Books - गुरुवर की धरोहर (द्वितीय भाग)
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Language: HINDI
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महायज्ञों का स्वरूप व उद्देश्य
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(आज स्थान-स्थान पर भारत व विश्व में अश्वमेध यज्ञ हो रहे हैं। भारत वर्ष
में ज्ञानयज्ञों व अश्वमेध यज्ञों की परंपरा रही है। यह क्यों व किसलिए
होते थे, इसकी जानकारी देने वाला एक सामयिक उद्बोधन
परम पूज्य गुरुदेव द्वारा 29 सितंबर 1978 को
शांतिकुंज प्रांगण में उपस्थित शिविरार्थी
समुदाय के समक्ष दिया गया था।
वही प्रस्तुत है।)
गायत्री मंत्र साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि
धियो यो नः प्रचोदयात् ।
मनुष्य के सामने अनेक समस्याएं हैं। आइए विचार विनिमय करने के पश्चात उनका समाधान करें। प्राचीन काल से यही तरीका रहा है। तब सरकारें भी अपना काम करती थीं, पर समाज सरकारों पर आश्रित नहीं था। सरकार का अपना एक दायरा है छोटा सा, कि चोर-उचक्कों को पकड़ना चाहिए। देश की सुरक्षा के लिए अगर खतरा पैदा हो तो सामना करना चाहिए और जो टैक्स वसूल होता है, उसे प्रजा की उन्नति में खर्च करना चाहिए। बस यही दायरा है सरकार का, इससे ज्यादा नहीं। मनुष्यों के विचारों पर, भावनाओं पर सरकार का कोई असर नहीं होता। पैसे का असर होता है, पैसा आपको देना पड़ेगा, लेकिन अगर यह कहा जाए कि आप ब्रह्मचर्य से रहिए, तो कहेंगे कि नहीं। आप हमें पकड़ कर गिरफ्तार कर लीजिए, फैमिली प्लानिंग तो आप जबरदस्ती भी कर सकते हैं, पर ब्रह्मचर्य आपके कहने से नहीं हो सकता। आप कौन होते हैं कहने वाले? विचारों के ऊपर, भावनाओं के ऊपर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होता। तब इन पर किसका नियंत्रण होता है—समाज का नियंत्रण होता है, विचारशीलों का नियंत्रण होता है। विचार तैयार करना, समाज की परंपराओं को तैयार करना और उनको दिशा देना विचारशीलों का काम है।
हमारी समाज व्यवस्था ऐसी है कि उसमें बार-बार विकृतियां खड़ी हो जाती हैं और बार-बार उनका समाधान ढूंढ़ने की आवश्यकता पड़ती है। इसलिए बार-बार हम विचारशील लोगों को एकत्र होना पड़ता है। प्राचीन काल में विचारशीलों के एकत्रित होने की पद्धति, विचार विनिमय की पद्धति, समस्याओं के समाधान करने की पद्धति का नाम था-यज्ञ। दो तरह के यज्ञ होते थे। प्राचीन काल के यज्ञों का जब हम इतिहास देखते हैं तो दो तरह के बड़े यज्ञों का वर्णन मिलता है। एक इतिहास मिलता है राजसूय यज्ञों का। राजसूय यज्ञ कैसे होते थे? जैसा युधिष्ठिर ने किया था। अश्वमेध कैसे होते थे? जैसा कि रामचंद्र जी के जमाने में हुआ था। अश्वमेध का घोड़ा छोड़ करके उन्होंने उसके द्वारा विचारशीलों को निमंत्रण भेजा था और यह कहा था कि आप लोग एक स्थान पर एकत्र हों-संघबद्ध हों। एक दूसरे का कहना मानें, मिल-जुल कर चलें। राजसूय यज्ञ इसी प्रकार राजनीतिक दिग्विजय के लिए होते थे। इस तरह के बड़े-बड़े यज्ञ होते थे, जहां सब लोग जमा होते थे और राजनीतिक समस्याओं के ऊपर, सांस्कृतिक समस्याओं के ऊपर, आर्थिक समस्याओं के ऊपर, सुरक्षात्मक समस्याओं के ऊपर विचार विनिमय होते थे और जो फैसले होते थे, वे सर्वमान्य होते थे। इनमें सामूहिक हवन भी होता था। तब प्रत्येक आदमी के दैनिक जीवन के क्रिया-कृत्य में भी हवन होता था, पर सामूहिक यज्ञों में ऐसा नहीं होता था कि दस-ग्यारह हजार आदमी आ गए और कहने लगें कि लाइए 10-11 हजार हवन कुंड खोदिए। 10 हजार चौके चलाइए। 10 हजार चिमटे और तवे लाइए। जब एक स्थल पर खाना पक सकता है, मिल-जुल कर सामूहिक दावत खाई जा सकती है तो एक ही स्थल पर हवन क्यों नहीं हो सकता? सामूहिक हवन कैसे हो सकता है? ऐसे ही जैसे हम आप एक सौ कुंडीय यज्ञों के बड़े आयोजनों में करते हैं। लोग पारी-पारी से आते-जाते हैं। उनसे यही कहा जाता है कि अपनी पारी से आते जाइए, परिक्रमा एक साथ लगाते जाइए ओर जयकारा एक साथ बोलते जाइए, सामूहिकता का मजा भी आएगा और सुविधा व्यवस्था भी रहेगी। राजसूय यज्ञ, अश्वमेध यज्ञ सामूहिक होते थे जिनमें हवन मुख्य होता है।
उस जमाने में हवन किए बिना कोई रोटी भी नहीं खाता था। अग्निहोत्र हमारा स्वाभाविक दैनिक कृत्य है। जिस प्रकार स्नान, भजन, भोजन दैनिक कृत्य है, उसी प्रकार गायत्री उपासना और यज्ञ हमारा आध्यात्मिक नित्य कर्म है और होना ही चाहिए। बड़े यज्ञ कभी-कभी होते थे। उनमें बड़ी समस्याओं का समाधान करने के लिए, राजनीतिक समस्याओं का समाधान करने के लिए बड़ी जन-गोष्ठियां होती थीं। इनमें राजनीतिज्ञ, समाज विज्ञानी तथा समाज पर अधिकार-प्रभाव रखने वाले श्रेष्ठजन जमा होते थे और सामाजिक समस्याओं, आर्थिक समस्याओं एवं अन्यान्य समस्याओं का मिल-जुल कर समाधान खोजते थे। इसमें सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं होता था, वरन उसे कहा जाता था कि आपको ऐसा मानना चाहिए और कानून बनाना चाहिए। इसीलिए प्राचीन काल में राजनीतिक क्षेत्र के लोग राष्ट्रीय समागम के नाम पर जगह-जगह जमा होते थे और स्थानीय समस्याओं तथा सामाजिक समस्याओं के समाधान किए जाते थे। बीच-बीच में कभी-कभी राजनीतिक असेंबलियों की, धार्मिक असेंबलियों की अलग-अलग मीटिंग होती थी। इसका एक और पक्ष था जिसका नाम था-वाजपेय यज्ञ। वाजपेय यज्ञों में मोक्ष की भावनात्मक और चिंतन-परक, नैतिक, आध्यात्मिक जो भी समस्याएं होती थीं, उनका समाधान करने के लिए वे लोग एकत्र होते थे जिन्हें हम धार्मिक कह सकते हैं। उनके भी आयोजन होते थे। उन आयोजनों का ही नाम था वाजपेय यज्ञ।
प्राचीन काल के इतिहास में इन दो प्रकार के विशिष्ट यज्ञों की परंपरा दिखाई पड़ती है-वाजपेय यज्ञ और राजसूय यज्ञ की परंपरा। वाजपेय यज्ञों का अपने आप में महत्वपूर्ण योगदान रहा है क्योंकि मनुष्य को वास्तव में सामाजिक समस्याएं मालूम पड़ती ही नहीं हैं। कारण हर समस्या आदमी की मानसिक और भावनात्मक समस्या है। मानसिक और भावनात्मक क्षेत्र में विकृतियां आ जाने की वजह से सामाजिक क्षेत्र में, राजनीतिक क्षेत्र में, आर्थिक क्षेत्र में, पारिवारिक क्षेत्र में, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में विकृतियां पैदा होती हैं। इसकी जड़ें मनुष्य के भीतर होती हैं इसलिए वे व्यक्ति जो आदमी के चिंतन से संबद्ध होते थे, आध्यात्मिक समस्याओं से संबद्ध होते थे, एक स्थान पर जमा होते थे और विचार विनिमय करने के लिए जमा होते थे। उसका ही नाम था-वाजपेय यज्ञ। वाजपेय यज्ञों की असेंबलियां स्थायी होती थीं। कुंभ के मेले भी उसी में शुमार थे। कुंभ के मेले में धार्मिक लोग आते थे। वे एक स्थान पर बैठने न पाएं, परिभ्रमण करते रहें, उसके लिए नियम और मर्यादाएं निर्धारित थीं। असेंबलियां कुंभ मेलों के नाम पर घूमती-फिरती रहती थीं। ढाई-तीन वर्ष बाद नासिक जाइए, उज्जैन जाइए, हरिद्वार जाइए, इलाहाबाद जाइए। यह हिंदुस्तान का मुख्य भाग है—हिंदी भाषी प्रांत। इसमें विचारशील लोग इसी तरह से घूमते रहते थे। यह क्या थे? वाजपेय यज्ञ थे। इसमें विचारशील लोग एकत्रित होते थे। इनमें हवन भी होते थे, सत्संग-कथाएं भी होती थीं, पर मुख्यतः इनमें विचार विनिमय होता था-सामाजिक समस्याओं के ऊपर।
आप लोग जो इस महापुरश्चरण में, वाजपेय यज्ञ में सम्मिलित हुए हैं, उसके सामाजिक रूप को मैं बताना चाहता हूं। आध्यात्मिक स्वरूप की ओर मैं कल इशारा कर चुका हूं। अब मैं इस ओर इशारा करने वाला हूं कि आज के समय की कितनी ज्यादा समस्याएं हैं। आर्थिक समस्या, दहेज की समस्या, शराब-खोरी की, नशेबाजी की समस्या, चोरी और अपराधों की समस्या, भाषायी समस्या, अन्यान्य समस्याएं, वैयक्तिक और सामाजिक समस्याएं जैसी कितनी ही समस्याएं आज देश के सामने हैं। उनकी जड़ एक ही है—मनुष्य के अंतरंग की गंदगी। नाली में जब कीचड़ सड़नी शुरू होती तो चारों ओर गंदगी फैल जाती है। यही स्थिति आज मानवी मस्तिष्क में छाई हुई विकृतियों की है। हमारी बात, हमारे समाधान प्रज्ञा की निशानियां हैं जो समय से पहले की चीज मालूम पड़ती हैं, पर हैं वस्तुतः अपने समय की। युग ऋषि हमेशा अवतरित होते रहे हैं और सामयिक समस्याओं के समाधान प्रस्तुत करते रहे हैं। प्राचीन काल के समाधान आज की स्थिति में लागू नहीं हो सकते। आज की परिस्थिति में काम के नहीं हो सकते। हर समय की, हर युग की परिस्थितियों के अनुरूप कानून तो बनाए नहीं जा सकते। लेकिन इतना अवश्य है कि आप सारी स्मृतियां, सारे धर्मग्रंथ ढूंढ़ डालिए, उनमें न दहेज के खिलाफ लिखा गया और न समर्थन में लिखा गया। इस संदर्भ में कोई श्लोक नहीं मिलेगा। कारण प्राचीन काल में जब दहेज प्रथा थी ही नहीं तो उसका विरोध और खंडन कैसे होता? इसलिए उनमें लिखा ही नहीं। यह तो आज की आधुनिक काल की समस्याएं हैं जिनका समाधान करने के लिए हम कहते रहते हैं।
वाजपेय यज्ञ की, प्राचीन महापुरश्चरणों की प्रक्रिया के सामाजिक पहलू को अभी मैं आपको बता रहा था। अब मैं उसके नैतिक पहलू को बताता हूं। नैतिक पहलू वह है, जिसमें आदमी के भीतर ईमानदारी रहनी चाहिए। क्योंकि जिस हवा में हम सांस लेते हैं वह सामूहिक संपदा है। इसमें हम श्वास लेते हैं और नौ सुराखों में से गंदगी बाहर फेंकते हैं जो सामूहिक संपदा को गंदा करती है। इसलिए सामूहिक संपदा को जो हमने खराब किया है उसे हमें ही सही करना होगा। यह हमारी नैतिक जिम्मेदारी है, कर्तव्य है कि जिस सामूहिक वायुमंडल को हमने गंदा किया है, उस वातावरण का संशोधन करने के लिए, परिष्कार करने के लिए हम आगे आएं। यह सामाजिक न्याय है, मर्यादा है कि जो हमने समाज से लिया है, उसे वापस दें। इस वृत्ति का विकास करने के लिए हमको यज्ञीय परंपराओं पर विचार करना चाहिए। यज्ञ परंपरा को यदि हम जिंदा करना चाहते हैं तो उसके लिए प्रशिक्षण होना भी जरूरी है। एक प्रशिक्षण हम यह देना चाहते हैं कि हर आदमी को रोटी खाते समय यह विचार करना चाहिए कि हमने कमाया जरूर है, पर इसमें हक दूसरों का भी है, अकेले का ही नहीं है। आपने कमाया है, पर आप खा नहीं सकते। साढ़े छह सौ रुपये आपको मिलते हैं, बेशक, पर आप उसे खाइए मत, क्योंकि इसमें दूसरे लोगों का भी हिस्सा है। कौन-कौन का हिस्सा है? आपके हिसाब से आपकी बीवी का हिस्सा है, आपके बच्चों का हिस्सा है, आपकी मां का हिस्सा है, भाई का हिस्सा है, बहन का हिस्सा है, सारे कुटुंब के लोगों का हिस्सा है। आप बांटकर खाइए। नहीं साहब! हम तो अपने हाथ से कमाते हैं और खा सकते हैं। आप खा तो सकते हैं, पर यह अनैतिक है, इम्मोरल है। इसलिए हमें बांटकर खाना चाहिए। आप लोगों का यही ख्याल है कि जब हमने कमाया है तो हमें ही खाना चाहिए और अधिक से अधिक अपने कुटुंबियों को खिलना चाहिए।
अब हमको क्या करना चाहिए? बेटे, हम इंसान हैं और इंसानी विचारधारा को कायम रखने के लिए हर आदमी को यह बताना चाहिए कि आपके भोजन में कई हिस्सेदार हैं, हकदार हैं। उन हकदारों में आपका बच्चा भी शामिल है और पड़ोसी भी, आगंतुक भी। आपने बच्चे को भूखा रखा है और वह दुबला हो गया है तो यह गुनाह है। आप बच्चे को दूध नहीं देंगे तो उसमें इतनी ताकत कहां से आएगी कि वह आपकी जेब में से पैसे छीन सके। इस तरीके से आदमी के ऊपर अनेक जिम्मेदारियां हैं—नैतिक जिम्मेदारियां हैं, सामाजिक जिम्मेदारियां हैं। आपने उस कथा को सुना होगा जिसमें नेवला सुनहरा हो गया था। इसे हमने कई बार सुनाया है। कृष्ण भगवान ने एक बड़ा यज्ञ कराया था। उसी यज्ञ में नेवला गया था। नेवले ने क्या कहा था? एक ब्राह्मण भूखा था। वह इतना अनाज इकट्ठा करके लाया था कि उसमें एक-एक रोटी का इंतजाम किया जा सके। स्त्री, पुरुष, बच्चा व कन्या-चारों ने चार रोटियां बनाकर अपनी थाली में रखनी चाही, तभी उस सद्गृहस्थ ने कहा—खबरदार, कोई खाना मत। हमसे भी ज्यादा दुखियारा अगर है तो उसका हमसे भी पहला और ज्यादा हक है। इसलिए पहला हक चुकाए बिना हम नहीं खा सकते और वह ब्राह्मण छत पर खड़ा होकर चिल्लाने लगा कि हम एक सप्ताह से भूखे थे, पर यदि हमसे भी ज्यादा कोई भूखा हो तो इस रोटी पर उसका हक है। महाभारत की इस कथा के मुताबिक तभी एक चांडाल आया और उसके कहा—हमने एक महीने से कुछ खाया नहीं है। इसलिए हमारा हक ज्यादा है। कमाई आपकी है, पर हक हमारा है, इसलिए आप हमको दे दें। जैसे ही चांडाल नजदीक आया ब्राह्मण ने अपनी एक रोटी उसे दे दी, दूसरी उसकी पत्नी ने, तीसरी बच्चे ने और चौथी रोटी उसकी कन्या ने दे दी। चारों की चार रोटियां खाने के बाद चांडाल ने जिस स्थान पर कुल्ला किया था, उसी स्थान पर नेवले ने लोट लगाई थी और वह सोने का हो गया था। पूरा नहीं, आंशिक। शेष कहानी बाद की महायज्ञ की है जो कभी आगे आपको बताएंगे।
मित्रो! अभी मैं यह कह रहा था कि आप हर एक आदमी को यह समझाना कि अपने में इंसानियत पैदा कीजिए। आप हवन करते हैं ठीक है, पर पहले समस्याओं का समाधान कीजिए। अभी पंडित लोग हवन करते और कराते हैं इसलिए कि मालदार हो जाएं। बत्ती जलाते हैं, हवन करते हैं, पूजा-उपासना करते हैं, केवल देवी-देवताओं को बरगलाने के लिए। बरगलाना हम इसलिए कहते हैं क्योंकि देवी-देवताओं को अपनी ओर आकर्षित करने का सीधा तरीका है आपकी भलमनसाहत और आपकी ईमानदारी। यही वह मैग्नेट है जिसके आकर्षण की वजह से देवता खिंचते हुए चले आते हैं। यही सही तरीका है, यही प्रोसीजर है और वास्तविकता है। यह एक सचाई है कि आप इतने सच्चे, ईमानदार और सही आदमी हों कि देवी-देवता आपसे मुहब्बत करते हों और आपकी सहायता करते हुए आपके ऊपर फूल बरसाते हुए चले आते हों। यही ‘प्रोसीजर’ सही है और वह ‘प्रोसीजर’ जो आप इस्तेमाल करते हैं, गलत है। बरगलाना-बहकाने को कहते हैं। बरगलाना भी ऐसा कि जो कोई गलत काम करने के लिए तैयार न होता हो तो उसे इस तरीके से पट्टी पढ़ावें कि वह रजामंद हो जाए। जीभ की नोक से लपालपी करने और पूजा-पत्री के छोटे-मोटे टंट-घेट करने के बाद में देवी-देवताओं को जो आप बरगलाते हैं, वह बंद कीजिए। देवताओं के साथ मखौलबाजी करना शोभा नहीं देता। देवताओं की आदत के बारे में मैं जानता हूं। वे जलती हुई आग और बिजली के तरीके से हैं। यदि उनके साथ मखौलबाजी शुरू की तो वे ऐसा चांटा मारेंगे कि किस्मत ही बदल जाएगी।
बेटे, हम हवन कराते हैं, पर देवताओं को बरगलाने के लिए नहीं करते। हमारा मकसद है कि इंसान के भीतर का जो देवता सो गया है, रूठ गया है, मूर्च्छित पड़ा हुआ है, उसको हम जगा दें। इसके लिए हम अगले दिनों एक आंदोलन शुरू करना चाहते हैं—बलिवैश्व यज्ञ का। हमने बहुत दिनों पहले बताया था कि आप लोग गायत्री मंत्र की एक माला या तीन माला रोज किया कीजिए, गायत्री चालीसा का पाठ किया कीजिए, मंत्र लेखन किया कीजिए। अब वही प्रक्रिया हम जन-जन से कराना चाहते हैं कि हर आदमी को बलिवैश्व करना ही चाहिए। इसे नित्य कर्म में सम्मिलित करना ही चाहिए। लोगों को नित्य कर्म का पता ही नहीं। ये यह भी नहीं जानते कि ‘संध्या’ किसे कहते हैं। हर मुसलमान जानता है कि नमाज किसे कहते हैं, पर आपको संध्या का अर्थ ही नहीं मालूम कि यह कैसे और किस टाइम की जाती है। महादेव बाबा पर पानी चढ़ा आते हैं और यह पता नहीं कि संध्या क्या है? इसलिए बलिवैश्व न मालूम हो तो कोई अचंभे की बात नहीं। गायत्री माता के तरीके से यज्ञ पिता भी हमारे पूजा करने के लायक हैं। उसका प्रतीक बलिवैश्व है। हर दिन भोजन करने से पहले उनको पांच ग्रास-अपने चौके में जो बना है, उसमें से निकाल कर उसमें हवन करना पड़ता है। इससे क्या फायदा होता है। इससे यह फायदा होता है कि यह बात हमारे ध्यान में आती है कि रोटी खाने से पहले देवता का हक है। देवता भी आपके हिस्सेदार हैं। देना, देकर खाना देवत्व की निशानी है। इस यज्ञीय परंपरा का विस्तार होना ही चाहिए।
यज्ञीय परंपरा का विस्तार आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। सामाजिक परिस्थितियों को भी ठीक करना चाहिए, लेकिन वातावरण का संशोधन और भी अधिक आवश्यक है। वातावरण की ओर लोगों का ध्यान नहीं गया है। यह भी अपने आप में एक कीमती चीज है। यज्ञ का शारीरिक सेहत, मानसिक सेहत और आत्मिक सेहत पर प्रभावकारी असर तो होता ही है, वातावरण का संशोधन भी होता है। हमने ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की आधारशिला इसी ‘परपज’ के लिए रखी है। इसमें रिसर्च के लिए हमको बड़े-बड़े साधन और बड़ी-बड़ी वस्तुओं की जरूरत पड़ेगी। एक से एक बड़ी कीमती चीजों का हमने इंतजाम किया है। आदमी के दिमाग को परखने वाली, दिमाग का पता लगाने वाली मशीनें, दिमाग की क्या परिस्थिति है, दिमाग की हलचलों का फोटो लेने वाली मशीनें जैसे—ई.ई.जी. मशीन, हार्ट की एक-एक हरकत को जानने वाली मशीनें, हवा का प्रेशर परखने वाली मशीनें, पेड़-पौधों पर पड़ने वाले असर को मापने वाली मशीनें, वायरस और बैक्टीरिया के प्रभावों को जानने वाली मशीनें, जो कितनी महंगी हैं, ब्रह्मवर्चस में लगाई गई हैं। तो आप कैसे करेंगे? बेटे, हम कर लेंगे, हमारे गुरु का प्लान है, तू तो केवल सुन भर ले। आज की सामयिक समस्याओं में, व्यक्ति के नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक जीवन में घुसी हुई विकृतियों का निवारण मुख्य है। ऐसे-ऐसे असंख्य कारण हैं जिसकी वजह से हमने यज्ञों का आयोजन किया है और महाकाल की इच्छानुसार इसका विस्तार भी हो रहा है। आप देखते नहीं किस तेजी के साथ इसका विस्तार बढ़ता हुआ चला जा रहा है। पहले हमारे 25 कुंडीय 25 यज्ञ थे, पर अब यह मालूम पड़ता है कि इसके लिए प्रत्येक प्रांत कुश्ती लड़ रहा है कि यह यज्ञ तो हमको मिलना ही चाहिए। गुजरात के लोग कहते हैं कि हम आपके बड़े बेटे हैं, यह यज्ञ आप हमको दीजिए। इसी तरह अन्यान्य प्रांतों के लोग भी अपने-अपने यहां यज्ञ कराने के लिए संकल्पित दिखाई देते हैं।
मित्रो! यह विशिष्ट समय है। इसमें ऊंचे कर्म और ऊंचे विचार-इन दोनों को मिलाकर के लोगों को नए ढांचे में ढाला जाएगा और समाज को नए ढांचे में ढाला जाएगा। यह सतयुग की वापसी का समय और संभावनाएं हैं। ऐसे विशिष्ट समय में जबकि हमारे सामने कई तरह के प्रश्न उपस्थित हो रहे हैं, तब हमने इस समय महापुरश्चरण को प्रारंभ किया है। आप में से प्रत्येक आदमी को महापुरश्चरण में भाग लेना चाहिए और उसके उत्तरदायित्व को निभाना चाहिए। यह आपका इम्तहान है, परख है आपकी। भगवान कई बार आदमी की परख करते हैं, परखते रहते हैं और देखते हैं कि आप में शौर्य, साहस, भक्ति और आत्मज्ञान का कुछ माद्दा है या नहीं? आप किस तरह के आदमी हैं?
गुरुजी! आपके यज्ञ पूरे हो जाएंगे? हां बेटे, यज्ञ पूरे हो जाएंगे। कैसे पूरे होंगे? देख, मथुरा में हमने एक हजार कुंड का यज्ञ किया था और उसमें चार लाख आदमी आए थे और पांच दिन ठहरे थे। पांच दिन में 40 लाख आदमियों को भोजन कराया, 50 लाख रुपए खर्च हुए थे-40 लाख भोजन में और 10 लाख अन्यान्य व्यवस्थाओं में। कहां से आता था? बस यही नहीं बता सकता आपको कि कहां से आया था, लेकिन हम आपको यह बताते हैं कि यह जो आयोजन है, यह जो इतनी बड़ी व्यवस्था है-यह प्रज्ञावतार की व्यवस्था है और यह फैलती हुई चली जाएगी। आप लोग भाग्यवान हैं कि जिन लोगों ने आगे आ करके यह संकल्प अपने जिम्मे लिए हैं। जिनने अपने जिम्मे लिए हैं, वे क्या पूरे हों जाएंगे? हां पूरे हो जाएंगे। यदि आपका शौर्य, साहस और पराक्रम घटिया दर्जे का होगा, तभी यज्ञ असफल होगा और आपकी योग्यता की घोषणा करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। तब आपको अयोग्य ठहराना पड़ेगा। यज्ञ तो हमारे पूरे हो जाएंगे, कोई भी चिंता मत करना, लेकिन आपको यहां से जाना है तो अपने पुरुषार्थ और पराक्रम की तैयारियां करके जाना चाहिए। यह काम बड़ा है और श्रेय भी आपको खूब मिलेगा। आप समय पर जाग गए, यह बहुत अच्छी बात है। समय पर न जागते तो काम तो हो जाता, पर आपको जो श्रेय मिल रहा था, वह नहीं मिल सकता था। स्वतंत्रता आंदोलन में जिनको तीन-तीन महीने की सजा हो गई, उनको अब 300 रुपये पेंशन मिलती है और वे स्वतंत्रता सेनानी का ताम्रपत्र लिए फिरते हैं। यह वक्त भी ऐसा है कि अगर आप नहीं चूकते हैं तो अच्छा है। अगर आप इस समय को पहचान लें, समय की प्रधानता को देख लें, भगवान की इच्छा और भगवान की महानता को समझ लें तो ज्यादा अच्छा है। फिर आपका भी नंबर उसी तरीके से आ जाता है जैसे कि हम बार-बार गिलहरी को और जटायु गिद्ध को याद करते रहते हैं। गिद्ध और गिलहरी ने समय को पहचान लिया था। उनने अपनी जुर्रत दिखाई, हिम्मत दिखाई कि किस समय पर क्या करना चाहिए। उनमें हिम्मत थी, हौसला था, भावना थी और वे अजर-अमर हो गए। गिलहरी वाला वक्त, गिद्ध वाला वक्त, जेल जाने वाला वक्त फिर से आ गया है। आज आप चाहें तो प्रज्ञावतार का हाथ बंटा सकते हैं। आप चाहें तो युग परिवर्तन की बेला में आगे वाली पंक्ति में, चलने वाली सेना में अपना नाम लिखा सकते हैं।
तो क्या यह यज्ञ आगे फैलेगा? हां यह यज्ञ आगे बहुत फैलेगा और गायत्री मात सुनिश्चित रूप से विश्वव्यापी बनेंगी, आप देख लेना। हम तो रहेंगे नहीं और आप भी शायद न रहें, पर आपकी औलाद जरूर रहेगी। आप देखना सारे विश्व का जो यह नवीनीकरण हो रहा है उस नवीनीकरण में गायत्री की फिलॉसफी और यज्ञ की कार्य पद्धति की मुख्य भूमिका रहेगी। आदमी का व्यवहार कैसा होगा—यह प्रेरणा हमको यज्ञ से मिलेगी और मनुष्य का चिंतन कैसा होगा, व्यक्ति का, समाज का, राष्ट्र का और विश्व का चिंतन कैसा होगा? यह सारी की सारी प्रेरणाएं गायत्री के उस बीज मंत्र से मिलेंगी जो चिरपुरातन और चिरनवीन है। चिर-पुरातन और चिर-नवीन का ऐसा संयोग कदाचित ही कहीं मिलेगा। नवीनतम युग और प्राचीनतम संस्कृति दोनों का समन्वय करने के लिए हम बहुत महत्वपूर्ण प्रयत्न कर रहे हैं। आप उसमें सम्मिलित हो रहे हैं, यह अधिक खुशी की बात है।
अब क्या करना चाहिए? अब आप एक काम करना कि पहले वाले यज्ञों और इन यज्ञों में क्या मौलिक फर्क है, यह समझ कर जाना। इसी के लिए आपको यहां बुलाया है। पहले वाले यज्ञों में पैसा प्रमुख था। पैसा हमको दे दीजिए और जो भी आप कहेंगे हम लाकर के आपको दे देंगे। आप चाहें 100 कुंडीय यज्ञ करा लें, चाहे हजार कुंडीय-सब व्यवस्था घर बैठे हो जाएगी। लेकिन इन यज्ञों में पैसा नहीं जन शक्ति मुख्य है। जन शक्ति का वह अंश जो धर्म-श्रद्धा से जुड़ा हुआ है। उसका संग्रह करना बहुत बड़ा काम है। इसके लिए हम यहां से कलावा बांध कर आपको भेज देंगे और आप अपने घर जाकर हमारी ‘टीम’ के साथ काम करना। हमें कमेटी नहीं, टीम चाहिए। खिलाड़ियों की एक टीम होती है जो जीने-मरने और हंसने-खेलने में एक साथ रहती है। दस आदमियों की एक टीम हम यहां से भेज देंगे, आप उसके साथ काम करना। आपका काम सफल हो जाएगा। सफल न होगा तो हम सफल कर देंगे। सफलता-असफलता की आप चिंता मत करना। आपको जो हमने काम सौंपे हैं उसे एकनिष्ठ हो करके, एकभाव से तत्पर हो करके करें। इसमें परीक्षा आपकी सफलता की नहीं वरन् इस बात की है कि आपने कितनी मेहनत की, भाग-दौड़ करने में कितना समय लगाया। अगर आप यह काम कर सकेंगे, जो अत्यधिक महत्वपूर्ण आयोजन, जिसको हम ‘वाजपेय यज्ञ’ कहते हैं, नवयुग के आगमन की पुनीत बेला का शुभ आयोजन कहते हैं, प्रभात कालीन नवयुग आने की आरती कहते हैं, धर्मानुष्ठान कहते हैं, आप धन्य हो जाएंगे। यह इतना महत्वपूर्ण कार्य है जो देखने-सुनने में छोटा मालूम पड़ता है। गांधी जी के नमक सत्याग्रह का लोग मखौल उड़ाते थे कि नमक बना करके स्वराज्य ले लेंगे। नमक से सव्राज्य आता है कहीं? आज हम देखते हैं कि नमक सत्याग्रह कैसे सफल हुआ।
25 कुंडीय यज्ञों का आयोजन भी गायत्री महापुरश्चरण की शृंखला मिला करके मालूम पड़ता है कि यह कोई साधारण कृत्य है, धर्मानुष्ठान है, पूजा-पाठ है। देखने में इसका रूप जो भी हो, इसकी संभावना बहुत बड़ी है। इसके आधार पर मनुष्य के तीनों शरीरों के स्वास्थ्य संवर्द्धन का, मनुष्य समाज को नए ढंग से शिक्षित करने का, शालीन बनाने का, विश्वव्यापी आंदोलन का यह हमारा शुभारंभ है। आप यह मानकर चलना कि विश्व का नया निर्माण करने के लिए हमारा यह अनुष्ठान उसी तरह का आयोजन है जिसमें कि मनुष्य के उज्ज्वल भविष्य के निर्माण के लिए जो दैवी शक्तियां काम कर रही हैं जिसके शुभारंभ और श्रीगणेश के दिन यह हमारा गायत्री महापुरश्चरण संपन्न होता है। इसमें सहयोग देने के लिए, इस अवसर का लाभ उठाने के लिए आप लोग हमारे साथ आइए। गोवर्धन उठाया जा रहा है आप उसमें हिस्सा बंटाने के लिए अपनी लाठी लेकर खड़े हो जाइए। हमें प्रसन्नता है कि आप जरूर लाठी लेकर खड़े होंगे और गोवर्धन उठाने में सहायता करेंगे। सेतु बांधा जा रहा है, हमें खुशी है कि आप लोग भी अपने पत्थर और लकड़ी लेकर के इसमें सहयोग देने के लिए आ गए। आपका यह सहयोग जितना सराहनीय है, उतना ही मानव जाति के नए निर्माण में सहायक सिद्ध होगा। यह आपका सौभाग्य है जो आप लोगों को यहां खींच करके ले आया। यह सौभाग्य आप लोगों को बहुत कुछ प्रदान करे, ऐसी परब्रह्म परमात्मा से प्रार्थना है।
ॐ शांतिः ।
(29 सितंबर 1978)