Books - गुरुवर की धरोहर (द्वितीय भाग)
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Language: HINDI
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नवरात्र साधना का तत्वदर्शन
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गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ बोलिए ।
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि
धियो यो नः प्रचोदयात् ।
मित्रो! नवरात्र अब समाप्त होने जा रही है। आइए जरा विचार करें, इन दिनों हमने क्या किया व किसलिए किया? इन दो प्रश्नों के उत्तर ठीक तरह से सोच लेंगे तो यह संभावना भी साकार होती चली जाएगी कि इससे हमें क्या मिलना चाहिए व क्या फायदा होना चाहिए? आपकी सारी गतिविधियों पर हमने दृष्टि डाली वह उसमें से यह निष्कर्ष निकालते हैं कि आपको अपने स्वाभाविक ढर्रे में हेर-फेर करना पड़ा है। स्वाभाविक ढर्रा यह था कि आप बहुत देर तक सोए रहते थे। दिन में जब नींद आ गई सो गए, रात्रि देर तक लगते रहे। अब? अब हमने आपको दबोच दिया है कि सवेरे साढ़े तीन बजे उठना चाहिए। उठना ही पड़ेगा। नहाने का मन नहीं है। नहाना ही पड़ेगा। ये क्या किया? यह हमने आपको दबोच दिया व पुराने ढर्रे में आमूलचूल हेर-फेर कर दिया है।
आप क्या खाते थे-हमें क्या मालूम? आप नीबू का आचार भी खाते थे, पापड़ भी खाते थे, चटनी भी खाते थे, जाने क्या-क्या खाते थे। हमने आपको दबोच दिया, कहा—यह नहीं चल सकता। यह खाना पड़ेगा व अपने पर अंकुश लगाना पड़ेगा। टाइम का आपका कोई ठिकाना नहीं था। जब चाहा तब बैठ गए। मन आया तो पूजा कर ली नहीं आया तो नहीं ही करी। अब आपको व्रत व संकल्प के बंधनों में बांधकर हमने दबोच दिया कि सत्ताईस माला तो नियमित रूप से करनी ही होंगी। ढाई घंटे तो बैठना ही पड़ेगा। संकल्प लेने के बाद उसे पूरा नहीं करेंगे तो गायत्री माता नाराज होंगी, आपको पाप लगेगा, आप नरक में जाएंगे, अनुष्ठान खंडित हो जाएगा, यह डर आपको दिखाकर आपको दबोच दिया गया। पूर्व की गतिविधियों में हेर-फेर करके आपको इस बात के लिए मजबूर किया गया कि जो आदतें अपने स्वभाव में नहीं हैं, उनका पालन भी करना आना चाहिए।
क्या नौ दिन मात्र काफी नहीं हैं? नहीं, नौ दिन काफी नहीं हैं। यह अभ्यास है सारे जीवन को कैसे जिया जाना चाहिए, उसका। आप इस शिविर में आकर और कुछ सीख पाए कि नहीं पर एक बात अवश्य नोट करके जाना। क्या? वह है अध्यात्म की परिभाषा अर्थात् ‘साइंस ऑफ सोल’, अपने आपको सुधारने की विधा, अपने आपको संभालने की विधा, अपने आपको समुन्नत करने की विधा। आपने तो यह समझा है कि अध्यात्म अर्थात् देवता को जाल में फंसाने की विधा, देवता की जेब काटने की विधा। आपने यही समझ रखा है न। मैं आपको यकीन दिलाता हूं कि आप जो सोचते हैं बिल्कुल गलत है। जब तक बेवकूफी से भरी बेकार बातें आप अपने दिमाग में जड़ जमाए बैठे रहेंगे, तब तक आप भटकते ही रहेंगे, झख ही मारते रहेंगे। खाली हाथ मारे-मारे फिरेंगे। आप देवता को समझते क्या हैं? देवता को कबूतर समझ रखा है जो दाना फैला दिया और चुपके-चुपके कबूतर आने लगे। बहेलिया रास्ते में छिपकर बैठ गया, झटका दिया और कबूतर रूपी देवता फंस गया। दाना फेंककर, चावल फेंककर, नैवेद्य फेंककर, धूपबत्ती फेंककर बहेलिए के तरीके से फंसाना चाहते हैं, उसका कचूमर निकालना चाहते हैं? इसी का नाम भजन है? तपश्चर्या, साधना क्या इसी को कहते हैं? योगाभ्यास का सिद्धांत यही है? मैं आपसे ही पूछता हूं, जरा बताइए तो सही।
आप देवियों को क्या समझते हैं? हम तो मछली समझते हैं। आटे की गोली बनाकर फेंकी व बगुले की तरह झट उसे निगल लिया। धन हैं आप। आपके बराबर दयालु कोई नहीं हो सकता। मछली को पकड़ा तो कहा कि बहनजी आइए जरा। आपको सिंहासन पर बैठाएंगे, आपकी आरती उतारेंगे और आपका जुलूस निकालेंगे। ऐसी-ऐसी बातें करते हैं और जीवन भर इसी प्रवंचना में उलझे रहते हैं। देवियां कौन हैं? मछलियां। देवता कौन हैं? कबूतर। आप कौन हैं? बहेलिया। यही धंधा है। चुप। बहेलिए का मछली मार धंधा करता है कहता है हम भजन करते हैं, हम देवी के भक्त हैं। हम आस्तिक हैं। चुप, खबरदार। कभी मत कहना ऐसी बात। इसी को भजन कहते हैं तो हम यह कहेंगे कि यह भजन नहीं हो सकता आप ध्यान रखिएगा। आप अपने ख्यालातों को सही कीजिए, अपने विचारों को सही कीजिए, अपने सोचने के तरीके को बदलिए यह हम आपको कहते हैं।
मित्रो! मैं आपसे कह रहा था कि आप एक सिद्धांत यहां से नोट करके ले जाना कि अध्यात्म का अर्थ होता है—अपने आपको सही करना—साइंस ऑफ सोल। यह आत्मा को चेताने का विज्ञान है। चमत्कारों, मैजिक व सिद्धियों का विज्ञान नहीं है। सीधा-सादा सा अर्थ है—अपने आपे को कैसे सही रखा जाए, यह प्रशिक्षण देने की विधा। जब आप अपने आपको सही कर लेते हैं तो यकीन रखिए कि आपकी सभी समस्याओं का हल स्वतः हो जाता है। फिर एक भी समस्या ऐसी नहीं है जो ठीक न हो सके। आपकी सेहत खराब रहती है न। चलिए अध्यात्म का मर्म समझिए व देखिए आप स्वस्थ होते हैं कि नहीं। बीमारियों से हमने एक बार पूछा—क्यों बहनजी! आप मारी-मारी फिरती हैं, चाहे जिस पर हमला कर देती हैं, चाहे जिसको बीमार कर देती हैं। ये क्या बात है? बीमारियों ने कहा—जो हमें बुलाता है, हम उसके पास जाते हैं। मनुष्य अपने असंयम द्वारा हमें हमेशा आवाज देता रहता है, बुलाता रहता है तो हम उसी के साथ बनी रहती हैं। आपने देखा, सुना? बीमारी कभी कबूतर के पास नहीं जाती, बंदर के पास नहीं जाती सिर्फ आपके पास आती है। क्यों? क्योंकि आप बुलाते हैं। आप दैवी प्रकोपों को बुलाएंगे तो वे आएंगे व आप सौभाग्यों को बुलाएंगे तो वे आएंगे। आप कहेंगे नहीं, हम बीमारियों को नहीं बुलाते, दैवी प्रकोपों-दुर्योगों को नहीं बुलाते तो ऐसा ही होगा। पर काम तो वही करते हैं जिससे बीमारी को आना चाहिए व आपके पास सतत बैठे रहना चाहिए। आप अपनी जीभ पर लगाम लगाइए, इंद्रियों पर नियंत्रण कीजिए, टाइम टेबल को ठीक कीजिए, तब देखिए कि क्या होता है, आपको कौन बीमार करता है?
गांधी जी तीस साल की उम्र के थे। आंतें सूख गई थीं। रोज एनीमा से दस्त कराते थे। उनने लिखा है कि जब वे दक्षिण अफ्रीका में थे तो सोचते थे कि यही कोई पांच बरस और जिएंगे। एनीमा सेट कोई उठा ले गया व जंगल में फंस गए तो बेमौत मारे जाएंगे। जिंदगी का अब कोई ठिकाना नहीं है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। गांधी जी ने अपने आपको ठीक कर लिया, सुधार लिया। अपना आहार ठीक कर लिया तो आंतें भी उसी क्रम से ठीक होती चली गईं। 80 वर्ष की उम्र में वे मरे। मरने से पहले वे कहते थे अभी हम 120 साल तक जिएंगे। मेरा ख्याल है कि वे जरूर जिए होते यदि गोली का शिकार नहीं होते। जब गांधी जी की आंते उन्हें क्षमा कर सकती हैं शरीर उन पर दया कर सकता है तो आपके साथ यह क्यों नहीं हो सकता? शर्त एक ही है कि आप अपनी जीभ को छुट्टल सांड़ की तरीके से न छोड़कर उस पर काबू करना सीखें। जीभ ऐसी, जिसने आपकी सेहत को खा लिया, आपके खून को खा लिया, मांस को खा लिया। कौन जिम्मेदार हैं-जीवाणु, वातावरण। नहीं, आप स्वयं व आपकी यह जीभ। यदि आप इसे काबू में कर सकें तो मैं बीमारियों की ओर से मुख्तारनामा लिखने को तैयार हूं कि आपको कभी बीमारी नहीं होने वाली।
ऐसे कई नमूने मेरे सामने हैं, जिसमें लोगों ने नेचर के कायदों का पालन करके अपनी बीमारी को दूर भगा दिया। चंदगीराम भरी जवानी में तपेदिक के मरीज हो गए थे। कटोरा भर खून रोज कफ के साथ निकलता था। हर डाक्टर ने कह दिया था कि उसके बचने की कोई उम्मीद नहीं है। एक सज्जन आए व बोले, आप अगर मौत को पसंद करते हों तो उस राह चलिए व यदि जिंदगी पसंद हो तो मेरे बताए मार्ग पर चलिए। जिंदगी का रास्ता क्या? अपने ऊपर संयम, जीभ पर संयम। आहार का संयम, विहार का संयम। शरीर से श्रम कीजिए व वर्जिश कीजिए। प्राणों का सागर चारों तरफ भरा पड़ा है, खींचिए। सादा भोजन कीजिए व सीमा में करिए। फिर देखिए, क्या होता है? देखते-देखते टी.बी. का रोगी वह व्यक्ति पहलवान चंदगीराम बन गया।
आप में से हर व्यक्ति पहलवान बन सकता है, अपनी कमजोरियां ठीक कर सकता है, अपनी सेहत ठीक कर सकता है, अपनी परिस्थितियां अपने अनुकूल बना सकता है, तनाव भरी इस दुनिया में भी प्रसन्नतापूर्वक रह सकता है। पर क्या करें मित्रो! आप दूसरों को, उसकी कमियों को खूब देखते हैं पर अपनी कमियों-गलतियों, असंयमों को कम देखते हैं। अपने आप पर नियंत्रण बिठाने का आपका कोई मन नहीं है। इसीलिए मैं आपको कभी अध्यात्मवादी नहीं कह सकता। मात्र दीन-दुर्बल आदतों का गुलाम भर कर सकता हूं।
मित्रो! मैं आपको इस नवरात्र अनुष्ठान के बारे में बताते हुए मूलभूत सिद्धांतों की समीक्षा कर रहा था। यहां हमने आपको दबोचा है, क्यों? क्योंकि आप अपने सोचने के तरीके से लेकर रहन-सहन, आहार-विहार के तरीकों को जब तक इस गलत प्रकार से अख़्तियार किए रहेंगे, सुधार और हेर-फेर नहीं करेंगे तब तक आपकी एक भी समस्या हल नहीं होने वाली। नहीं गुरुजी! आप तो वरदान-आशीर्वाद देते हैं। सिद्ध पुरुष हैं। हां। हम वरदान भी देते हैं व आशीर्वाद भी। लोगों को चमत्कार भी दिखा देते हैं, यह बात भी सही है। पर हम देते उन्हीं को हैं जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं, पहले अपने आपको ठीक करने के लिए एक कदम आगे बढ़ाते हैं। चमत्कार तो सिरदर्द के लिए एस्पीरिन की दवा की तरह है। आप ठीक हो जाते हैं? नहीं, आप तब तक ठीक नहीं हो सकते, जब तक पेट ठीक नहीं करेंगे। टाइमली रिलीफ हम देते हैं पर ताकत तो ठीक होने की अंदर से उभारनी पड़ेगी। खून हम बाहर का आपको इसलिए लगाते हैं ताकि आपका अपना सिस्टम काम करना आरंभ कर दे। वरदान-चमत्कार किसी को परावलंबी बनाने के लिए नहीं, उसे सहारा देने के लिए ताकि वह अपने पैरों पर खड़ा हो सके।
नवरात्र अनुष्ठान में यही अध्यात्म के मूलभूत सिद्धांत मैंने आपको समझाने का प्रयास किया कि आप अपने पैरों पर खड़ा होना सीखिए। अपने चिंतन और व्यवहार को सही ढंग से रखना सीखिए। आपकी अब तक की जिंदगी वहमों में बीत गई। अब उनसे मुक्ति पाना सीखिए। अपने आपको दबोचना सीखिए यह नवरात्र अनुष्ठान का तपश्चर्या वाला हिस्सा है, जिससे हमने आपको अपने आप पर नियंत्रण करना सिखाया। यह बताया कि कम खाने से शरीर का कोई नुकसान नहीं बल्कि लाभ ही होता है। इसलिए आपको आदतें बदलकर उपवास करना सिखाया, अस्वाद व्रत समझाया। आध्यात्मिक प्रगति के रास्ते का यह पहला कदम है।
आहार संयम के बाद हमने आपको कहा था कि आपको विचारों पर संयम रखना आना चाहिए। आपको ब्रह्मचर्य से रहना चाहिए। गायत्री माता का फोटो आपने रखा था अपने सामने व उसी की आरती रोज करते रहे। क्यों? कभी सोचा आपने! मूर्ति क्यों रखी है, सोचा आपने? बताइए इस चित्र व मूर्ति को देखकर कि इसकी उम्र कितनी होनी चाहिए? आपने देखा कि वह बीस साल की जवान युवती जैसी है। अस्सी साल की बुढ़िया तो नहीं है? नहीं गुरुजी, वह तो उठती उम्र की जवान षोडशी दीखती हैं। आपका ख्याल ठीक है। यह हमने जान-बूझकर बनाई है। गायत्री माता की असली उम्र तो न जाने कितनी है? जब हम अपने गुरुजी की उम्र सात सौ साल बताते हैं तो सोच सकते हैं कि गायत्री माता की उम्र क्या व कितनी होगी। उस उम्र की आप कल्पना भी नहीं कर सकते। सृष्टि जितनी पुरानी है, उससे भी कहीं अधिक आयु की यह गायत्री माता है। फिर 16 साल की यह सुंदर नयन नक्शों वाली युवती क्यों बनाई! अरे! हमने आपको विचार करना सिखाया कि युवा नारी के बारे में आपको पवित्र दृष्टि रखते हुए यौन शुचिता का अभ्यास करना चाहिए। आप बेहूदे हैं। नारी को बाहर के तरीके से देखते हैं। नारी में आपको माता, बहन, बेटी नहीं दिखाई पड़ती। आपको तो सब वेश्या ही वेश्या दिखाई पड़ती हैं। हम आपकी दृष्टि बदलना चाहते हैं। कामुकता प्रधान चिंतन से आपको निकालकर एक नई दृष्टि देना चाहते हैं। यही मानसिक ब्रह्मचर्य है। आपको इसका, मर्यादा का पालन करना चाहिए, यह हमने आपको सिखाया।
आप कहेंगे गुरुजी हम तो ब्रह्मचारी हैं। एक बार जेल चले गए थे, मारपीट हो गई थी तो हम ढाई वर्ष पत्नी से दूर जेल में रहे। हां साहब आप तो पक्के ब्रह्मचारी हो गए। अखंड ब्रह्मचर्य से भारी तेजस्वी आंखों में आशीर्वाद-वरदान की क्षमता आ में आ गई। पागल हैं न आप। ढेरों आदमी बीमार होते हैं, नपुंसक हो जाते हैं, सब ब्रह्मचारी होते हैं। काहे का ब्रह्मचारी। मित्रो! ब्रह्मचर्य चिंतन की शैली है। आपके विचारों का प्रतीक है, जो आपके जीवन में एक अंग बन गए हैं। जो संस्कार आपके जन्म-जन्मांतरों से चले आ रहे हैं, उनका एक रूप आपकी कुदृष्टि व विचारों की झलकी के रूप में देखने को मिलता है। किसी जमाने में आप 84 लाख योनियों में एक कुत्ते भी थे क्या? हां गुरुजी जरूर रहे होंगे। बढ़ते-बढ़ते तभी तो अब आदमी बने हैं। जब कुत्ते रहे होंगे तब आपके सामने मां-बहन का कोई रिश्ता था? नहीं साहब हमारी मां एक बार हमारे सामने आ गई। कुआर का महीना था। मां और औरत में हम फर्क नहीं कर सके व उससे हमने बच्चे पैदा कर दिए। उस योनि में हमें न बेटी का ख्याल था, न बहन का, न मां का। बिरादरी तो बिरादरी है। उसमें भला क्या फर्क करना। आप अभी करते हैं क्योंकि आप आदमी हैं। समाज की मर्यादाओं का एक नकाब आपके ऊपर पड़ा हुआ है। यदि यह नकाब ऊपर उठा दिया जाए, आपको नंगा करके देखा जाए तो वस्तुतः आप अभी भी उस बिरादरी में हैं, जिसका में जिक्र कर रहा था। बार बार नाम लूंगा तो आपको बुरा लगेगा। लेकिन हैं कि नहीं, छाती पर हाथ रखकर देखिए।
मित्रो! हम ये कह रहे थे कि आप गलत सोचने का तरीका अपना बदल लें। रहन-सहन के तरीके बदल लें। जो साधन सामग्री आप के पास है, रुपया-पैसा, चांदी, जमीन है, अक्ल है, इनका सदुपयोग करना आप सीख लें। आपके कमाने का क्या तरीका है? मुझे नहीं मालूम। पर आप एक बात का जवाब दीजिए कि आप इन्हें खर्च कैसे करते हैं? किस आदमी ने कैसे कमाया यह हिसाब मैं नहीं करता। मैं तो अध्यात्म की दृष्टि से विचार करता हूं कि किस आदमी ने कैसे खर्च किया? जो कमाया वह खर्च कहां हुआ? मुझे खर्च का ब्यौरा दीजिए। बस! अगर आप खर्च अपव्यय में करते हैं गलत कामों में करते हैं, फिजूलखर्ची करते हैं तो मैं आध्यात्मिक दृष्टि से आपको बेईमान कहूंगा। आप कहेंगे, हमारी कमाई है। हां आपकी ही कमाई है, पर आप खर्च करते हैं। यह बताइए आपका धन, आपकी अक्ल, आपके साधन, श्रम किन कामों में खर्च होते हैं, इनका ब्यौरा लाइए, उसकी फाइल पेश कीजिए हमारे सामने। आपने बेटे को खैरात में बांट दिया, ऐय्याशी में उड़ा दिया, जेवर बनवाने में खर्च कर दिया तो हम आपको अध्यात्मवादी कैसे कहें? खर्च के बारे में भगवान का बड़ा सख्त नियंत्रण है।
आदमी को हम अध्यात्म का अंकुश लगाते हुए ईश्वरचंद्र विद्यासागर जैसा आदमी जीने को कहते हैं। आपको 500 रुपये तनख्वाह मिलती है। लेकिन आप उसे औसत नागरिक के नाते खर्च कीजिए। विद्यासागर की तरह 50 रुपयों में अपनी गृहस्थी का गुजारा करें व 450 रुपयों में अन्यों के लिए, समाज के लिए, दुःखी-अभावग्रस्तों के लिए सुरक्षित करिए। उनके साढ़े चार सौ रुपयों से हजारों विद्यार्थी निहाल हो गए। जो फीस नहीं दे सकते थे, जो कापी नहीं खरीद सकते थे, जिनके पास मिट्टी का तेल नहीं था उनके लिए सारी व्यवस्था विद्यासागर ने अपने यहां कर रखी थी। इसे क्या कहते हैं—यह अध्यात्म है। अध्यात्मवादी आप कब होंगे, मैं यह नहीं जानता किंतु जिस दिन अध्यात्मवादी बनने का सिलसिला शुरू हो जाएगा, तब फिर मैं आपको भगवान की शपथ देकर, अपने अनुभव की साक्षी देकर विश्वास दिलाऊंगा कि अध्यात्म के बराबर नगद फल देने वाली चमत्कारी विद्या कोई नहीं हो सकती। लाटरी लगाने, जेब काटने से भी ज्यादा फायदेमंद दूरदर्शिता भरा रास्ता है अध्यात्म का। यह आप समझ गए तो आपका मानसिक कायाकल्प, आध्यात्मिक भावकल्प हो जाएगा व नवरात्र साधना सफल मानी जाएगी।
इस बीच हमने आप से नित्य अग्निहोत्र करने को कहा, जप का एक अंश अग्निहोत्र कीजिए। आप अग्निहोत्र को एक कर्मकांड मान बैठे हैं। अग्निहोत्र यज्ञ विज्ञान का नाम है। यह एक परंपरा ही नहीं, इसका साइंटिफिक बेस भी है। यज्ञ कहते हैं कुर्बानी को, सेवा को। भूदान यज्ञ, नेत्रदान यज्ञ, सफाई यज्ञ, ज्ञान यज्ञ हजारों तरह के यज्ञ हैं। इन सबका एक ही अर्थ होता है लोक हितार्थाय आहुति देना। यज्ञ कीजिए, पूर्णाहुति दीजिए, पर जन कल्याण का ध्यान रखिए। संस्कृति की रक्षा के लिए, देश और मानवी आदर्शों को जीवंत रखने के लिए अपने पसीने को आहुति दीजिए अपनी ज्ञान की आहुति दीजिए, उस चीज की भी आहुति दीजिए जिसे आपने दाबकर रखा है अपने बेटे के लिए। मित्रो! अगर आप ऐय्याशी, फिजूलखर्ची, विलासिता की कुर्बानी देने की हिम्मत दिखा सकें तो यज्ञ सफल है। तब आप असली अध्यात्मवादी होंगे। जिस दिन आप ऐसे बन जाएंगे, तब आप देखेंगे असली चमत्कार। उस दिन आप देखेंगे असली भगवान। तब आपको सुदामा के तरीके से आप के चरणों को धोता हुआ, शबरी के तरीके से आपके दरवाजे पर झूठे बेर खाता हुआ और राजा बलि के तरीके से आपके दरवाजे पर साढ़े तीन गज जमीन मांगता हुआ, गोपियों के दरवाजे पर छाछ मांगता हुआ आपको भगवान दिखाई पड़ेगा।
आइए! भगवान ने आपको बुलाया है। जेब खाली कीजिए। बीज के तरीके से गलिए और दरख्त की तरह फलिए। मैंने यही जीवन भर सीखा व आपको भी सिखाना चाहता हूं। आपको यदि यह समझ में आ गया तो मैं पूरे मन से आशीर्वाद देता हूं कि जो भी नवरात्र अनुष्ठान के, गायत्री साधना के चमत्कार आपने सुने हैं वह आपके जीवन में फलित हो जाएं। आप जिस मकसद से आए थे, वह पूरा हो व आप जब भी अनुष्ठान करें समूचा लाभ उठा सकें, इसलिए आपको कुछ बातें मैंने बताईं। भगवान करे आपको यह समझ में आए व आप लाभान्वित हों। हमारी बात समाप्त। ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।
(11 अप्रैल 1981)