Books - गृहस्थ में प्रवेश से पूर्व उसकी जिम्मेदारी समझें
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Language: HINDI
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गृहस्थ की सफलता सघन आत्मीयता पर निर्भर
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विवाहित जीवन में जो हाहाकार हम देख रहे हैं उसका एक प्रधान कारण यह भी है कि पति का कर्तव्य प्रायः उपदेश तक ही समाप्त हो जाता है। उसने भ्रमवश समझ लिया है कि गृहस्थी का सारा बोझ स्त्री के लिए ही है। वह यह भी समझता है कि उसका काम जीवन के इन छोटे-छोटे और रोज पैदा होने वाले सवालों की तरफ ध्यान देना नहीं है, उसका काम बस जिन्दगी की एक चहारदीवारी तैयार कर देना है जिसमें वह और उसकी स्त्री दोनों सुरक्षा का अनुभव कर सकें। वह स्त्री को उसके कर्तव्य भी समय-समय पर बताता रहता है और जब उस कर्तव्य का पालन करने में वह कभी असमर्थ रह जाती है तो उसका मन खीझ से भर जाता है। वह सोचता है और अक्सर कहता भी है, कि ‘मैंने कहां से यह झंझट पाली—निर्द्वन्द्व मेरा जीवन था न कोई चिंता न झंझट। वे उमंगे, स्वप्न और वे महत्वाकांक्षाएं इस जीवन की कड़ी धूप में नष्ट हो गई। तब वह एक लंबी आह लेता है, किस्मत पर रोता है और उसे अपने ही प्रति, अपनी अक्षमता के प्रति एक संघर्ष और प्रतिहिंसा पैदा होती है और उसका मन अंधकार से भर जाता है।
‘‘यह विष पति तक ही नहीं रह जाता। वह फिर स्त्री के हृदय पर आक्रमण करता है। वहां से बच्चों, फिर घर के अन्य प्राणियों में फैल जाता है। फिर पति की भांति स्त्री भी सोचने लगती है, कैसा कंचन-सा मेरा शरीर था। मां-बाप ने कभी त्यौरियां चढ़ाकर मेरी ओर न देखा, मुझे हाथों-हाथ रखा। आज मैं निरपराध क्या-क्या सहन कर रही हूं। फिर भी जिंदगी क्या है, रोज की झिकझिक है इससे मौत क्या बुरी होगी? आखिर मैंने उनके लिए क्या नहीं किया? क्या नहीं सहा? फिर भी इतना खिंचाव क्यों है?’’ तब उसे लड़कपन के उमंगों से भरे दिन याद आते हैं। ‘‘वह माता-पिता का दुलार, वह बहनों का बहनापा, भाइयों का मृदुल-स्नेह, वह सहेलियों की चुहल। कैसे देखते-देखते दिन बीत जाते थे। वह सब सपना हो गया। मैंने माता-पिता को छोड़ा, सहेलियों को छोड़ा। मेरा दूसरा अब कौन है।’’
‘‘तब यह स्त्री, जो गृह के लिए लक्ष्मी थी और जिसके स्नेह का अमृत पीकर बच्चे घर को स्वर्ग बनाए हुए थे, अपने को भूलने लगती है। तब वह विष जैसी होने लगती है। तब उसमें जातीय वेदना का बोध जाग्रत होता है। तब वह अन्य स्त्रियों से दुःखभरी वाणी में कहती है—‘बहन, हम स्त्रियां तो सहने और दुःख झेलने के लिए ही पैदा हुई हैं। हमको सुख कहां? गलत भावों की इस जहरीली आंधी से उसके दिल का दिया बुझ जाता है। जिन्दगी एक बोझ हो जाती है।’’
‘‘कोई शैतान अंधविश्वासों में भी सदा के लिए देवता बनकर नहीं रह सकता। देवता बनने के लिए देवता जैसा काम भी करना चाहिए। उसके लिए देवता बनने की कोशिश सच्चाई के साथ करनी चाहिए। मैं यह भी कह दूं कि मेरे समक्ष कोई मनुष्य से बढ़कर नहीं है। मनुष्यता की अनुभूति ही सच्चे देवत्व की जननी है। गलतियां आदमी से होती हैं। इसलिए मैं जिंदगी के कटीले मार्ग पर चल रहे पति या पत्नी से कांटा लग जाने पर उनको अपमानित करने, उनको जानवर मान लेने को तैयार नहीं हूं। पर मैं मानता हूं कि सच्चाई और वफादारी तभी निभ सकती है जब हम अपने दिलों को साफ रखें और जो गलती हो जाए, उसे समझने, उसे स्वीकार करने और पश्चाताप करने को तैयार रहें। तभी जीवन का सच्चा सुख और विकास संभव है।’’
‘‘अब वह भोलापन कुछ ज्यादा काम न देगा जिसमें पति समझ लेता था कि मैं बुरा हूं या भला पर मेरी स्त्री को तो देवी होना ही चाहिए और उसका कर्तव्य मेरी सेवा, मेरी पूजा करना ही है। स्त्री का जो भी कर्तव्य हो, जो भी रास्ता हो, आज वह रास्ता हम अपने परंपरा से चले आए हुए अधिकार के बल से उसे नहीं बतला सकते। आज उसे अपनी श्रेणी का, अपने जैसा मनुष्य और अपना सच्चा साथी मानकर ही हम उसके साथ निभ सकते हैं और उसे निभा सकते हैं। सिर्फ सूखे सिद्धांतों और आचार-दलीलों को लेकर तिल का ताड़ बनाते रहने से यह न होगा। इसके लिए पति को स्त्री की दुर्बलता नहीं देखनी होगी, अपनी दुर्बलता भी देखनी होगी। उसे अपनी महत्ता का भी स्मरण करना होगा और उस दुर्बलता को दूर करने और अपनी महत्ता को बनाए रखने या उसमें सच्चाई लाने के लिए पूरी चेष्टा करनी होगी। यह जमाना अंध-श्रद्धा का नहीं है। अपनी आंखों में विस्मय और होठों पर प्रश्न लिए नारी आज उठी है। अब लंगड़ा-लूला, व्यभिचारी, कैसा भी पति पूजा का सिद्धांत चल न सकेगा, इसकी आशा करना सिर्फ अपने को धोखा देना है। फिर सदाचारी, ईमानदार और पत्नी व्रती पति के मुख से तो ऐसी बात क्षण भर को सहन की जा सकती है पर जो स्वयं दुर्बलताओं का गुलाम है उसके मुंह से यह महज परले सिरे का स्वार्थ जैसा लगता है।
इसलिए पति देवता को अपना यह भाव त्याग देना होगा कि वह मूलतः ही अपनी पत्नी का पूज्य है। नारी से तो अब भी मैं यही कहूंगा कि उसका यह भाव रखना उसके लिए कल्याणकारी है पर पति से तो मुझे यही कहना चाहिए कि उसके लिए अपने संबंध में इस तरह का ख्याल रखना उसे चौपट करने वाला और उसे अंधेरी और बदबूदार खाईयों में धकेल देने वाला है। उसे तो जिंदगी का बोझ उठाने में पत्नी से ज्यादा वफादारी का सबूत देना ही अच्छा है। उसे स्त्री में दोष दर्शन की वृत्ति छोड़कर अपने को देखने, परखने और सुधारने की वृत्ति डालनी चाहिए।
यह मनुष्य की बड़ी सामान्य कमजोरी है कि वह दूसरों के बारे में जितनी कठोर कसौटी का इस्तेमाल करता है वह अपने बारे में नहीं। दूसरों की जिंदगी को वह ऊंचे पैमाने से नापना चाहता है और अपनी कमजोरियों के लिए तरह-तरह की सफाई देता है। सामाजिक एवं घरेलू संबंध में गलत फहमी और विषमता पैदा होने का एक बहुत बड़ा कारण यही है। यदि आदमी दूसरों के बारे में भी उतना ही मुलायम और उदार हो जितना वह अपने बारे में होता है तो हमारी आधी समस्याएं अपने आप खत्म हो जाएं। हमारे बीच बहुत-सी कटुता इसीलिए पैदा होती हैं कि दूसरों के दोषों पर हमारी निगाह जरूरत से ज्यादा तेजी के साथ दौड़ती हैं, जबकि अपने दूर से दमकते दीखने वाले दोषों पर भी हम सुनहरी कलई करके लोगों की आंखों में धूल झोंकना चाहते हैं।
दांपत्य जीवन के लिए भी यही बात है। एक रिवाज चल पड़ा है और पतियों ने अपने और अपनी बीवियों के लिए नीति और सदाचार के अलग-अलग पैमाने बना लिए हैं, आचार की जो शिथिलता पति के लिए क्षम्य है वह पत्नी के लिए अक्षम्य है। मनोरंजक बात तो यह है कि सभ्य पुरुष जो दूसरों की बहू-बेटियों की ओर लोलुप-व्यवहार करने को आतुर है, अपनी औरत से सती सावित्री होने की आशा रखता है। यह मनोवृत्ति क्रोध करने योग्य नहीं है, यह दयनीय है।
पतियों के लिए बहुत अच्छा होता यदि वे जल्द से जल्द समझ लें कि इस तरह की हालत अब नहीं चल सकती। सदाचार का एक ही पैमाना दोनों के लिए निभ सकता है—वह ठीक है और वही होना चाहिए बल्कि पुरुष और पति होने के नाते मैं तो चाहूंगा कि पति अपनी पत्नियों की जांच की कसौटी में भले ही थोड़ी-बहुत शिथिलता रखें पर अपनी परख में उनको बड़ा बेरहम होना चाहिए। आज तक जो कुछ उन्होंने अपने प्रथागत अधिकार के बल पर पाया है उसे सच्ची शक्ति और चरित्र-बल से प्राप्त करने का दावा करना चाहिए। लाठी और गर्व के बल पर औरतें अब हांकी नहीं जा सकती।
‘‘इसकी अपेक्षा कि तुम अपनी पत्नी से अधिक आशाएं करलो, वह ज्यादा अच्छा होगा कि पहले तुम उसके प्रति अपने कर्तव्य का पालन करो। शांतिमय और प्रेममय गृहस्थ जीवन का सबसे बड़ा रहस्य यह है कि इसमें अपने सुख की अपेक्षा अपने साथी का सुख और हित पहले देखना पड़ता है। अपने हित की रक्षा का सर्वोत्तम तरीका ही एक दूसरे के हित की रक्षा करना है। आत्मदान ही सच्चे सुख की कुंजी है।’’
यह कहना अतिशयोक्ति ही होगी कि दांपत्य जीवन स्त्री के रूपवती होने से सफल हो जाएगा। वस्तुतः विवाहित जीवन में रूप का स्थान, एक सीमा तक होते हुए भी वह बहुत गौण है। यह बिल्कुल संभव है कि नारी के रूपवती न होने या कम रूपवती होने पर भी तुम सुखी हो सकते हो और यह असंभव नहीं कि रूपवती लड़की से विवाह करके भी तुम्हारा जीवन उस अमृत से वंचित ही रह जाए जिसके बिना विवाहित जीवन नरक है। बात यह है कि विवाहित जीवन का सुख काव्य का काल्पनिक आनंद नहीं है। यह इसी लोक में घोर परिश्रम द्वारा एक ऐसे जीवन का निर्माण करने का प्रयत्न है जिसमें नारी और पुरुष एकत्र रहकर और संयुक्त होकर अपनी परिपूर्ण अभिव्यक्ति कर पाते और स्वार्थ एवं परमार्थ का समन्वय करते हैं।
‘‘केवल रूप को देखकर कोई निर्णय मत करो। हो सकता है कि तुम्हारे साथ पढ़ने वाली लड़की ने अपनी शरारत, शोखी और सौंदर्य से तुम्हारे दिमाग पर नशे की तरह अधिकार कर लिया हो। तुम समझते हो कि तुम दोनों दिल से एक-दूसरे को चाहते हैं। तुम्हारा कहना है कि बिना उस लड़की के तुम्हारा जीवन सुखी नहीं हो सकता और तुम दूसरों के साथ शादी करने की बात मन में भी नहीं ला सकते। यह जवानी ऐसी ही चीज है, यह दिलों में बेक़रारी पैदा करती है और भविष्य के प्रति बड़ी जल्दबाजी से काम लेती है पर मैं कहूंगा कि जल्दी मत करो, जो ज्वर तुम में उठा है, उसे ठिकाने लगने दो और तब शांति के साथ सोचे कि तुम्हारी मानसिक दशा क्या है। क्या तुम शांति के साथ और निरुद्वेग होकर अपने संबंध में ठीक-ठीक विचार करने की स्थिति में हो? भावावेश में निर्णय मत करो, वह दोनों के लिए सुखदायी होगा। ऐसे कई उदाहरण दे सकता हूं जिनमें विवाह के पूर्व लड़का-लड़की दोनों एक-दूसरे को चाहते थे, उनका कहना था कि यह रूपजनित मोह नहीं है हम दिल से प्रेम करते हैं, पर विवाह के बाद वे प्रेम के सपने बहुत जल्द खत्म हो गए। बेचारी स्त्रियां अक्सर कर ऐसे मामलों से ज्यादा घटे का सौदा कर लेती हैं। स्त्रियों के लिए बहुत जरूरी है कि वे पुरुषों के रूप-जनित आकर्षण को बहुत मूल्य न दें। मैं कहूंगा कि ‘‘जो स्त्री अपने रूप का उपयोग पुरुष को आकर्षित करने में करती हैं, उसके भाग्य में पछताना ही लिखा है क्योंकि वह दांपत्य जीवन का आरंभ पुरुष की हलकी वासना को जगाकर करती हैं और जब जीवन के मध्याह्न के बाद यौवन और रूप की दोपहर ढलने लगती है तो रूप लोभी या रूप के पीछे आया हुआ पुरुष विरक्त होने लगता है। जो सहयोग रूप की नींव पर खड़ा किया है और जिसमें आत्म-नियंत्रण, त्याग तथा जीवन के स्थाई तत्व नहीं हैं वह दांपत्य जीवन अधिक दिनों तक चल ही कैसे सकता है?’’
‘‘आधुनिक युवती में पुरुष को आकर्षित करने की प्रवृत्तियां अधिक सजग हो रही हैं और उसे इसके लिए अपने को अधिक से अधिक आकर्षक बनाने की चिंता में बहुत समय और शक्ति खर्च करनी पड़ती है। शरीर को जीवन में बहुत प्रधानता मिल गई है और इन सबके कारण रमणी ऊपर आ गई और पनप रही है जब कि ‘माता बोझ के नीचे दब गई है, उसका जो फल होना चाहिए था नहीं हुआ है। नारी के स्वतंत्र विकास का दावा मिथ्या के गर्त में डूब गया है और जीवन में सर्वत्र भोग और अधिकार की स्वार्थपूर्ण वासनाएं जग गई हैं। क्या पुरुष, क्या स्त्री दोनों का स्वाभाविक ओज और स्वाभाविक विकास नष्ट हो गया है लघु आमोद एवं तुच्छ क्रीड़ा-विलास से जीवन पंकिल हो उठा है। उसके मुख मण्डल पर यौवन की क्रांति क्षणस्थायी होती है। प्राण पंगु से मद्यप की भांति अपने में शिथिल एवं गतिहीन हो रहे हैं।’’
अक्सर आजकल रूप-तृष्णा को प्रेम समझ लिया जाता है। रूप-तृष्णा में अधिकार और भोग की लालसा होती है जब प्रेम प्रेमास्पद के लिए अपने सुख और सुविधा का बलिदान करने को तैयार रहता है। सच्चे प्रेम की नींव बाह्य रूप से नहीं, उससे कहीं गहरी होती है और उसके साथ सदा उत्कृष्ट भावना और कर्तव्य तथा कल्याण की इच्छा लगी होती है। इसलिए विवाहित जीवन में वे लोग अधिक सफल होते हैं जो उदार दृष्टिकोण और कर्तव्य को लेकर चलते हैं। सुनहरे स्वप्नों के जाल जीवन की कठोर वास्तविकता के धक्कों से टूट जाते हैं। क्योंकि पति-पत्नी का जीवन केवल उन्हीं तक नहीं होता और उनको समाज की कठोर परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है उसे जीविका के लिए जो जीवन की समस्त स्थूल आवश्यकताओं में सबसे प्रबल आवश्यकता और शक्ति है, दुनिया के वियावान में कांटों पर चलना पड़ता है और जब पैर कांटों से छलनी हो रहे हों और दिलों को घोर प्रतियोगिता की सर्द हवाएं शिथिल किए डालती हों, तब प्रेम के कोमल एवं लुभावने सपने देखते हुए चलना संभव नहीं है।
इसलिए जिसे आजकल प्रेम-विवाह कहा जाता है उसकी अपेक्षा कर्तव्य-विवाह अधिक सफल होता है। पहले में जहां आकांक्षाएं और आशाएं बहुधा काल्पनिक होती हैं और अतिशयोक्ति की सीमा तक बढ़ी होती हैं वहां दूसरे में आदमी वास्तविकता की भूमि पर होता है। जब मैं कर्तव्य की प्रधानता की बात कह रहा हूं तब मैं प्रेम की श्रेष्ठता को भूला नहीं हूं। मैं मानता हूं कि दांपत्य-जीवन, क्या संपूर्ण मानव-जीवन, संपूर्ण समाज-जीवन प्रेम के बिना आत्मा रहित शरीर के समान है, इसके बिना सब कुछ जड़, स्फूर्तिहीन और चेतना-रहित है। जगत में जो कुछ है प्रेम का ही विस्तार है, उसी की प्रकृति और विकृति है पर मेरा कहना इतना ही है कि जहां प्रेम उद्वेग से धुंधला और स्वार्थ से पंकिल है वहां वह विकृत होकर विष का काम करता है। वस्तुतः वह प्रेम होता नहीं। प्रेम सब कुछ देकर भी सदा अपने में अपूर्ण होता है। पर इतनी बारीकी में जाना सबके लिए संभव नहीं।
अतः मैं इसे यों कहूंगा कि जो प्रेम त्याग से नम्र नहीं है और विवेक से प्रकाशित नहीं है उसे प्रेम समझने की भूल मत करो। सच्चा प्रेम सदैव विवेक से परिष्कृत होता है। प्रेम और विवेक दोनों का उपयुक्त सामंजस्य करके चलना ही गृहस्थ जीवन और मानव की परिपूर्णता का साधन है।
इसलिए जहां जीवन संगी के चुनाव का सवाल है वहां हृदय और मस्तिष्क दोनों का संतुलन करके और शांत होकर, पूरी गंभीरता के साथ विचार करना चाहिए। तुम्हें न केवल अपने वर्तमान का वरन् भविष्य का भी ध्यान रखना चाहिए। अपने जीवन के लिए तुम जिम्मेदार हो, चुनाव का अंतिम निर्णय तुम पर निर्भर करता है। तुम सोचे और निर्णय करो, पर यह कुछ बुरा न होगा कि तुम अपने निर्णय में उन बुजुर्गों को भी शरीक होने दो जिन्होंने दुनिया देखी है और जो जीवन के उतार-चढ़ाव के बीच से गुजरे हैं।
‘‘मैं यह नहीं कहता कि रूप का कोई मूल्य नहीं है पर मैं इतना जरूर कहता हूं कि जीवन के संघर्ष में इस हलकी और क्षण स्थाई चीज के भरोसे तुम ज्यादा सफलता नहीं प्राप्त कर सकते। उसके लिए कहीं ज्यादा ठोस चीज की जरूरत है। रूप-लिप्सा में अंधे बनकर दूसरी ज्यादा जरूरी चीजों की तरफ से मुंह मत मोड़ो। यह रूप पहले तो संयोग से मिला हुआ पदार्थ है। यानी इसके प्राप्त करने में लड़की ने कोई परिश्रम नहीं किया। इससे उसके गुणों का या योग्यता का कोई संबंध नहीं है। इससे उसके कुसंस्कारों का भी कुछ पता नहीं चलता। तब इस चीज के प्रति तुम्हारी इतनी ललचाई नजर क्यों है? क्यों नहीं लड़की में पहले शील, गुण, स्वभाव की अच्छाई की मांग की जाती है? मधुर बोली, सहनशील स्वभाव, परिश्रमशीलता, संतोष वृत्ति, उदार मानस ये वे चीजें हैं जिस के कारण नारी गृहलक्ष्मी है। पर आज इन बातों पर कौन ध्यान देता है? आजकल का युवक पति तो स्त्री में चटक-मटक, रूप और यौवन का नशे से पूर्ण जोड़ चाहता है और तभी गृह इतने सूने तथा निरानंद हो रहे हैं।’’
यद्यपि जिन्दगी मामूली व्यापारिक अर्थ में सौदा नहीं है, पर व्यापक और श्रेष्ठ अर्थ में यह एक कठिन सौदा है।
गृहस्थ जीवन की संपूर्ण आधार शिला आत्मीयता है। बच्चे रूखा-सूखा खाते हैं पर माता-पिता का साथ छोड़कर नहीं जाते। अपने सुख, अपनी सुविधाएं विस्मृत कर स्त्री दिन-रात अपने पति, अपने बच्चों की सेवा, टहल करती है। एक ही भूख, एक ही प्यास-ममत्व, एक ही बंधन-आत्मीयता ही है जो कष्ट की स्थिति में भी मनुष्य, मनुष्य को जोड़कर रखती है। पारस्परिक प्रेम, अपनत्व, स्नेह, सौहार्द्र, प्यार, दुलार पाकर निरे अभाव ग्रस्त परिवारों से भी लोग संबंध विच्छेद नहीं करना चाहते, पर आत्मीयता के अभाव में साधन संपन्न व्यक्ति भी परस्पर टकराते और भीतर ही भीतर घुला करते हैं।
ऐसी शिकायतें आए दिन सुनने को मिलती रहती हैं ‘‘हम भाइयों-भाइयों के बीच नहीं बनती’’, हमारा दांपत्य-जीवन बड़ा दुःखी है, ‘‘हमारे घर में ऐसा कलह छाया रहता है कि घर की चहारदीवारी में दम घुटता रहता है।’’ ऐसी शिकायतें आज आम हो गई हैं। उन परिस्थितियों की कल्पना करते हैं, जिनमें ऐसे लोग रह रहे होंगे तो इस निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि आज का समाज निःसन्देह बहुत दुःखी है और उसका कुछ उपचार भी अवश्य होना चाहिए।
क्या कोई बाहरी हस्तक्षेप कारगर हो सकता है? नहीं। आपकी यह समस्या किसी बिचौलिए से ठीक होने वाली नहीं। मनोवृत्तियां विकृत हो रही हों तो कोई देवता भी उस स्थिति को ठीक नहीं कर सकता। किसी अन्य से शिकायत करने की अपेक्षा अपने आप में ही यदि उस कारण को ढूंढ़ा जाए जो सारा उत्पात उत्पन्न करता है और उसे दूर किया जाए तब संबंध सुधार की आशा भी बढ़ जाती है और उसके परिणाम भी कुछ अधिक प्रभावशाली हो सकते हैं।
दो भाइयों की कलह-ग्रस्त स्थिति जिसमें एक भाई अपने सगे भाई की जान लेने पर उतारू हो जाता है और दूसरी ओर भाई की कष्ट-ग्रस्तता के समाचार से दूसरा भाई मर्माहत हो जाता है और उसकी विपत्ति दूर करने के लिए बड़े से बड़ा त्याग करने की तैयारी करता है, ये दोनों परिस्थितियां जमीन आसमान जैसे अंतर की हैं। इस अंतर पर विचार करने से इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि इन दोनों स्थितियों में आत्मीयता प्रगाढ़ होना और आत्मीयता न होना ये दो ही कारण हो सकते हैं अन्यथा धन-दौलत किसी के संबंध खराब नहीं कर सकते। बटवारे का झगड़ा तब होता है जब स्वार्थ पैदा होता है। न्यायपूर्वक लोग उपभोग करते रहें तो ऐसी लड़ाई ही क्यों हो? अपने आपको बड़ा मानने और दूसरे को नीचा मानने की अमानवीय प्रकृति ही कलह उत्पन्न करती है। एक मनुष्य यदि दूसरे मनुष्य की स्थिति भी ठीक अपनी ही जैसी अनुभव करे तो फिर झगड़ा क्यों हो और संबंध खराब भी न हों।
कमी कुछ न कुछ प्रत्येक व्यक्ति में होती है। जो बेटा दिन-भर खेतों में काम करता है, कठिनाइयों से संघर्ष करते रहने के कारण संभव है वह कुछ तीखी आवाज में बोलता हो, मां उसे अपने बेटे का गुण मानती है, दुर्गुण नहीं। पत्नी यदि अपनी सेवाओं के बदले कुछ अधिकार चाहती हो तो इसे उसकी स्वाभाविक वृत्ति मानना चाहिए, न कि उसका दोष। इन स्वाभाविकताओं को मां की दृष्टि से देखा जाए और उसके अनुरूप ही अपने आपको ढाल लिया जाए तो उसमें हर्ज ही क्या है। सेवा के बदले बड़ाई, परिश्रम के बदले प्यार देना मनुष्य का धर्म है। इन सद्गुणों के बीच यदि कोई कटु लगने वाली बात जान पड़ती हो तो उसकी उपेक्षा ऐसे ही की जानी चाहिए जैसे नीम के गुणों के बीच उसकी कड़वाहट की उपेक्षा कर दी जाती है।
मानवीय अधिकारों की भूख सभी को होती है। बच्चा प्रातः काल से लेकर सायंकाल तक तोड़-फोड़, वस्तु–खराबी और खर्च ही करता है, इतना करते हुए भी वह माता-पिता से बराबर प्रेम और स्नेह का अधिकार रखता है। बच्चे को वह प्यार मिलता भी है क्योंकि यह उसका मानवीय अधिकार है। बच्चे की तरह बड़ों के श्रम की प्रशंसा, उनके कार्य में सहयोग, अभावों की पूर्ति भी ऐसे ही मानवीय अधिकारों के अंतर्गत आती है। इसे पूरा करने में जब लोग कंजूसी दिखाते हैं तो स्वभावतः उसकी प्रतिक्रिया विपरित होती है और आत्मीय-संबंधों में विकृति आती है।
त्याग और उदारता का मानवीय अधिकार केवल वे लोग ही नहीं मांगते जो अधिक उपयोगी होते हैं अथवा जिनके पास किसी प्रकार की सत्ता होती है, वरन् यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि उसकी अपेक्षा समाज का हर व्यक्ति करता है। यह कहा जा सकता है कि जो कोई काम न आता हो या अनुपयोगी हो, उसके प्रति परोपकार से क्या लाभ। पर बात ऐसी नहीं। त्याग और उदारता किसी भी व्यक्ति के साथ बरती जाए तो यह कभी निष्प्रभावी नहीं जाती। इतिहास साक्षी है कि इस उदारता के द्वारा कई पातकी व्यक्तियों को भी सुधारा जा सका है। वाल्मीकि और अंगुलिमाल जैसे हिंसक प्रवृत्ति के व्यक्तियों को भी मनुष्य की दया, क्षमा, त्याग और उदारता ने बदल कर रख दिया तो परिवार की छोटी-छोटी कमियों वाले व्यक्तियों को बदलना और भी आसान होना चाहिए।
मां का हृदय बड़ा विशाल कहा जाता है क्योंकि वह लायक और नालायक दोनों बेटों को एक आंख, एक भावना से देखती है। अच्छे चरित्रवान और सुशील बेटे के लिए जितनी मुहब्बत उसके हृदय में होती है, नालायक बेटे के लिए उससे कम नहीं। कुछ अंशों में तो वह उसका और भी अधिक हितचिंतन करती है। मां की तरह हम सब व्यक्तियों का हृदय उदार हो सकता है। यदि हम अपने आपको अन्य लोगों की अपेक्षा कुछ बड़ा समझदार और सुधरा हुआ समझते हैं तो अयोग्य को भी आदर देने की योग्यता हम में होनी ही चाहिए।
स्वार्थ वृत्ति का उन्मूलन, त्याग का परिष्कार आत्मीयता बढ़ाने की दो धाराएं हैं। ये दो स्वर्ण-सूत्र हैं जिन्हें अपनाकर खोए हुए संबंधों को सुधारा जा सकता है, सुधरे हुए संबंधों को प्रगाढ़ बनाया जा सकता है। पारिवारिक जीवन में यदि समता, सौमनस्य, सुव्यवस्था, सुख और शांति बनाए रखनी हो तो इन बातों का पाठ प्रत्येक सदस्य को पढ़ना-पढ़ाना ही पड़ेगा।
भावनाओं को ऊंचे उठाना कुछ कठिन बात नहीं। इससे आपको घाटा हो ऐसी बात नहीं। अपनी ओर से उदारता व्यक्त करने वाला व्यक्ति बाहर से भले ही कुछ घाटे में जान पड़े पर यदि ये तत्व उसके जीवन में ओत-प्रोत हो जाते हैं तो उसके जीवन में अभूतपूर्व आत्म–संतोष का उभार देखा जा सकता है। आध्यात्मिक ही नहीं, अनेक भौतिक लाभों से भी वह लाभान्वित होता है।
पारिवारिक संगठन के लिए आत्मीयता अनिवार्य शर्त है, उसे पूरा कर लिया जाए तो सुख और संपत्ति का इस गृहस्थ में कोई अभाव नहीं रह सकता। पर यह क्रिया बाह्य संदर्भ से आनी चाहिए। आत्मीयता हमारी भावनाओं का प्रसार है। हम अपनी धर्मपत्नी के प्रति, अपने भाई-बहिनों और बच्चों के प्रति जैसी भावनाएं रखते हैं उसी के अनुरूप आत्म-संबंध भी ढीले या प्रगाढ़ होते हैं। अच्छी भावनाओं का अच्छा प्रतिफल तुरंत देखा जा सकता है। जबकि दुर्भावनाओं से पारस्परिक संबंध और भी खराब होते हैं।
पारिवारिक संगठन गृहस्थ की उन्नति का मेरुदण्ड है। वह जितना सुदृढ़ होगा, व्यक्ति, समाज और राष्ट्र भी उतना ही समुन्नत होगा। मनुष्य जीवन की सुख-सुविधाएं भी उसी में सन्निहित है। हमारे पास धन और साधन प्रचुर मात्रा में न हों तो कुछ हर्ज नहीं। बहुत अच्छा मकान, बहुत ऊंची शिक्षा न हो तो भी काम चल सकता है, पर पारिवारिक सौजन्य के बिना हम एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। सुखी गृहस्थ के लिए भाई-भाई में अटूट प्रेम, पिता-पुत्र में गहन आत्मीयता, पति-पत्नी के बीच पूर्ण एकता और विश्वास होना आवश्यक है। इसे उपलब्ध कर सकें तो स्वर्ग इसी धरती में है, इसे ढूंढ़ने के लिए कहीं अन्यत्र जाने की आवश्यकता न होगी।
हम अपने स्वर्ग अथवा नरक का निर्माण इसी धरती पर, स्वयं ही करते हैं यह तथ्य भली भांति समझ लेना चाहिए। तभी गृहस्थ-जीवन में स्वर्ग के अवतरण की जिम्मेदारी को समझा और उसके अनुसार आचरण किया जा सकेगा।