Books - गीत संजीवनी-4
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ऐसी भी क्या कायरता
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�ऐसी भी क्या कायरता
ऐसी भी क्या कायरता, इतना तो नहीं डरो। पाश्चात्य संस्कृति से अब तो, खुलकर युद्ध करो॥
बात वेशभूषा तक रहती, तो चुप रह जाते। खान- पान से भी बच जाते, कभी न टकराते॥
दुश्चरित्रता लेकिन अब तो, हद तक बढ़ आयी।
कर लेना बर्दाश्त उसे तो, अतिशय दुःखदायी॥
विष पीकर मर जाना अच्छा, मन न अशुद्ध करो॥
अगर सिनेमा श्रृंगारिकता, तक ही रह जाता। तो यह अन्तर्द्वन्द्व न शायद, इतना दुःख पाता॥
लेकिन वह तुल पड़ा, नारियों को नंगा करने।
खलनायक सीधे घुस आया, है अपने घर में॥
अस्त्र करो धारण, जनमानस को भी क्रुद्ध करो॥
भ्रष्टाचार दहाड़ रहा है, खुलकर दरवाजे। नाच रही पशुता घर- घर में, बजा- बजा बाजे॥
प्रजातंत्र को कौन संभालेगा, आगे बढ़कर।
आँख मूँदकर बैठ गये यदि, हिंसा से डरकर॥
जनमानस का करो प्रशिक्षण, उसे प्रबुद्ध करो॥
आगे बूढ़ा भीष्म पितामह, पीछे कर्ण छली। दायें द्रोणाचार्य बीसियों, बायें बाहुबली॥
चक्रव्यूह है कठिन, किन्तु अभिमन्यु न घबराना।
डर जाने से अच्छा उसमें, घुसकर मर जाना॥
वीरों और शहीदों का पथ, मत अवरुद्ध करो॥
उपज पड़े रावण- अहिरावण, अपने ही घर में। सूर्पणखायें नाच रही हैं, ‘जैक्सन’ के स्वर में॥
अपने लोकगीत बेचारे, माँग रहे भिक्षा।
लोकपाल कह रहे कि यह, सब ईश्वर की इच्छा॥
इस कुत्सा को आग लगाओ, अब गृह युद्ध करो॥
मुक्तक-
सज्जनता अच्छी है, लेकिन कायरता से दूर रहे। कौन सराहें शौर्य अगर वह, हृदयहीन या क्रूर रहे॥
संस्कृति चाह रही सज्जन को, शौर्यवान बनना होगा।
मानवता की रक्षा करने, धर्मयुद्ध करना होगा॥
हमारे साधु- संतों की संगीत साधना का ही यह प्रभाव था कि कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, संत तुकाराम, नरसी मेहता ऐसी कृतियाँ कर गये जो हमारे और संसार के साहित्य में सर्वदा ही अपना विशिष्ट स्थान रखेंगी।
- डॉ.राजेन्द्र प्रसाद
ऐसी भी क्या कायरता, इतना तो नहीं डरो। पाश्चात्य संस्कृति से अब तो, खुलकर युद्ध करो॥
बात वेशभूषा तक रहती, तो चुप रह जाते। खान- पान से भी बच जाते, कभी न टकराते॥
दुश्चरित्रता लेकिन अब तो, हद तक बढ़ आयी।
कर लेना बर्दाश्त उसे तो, अतिशय दुःखदायी॥
विष पीकर मर जाना अच्छा, मन न अशुद्ध करो॥
अगर सिनेमा श्रृंगारिकता, तक ही रह जाता। तो यह अन्तर्द्वन्द्व न शायद, इतना दुःख पाता॥
लेकिन वह तुल पड़ा, नारियों को नंगा करने।
खलनायक सीधे घुस आया, है अपने घर में॥
अस्त्र करो धारण, जनमानस को भी क्रुद्ध करो॥
भ्रष्टाचार दहाड़ रहा है, खुलकर दरवाजे। नाच रही पशुता घर- घर में, बजा- बजा बाजे॥
प्रजातंत्र को कौन संभालेगा, आगे बढ़कर।
आँख मूँदकर बैठ गये यदि, हिंसा से डरकर॥
जनमानस का करो प्रशिक्षण, उसे प्रबुद्ध करो॥
आगे बूढ़ा भीष्म पितामह, पीछे कर्ण छली। दायें द्रोणाचार्य बीसियों, बायें बाहुबली॥
चक्रव्यूह है कठिन, किन्तु अभिमन्यु न घबराना।
डर जाने से अच्छा उसमें, घुसकर मर जाना॥
वीरों और शहीदों का पथ, मत अवरुद्ध करो॥
उपज पड़े रावण- अहिरावण, अपने ही घर में। सूर्पणखायें नाच रही हैं, ‘जैक्सन’ के स्वर में॥
अपने लोकगीत बेचारे, माँग रहे भिक्षा।
लोकपाल कह रहे कि यह, सब ईश्वर की इच्छा॥
इस कुत्सा को आग लगाओ, अब गृह युद्ध करो॥
मुक्तक-
सज्जनता अच्छी है, लेकिन कायरता से दूर रहे। कौन सराहें शौर्य अगर वह, हृदयहीन या क्रूर रहे॥
संस्कृति चाह रही सज्जन को, शौर्यवान बनना होगा।
मानवता की रक्षा करने, धर्मयुद्ध करना होगा॥
हमारे साधु- संतों की संगीत साधना का ही यह प्रभाव था कि कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, संत तुकाराम, नरसी मेहता ऐसी कृतियाँ कर गये जो हमारे और संसार के साहित्य में सर्वदा ही अपना विशिष्ट स्थान रखेंगी।
- डॉ.राजेन्द्र प्रसाद