदारी का, जिम्मेदारी का, बहादुरी का ज्ञान हमको ही कराना चाहिए और हम वही करेंगे भी। आप लोग वानप्रस्थ का शिक्षण लेकर जाना और लोगों को धर्म का वास्तविक स्वरूप समझाना जो कि हम आपको अभी तक समझाते रहे हैं और आगे भी समझाते रहेंगे। धर्म का मतलब ईमानदारी, धर्म का मतलब कर्तव्यनिष्ठा, धर्म का मतलब सेवा, धर्म का मतलब उत्तरदायित्व की सँभावना को जगाना। इस तरह का धर्म हम हर आदगी को सिखाएँगे और समझाएँगे ताकि हमारा हर व्यक्ति अच्छा बन सके, ताकि हमारा परिवार अच्छा बन सके, ताकि हमारा समाज और राष्ट्र अच्छा बन सके, यही प्रेरणा है भगवान महावीर की, जिन्होंने राजसत्ता को तिलांजलि देकर धर्मसत्ता को ग्रहण किया और समाज में अलख जगाते हुए लोगों को धर्पसत्ता के कर्तव्यों का ज्ञान कराया।
भगवान बुद्ध भी राजसत्ता को छोड़ करके, राजसत्ता को ठोकर मारकर चले गये थे। उन्होंने गाँव-गाँव में अलख जगाया था। अलख जगाने के बाद में क्या उन्होंने राजसत्ता को अच्छा नहीं बनाया था? हाँ, अशोक से लेकर हर्षवर्धन तक सैकड़ों के सैकड़ों जनता को उन्होंने अच्छा बना दिया था। धर्मसत्ता को लेकर गुरु वशिष्ठ चले थे। क्या उन्होंने रघुवंशियों से लेकर अनेकों राजाओं की राजसत्ता को अच्छा नहीं बना दिया था? हाँ, उन्होंने बना दिया था। सारे महामानव धर्मसत्ता को लेकर चले थे। चाणक्य ने क्या चन्द्रगुप्त को अच्छा नहीं बना दिया था? हाँ बना दिया था। समर्थ गुरु रामदास धर्मसत्ता को लेकर चले थे। क्या उन्होंने शिवाजी और दूसरे लोगों को अच्छा नहीं बना दिया? हाँ, बना दिया था। हम भी सरकारों को अच्छा बना देंगे, जनता को अच्छा बना देंगे। जनता को अच्छा बनाने के लिए और सरकारों को अच्छा बनाने के लिए जो कार्य हम और आप मिलकर कर रहे हैं, वह बहुत बढ़िया, बहुत शानदार और बहुत उच्चकोटि का है। इनको कम किसी से भी नहीं समझना चाहिए और न ही आपमें से किसी को अपने मन में यह भाव आने देना चाहिए कि हमको राजसत्ता पर हावी होना है और राजसत्ता में अपना कोई आदमी भेजना है। जनता को ही जब हम जनसत्ता बना देंगे, लोकशक्ति बना देंगे तो फिर आप देखना सरकार को अपने आप बदलना पड़ेगा। यदि जनता बदल गयी तो फिर सरकारें अपने आप बदल जाएँगी।
यही है हमारा भावी संदेश। यही है हमारे भगवान महावीर का संदेश। यही है हमारे लोगों को जवाब, जो हमारे इतने बड़े संगठन और कार्यक्रमों की स्थिति को देखकर बराबर कहते रहते हैं कि आप अपने आदमी चुनाव में खड़े क्यों नहीं करते? आप राजनीति में क्यों नहीं आते? हम बार-बार यही कहते रहते हैं कि राजनीति का क्षेत्र बहुत छोटा, बहुत कम है और धर्म का क्षेत्र बहुत बड़ा है। राजनीति के पास शक्ति नगण्य है। इसके पास वैभव कम है। हमारे पास धर्मतंत्र के पास सामर्थ्य बड़ी है। धर्मसत्ता बड़ी है। हमारे पास आदमियों की सत्ता बड़ी है। उसके पास तो पच्चीस-चालीस हैं। हमारे पास तो 56 लाख आदमी हैं। 56 लाख संतों की सत्ता को बेकार राजसत्ता की अपेक्षा समाजहित में लगाएँगे। हमारा कार्यक्षेत्र बड़ा है। साथियो, हममें से किसी व्यक्ति को यह भाव मन में नहीं लाना चाहिए कि यदि हम राजनीति में गए होते, राजसत्ता के क्षेत्र में गए होते तो हमको सेवा करने का ज्यादा अवसर मिलता अथवा हमारा ज्यादा सम्मान हो जाता। हमारा सम्मान धर्मक्षेत्र में प्रवेश करने पर है, क्योंकि हम जनता की, खासतौर से पिछड़ी जनता की सेवा उस क्षेत्र में प्रवेश करके जितनी कर सकते हैं और जनशक्ति को जाग्रत कर सकते हैं, उतनी राजनीति में प्रवेश करके हम नहीं कर सकते। इसलिए मित्रो, हमारा लोगों को यही जवाब है कि हम क्यों राजनीति में नहीं जाते हैं? और राजनीति को छोड़कर धर्मसत्ता में क्यों आ गये? भगवान महावीर और भगवान भक्त हनुमान जो दोनों ही आज के दिन पैदा हुए थे, उनके जीवन से भी हमको यही जवाब मिल जाता है। आज के उद्बोधन से आपको शिक्षा और प्रेरणा लेनी चाहिए कि हम राजनीति की इच्छा के विपरीत धर्मनीति की ओर चलेंगे और उन महत्वपूर्ण कार्यों को करेंगे जो राजसत्ता के बलबूते के बाहर है।
ॐ भुर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो ! भाइयो !!
आज भगवान् महावीर का और रामभक्त हनुमान का जन्मदिन है। जैन धर्म के प्रथम संस्थापक भगवान् महावीर का यह जन्म-दिवस है और आज ही हनुमान जी का भी है। भगवान् भक्त हनुमान भी आज ही जन्मे थे। वे हमारे प्रेरणा के स्त्रोत हैं। आज का दिन कितना शुभ है? भगवान् महावीर राजकुमार थे। उन्होंने सोचा कि राजकुमार होने की अपेक्षा संत होना अच्छा है, अतः हमें संत बनकर जीना चाहिए, क्योंकि राजकुमार की-राजा की शक्ति की अपेक्षा संत की शक्ति बड़ी है। संत समाज की जो सेवा कर सकता है, वह राजा नहीं कर सकता। यह विचार करने के बाद उन्होंने बुद्ध भगवान् की तरह अपना राजपाट छोड़ दिया और तपश्चर्या में निमग्न हो गये। यद्यपि वे चाहते तो राजसत्ता के माध्यम से समाज की सेवा कर सकते थे, लेकिन उन्होंने देखा कि राजसत्ता का दायरा बहुत सीमित है-बड़ा क्षुद्र है। धर्मतंत्र की शक्ति राज़तंत्र की तुलना में असंख्य गुनी अधिक है। राजसत्ता केवल भौतिक जीवन पर प्रभाव डाल सकती है, लेकिन हमारे अन्तःजीवन में प्रवेश नहीं कर सकती।
साथियो, हृदय-हृदय पर शासन किसका होता है? हृदय-हृदय पर शासन धर्मर्तंत्र का था, है और रहेगा। भौतिक वस्तुओं पर शासन सरकार का रहेगा और सरकार का था। बहुत दिन पहले की बात है, जब हमने राजनीति त्याग करके धर्मतंत्र में प्रवेश किया था। इसके पहले काँग्रेस आन्दोलन में जब तक रहा, तब बार-बार जेल जाता रहा। इसके पश्चात् जब इसको छोड़ा और धर्मतंत्र की ओर बढ़ा, तब लोगों ने बार-बार यही कहा कि राजसत्ता में जो आदमी होता है, वह मिनिस्टर बन जाता है और उसके पास मोटरें होती हैं और दुनिया उसका कहना मानती है। दुनिया में उसकी इज्जत होती है। तब मैंने कहा था कि मैं यह तो नहीं कहता कि राजसत्ता में कोई बुराई है और वह समाज की कोई सेवा नहीं कर सकती, लेकिन मैं यह अवश्य कहता हूँ कि राजसत्ता सीमित है सीमाबद्ध है। इसमें व्यक्ति किसी प्रान्त का मिनिस्टर हो सकता है और उसी प्रान्त के लोगों को प्रभावित कर सकता है। दक्षिण भारत का मुख्यमंत्री कौन है जरा बताइये? अगर वह मंत्री आए और आपके ऊपर प्रभाव डाले तो क्या कोई प्रभाव पड़ सकता है? नहीं, कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। लेकिन दक्षिण भारत के रहने वाले केरल निवासी जगतगुरु शंकराचार्य केरल को छोड़कर जब बाहर निकल गये और सारे हिन्दुस्तान में काम करते चले गये, चारों धाम की स्थापना करते चले गये, तो सारा देश उनके चरणों में नतमस्तक हो गया। यह धर्म की शक्ति का द्योतक है। अभी भी लोग हमसे बार-बार पूछते हैं कि आप राजसत्ता से दूर क्यों हैं? बेटे, राजसत्ता से राजतंत्र से उसके घपलों से हमारा कोई ताल्लुक नहीं है। हम उन लोगों में से हैं, जो यह जानते हैं कि मनुष्य के जीवन में राजनीति का क्या स्थान है?
राजनीति और आदमी अब जुड़ गया है। तिब्बत के दलाई लामा को राजनीति के कारण तिब्बत छोड़कर भाग जाना पड़ा। भगवान् बुद्ध का जन्मस्थान था तिब्बत जहाँ से पैदा होने के बाद बुद्धावतार न जाने कहाँ से कहाँ चला गया? चीन में न जाने क्या से क्या हो गया? कभी चीन में बौद्ध धर्म इतना फैला हुआ था कि हिन्दुस्तान से भी अधिक बौद्ध लोग चाइना में रहते थे। वहाँ अभी भी बौद्ध विहारों के खण्डहर बहुत ज्यादा हैं। चीन की लाइब्रेरियों में बौद्ध धर्म की इतनी अधिक पुस्तकें हैं कि दुनिया में और कहीं भी नहीं हैं। लेकिन क्या हो गया? चाइना से बौद्ध धर्म का सफाया हो गया। वहाँ अब कोई धर्म नहीं है-न हिन्दू धर्म है, न मुसलमान धर्म है, न ईसाई धर्म है, सब धर्म साफ हो गये। ऐसा इसलिए हो गया क्योंकि धर्मर्तंत्र अपनी गरिमा को-क्षमता को भूल गया। राजसत्ता की शक्ति कितनी बड़ी है और वह क्या कर सकती है? इसे देखना हो तो जर्मनी में पिछले दिनों हिटलर की शासन सत्ता को देख सकते हैं। उसने सारी की सारी शिक्षा प्रणाली को बदलकर रख दिया था और थोड़े ही दिनों में सारे देश को नाजी बना दिया था। राजसत्ता की शक्ति बड़ी जबर्दस्त है, इससे मैं इनकार नहीं करता हूँ, पर मैं यह कहता हूँ कि राजसत्ता को अच्छा बनाने के लिए ऊपर से काम करना ही काफी नहीं है। राजसत्ता की जड़ें जमीन में होनी चाहिए। आप ऊपर से देखभाल करेंगे, डालियों को झाड़ेंगे, पत्तों को साफ करेंगे, लेकिन जड़ों की ओर ध्यान नहीं देंगे तो पेड़ के चरमराकर गिर जाने का अंदेशा बना ही रहेगा। फिर बाग किस तरीके से बनेगा? यह काम केवल धर्मतंत्र कर सकता है। असली शक्ति-क्षमता धर्मतंत्र के हाथों में है। राजतंत्र केवल कानून बना सकता है, लोगों को रोक सकता है, लोगों को गिरफ्तार कर सकता है, लेकिन सारे देश में विद्यमान मुख्य समस्याओं को हल नहीं कर सकता।
कल मैं आपसे निवेदन कर रहा था कि कोई भी काम केवल कानून बना देने से पूरा नहीं हो सकता। कोई भी बुरा काम ऐसा नहीं है दुनिया में, जिसके खिलाफ गवर्नमेण्ट ने कानून न बनाये हों और जेलखाने न बनाये हों, पुलिस न हो। पर बताइये कौन-से कानून से कौन-सा पाप रुक गया? भ्रष्टाचार रुक गया? रिश्वतखोरी रुक गयी? मिलावट रुक गया। बताइये एक भी पाप रुक गया हो तो जबकि सारे के सारे कानून बने हुए हैं। कानून इनसान के ऊपर हुकूमत नहीं कर सकता और इनसान की इच्छाएँ नहीं बदल सकता। इनसान की इच्छाएँ बदलने की शक्ति धर्मतंत्र में है। राजतंत्र की अपेक्षा धर्मतंत्र बड़ा है। धर्मतंत्र की शक्ति का ठिकाना नहीं। उसकी ताकत बड़ी है, प्रभाव बड़ा है, अतः समस्याओं के समाधान में भी वही सफल हो सकता। धर्मतंत्र के बिना मनुष्य के ऊपर और कोई अंकुश नहीं रख सकता। समाज के ऊपर जब कभी अंकुश रखा जाएगा तो धर्म के द्वारा-भगवान के द्वारा रखा जाएगा। धर्म के अलावा और कोई अंकुश ऐसा नहीं है, जिससे मनुष्य को काबू में रखा जा सके और सही राह पर चलाया जा सके। समाजशास्त्र के कायदे-कानून चाहे जितने बनाइये, लेकिन कायदे और कानून बनाने के बाद में भी ऊँचे से ऊँचे आदमी भी गलत काम करते पाये और देखे गये हैं। कितने ही उच्चपदस्थ लोगों ने अपने-अपने देशों की मिट्टी पलीद कर दी है, यह किसी से छिपा नहीं है। कानूनों के नाम पर चाहे जो कुछ करते रहिये, कोई रोक-टोक नहीं है। अतः इससे कोई गारंटी नहीं कि कानून से अच्छे मनुष्य बन सकते हैं। अच्छे और शिष्ट मनुष्य जब कभी भी बनेंगे तो धर्मसत्ता के माध्यम से बनेंगे। राजसत्ता जनता के हृदय पर शासन नहीं कर सकती। जनता के हृदय के ऊपर शासन करने की क्षमता केवल धर्मतंत्र में है वही करेगा।
तो क्या करना पड़ेगा मित्रो ! राजनीति को परिपुष्ट बनाने के लिए और राजनीति को सही बनाने के लिए हमको एक काम करना पड़ेगा जो गाँधी जी ने हमको सलाह दी थी। गाँधी जी ने कहा था कि हमको-काँग्रेस संस्था को लोकसंस्था के रूप में बदल जाना चाहिए और राजनीति के काम और किसी के सुपुर्द कर देना चाहिए, ताकि उस पर अंकुश रखा जाए। हमको लोकशक्ति के रूप में जिसमें काँग्रेस का उदय हुआ था, उसी रूप में माना और जाना चाहिए। असली राजनीति की जड़ जमीन में है, जनता के पास में है। जनता को प्रभावशाली बना नहीं सके, जनता में उत्साह भर नहीं सके, जनता को नागरिकता की बात समझा नहीं सके, जनता को यह समझा नहीं सके कि क्रियाशीलता क्या होती है, इसका परिणाम यह हुआ कि जैसी हमारी जनता वैसी ही हमारी सरकार बनती चली आयी। दूध जैसा होगा मक्खन भी तो वैसा ही बनेगा, मलाई भी तो वैसी ही आयेगी। जनता का स्तर, जनता के विचार करने का क्रम, जनता का चरित्र जैसा जो कुछ भी होगा, गवर्नमेण्ट भी वैसी ही बनती हुई चली जाएगी। गवर्नमेण्ट को आप बदलना चाहें तो पहले जनता को बदलना पड़ता है। जनता जब बदल जाती है तो गवर्नमेण्ट बदल जाती है। उसकी इच्छा बदल जाती है, स्वरूप बदल जाता है।
गवर्नमेण्ट बनाने की जिम्मेदारी किसकी है? आपकी और हमारी। पाँच वर्ष बाद हमको यह अधिकार मिलता है कि हम किस तरीके से हुकूमत बदल सकते हैं और कैसे शासन बदल सकते हैं। अगर हमारे पास ईमानदारी न हो और हम कर्तव्यों को समझते न हों, हमको अपने हित का ध्यान न हो, ज्ञान न हो, नागरिक कर्तव्यों-अधिकारों का अनुभव न हो, तो क्या होगा कि जब कभी भी वोट देने का वक्त आयेगा तो इस बात की जिम्मेदारी का अनुभव हम नहीं करेंगे कि कहाँ और किसको वोट देना चाहिए और किसे नहीं देना चाहिए? तब हम क्या करेंगे? तब हम सिर्फ यही करेंगे कि जहाँ हमारा स्वार्थ प्रेरित करेगा, जो कोई आदमी जीप में बैठाकर ले जाएगा, जो कोई भी हमको मिठाई खिला देगा, शराब पिलाएगा, उसी आदमी को हम वोट देते चले जाएँगे। वोट देने का यदि हमारा यही क्रम रहा तो मैं यह पूछता हूँ कि फिर हमको अच्छी गवर्नमेण्ट सरकार कैसे मिल सकती है? अच्छी सरकार कभी नहीं मिल सकती। अगर यही क्रम बना रहा और जनता अपने नागरिक कर्तव्यों को नहीं समझती, नागरिक जिम्मेदारियों को नहीं समझती तो फिर यही होगा कि जो कोई व्यक्ति या पार्टी अमुक लोभ दिखाएगा, कोई पैसा दिखाएगा,कोई भय दिखाएगा, कोई जाति-बिरादरी की बातें कहेगा, कोई क्या कहेगा? कोई क्या कहेगा? उसी को समर्थन मिलता जाएगा। इस तरीके से क्या होता जाएगा कि जिस आदमी के अन्दर देश-भक्ति और नागरिक कर्तव्यों का उदय नहीं हुआ और उसे इस बात की जिम्मेदारी एवं जानकारी भी नहीं है कि वोट के नाम पर राष्ट्र की हुकूमत हमारे हाथ में सौंप दी गयी है, वह अपनी जिम्मेदारियों को कैसे निभा सकता है? अच्छी राजनीति चलाने और अच्छी गवर्नमेण्ट बनाने के लिए शासन-सत्ता में अच्छे व्यक्ति पहुँचने चाहिए। अच्छे व्यक्ति शासन में भेजने के लिए वोटों के इस्तेमाल का स्तर भी ऊँचा उठना चाहिए। क्रियापद्धति भी यही है। अच्छा देश और अच्छी राजनीति बनाने के लिए अगर हम जनता का चरित्र अच्छा नहीं बना सकते तो फिर यह उम्मीद नहीं रखनी चाहिए कि देश को अच्छी गवर्नमेण्ट मिल सकती है। अगर आप रिश्वत लेकर वोट दे सकते हैं, तो फिर आपको क्यों उम्मीद करनी चाहिए कि अच्छी सरकार मिल जाएगी। फिर तो यही समझना चाहिए कि जो बीज आपने बोये हैं वही काटना पड़ेगा।
लोग हमसे बार-बार यही पूछते हैं कि आप राजनीति में क्यों नहीं जाते? मित्रो! हम राजनीति से अलग नहीं है, किन्तु हमारी राजनीति वह राजनीति नहीं है जो सत्ता हथियाने वाली होती है। सत्ता हथियाने के बाद कोई भी आदमी बड़ा काम नहीं कर सकता, अगर जनता उसका साथ देने को तैयार न हो तब। जनता का साथ देने वाला पक्ष बहुत बड़ा पक्ष है और इस बड़े पक्ष की ओर आज तक किसी ने भी ध्यान नहीं दिया। हर आदमी का ध्यान केवल इस ओर गया कि अमुक आदमी को मिनिस्टर, अमुक आदमी की गवर्नमेण्ट बनाएँगे। आप किसी भी पार्टी की गवर्नमेण्ट बना दीजिये, किसी को मिनिस्टर बना दीजिए, उससे किसी का कुछ बनने वाला नहीं है। आपका काम तो जनता से बनेगा। बनना तो जनता को है, उठना तो जनता को है। जनता को अपने कर्तव्यों और अधिकारों का अगर हम बोध नहीं करा सके तो फिर कोई भी पार्टी चुन लीजिये, किसी का कुछ भला नहीं होने वाला है। कोई पार्टी ईमानदार तभी हो सकती है जब जनता ईमानदार होगी। तब गलत काम करने वाला कोई भी मिनिस्टर या अधिकारी क्यों न हो, जनता उसे गलत काम करने से रोक देगी और यह कहेगी कि आपको गलत काम नहीं करना चाहिए। अगर जनता कमजोर है और अपने अधिकारों, नागरिक कर्तव्यों का ज्ञान उसे नहीं है तो फिर जो कोई भी पार्टी आएगी, जो कुछ करेगी, जनता मूकदर्शक बनी देखती और उसके दुष्परिणामों को भुगतती रहेगी। जनता को कैसे बहकाया जा सकता है, कैसे पैसा लिया जा सकता है और किस तरीके से उलटी पट्टी पढ़ाई जा सकती है? वह सब कुछ होता रहेगा। यदि जनता समझदार और जागरूक है तो फिर इन चालाकियों की बारीकी को वह समझ जाएगी और नेताओं के मनसूबों पर पानी फेर देगी।
मित्रो ! वास्तविक शक्ति जनता के हाथ में है। जनता से बड़ा दैत्य, जनता से बड़ा राक्षस, जनता से बड़ा जालिम, जनता से बड़ा शक्तिशाली और कोई नहीं है। जनता के पास जो शक्ति है वह और किसी के पास नहीं है। वह चाहे जिसे शासन के शीर्ष पर बिठा दे और चाहे तो धूल में मिला दे। जनता के साहस से हमने आजादी की लड़ाई जीती। जनता के साहस से हमने गवर्नमेण्ट बनाया और काँग्रेस पार्टी को शासन पर बिठा दिया। शक्ति किसकी रही? गाँधी जी की? नहीं, गाँधी जी की नहीं, जनता की रही। हुकूमत की शक्ति जब-जब होगी जनता की होगी। किन्तु हमारे कर्तव्य क्या हैं, अधिकार क्या हैं और जनता को कैसा होना चाहिए, जब तक यह समझ विकसित नहीं होती, तब तक प्रयास सफल नहीं हो सकते। अभी तक लोगों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। ध्यान गया है तो केवल इतना कि गवर्नमेण्ट इस तरीके से बना देना चाहिए, पार्टी इस तरीके से बना देना चाहिए, हुकूमत इस तरीके से चलाना चाहिए, संविधान इस तरह से बना देने चाहिए और कानून ऐसे बना देने चाहिए। इस बात की जोर ध्यान देना चाहिए, उस बात पर ध्यान देना चाहिए। मित्रो! असली बात यह नहीं है, असली बात वह है जो जनता से ताल्लुक रखती है। जनता जहाँ जिस तरीके की होगी, वहाँ उसी तरीके की चीजें बनती चली जाएँगी। जहाँ जनता की मनोदशा अच्छी नहीं है, जहाँ जनता को अपने नागरिक कर्तव्यों और नागरिक जिम्मेदारियों का ज्ञान नहीं है, वहाँ अच्छी गवर्नमेण्ट नहीं हो सकती।
नागरिक कर्तव्यों, जिम्मेदारियों को समझाना, प्रत्येक नागरिक को उसके अधिकारों का बोध कराना, दूसरों के कष्ट-कठिनाइयों में भागीदार बनाना और उन्हें राष्ट्रीय दायित्वों को समझाने की जिम्मेदारी किसकी है? साथियो,यह धर्म की जिम्मेदारी है, यह हमारी जिम्मेदारी है और आपकी जिम्मेदारी है कि हम हर आदमी को वह काम करना सिखाएँ, जिससे एक अच्छे राष्ट्र का विकास हो सकता है। कानून इस काम को नहीं कर सकता, जनता इस काम को करेगी। जनता का ईमान जब जाग्रत होगा तब लोगों को यह भय होगा और दुःख भी होगा कि हम मसाले में मिलावट करेंगे तो जो खरीदकर उसे खाएगा, पेट में पथरी हो जाएगी। जो आदमी बीमार पड़ा हुआ है और अगर वह मिलावट वाला दूध पियेगा तो उसके जीवन-मरण का प्रश्न पैदा हो जाएगा। जब ये बातें हमारे दिमाग में आएँगी, अंतःकरण में आएँगी, विचारों में आएँगी, दूध में पानी और मिर्च-मसालों में मिट्टी व अनाज़ में कंकड़ मिलाना बंद कर देंगे। क्या इसे सरकार बंद कर सकती है? नहीं, सरकार नए-नए कायदे-कानून और नीतियाँ बनाती चली जाएगी और लोग अपने बचाव के लिए नए-नए तरीके ईजाद करते चले जाएँगे। अच्छा राष्ट्र बनाने के लिए जनता को अच्छा बनाया जाना नितान्त आवश्यक है। अच्छी जनता वह नहीं है, जो सम्पन्न होती है, मालदार होती है, वरन् अच्छी जनता वह है जो अपने फर्ज को समझती है, अपने कर्तव्यों को समझती है और अपनी जिम्मेदारी को समझती है। फर्ज, कर्तव्य और जिम्मेदारियों को समझना-यही, मित्रो! धर्म का उद्देश्य है , यही अध्यात्म का उद्देश्य है।
धर्म और अध्यात्म का उद्देश्य बहुत लोगों ने समझा और समझाया है, पर खाली उद्देश्य के बारे में मेरी कोई गम्भीर निष्ठा नहीं है। जब लोगों को खाली उद्देश्य समझाये जाते हैं कि मरने के बाद हम कौन-से लोक में चले जाते हैं और वह लोक किस तरह के हैं? स्वर्ग कहाँ है? स्वर्ग की लम्बाई, चौड़ाई कितनी है? हमको नहीं मालूम। हमको तो जिन्दगी की जानकारी है, जमीन की जानकारी है। हमको जमीन की जिम्मेदारी जाननी चाहिए, अपने कर्तव्यों को जानना चाहिए। भगवान महावीर जिनका कि आज जन्म-दिन है, उन्होंने यही समझा और लोगों को समझाया। उन्होंने यह जान लिया था कि राजसत्ता की अपेक्षा धर्मसत्ता की शक्ति अपार है और इसे ही उन्होंने अंगीकार किया। धर्मसत्ता लोगों के दिलों पर हुकूमत करती है और राजसत्ता जमीनों पर हुकूमत करती है, पैसे पर हुकूमत करती है, किलों पर हुकूमत करती है, व्यापार पर हुकूमत करती है और चीजों पर हुकूमत करती है, परन्तु दिलों पर हुकूमत नहीं कर सकती। दिलों पर हुकूमत करने की क्षमता केवल धर्म में है। इसलिए भगवान महावीर ने यही किया और राजसत्ता को त्याग दिया।। राजसत्ता त्यागने के पश्चात् उन्होंने धर्मसत्ता को सँभाला और जगह-जगह घूम करके धर्म की बात, अध्यात्म की बात, ईमानदारी की बात, नेकी की बात, शराफत की बात, कर्तव्य की बात लोगों को समझाते चले गये। लोगों में धर्म को जानने की इच्छा पैदा कर दी। यह सबसे बड़ी सेवा थी, जो भगवान महावीर ने की।
हनुमान जी जिनका कि आज जन्मदिन है, क्या वे मिनिस्टर नहीं बन सकते थे? हाँ, वे भगवान राम की हुकूमत में मिनिस्टर बन सकते थे, उनके मंत्री बन सकते थे, लेकिन वे मिनिस्टर नहीं बने। उन्होंने कहा-इस काम के लिए तो ढेरों आदमी विद्यमान हैं, लेकिन जो मुश्किल का काम है, कठिनाई का काम है, कष्ट का काम है, त्याग का काम है, बलिदान का काम है, वह कौन करेगा? हनुमान जी ने सेवा को सबसे बड़ा काम समझा, सत्ता को नहीं और शुरू से अंत तक उसी में निमग्न रहे, सत्ता की अपेक्षा सेवा को जब लोग अच्छा समझने लगेंगे तब मजा आ जाएगा और हमारा राष्ट्र राजनीति की दृष्टि से ही नहीं, आर्थिक दृष्टि से, सामाजिक दृष्टि से, नेकी की दृष्टि से उन्नति के शिखर पर जा पहुँचेगा और तब समस्त समस्याओं का समाधान होता हुआ चला जाएगा। हर समस्या का समाधान मित्रो ! व्यक्ति के दृष्टिकोण के साथ जुड़ा हुआ है। गवर्नमेण्ट हमारे रिश्तों को अच्छा कर देगी? नहीं कर सकती। हमारी सेहत को गवर्नमेण्ट अच्छा नहीं कर सकती। हमारा खान-पान ठीक नहीं है, ब्रह्मचर्य के ऊपर हमारा संयम नहीं है, आहार-विहार के ऊपर हमारा संयम नहीं है, सफाई-स्वच्छता का ज्ञान हमें नहीं है, तो क्या आप समझते हैं कि किसी भी देश की जनता के स्वास्थ्य की रक्षा करने की जिम्मेदारी कोई गवर्नमेण्ट उठा सकती है। नहीं उठा सकती है। यह तो स्वयं ही समझना होगा कि हमें क्या करना चाहिए, क्या खाना चाहिए और कैसे रहना चाहिए? अगर यह बातें समझ में आ जाएँगी तब हमारे स्वास्थ्य की समस्या का समाधान हो जाएगा। जनता के मन में यदि एक जाग्रति का भाव आ जाए कि हमें अपने प्रति, राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को निभाना है तो फिर क्या कुछ नहीं हो सकता? हर बात के लिए गवर्नमेण्ट से शिकायत करना या और किसी का मुख देखना मुनासिब नहीं है। कुछ काम ऐसे हैं जिन्हें हमें स्वय करना चाहिए।
जनता की शक्ति अपने आप में सबसे बड़ी शक्ति है। जनता की इस शक्ति को हम जाग्रत करेंगे और लोगों को यह बात बताएँगे कि अपनी समस्याओं का समाधान आप स्वयं कर सकते हैं और आपको करना ही चाहिए। स्वामी केशवानन्द जी के तरीके से हम हर एक आदमी से कहेंगे कि आप अपनी शिक्षा की व्यवस्था अपने तरीके से चलाएँ तो वह अच्छे तरीके से चल सकती है। स्वामी केशवानन्द बाइस वर्ष की उम्र में संत हो गये थे और जनता की शक्ति को संगठित करने में जुट गये थे। वे गाँव-पाँव घूमकर लोगों को शिक्षित करने लगे। जगह-जगह प्राथमिक पाठशालाएँ खुलवायीं, अध्यापक नियुक्त किये। घर-घर से बच्चों को लाते और उन्हें स्कूल में दाखिल कराते। अध्यापकों की तनख्वाह की पूर्ति घर-घर से एकत्र मुट्ठी-मुट्ठी भर अनाज से की जाती। इस तरह उनके प्रयास से साढ़े तीन सौ गावों में स्कूल चालू हो गये और सात कॉलेज। यह किसी राजनेता का नहीं, एक संत का प्रयास था जिसने जनता को जगाकर रख दिया था।
मित्रो ! क्या करना पड़ेगा? करना हमको वह पड़ेगा और वही महत्वपूर्ण काम है, जो स्वामी केशवानन्द करने में समर्थ हुए थे। अगर स्वामी केशवानन्द कलेक्टर होते तो क्या वे इतने महत्वपूर्ण कार्य करने में समर्थ हो सकते थे? उन्होंने साढ़े तीन सौ गाँवों में स्कूल बना दिये, सात कॉलेज बना दिये और जनता को स्वावलम्बी बना दिया। स्कूल बनाना, कालेज बनाना उतनी बड़ी बात नहीं है, जितनी कि जनता की स्वावलम्बी वृत्ति को जगाना। यह सबसे बड़ी बात है। जो भी राष्ट्र कभी उठे हैं, स्वावलम्बी होकर उठे हैं, अपने बलबूते पर उठे हैं , अपनी ताकत के आधार पर उठे हैं। दुनिया में जहाँ कहीं भी तरक्की हुई है, जनता ने अपने बाजुओं के बल से की है। परायी सहायता से न तो आज तक कोई उठा है और न कभी उठेगा। इसमें गवर्नमेण्ट भी शामिल है। गवर्नमेण्ट कहाँ तक सहायता कर सकती है? हम हर गाँव में जाएँगे, हर घर में जाएँगे और लोगों से यह कहेंगे कि समाज को ऊँचा उठाने के लिए आप सरकार का मुँह मत ताकते रहिए। आप हर रोज अपना एक घंटा समाज के लिए दीजिए। हमारे पास 24 घंटे होते हैं। 23 घण्टे हम अपने विभिन्न काम में लगाएँ, पर एक घण्टे का पसीना-एक घण्टे की मेहनत क्या हम समाज के लिए खर्च नहीं कर सकते? हाँ, हम एक घंटा रोज अपने समाज, देश, धर्म, जाति और संस्कृति के लिए खर्च कर सकते हैं। एक घण्टा कोई बड़ी चीज नहीं होती। इससे क्या हो सकता है? जिस गाँव में चार सौ घर हैं तो क्या उस गाँव के प्रत्येक घर से एक-एक व्यक्ति एक-एक घण्टा समय समाज, देश और संस्कृति के लिए नहीं निकाल सकते? चार सौ घण्टे का मतलब साठ आदमियों की पूरी मेहनत। साठ आदमी एक साथ मिलकर बाग लगाने के लिए, सफाई के लिए, स्कूल चलाने के लिए खड़े हो जाएँ तो फिर आप देखिये कि साल भर में क्या हो सकता है? जनता की इस शक्ति को हमें जगाना पड़ेगा। जनता के पास कर्तव्यों का उद्बोधन करने के लिए हमको जाना पड़ेगा। घर-घर जाकर लोगों को सफाई की, स्वच्छता की बात बतानी होगी। रहन-सहन की, खान-पान की बातें बतानी होंगी। गन्दगी की, बदबू की, अशिक्षा की कलंक-कालिमा जो देश पर छायी हुई है, उसे यदि दूर कर दें तो इससे बड़ा और कोई काम नहीं हो सकता।
तो गुरुजी क्या यही अध्यात्म है? हाँ बेटे, यही अध्यात्म है और यही धर्म है। यही भगवान की भक्ति है। हमको और आपको भगवान की यही भक्ति लोगों को सिखानी पड़ेगी। नागरिक कर्तव्यों का ज्ञान और समाज के प्रति जिम्मेदारी का आभास प्रत्येक व्यक्ति को कराना होगा। आध्यात्मिक ख्वाब दिखाने से काम नहीं बनेगा। इस बारे में मत पूछिये क्योंकि हिन्दू अलग तरीके से सोचता है और मुसलमान अलग तरीके से। एक कहता है कि मरने के बाद हम मृत्युलोक में जाएँगे तो दूसरा कहता है कि कयामत तक हम यहीं खड़े रहेंगे जब तक एक फरिश्ता नहीं आता। एक कहता है कि जब तक पिण्डदान नहीं दिया जाएगा, तब तक मृतात्मा चक्कर मारता-फिरता है और पिण्डदान खा करके स्वर्ग को चला जाता है। हमसे मत पूछिये इन बेकार की बातों को। हमसे तो यह पूछिये कि असली धर्म क्या है? बेटे, असली धर्म उस चीज का नाम है, जो मनुष्य की जिम्मेदारी को प्रभावित करता है और कर्तव्य का ज्ञान कराता है। इस धर्म को, इस अध्यात्म को, भगवान की इस भक्ति को हम भूल गये, परिणामस्वरूप हम गरीब हो गये, दीन-दुर्बल हो गये, असंगठित हो गये, अशिक्षित हो गये। ये अभिशाप है भगवान् की उस भक्ति को त्याग देने के, धर्म को त्याग देने के। धर्म अगर हमारे पास होता, भक्ति हमारे पास होती तो अविद्या और अशिक्षा क्यों आती? आपके लिए नहीं कहता, मैं अपने लिए कहता हूँ। आज हमारी संख्या-हम पंडितों की, संतों की, बाबाजियों की संख्या छप्पन लाख है और गाँव कितने हैं? सात लाख। हर गाँव पीछे आठ संत आते हैं। यदि हम उस धर्म के मूल स्वरूप को लेकर हर गाँव में चले जाएँ तो क्या हम लोग देश की समस्या को हल नहीं कर सकते? जब अकेले एक स्वामी केशवानन्द साढ़े तीन सौ गाँवों की अशिक्षा की समस्या को हल कर सकते थे तो हमारी संख्या तो उससे कई गुना अधिक है। इस समस्या को हमें ही दूर करना होगा और हम करेंगे। सरकार इसे दूर नहीं कर सकती। उसके लिए प्राइमरी स्कूल चलाना ही मुश्किल पड़ रहा है। हमारा देश इसलिए पिछड़ा हुआ है कि यहाँ अशिक्षा की भरमार है। इसे दूर करने के लिए हमें जनता को जाग्रत करना पड़ेगा। उसके कर्तव्यों का उद्बोधन करना पड़ेगा और उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करना पड़ेगा। यही हमारा कुरान है, यही हमारी गीता है और यही हमारी भागवत् है। इसके लिए हमको बहुत कुछ करना है। मित्रो ! आज भगवान महावीर का जन्म-दिन हमको यह सिखाने के लिए आया था कि धर्मसत्ता को राजनीति में जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। इस माध्यम से जो काम हम जनता में जाकर कर सकते हैं ,जनता को ऊँचा उठा सकते हैं, जनता की भावना को, कर्तव्य को ऊँचा उठा सकते हैं, वह हजार गवर्नमण्ट मिलकर भी नहीं कर सकती। यही भगवान महावीर का संदेश था और इसी क्रियाकलाप को उन्होंने अपने जीवन में धारण किया और सारी जिन्दगी को इसी काम में लगा दिया।
आज ही हनुमान जी का जन्म-दिन है। जिस दिन से उन्होंने सेवाव्रत धारण किया, उस दिन से जहाँ भी जरूरत पड़ी, वे चले गये। सीता खोज के लिए पुल बनाने की जरूरत पड़ी तो पुल बनाने के लिए चले गये। जब रावण के साथ लड़ने की जरूरत पड़ी तो उससे लड़ने चले गये। जहाँ पहाड़ उठाने की जरूरत पड़ी, वहाँ पहाड़ उठाने के लिए चले गये। जहाँ वैद्य को लाने की आवश्यकता पड़ गयी, वहाँ उसे घर सहित उठा लाये। हनुमान जी ने सारी जिन्दगी भर सेवाव्रत को धारण करके रखा। उन्होंने कहा-हमारा काम सेवा करना है और मुसीबत उठाना है। राजसत्ता का सुख, वैभव, मजा और लोभ-प्रलोभन क्या है? इससे उन्होंने अपने आपको सदैव दूर ही रखा। तो क्या राजनीति की कोई सेवा नहीं की हनुमान जी ने? भला हनुमान जी से बढ़कर राजनीति की सेवा और कौन कर सकता था? रावण को उखाड़ करके विभीषण की स्थापना करने की भूमिका किसने निभाई? हनुमान ने, नल-नील, अंगद और जामवन्त ने निभाई। यदि वे इस बात का झगड़ा करते कि हमको मिनिस्टर बना दीजिये, तब तो चकल्लस खड़ी हो जाती। उन्होंने कहा नहीं, राज तो विभीषण को करना चाहिए, हम तो सेवा करेंगे, व्यवस्था जमाएँगे। व्यवस्था जमाना और सेवा करना-मित्रो ! यह बहुत बड़ा काम है। बार-बार जो लोग हमसे पूछते हैं कि आप राजनीति में क्यों नहीं जाते? उनसे हमारा यही कहना है कि किसी जमाने में हम राजनीति में थे। उस जमाने में राजनीति में बहुत बड़ी जिम्मेदारी थी जब तक हिन्दुस्तान को स्वराज नहीं मिला था। राजनीति हमको बहुत प्यारी थी। कब? जब सेवा की राजनीति थी, त्याग की राजनीति थी, कष्ट उठाने की राजनीति थी, फर्ज की राजनीति थी। आजादी के लिए जेल जाने पिटाई खाने और फाँसी के फन्दे झूलने की राजनीति थी, तब हमको राजनीति बहुत प्यारी लगती थी।
मित्रो ! अब राजनीति में वह चीज आ गयी है जिसे हुकूमत की भूख कहते हैं, सत्ता की हविश कहते हैं, जिसमें वोट माँगेंगे, दूसरों का हक मारेंगे तब हमने राजनीति छोड़ दिया। हमने देखा इसको लेने के लिए तो ढेरों लोग तैयार हैं। उस एक ही डिब्बे में सारी की सारी भीड़ घुसी जा रही है। उसमें बैठने के लिए कोई कोहनी मारता है, तो कोई कुछ करता है। ऐसी स्थिति से हमको वहाँ क्यों जाना चाहिए? हमको वहाँ क्यों नहीं जाना चाहिए जहाँ पूरा का पूरा डिब्बा खाली पड़ा है। धर्म का क्षेत्र खाली पड़ा हुआ है। लोकसेवा का क्षेत्र खाली पड़ा हुआ है। जनता का क्षेत्र खाली पड़ा हुआ है। कर्तव्यों को जगाने वाला क्षेत्र खाली पड़ा हुआ है। मित्रो! हम वहीं चलेंगे और आपको भी वहीं चलना चाहिए। आज की राजनीति में जिसमें सत्ता की भूख है, उससे आपको दूर ही रहना चाहिए और वहाँ चलना चाहिए जहाँ राष्ट्र को ऊँचा उठाने वाला क्षेत्र मौजूद है। हमको जनता के पास जाना चाहिए और उन्हें प्रेरित करना चाहिए। इससे बड़ी राजनीति और राष्ट्रसेवा कोई और हो नहीं सकती जो कि आप करने के लिए चले हैं। मित्रो ! वानप्रस्थी बन करके आप समाज में जाना, लोगों के पास जाना और उन्हें उनके कर्तव्यों को सिखाना, फर्जों को सिखाना, लोगों को उनके नागरिक अधिकार समझाना और यह बताना कि भला आदमी शरीफ आदमी कैसा होना चाहिए? प्रत्येक आदमी को अपनी राष्ट्रीय जिम्मेदारियों के प्रति कैसे रहना चाहिए? अच्छा समाज बनाने के लिए गुण्डागर्दी तथा अन्य दूसरी बुराइयों के विरुद्ध कैसे खड़े होना चाहिए? यह शिक्षण करना हमारा और आपका काम है।
गुण्डागर्दी पुलिस से नहीं रुक सकती। इसे जब कभी रोकेंगे तो हम और आप ही रोकेंगे। कैसे और कब? जैसे जटायु ने सीता जी को रावण के चंगुल से छुड़ाकर उदाहरण प्रस्तुत किया था। उसने देखा कि कोई बदमाश एक सती सी स्त्री को चुराकर ले जा रहा है। वह किसी और की नहीं हमारी बेटी है, हमारे ही साथ गुण्डागर्दी की जा रही है, अतः हमको चलना चाहिए और आततायी से लड़ना चाहिए। हमारे पास तलवार नहीं है और रावण के पास है, पर इससे क्या हुआ हमारे पास आत्मबल तो है। आत्मबल बड़ा होता है, तलवार नहीं। वह रावण से लड़ने लगा। रावण ने उसके पंख काट दिये। जटायु घायल होकर जमीन पर गिरा हुआ था। रामचन्द्रजी आये और उसे उठाकर अपनी छाती से लगा लिया और कहा हम तुम्हें स्वर्ग भेज देते हैं। उसने कहा-स्वर्ग तो आप भेजिए मत, हमने तो केवल लोगों के सामने अपने फर्ज का, कर्तव्य का उदाहरण पेश किया है कि जहाँ कहीं भी गुण्डागर्दी या अत्याचार किया जा रहा है, उसका मुकाबला करने के लिए हर आदमी को उसके विरुद्ध उठ खड़ा होना चाहिए। अभी क्या होता है मित्रो! कि इतनी सारी बुराइयाँ होती रहती हैं, गुण्डे-बदमाश छुट्टल घूमते रहते हैं, यदि सारे के सारे लोग निश्चय कर लें कि हम सब मिलकर उनका मुकाबला करेंगे तो जनता भी साथ देगी और तब समाज में एक भी गुण्डा दिखाई नहीं देगा।
जनता के सहयोग के बिना राष्ट्र की समस्या का समाधान नहीं हो सकता। जनता का सहयोग कौन जगाएगा? जनता का सहयोग सरकार जगा नहीं सकती, इसे हम जगाएँगे। जिस तरह पक्षी के दो पंख होते हैं उसी तरह एक पंख राजसत्ता है तो दूसरी धर्मसत्ता जिसको हम जनसत्ता-लोकसत्ता कहते हैं। लोकसत्ता का उतना ही अच्छा होना आवश्यक है जितना कि सरकार का अच्छा होना। एक ही पंख से पक्षी उड़ नहीं सकता। फिर राजसत्ता में काम करने के लिए ढेरों व्यक्ति हैं। अतः दूसरे पंख का अर्थात् धर्मसत्ता का क्षेत्र हमें ही सँभालना पड़ेगा। जनता को धर्म का, कर्तव्यों का, ईमानदारी का, जिम्मेदारी का, बहादुरी का ज्ञान हमको ही कराना चाहिए और हम वही करेंगे भी। आप लोग वानप्रस्थ का शिक्षण लेकर जाना और लोगों को धर्म का वास्तविक स्वरूप समझाना जो कि हम आपको अभी तक समझाते रहे हैं और आगे भी समझाते रहेंगे। धर्म का मतलब ईमानदारी, धर्म का मतलब कर्तव्यनिष्ठा, धर्म का मतलब सेवा, धर्म का मतलब उत्तरदायित्व की सँभावना को जगाना। इस तरह का धर्म हम हर आदगी को सिखाएँगे और समझाएँगे ताकि हमारा हर व्यक्ति अच्छा बन सके, ताकि हमारा परिवार अच्छा बन सके, ताकि हमारा समाज और राष्ट्र अच्छा बन सके, यही प्रेरणा है भगवान महावीर की, जिन्होंने राजसत्ता को तिलांजलि देकर धर्मसत्ता को ग्रहण किया और समाज में अलख जगाते हुए लोगों को धर्पसत्ता के कर्तव्यों का ज्ञान कराया।
भगवान बुद्ध भी राजसत्ता को छोड़ करके, राजसत्ता को ठोकर मारकर चले गये थे। उन्होंने गाँव-गाँव में अलख जगाया था। अलख जगाने के बाद में क्या उन्होंने राजसत्ता को अच्छा नहीं बनाया था? हाँ, अशोक से लेकर हर्षवर्धन तक सैकड़ों के सैकड़ों जनता को उन्होंने अच्छा बना दिया था। धर्मसत्ता को लेकर गुरु वशिष्ठ चले थे। क्या उन्होंने रघुवंशियों से लेकर अनेकों राजाओं की राजसत्ता को अच्छा नहीं बना दिया था? हाँ, उन्होंने बना दिया था। सारे महामानव धर्मसत्ता को लेकर चले थे। चाणक्य ने क्या चन्द्रगुप्त को अच्छा नहीं बना दिया था? हाँ बना दिया था। समर्थ गुरु रामदास धर्मसत्ता को लेकर चले थे। क्या उन्होंने शिवाजी और दूसरे लोगों को अच्छा नहीं बना दिया? हाँ, बना दिया था। हम भी सरकारों को अच्छा बना देंगे, जनता को अच्छा बना देंगे। जनता को अच्छा बनाने के लिए और सरकारों को अच्छा बनाने के लिए जो कार्य हम और आप मिलकर कर रहे हैं, वह बहुत बढ़िया, बहुत शानदार और बहुत उच्चकोटि का है। इनको कम किसी से भी नहीं समझना चाहिए और न ही आपमें से किसी को अपने मन में यह भाव आने देना चाहिए कि हमको राजसत्ता पर हावी होना है और राजसत्ता में अपना कोई आदमी भेजना है। जनता को ही जब हम जनसत्ता बना देंगे, लोकशक्ति बना देंगे तो फिर आप देखना सरकार को अपने आप बदलना पड़ेगा। यदि जनता बदल गयी तो फिर सरकारें अपने आप बदल जाएँगी।
यही है हमारा भावी संदेश। यही है हमारे भगवान महावीर का संदेश। यही है हमारे लोगों को जवाब, जो हमारे इतने बड़े संगठन और कार्यक्रमों की स्थिति को देखकर बराबर कहते रहते हैं कि आप अपने आदमी चुनाव में खड़े क्यों नहीं करते? आप राजनीति में क्यों नहीं आते? हम बार-बार यही कहते रहते हैं कि राजनीति का क्षेत्र बहुत छोटा, बहुत कम है और धर्म का क्षेत्र बहुत बड़ा है। राजनीति के पास शक्ति नगण्य है। इसके पास वैभव कम है। हमारे पास धर्मतंत्र के पास सामर्थ्य बड़ी है। धर्मसत्ता बड़ी है। हमारे पास आदमियों की सत्ता बड़ी है। उसके पास तो पच्चीस-चालीस हैं। हमारे पास तो 56 लाख आदमी हैं। 56 लाख संतों की सत्ता को बेकार राजसत्ता की अपेक्षा समाजहित में लगाएँगे। हमारा कार्यक्षेत्र बड़ा है। साथियो, हममें से किसी व्यक्ति को यह भाव मन में नहीं लाना चाहिए कि यदि हम राजनीति में गए होते, राजसत्ता के क्षेत्र में गए होते तो हमको सेवा करने का ज्यादा अवसर मिलता अथवा हमारा ज्यादा सम्मान हो जाता। हमारा सम्मान धर्मक्षेत्र में प्रवेश करने पर है, क्योंकि हम जनता की, खासतौर से पिछड़ी जनता की सेवा उस क्षेत्र में प्रवेश करके जितनी कर सकते हैं और जनशक्ति को जाग्रत कर सकते हैं, उतनी राजनीति में प्रवेश करके हम नहीं कर सकते। इसलिए मित्रो, हमारा लोगों को यही जवाब है कि हम क्यों राजनीति में नहीं जाते हैं? और राजनीति को छोड़कर धर्मसत्ता में क्यों आ गये? भगवान महावीर और भगवान भक्त हनुमान जो दोनों ही आज के दिन पैदा हुए थे, उनके जीवन से भी हमको यही जवाब मिल जाता है। आज के उद्बोधन से आपको शिक्षा और प्रेरणा लेनी चाहिए कि हम राजनीति की इच्छा के विपरीत धर्मनीति की ओर चलेंगे और उन महत्वपूर्ण कार्यों को करेंगे जो राजसत्ता के बलबूते के बाहर है।