Books - महारानी अहिल्याबाई होल्कर
Language: HINDI
उदारता और महानता की प्रतिमूर्ति-महारानी अहिल्याबाई
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इसी प्रकार के अपने आलोकित व्यक्तित्व और गुण- गरिमा के कारण अहिल्याबाई एक दिन इंदौर की महारानी बनीं। किंतु महारानी बनकर भी अहिल्याबाई ने सेवा, सौम्यता, सरलता और सादगी की अपनी विशेषताओं का परित्याग नहीं किया। स्थिती अथवा अवस्था के बदल जाने पर, जो व्यक्ति अपनी उन्नति के मूल आधारों का त्याग कर देता है, अंततः उसे पतन के गर्त में गिरना होता है। अतएव बुद्धिमान् व्यक्ति अपने उन मूल गुणों को, प्रतिकूल परिस्थितियों में भी नहीं छोड़ते और बडे़ से बडा़ मूल्य चुका कर, दृढ़ता, धैर्य और साहस के साथ उनकी रक्षा करते हैं।
अहिल्याबाई का जन्म १९३५ में महाराष्ट्र के पाथडरी नामक एक छोटे से गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम मनकोजी सिंधिया था। मनकोजी एक सामान्य व्यक्ति ही नहीं बल्कि गरीब आदमी थे। थोडी़- सी भूमि, दो बैल और एक हल के बल पर उनकी नौका एक तरह से सूखे में चली जा रही थी। मनकोजी सच्चाई के साथ पूरा परिश्रम करते थे। जो कुछ पैदा हो जाता था उसी में संतोषपूर्वक अपनी गुजर- बसर करते हुए प्रसन्न रहा करते थे। नित्य- प्रति भगवान् की पूजा- अर्चना करना उनके जीवन का एक अंग था। इसी उपासना की दिनचर्या ने उनकों और उनके परिवार को संसार के सारे विकारों और माया- मोहों से बचाए रखा। घोर गरीबी में उनकी पवित्र जीवनधारा प्रसन्नतापूर्वक बही चली जा रही थी। उन्हें न तो कभी अभाव सताता था और न वे कभी लोभ से प्रभावित होते थे। उनके इसी शारीरिक तथा मानसिक तप के फलस्वरूप उनकी एकमात्र संतान अहिल्याबाई परमात्मा के कृपा- प्रसाद के समान सिद्ध हुई।
अहिल्याबाई न तो अपूर्व सुंदरी थी और न आकर्षक कलावती। वह एक सीधी, सरल और भोली- सी ग्रामीण कन्या थी। स्वभाव की नैसर्गिक सरलता तो उन्हें अपनी उस संतोष वृत्ति से मिली थी, जिसका विकास कर लेने से बाहरी परिस्थितियों में गरीब होते हुए भी मनुष्य अंदर से बडा़ ही संपन्न और परिपूर्ण बना रहता है। अभाव तथा आवश्यकताएँ अधिकांशतः मनुष्य की चपल वृत्तियों की उपज होती हैं, लोभ जिनमें उर्वरक का काम करके उन्हें विकृत ही नहीं कलंकित भी बना देता है। ऐसे चपलवृत्ति के लोग अकारण ही अपने को निर्धन तथा अभावग्रस्त अनुभव किया करते हैं। वे जब भी किसी को नूतन प्राप्ति में देखते हैं, उनका हृदय तड़पकरकह उठता है- हाय, ये वस्तुएँ हमारे पास नहीं हैं। यह व्यक्ति हमसे अधिक संपन्न तथा सुखी है। इतना ही क्यों, बहुत बार तो वे अपनी उपलब्धियों को भी न्यूनता की दृष्टि से देखते हुए अपने को हठात् निर्धन तथा अभावग्रस्त अनुभव किया करते रहते हैं, ऐसे लोलुप तथा लिप्सालु व्यक्ति की स्थायी आवश्यकताएँ तो कम नहीं ही होती हैं, साथ ही उन्हें नित्य नई, कृत्रिम तथा अनावश्यक आवश्यकताएँ घेरे रहती हैं। वह सदैव दुःखी तथा विपन्न ही बना रहता है। न तो उसे जीवन का आनंद मिलता है और न प्राप्तियों का सुख। इसके विपरीत अपनी वृत्तियों में संतोष को समाहित कर लेने वाले स्थिर व्यक्ति की आवश्यकताएँ प्राकृतिक सीमा तक ही प्रतिबंधित रहती हैं। जिसके फलस्वरूप न तो उसे अभाव सताता है और न लिप्सा अथवा दयनीयता का दुर्भाव ही उसे आक्रांत कर पाता है। आवश्यकताओं की कमी स्वंय ही अपने में एक संपन्नता है। एक ऐसी संपन्नता जिसका पोषण करने के लिए न धन की आवश्यकता पड़ती है और न पदार्थों की।
भोलापन उसकी आत्मा की वह शांति थी, जो अधिक संसार लोलुप न होने से आप ही मिल जाती है। इस प्रकार आत्मा और मन के पवित्र होने से अहिल्याबाई का मन भगवान् के पूजन में बहुत लगता था। वह नित्यप्रति नियम से शिवजी के मंदिर में पूजा करने जाती थी। कोई भी बाधा, कोई भी कठिनाई और कोई भी परिस्थिति अहिल्या को उसके इस व्रत से विरत न कर पाती थी। मूसलाधार वर्षा के समय भी वह एक स्वस्थ वल्लरी की भाँति भीगती हुई अपने पथ पर चली जाती थी और शीतकाल का हिमपात भी उसे अपने नियम से विचलित न कर पाता था। वह स्वयं ही दृढ़ निष्ठा की प्रतिमूर्ति के समान अकंपित गति से अपने नियम- निर्वाह की प्रसन्नता प्राप्त करती रहती थी। अहिल्याबाई की वह छोटी- सी पूजा ही- उसकी संलग्नता, अखंडता औरऐकांतिकता से एक विशाल तपस्या के रूप में विकसित हो गई थी। जिसकी पूर्णता ने उसमें एक ऐसे तेज की स्थापना कर दी कि वह सामान्य- सी ग्रामीण कन्या देवी- सी प्रतीत होने लगी थी। लोग उसे आदर और भक्ति- भाव से देखने लगे थे।
अहिल्याबाई की यह अटूट निष्ठा देखकर अनेक बार उसकी सहेलियाँ पूछा करती थीं- "अहिल्या ! तुम भोले बाबा की बडी़ सेवा करती हो। उनसे कौन- सा वरदान माँगना चाहती हो?"
"मैं तो कोई भी दान- वरदान नहीं चाहती। यों ही जल- फूल चढा़कर चली आती हूँ।" अहिल्या उत्तर देती है।
'कुछ माँगा जरूर करो'- सहेलियाँ कहतीं और उत्तर पातीं- "जब मुझे किसी वस्तु की आवश्यकता ही नहीं है, तब माँगू क्या?"
और वास्तव में उस सरलता एवं संतोष की प्रतिमा को कुछ चाहिए भी न था। संतोष जिसका धन हो और पवित्रता जिसका संबल, उस भाग्यवान् को फिर आवश्यकता भी क्या रह जाती है? उसकी संपूर्ण याचकता, अकिंचनता और अधिकता आराध्य की अमोध भक्ति से स्थानापत्र होकर सदा के लिये संतुष्ट हो जाती है और वह एक आलोकित आत्मा के साथ आनंद से उस आध्यात्मिक अंश का आस्वादन किया करता है, जो आलोक- परलोक सभी प्रकार के सुखों का आदि स्त्रोत होता है।
किंतु भक्त की निष्कामना भगवान् में कामना बनकर गूँजने लगी। भगवान् की इच्छा हुई कि अहिल्या रानी बने। फिर क्या था, योग जुड़ गया। नहीं तो कहाँ एक गाँव की किसी झोंपडी़ में पलने वाली अहिल्या और कहाँ इंदौर की गद्दी? परमात्मा न तो अपने हाथ से किसी को कुछ देता है और न छीनता है। वह इन दोनों के लिए मनुष्यों की आंतरिक प्रेरणा द्वारा परिस्थितियाँ उत्पन्न करा देता है। आप तटस्थ भाव से मनुष्यों का उत्थान- पतन देखा करता है।
इंदौर के महाराज मल्हार राव होल्कर पूना जाते समय मार्ग में पाथडरी गाँव के उसी शिवालय में ठहरे, जिसमें अहिल्या नित्य पूजन करने आती थी।
प्रभात हुआ। पक्षियों के कलरव में कर्तव्यों की प्रेरणा मुखर हो उठी। ऊषादेवी ने प्राची दिशा में नई आशाओं और नूतन उत्साह का प्रतीक अपना केसरिया अंचल विस्तार किया। प्रातःकाल की पवित्र वायु ने प्राणों में नवस्फूर्ति का संचार किया। तालाबों में कमल और लताओं में फूल पुरुषार्थियों के भाग्य के समान खिल उठे। चारों और का वातावरण स्वास्थ्यर्पूण सात्विकता से ओत-प्रोत हो उठा। मनुष्य जागे और उस देव-मुहुर्त में अपने नित्य-नैमित्तिकों में लग गये। निशाचर और असुर-वृत्ति के जीवों की पलक झपकने लगीं और वे निभृत अंधकारों में आलसी के प्रारब्ध की भाँति जाकर सो गये। देवदूतों की प्रभात-फेरी के समान अहिल्या पूजा करने आई। मंदिर के चारों और बडी़ चहल-पहल थी। हाथी, घोड़े, रथ और आदमियों की भीड़ ही भीड़ थी। किंतु अहिल्या बिना किसी ओर देखे-सत्पुरुषों के विचार की भाँति-अपने लक्ष्य मूर्ति-मंदिर की ओर, उपराम भाव से चलती गई। लोग मौन होते और मार्ग छोड़ते गये। कन्या ने नित्य की भाँति एकाग्र मन से यथावत् पूजन किया और उसी अलिप्त भाव से वापस चली गई। उस पर न तो उस भीड़ भाड़ का ही कोई प्रभाव पडा़ और न वह दुचित्ती हुई। न उसके मन में किसी प्रकार के भय अथवा संकोच का भाव आया। वह निर्विकार भाव से आई निर्विध्न भाव से वैसे ही चली गई जैसे निष्काम-कर्मयोगी संसार में अपना कर्तव्य पालन कर प्रस्थित हो जाते हैं।
अहिल्या अपनी गति में इतनी एकाग्र आई-गई जैसे वहाँ कोई था ही नहीं। सब ओर सन्नाटा और सूनापन था। उसको सबने आते-जाते देखा, किंतु उसने जैसे किसी को नहीं देखा। यह उसकी मानसिक पूर्णता का लक्षण था, जो आत्मस्थ एवं अचंचल व्यक्तियों में सहज ही सिद्ध हो जाता है। महाराज मल्हार राव ने भी देखा। किंतु उनका देखना विचार क्रिया में बदल गया। वे सोचने लगे क्या संसार में ऐसा भी संभव है कि महाराजा का वैभवपूर्ण शिविर लगा हो, चारों ओर घोडे़ हिनहिना रहे हों, हाथी झूम रहे हो और कोई एक, सो भी साधारण-सी ग्रामीण लड़की आये और बिना किसी प्रभाव के इतने तटस्थ भाव से चली जाए, मानो वहाँ राजा तो राजा क्या एक छोटा-सा प्राणी भी न हो। जबकि अच्छे से अच्छे स्थैर्यवान् राज-वैभव को भय और विस्मय के भाव से देखने पर विवश होते हैं और कुछ नहीं तो कम से कम राजैश्वर्य असामान्य एवं अस्वाभाविक विशेषता के कारण कौतूहल का विषय तो होता ही है। महाराज होल्कर के हृदय में अहिल्या की यह तटस्थता, तन्मयता एवं निर्भयता श्रद्धा बनकर बैठ गई। वे बेचैन हो उठे।
यह राजत्व पर सात्विकता की विजय थी। स्वत्व पर संतोष और अभीप्सा पर निस्पृहता की श्रेष्ठता थी। महाराज मल्हार राव का बैचेन होना स्वाभाविक ही था। जिस राज-वैभव को उन्होंने और उनके पूर्वजों ने नीति और शस्त्र दोनों के समन्वित प्रयत्न से संचय किया था और जिसके आधार पर वे एक महिमापूर्ण स्थान पर प्रतिष्ठित थे, उसका अवमूल्यन हो गया था। आज की घटना से हृदय की विशालता, गंभीरता और आत्म-गौरव की महानता में उनका विश्वास और भी बढ़ गया था और वास्तविक वैभव मनुष्य के अंतस में निवास करता है, यह नूतन अनुभव भी उनके जीवन-चिंतन में जुड़ गया था। निःसंदेह सात्विक भाव ही वह उपलब्धि है, जो बिना किसी बाह्रयाडंबर के मनुष्य को चिरसंपन्न बनाए रखती है।
महाराज मल्हार राव ने अपनी अशांति का चिरस्थायी हल निकाल लिया। किसी की महानता से होने वाली संतप्त प्रतिक्रिया के समाधान का इससे सुंदर और कल्याणपूर्ण उपाय हो ही नहीं सकता कि उसकी महानता स्वीकार की जाए और उसे अपना बनाया या स्वंय उसका बन जाया जाए। इस प्रकार किसी की महानता का अनुबंधन अपने से भी हो जाता है। आत्मभाव की स्थापना से किसी की वह महानता जो हीनतापूर्ण प्रतिक्रिया का कारण हो सकती है, संबंधाभिमान का हेतु बनकर संतोषदायक हो जाती है। अहंकार की पीडा़ के स्थान पर गौरव-गरिमा का अनुभव होने लगता है। इसी आध्यात्मिक लाभ के कारण ही तो 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का शास्त्रों में प्रतिपादन किया गया है।
महाराज मल्हार राव ने पता लगवाया और अहिल्या के पिता को बुलवाकर कहा- "सिंधिया ! मैं आपकी सुलक्षणा बेटी को अपनी पुत्र-वधू बनाना चाहता हूँ। आशा है आप मुझे निराश न करेंगे।"
महाराज इंदौर का इतना कह देना भी अधिक से अधिक था और यह एक सामान्य व्यक्ति पर महती कृपा थी, तथापि गुणवती अहिल्या का मूल्य उनकी दृष्टि में इतना हो गया था कि एक बार शंका हुई कि कहीं मनकोजी इनकार न कर दें। इसे ही तो कहते हैं-गुणज्ञता एवं गुणग्राहकता, जो किसी निरस्तेय गुणज्ञ के लिए ही संभव है। महाराज मल्हार राव एक ऐसे ही उदार गुणज्ञ थे। उन्होंने दोहराया- "क्यों सिंधिया ! क्या मेरा प्रस्ताव '''''''''। महाराज का वाक्य पूरा भी न हो पाया था कि मनकोजी सहसा कह उठे- "नहीं, नहीं महाराज।"
मनकोजी आपे में ही न थे। महाराज की बात सुनकर उन्हें तारे दिखने लगे थे। सहसा कानों पर विश्वास ही न हुआ था। उनकी छोटी-सी जीवन-परिधि में इतना बडा़ आलोक-पुंज अप्रत्याशित रूप से चमक उठा था कि वे चकाचौंध होकर इस प्रकार विस्मय-विमूढ़ हो गये थे, जिस प्रकार कोई असिद्ध साधक अकस्मात् ही परमात्म-तेज पाकर आत्म-विभोर होकर समझ नहीं पाता कि यह क्या हो गया है? तभी तो वे महाराज के प्रस्ताव का सहसा उत्तर न दे पाये थे ! महाराज ने उन्हें आश्वस्त किया और वे ईश्वरीय अनुग्रह से प्रकृतिस्थ तथापि आनंद-विह्वल सिद्ध के समान वापस चल दिये। मनकोजी भागे-भागे घर आए और उन्होंने सौ सपूतों से भी अधिक मूल्यवती अपनी बेटी को करुणाग्र गौरव से देखा। अहिल्या उस समय गौ का गोबर उठाकर हाथ धोने जा रही थी। पिता ने उसके दोनों हाथ पकड़कर खुद धुलाते हुए गद्गद् कंठ से कहा- "बेटा ! अब तेरे यह हाथ गोबर में कभी न सनेंगे। अब यह इंदौर की राज-सत्ता में सहायक होंगे। अहिल्या को तो अपने पिता का यह क्रिया-कथन ही नहीं समझ में आया, उसकी माता भी विस्मय के साथ यह कहती हुई आ गई कि आज आप यह क्या कर रहे हैं और क्या कह रहे हैं?
हाँ, ठीक कह रहा हूँ। इंदौर के महाराज मल्हार राव होल्कर ने अहिल्या को अपनी पुत्र-वधू बनाने के लिए आज ही सबेरे तो मुझसे माँग लिया है; इसी याचना के लिए ही तो उन्होंने मुझे बुलाया था। अहिल्या यह सुनते ही कोठरी में भाग गई और वे दोनों उसे ऐसे देखते रहे, मानो वे अहिल्या के माता-पिता होने योग्य न थे।
माता-पिता बेटी की विदाई के विषय में कुछ बात करने ही वाले थे कि तब तक बाहर से आवाज आई, "मनकोजी ! कन्या को अभी जैसी बैठी हो भेज दीजिये, महाराज ने पडा़व उठा दिया है।" मनकोजी ने बाहर आकर देखा-चाँदी के डंडों और जरीदार मखमली उहार की पालकी द्वार पर रक्खी हुई थी। महाराज का प्रधान-प्रबंधक खडा़ प्रतीक्षा कर रहा था। साथ में अनेक सूत और सिपाही भी थे।
अहिल्या के पास कोई और वस्त्र थे ही नहीं, बदलाये भी क्या जाते? उसी सफेद मोटे गाढे़ की धोती में, जोकि वह पहने हुऐ थी, पालकी में आदर और आर्द्रतापूर्ण वातावरण में बिठा दी गई। सिसकती हुई अहिल्या को लेकर पालकी ऐसे चल दी जैसे अनासक्त कर्मयोगी की साधना उसके उत्सर्ग पुण्यों को पावन दिशा में ले जाती है और भारी हृदय से घर आकर मनकोजी ने अपने को ऐसा हल्का अनुभव किया कि मानों वे जीवन मुक्त हो गये हों। अरे ! मनुष्य में देवत्व के प्रतिनिधियों ! अभ्युदय के प्रत्यूष-पर्व के समान सौभाग्य के प्रतीकों ! सात्विकता की संतान सद्गुणों ! तुम्हारी जय हो ! तुम्हें अपनाकर जमीन का एक जर्रा भी आकाश का चाँद बन जाता है तब अहिल्या तो एक कन्या थी, पवित्र मानवी थी। महाराज होल्कर इंदौर लौट चले। अहिल्या के आगे-आगे अपनी सवारी में वे इतने प्रसन्न, पुलकित एवं उत्साहपूर्वक जा रहे थे, मानो दिग्विजय करके लौटे हों। राजधानी पहुँचकर मल्हार राव ने अहिल्या का विवाह अपने पुत्र खंडेराव के साथ कर दिया।
अब अहिल्या इंदौर की युवरानी बन गई थी। यद्यपि वह न तो राजपुत्री थी और न राज-घरानों से उसका कोई संपर्क ही रहा था। तथापि उसे राज-वधुत्व के निर्वाह में कोई कठिनाई नहीं हुई। उसके पास शील, शालीनता, अनुशासन, विनम्रता, गंभीरता, धीरता, और आकल्पकता के ऐसे मूल गुण थे, जिनके आधार पर किसी भी समाज और किसी भी स्थिति में सफलतापूर्वक व्यवहार किया जा सकता है। एक छोटी स्थिति से इतनी बडी़ पदवी पर आ जाने पर भी अहिल्या के हृदय में किसी प्रकार के अभिमान का अनुभव नहीं हुआ। उसने अभिमान के स्थान पर उत्तरदायित्व का ही अधिक अनुभव किया। ऐश्वर्यपूर्ण राजमहल की परिस्थितियों में पहुँचकर भी उसकी सादगी तथा सरलता में कोई अंतर न आया। बल्कि उसके आगमन से राजमहल के वातावरण में भी सात्विकता का समावेश हो गया।
युवरानी हो जाने पर भी स्थैर्यवती अहिल्या ने सादे वस्त्र, साधारण भोजन और सरल व्यवहार का परित्याग नहीं किया था। मनुष्य को अपनी उन्नति के आधारों का पता रहता है और जिनको पता नहीं रहता-उनकी उन्नति एक योजनाबद्ध कार्यक्रम के अनुगत नहीं होती। वह एक आकस्मिकता, संयोग अथवा घटना मात्र होती है। ऐसी अनजान उन्नति पर मनुष्य का कोई नियंत्रण नहीं रहता और वह जिस प्रकार संयोग के समान आती है वैसे ही घटना के समान बीत जाती है।
इसका कारण यह होता है कि अयोजक व्यक्ति को अपनी उन्नति के कारणों तथा आधारों का ज्ञान नहीं रहता, अस्तु वह अपनी अस्त-व्यस्तता में उनकी रक्षा नहीं कर पाता। आधार उखड़ जाने से उसकी उन्नति का भवन टूटकर गिर पड़ता है। इसके विपरीत जो कर्मयोगी अपने जीवन का विकास क्रमबद्ध योजना के अनुसार किया करते हैं, उन्हें अपनी सफलता के कारण और आधार ज्ञात रहते हैं और वे हर मूल्य पर उनकी रक्षा करके अपनी सफलता तथा उन्नति को स्थायी बना लेते हैं।
इसी को बुद्धिमत्तापूर्ण जीवन-यापन कहते हैं। यद्यपि अहिल्या ने किसी अलभ्य जीवनोन्नति के लिए उसके अधार अपने सात्विक गुणों का आराधन नहीं किया था, यह उसके सहज स्वभाव के ही अंग थे। तथापि जब उसे न चाहते हुए भी अप्रत्याशित रूप से उन गुणों का पुरस्कार मिल ही गया तो अवश्य ही उसने उस पर विचार किया और समझ लिया कि यह सब सम्मान उसका नहीं, उसके उन गुणों का है, जिन्हें वह अपने निश्छल तथा निर्लिप्त जीवन पद्धति के परिणामस्वरूप निसर्ग क्रम से पा सकी थीं। निदान वह अपनी उन्नति के उन आधारों के प्रति अधिकाधिक निष्ठावती हो गई और सावधानीपूर्वक उनकी रक्षा करने लगी। सावधानी अब उसके लिए अपेक्षित भी थी। एक तो वह अपने उस ग्रामीण जीवन से ठीक विपरीत परिस्थितियों तथा वातावरण में आ गई थी। जहाँ पूर्व जीवन में प्राप्त वातावरण उसके सात्विक तथा सरल गुणों का सहायक तथा सहयोगी था, वह वर्तमान स्थिति उनका विरोधी न सही परीक्षक अवश्य था। साथ ही अब अल्हड़ और निरपेक्ष जीवन क्रम से ऐसे महत्वपूर्ण स्थान पर आ गई थी, जिस पर रहकर मनुष्य का प्रत्येक कार्य एक अर्थ, एक प्रभाव और एक दूरगामी परिणाम रखता है। अतएव ऐसी अर्थ-द्योतक स्थिति में उदात्त उत्तरदायित्व ही संबल होता है, जिसके निरीक्षण में ही हर कदम प्रमाणिक तथा निरापद रूप से उठा सकना सहज एवं संभव होता है। अहिल्या ने वह उत्तरदायित्व धारण किया और अपने युक्त आचरण के कारण किसी को यह अवसर न दिया कि कोई उसके वर्तमान को लेकर उसके पूर्व जीवन की ओर संकेत कर सकता। गुणवती अहिल्या को अपने ग्रामत्व के साथ अपने राजत्व का सामंजस्य कर लेते देर न लगी। जो धैर्यवान अपने तथा अपनी प्रवृत्तियों पर नियंत्रण कर सकने के अभ्यासी होते हैं, वे किसी भी स्थिति में संतुलन बनाए रखने में सफल रहा करते हैं। उसने अपने आदि गुणों को छोड़ना तो क्या, प्रस्तुत परिवर्तन से और भी नूतन तथा महान् बना लिया।
अहिल्या के सारल्य में उसके सेवा भाव ने और भी चमत्कार पैदा कर दिया। उसने पति, सास, श्वसुर तथा अन्य गुरूजनों की सेवा इस एकाग्र मन से की कि वह सबकी प्राणप्यारी बन गई। उन्हें ऐसा अनुभव होने लगा कि यदि अहिल्या उनके जीवन में न आई होती तो कदाचित् वे उस सुख, उस शांति और उस संतोष से अपरिचित रह जाते जो सत्संतानों से मिला करता है। अहिल्या की सेवा से द्रवित उस राजकुल का स्वाभाविक शासन का कठोर भाव बहुत कुछ विनम्र हो गया, जिसकी शीतलता उनके लिए एक नया अनुभव था। उन्होंने अपनी आत्मा में इस सत्य को स्वीकार कर लिया कि शासनजन्य अहंकार की अपेक्षा स्नेहजन्य शालीनता में अधिक सुख और गौरव है। अहिल्या ने कनिष्ठों को इतना स्नेह और सेवकों को इतनी करूणा प्रदान की कि वे सब उसकी रक्षा के लिए अधिक सजग तथा अनुशासित हो गए। स्वामियों की सौम्यता और सेवकों की अनुशासन वृद्धि से राजमहल में जिस संतुलन का समावेश हुआ, उसके कारण अब भय का नहीं मानवता का शासन स्थापित हो गया। राजमहल का आतंकपूर्ण तनाव शिथिल हो गया और सभी अपने-अपने स्थान पर एक स्वाभाविक सरलता का अनुभव करने लगे। एक दीपक के जल उठने से कक्ष की सारी वस्तुएँ अपने सहज अस्तित्व में आ जाती हैं। एक अहिल्या के आगमन से यदि राजमहल के कृत्रिम जीवन में स्वाभाविकता का समावेश हो गया तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। एक सत्य संसार को प्रभावित कर लेता है और एक मनुष्य समाज को बदल डालता है। सात्विकता से सुशोभित गुणों में ऐसी ही अपरिमित शक्ति तथा सुंदरता होती है।
इतना सब होने पर भी अहिल्या अपने पूर्व जीवन को कभी न भूलती थीं। उसे अपनी उस गरीबी के प्रति बडी़ करूणा और ममता थी। उसकी इस विगत स्मृति ने उसे गरीबों तथा अभावग्रस्त लोगों के प्रति न केवल दया ही बल्कि आदर भावना भी विकसित हो गई थी। उसे संसार के सारे गरीब अपने बंधु जैसे अनुभव होते थे और वह यथासाध्य उनकी सहायता करती रहती थीं। दया और दानशीलता के गुण उसके पहले गुणों में जुड़कर स्थिर हो गये। पूजा का वह क्रम-जो उसके जीवन का एक अंग बना हुआ था, आज भी चल रहा था। आज की संपन्न स्थिति में भी उसने भगवान् की पूजा के उपकरणों में वही फूल और जल ही रखे थे। उसने उनमें पकवान, मिष्ठान्न अथवा अन्य धन-द्योतक वस्तुओं को शामिल नहीं किया था। अब वह अपनी प्रार्थना में इतना अवश्य कहने लगी थीं कि-हे भगवान् ! मैं आपकी वही अहिल्या हूँ। इस परिवर्तित स्थिति से उसे बदली हुई कोई दूसरी अहिल्या न समझें और वह शक्ति देते रहे, जिससे वह आजीवन वही सेविका बनी रहें, जो अपने विगत जीवन में थी। इस धन, इस वैभव और इस संपदा का समुचित उपयोग तो कर सकूँ, किंतु यह सब माया मुझमें भोग वृत्ति का दोष उत्पन्न न कर सके। आपने जो कुछ दिया, उसे आपका ही समझती रहूँ और आपके ही मार्ग में उसका उपयोग करती रहूँ। अंहकार, दंभ और वासनाओं के अभिशाप से बचाये रहें। मुझको ऐसी बुद्धि, ऐसा विवेक और ऐसी स्मृति दें कि मैं मानवता के सुंदर गुणों से विरत न हो सकूँ।"
अहिल्या ने अपने पूजा-उपकरणों में वैभव का समावेश नहीं किया, क्योंकि वह जानती थीं कि ऐसा करने से उसके दोष से हृदय में अहंकार, संपन्नता तथा धनाढ्यता का भाव जाग सकता है। अधनता से प्रभावित भक्ति भाव में जो निर्वेद और जो अध्यात्मिक दैन्य रहा करता है वह परमात्मा की करुणा का संपादन करता हैं वह वैभव के समावेश से न रहेगा। उसकी पूजा नीरस तथा भावनाहीन होकर निष्प्रभवता के कारण हल्की हो जायेगी। धन से देवता की पूजा करने के बजाय वह उसको परमार्थ पथ में व्यय करने को अधिक उपयुक्त मानती थी। अहिल्या अपनी इस मान्यता को कार्यान्वित भी करती थी। अहिल्या को अपनी व्यक्तिगत वृत्ति राजकोष से मिलती थी, उसका बहुत बडा़ अंश तो वह परमार्थ एवं परोपकार में खर्च करती थीं। वह भोजन करने से पहले कई भूखों को भोजन देती थीं, नंगों को वस्त्र और आवश्यकताग्रस्त पात्रों को धन भी दिया करती थीं। अनेक विधवाओं को सहायता और छात्रों को छात्रवृत्ति दिया करती थी। अहिल्या के इन सत्कर्मों ने न केवल अधिकाधिक तेजवती ही बना दिया था, बल्कि जनता में भी बडी़ ही श्रद्धा तथा लोकप्रियता का पात्र भी बना दिया था।
परिस्थितियों के कारण अहिल्या को विद्याध्ययन का अवसर न मिल सका था। उसकी यह इच्छा मन में ही रह गई थी। पर ज्यों ही उसकी परिस्थितियाँ उसके अनुकूल हुई, उसने अध्ययन का कार्यक्रम प्रारंभ कर दिया। इस प्रगति में उसे बहुत कुछ सहायता अपने पति खांडेराव से मिली। तथापि वह सहायता पर्याप्त नहीं थी, राज-काज के कारण बहुत बार खंडेराव कई-कई दिन तक अहिल्या को कुछ पढा़ न पाते थे। अहिल्या ने अपनी यह इच्छा अपने श्वसुर पर प्रकट की। कहना था कि तत्काल अहिल्या की पढा़ई का प्रबन्ध कर दिया गया।
जो वृद्ध महाशय अहिल्या को पढा़ने आते थे, अहिल्या उनके प्रति बडा़ आदर का भाव रखती थी। एक छात्र के अनुशासन और विनम्रता के गुणों का वह पूरी तरह से पालन करती थी। वह अपने गुरू के सम्मुख युवराज्ञी के रूप में कभी न आती थी। गुरू के सम्मुख उसका आगमन एक सुशील छात्रा तथा शिष्या के रूप में ही होता था। उसकी इस शिष्टता ने गुरू की सारी सद्भावनाएँ प्राप्त करलीं, विद्यार्थी का अध्यवसाय और गुरू की सद्भावनाएँ जब दोनों ही अध्ययन काल में परस्पर जुड़ जाते हैं, तब अध्ययनार्थी की प्रतिभा में सरस्वती का जागरण आप से आप होने लगता है। अहिल्या के साथ भी वैसा ही हुआ। उसे रोज का पाठ रोज ही याद होने लगा और इस प्रकार वह शीघ्र ही एक अच्छी विद्यावती बन गई। शिक्षा के प्रकाश ने अहिल्या के गुण-गौरव को और चमत्कृत कर दिया। अशिक्षा के एक दोष के कारण अहिल्या का जो गुणी जीवन अभी अपूर्ण-सा दिखता था, वह जल्दी ही पूर्ण हो गया।
सेवा, उत्तरदायित्व, कर्तव्यनिष्ठा और अब शिक्षा से प्रसन्न होकर मल्हार राव ने अहिल्याबाई को राजकाज की शिक्षा भी देनी शुरू कर दी। उन्हें पुत्र की अपेक्षा अपनी पुत्र-वधु के गुणों में अधिक विश्वास था। यह एक आदरपूर्ण उपलब्धि थी, एक गहरा सम्मान था। तथापि अहिल्या में इससे भी कोई मनोविकार न आया और यथावत् सौम्य, सरल तथा शालीन बनी रही।
हल्के धरातल वाली स्त्रियाँ प्रायः पति से आगे बढ़ जाने पर ठीक तथा निरंकुश हो जाया करती हैं और पति पर शासन करने का प्रयत्न किया करती हैं। किंतु अहिल्याबाई ऐसे हल्की अथवा उथली मनोभूमि वाली नारी न थी, उसमें भारतीय ललना का आदर्श कूट-कूट कर भरा हुआ था। वह दांपत्य जीवन में शासन भावना को पारस्परिक प्रेम के लिए कुठार समझती थी। वह जानती थी कि जो सुख, जो संतोष और जो शीतलता पारस्परिक प्रेम में होता है, वह शासन अथवा अधिकार भावना में नहीं होता। वह शासन के मद पीकर दांपत्य सौम्यता को बलिदान करने वाली नारी न थी। सेवा के सुख को अनुभव कर लेने वाली सत्नारियाँ निरंकुशता की तीक्ष्णता को कभी पंसद नहीं करती। जो सुख और सुरक्षा पति के आधीन रहने में होती है, वह उच्छृंखल, निरंकुश अथवा स्वच्छंद रहने में कहाँ ?
पति के प्रति पत्नी का संपूर्ण आत्म-समर्पण ही तो वह वशीकरण है, जो पुरूष को नारी की सुकुमार मुट्ठी में दृढ़ता से ला दिया करता है। बुद्धिमान् अहिल्या ललनाओं के इस जादू से अनभिज्ञ नहीं थी। अपनी प्रिया की महत्ता बढ़ते देखकर खंडेराव का प्रेम उस पर और बढ़ गया। वे यह सोचकर अति प्रसन्न तथा पुलकित रहने लगे कि राज्य संचालन में उनके लिए एक बहुत विश्वस्त,अभिन्न तथा अनुकूल साथी, सचिव एवं अंतरंग का निर्माण हो रहा है। सोने जैसी अहिल्या अलंकार के रूप में गढी़ जा रही थी और उसकी अनुकूलता, उपयुक्तता एवं पात्रता भरपूर सिद्ध होती जा रही थी। बहू हो तो अहिल्या जैसी, पर श्वसुर भी हो तो महाराज मल्हार होल्कर जैसा उदार तथा महान् ! अहिल्या को राज-काज का व्यावहारिक प्रशिक्षण के लिए, जब कभी वे किसी काम से बाहर जाते थे तो शासन सूत्र अहिल्या को सौंप जाते थे। अहिल्या इस उत्तरदायित्व को पूरी तत्परता, संलग्नता तथा सत्यता के साथ पालन करती थी। वह प्रमाद में पड़कर न तो किसी काम को कर्मचारियों पर टालती थी और न किसी काम में विलंब करती थी। जो काम जिस समय करना आवश्यक होता था, उस काम को वह उसी समय ही करती थी। उतावली अथवा विलंब को वह अपने पास भटकने न देती थी। दीर्घसूत्रता अथवा अपेक्षा उसकी सीमा से बाहर की बात थी। काम छोटा हो अथवा बडा़, वह उसको एक जैसी तत्परता तथा लगनशीलता से किया करती थी। इसका परिणाम यह हुआ कि वह राज-काज में आश्चर्यजनक रूप से दक्ष हो गई। उसने प्रयत्नपूर्वक आत्मोत्सुकता से राज्य के सभी विभागों के कामों को प्रायः समझ-बूझ लिया था। अहिल्या को शासन-सूत्र देकर जाने के बाद जब महाराज मल्हार राव वापस आते थे तो पाते कि अहिल्या ने सौंपा हुआ काम इतनी निपुणता से किया हैं, जितनी की उन्हें आशा न थी। इस प्रकार अवसर का लाभ उठाकर और अपनी समग्र मन, बुद्धि की शक्ति लगाकर अहिल्या जल्दी ही एक कुशल प्रशासिका बन गई। श्रम एवं संलग्नता एक ऐसा आधार मूल गुण है, जो अपने को आश्रित करने वाले को ऐसा कोई काम नहीं, जिसमें कुशल न बना दे। इन गुणों के धनी लोग सेवा से लेकर शासन और शिल्प से लेकर व्यापार तक के काम को एक ही तत्परता, लगन तथा पूर्ण निष्ठा के साथ समान रूप से ही किया करते हैं, जिससे उन्हें किसी भी क्षेत्र में क्यों न डाल दिया जाए, वे उसमें सफल होकर दिखला देते हैं। अहिल्या योग्य होती गई और मल्हार राव का विश्वास अपनी पुत्र-वधू की योग्यता में दिन-दिन बढ़ता गया। अहिल्याबाई की यह प्रतिष्ठा उसकी उस कर्तव्यनिष्ठा का पुरस्कार ही समझना चाहिए, जिसका विकास उसने अपने जीवन में क्रम से नियम एवं संयमपूर्वक किया था।
विवाह के बाद अहिल्याबाई के एक पुत्र और एक पुत्री दो संतानें हुई, जिनका नाम मालीराव और मुक्ताबाई रखा गया। इस प्रकार नौ वर्ष तक शिक्षा-दिक्षा के बीच आनंद और उत्साह के साथ जीवन बिताने के बाद अहिल्याबाई की अग्नि-परीक्षा प्रारंभ हुई। धैर्यवती अहिल्याबाई को जिस अग्नि-परीक्षा के बीच से गुजरना पडा़, उसमें से अविचलित रहकर निकल जाना उन जैसे ही लक्ष्यवान् व्यक्तियों का काम है। अपने जीवन की अग्नि-परीक्षाओं को अहिल्याबाई ने अपने उस आत्म-विश्वास एवं आत्म-संयम के बल पर ही उर्तीण किया, जिसका संचय उन्होंने सतत् उपासना के आधार पर किया था। उपासना के माध्यम से परमात्मा के समीप रहने वाले व्यक्तियों पर जिन गुणों का अनुग्रह होता है, उनमें से धैर्य तथा सहिष्णुता मुख्य हैं। संसार में दुःखद घटनाएँ सदा संभाव्य मानी गई हैं। वे प्रायः सभी के जीवन में आती हैं। तथापि धीर व्यक्ति उनको सामान्य घटनाओं की तरह सहकर अपनी आत्मा को प्रभावित नहीं होने देते। अहिल्याबाई में धैर्य तथा सहिष्णुता की कमी नहीं थी। निदान वे हर दु:ख, हर तकलीफ और हर असंभाव्य को समान मन से सहन करती हुई अपने पवित्र कर्तव्य का पालन करती रही। जीवन और जगत् को ठीक से समझ लेने वाले बुद्धिमान् व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में अपने को विचलित नहीं होने देते और ज्वाला के समान जलते हुए संयोगों के बीच से अप्रभावित हुए निकल जाते हैं।
उन दिनों मराठे भारत में हिंदू राज्य के विस्तार में लगे हुए थे और देश के लगभग सभी राजाओं से चौथ वसूल करते थे। किंतु भरतपुर के जाट राजाओं ने चौथ देने से इनकार कर दिया। इस पर पेशवा के परामर्श से मल्हार राव ने अपने पुत्र खंडेराव को साथ लेकर भरतपुर पर चढ़ाई कर दी। जाटों के साथ इस लडा़ई में खंडेराव मारे गये।
खंडेराव के खेत रहने का समाचार जब इंदौर पहुँचा तो अहिल्याबाई के शोक का ठिकाना नहीं रहा। शोकावेग में सहसा उनका धैर्य जाता रहा। और वे भावातिरेक में व्याकुल होकर विलाप करने लगीं। उन्होंने सोचा कि पति के न रहने से अब उनका जीवन निरर्थक एवं निःसार हो गया है। एक पति तक ही संसार के सारे संबंध स्थिर तथा मधुर रहते हैं। पति के न रहने पर उसकी विधवा से सगे-संबंधी तक दुर्व्यवहार करने लगते हैं।
अपने दुःख का चिंतन करते-करते अहिल्याबाई को हिंदू-विधवाओं की दुर्दशा याद आ गई कि किस तरह उससे जीवन के सारे अधिकार छीन लिये जाते हैं। सब कुछ होने पर भी न तो उसे पेट भर भोजन दिया जाता है और न पूरे कपडे़। बचा-खूचा जूठा और छूटा खाकर जीवन पर तिरस्कारपूर्ण स्थिति में आयु के कठिन क्षण पूरे करने होते हैं। वह बेचारी इस दैवाघात से सारे पवित्र अनुष्ठानों, तथा उत्सवों से वंचित कर दी जाती है। सभी लोग उसकी उपस्थिति, यहाँ तक कि उसका मुख देखना तक अपशकुन समझते हैं। सोचते-सोचते अहिल्याबाई निरपराध विधवाओं के लिए करुण हो उठीं। उनके मन में आया कि समाज की यह कैसी उलटी रीति है कि जो नारी पति के न रहने से निराश्रय तथा निराश हो गई है और जो सबसे अधिक दया, करुणा, संवेदना तथा सहानुभूति की पात्र है, समाज उसी को सबसे ज्यादा ठुकराता और अवहेलित करता है। अपने तात्कालिक संस्कारों के कारण अहिल्याबाई केवल इतना ही सोच पाई। इस समस्या के हल के विषय में उनकी विचारधारा आगे न बढ़ सकी और वे पुनः घूमकर अपनी व्यक्तिगत स्थिति पर आ गईं। उन्हें अपना शेष जीवन अंधकार तथा आपदाओं से भरा दिखलाई देने लगा। उन्होंने सोचा कि अब तक जो सास-श्वसुर तथा अन्य संबंधी उसका आदर किया करते थे, वे ही अब उसे तिरस्कार की दृष्टि से देखने लगेंगे। अहिल्या का आत्माभिमान घायल हो उठा और उन्हें तिरस्कारपूर्ण जीवन कि अपेक्षा मृत्यु अधिक श्रेयस्कर लगी। निदान उन्होंने पति के शव के साथ सती हो जाने का निश्चय कर लिया।
इस प्रकार विवेचना से भावना पर आते ही अहिल्याबाई का पति-प्रेम जो अब तक शोकातिरेक से स्तब्ध-सा अचेत पडा़ था, वह सहसा जाग उठा और वे विकल-विह्लल होकर रो उठीं । उनकी ममतामयी सास ने उन्हें बहुत समझाया और धीरज बँधाया। शोकावेग शांत होने से अहिल्या ने सास को सती हो जाने का निश्चय बतलाया।
बहू का निश्चय सुनकर सास के शोक का वारापार न रहा, फिर भी वे उसके निश्चय को नारी का धर्म मानकार अधिक टीका-टिप्पणी न कर सकीं और महाराज के आने और उनकी अनुमति ले लेने का आग्रह किया।
महाराज मल्हार राव युद्ध से वापस आये। जब उन्हें अपनी प्यारी पुत्र-वधु के निश्चय का पता चला तो उनका पुत्र-शोक दो गुना हो गया। वे सांत्वना देते हुए उसे सती होने से रोकने का प्रयत्न करने लगे। बोले-
"बेटी ! तू मेरी पुत्र-वधु ही नहीं है, मेरे दूसरे बेटे के समान है। यदि तू भी मुझे छोड़कर चली जायेगी तो तेरा यह वृद्ध पिता किसके सहारे अपना शोक भूल सकेगा? यह मानता हूँ कि पति वियोग का दुःख असहनीय होता है और तू एक पतिव्रता पत्नी है। पति के प्रति तेरा यह प्रेम सम्माननीय है। तथापि उसकी अभिव्यक्ति आत्मघात द्वारा करना अधिक समीचीन नहीं है। पति भक्ति सती होकर आत्मघात करने में नहीं, वरन् ईश्वर प्रदत्त मानव-जीवन को अधिकाधिक उज्जवल एवं उत्कृष्ट बनाकर पति का गौरव एवं यश बढा़ने में है।" अहिल्याबाई को श्वसुर का तर्क एवं पूर्ण परामर्श शिरोधार्य कर सती होने का अपना निश्चय छोड़ना ही पडा़।
श्वसुर के अनुरोध पर सती होने का निश्चय त्याग देने पर अहिल्याबाई को भावातिरेक जब प्रशमित हो गया, तब उन्हें विचार आया-"निश्चय ही मानव-जीवन एक अलभ्य अवसर है। इसको यों ही नष्ट कर डालना ईश्वर के मंतव्य से विश्वासघात करना है। यदि इसमें कोई मंतव्य न होता तो शक्तियों, गुणों और विशेषताओं से परिपूर्ण मानव अस्तित्व का कोई अर्थ ही न होता। मानव-जीवन ईश्वर की ही एक छोटी अभिव्यक्ति है। इसे नष्ट कर डालने का किसी को भी अधिकार नहीं है।"
"आत्मघात तो एक पाप है ही, साथ ही अन्य प्रकार से भी जीवन का विनाश करना एक अपराध है। जो मनुष्य अज्ञानवश विषय-वासनाओं और भोग-विलास की विभीषिकाओं में पड़कर इस मानव-जीवन का दुरूपयोग किया करते हैं, वे भी इसका विनाश ही किया करते हैं। इसके अतिरिक्त जो लोभ, मोह, क्रोध अथवा अहंकार में पड़कर ऐसे काम किया करते हैं, जिससे अन्य मनुष्यों अथवा प्राणियों को कष्ट हुआ करता है, वे भी अपने मानव-जीवन को विनष्ट ही किया करते हैं।"
"लोभ के वशीभूत होकर प्रायः लोग अपनी शारीरिक, बौद्धिक तथा व्यावहारिक शक्तियों का दुरूपयोग कर धन-संपत्ति संचय किया करते हैं। इसके लिए वे शोषण, छल, कपट और आडंबर का आश्रय लिया करते हैं। चोरी, डकैती, भ्रष्टाचार आदि न जाने कितने गर्हित उपायों को ग्रहण किया करते हैं, उनके इन लोभ प्रेरित अपकृत्यों से न जाने कितने लोगों को कष्ट, हानि और शोक सहन करना पड़ता है। इन कुपरिणामक कार्यों को करने में जीवन का दुरूपयोग करना उसका नष्ट करना ही है।"
"बहुत बार मोह में पड़कर धर्म-मार्ग का त्यागकर अधर्म-पथ पर चलने लगते हैं। शास्त्रों की अवहेलना और विद्वान्, संतों तथा महात्माओं का तिरस्कार किया करते हैं। सच्चे, युक्त और हितकर वचनों का उपहास उडा़या करते हैं। शान-शौकत, शेखी और प्रदर्शन में धन तथा प्रवृत्तियों का दुरूपयोग करते और हास-विलास, आमोद-प्रमोद अथवा मनोरंजन में समय तथा सामर्थ्य को व्यर्थ में गँवाते रहते हैं, समाज, राष्ट्र अथवा संसार के प्रति भी उनका कुछ कर्तव्य है, इस बात पर कभी भूलकर भी विचार नहीं करते। अपने निहित स्वार्थों में लिप्त एक अंधी जिंदगी जीते रहते हैं। स्वार्थों में व्यवधान पड़ने पर शोक करते हैं। रोते, चिल्लाते और आवेगों के वशीभूत होकर अपराधों में प्रवृत हो जाते हैं। इस प्रकार का जीवन चलाना भी उसे नष्ट करना ही है।"
अपनी हीन तथा निम्न वृत्तियों को तुष्ट करने के लिए लोग प्रायः अहंकार का पालन किया करते हैं। वे मद में इतने मत्त हो जाते हैं। कि इस बात का विचार ही नहीं रखते कि उनके अहंकार के नीचे दबकर कितने निरपराध तथा असहाय लोगों का बलिदान हो रहा है? यदि धन है तो उसके बल पर लोगों को खरीदकर अपने अधीनस्थ बनाने में बड़प्पन अनुभव किया करते हैं। दूसरों की उन्नति तथा प्रगति देखकर ईर्ष्या करना, वे मनुष्य का सहज स्वभाव मानते और दूसरों के विकास में बाधा डालना राजनीति माना करते हैं। अपने दंभ की तुष्टि में बडी़ से बडी़ सामाजिक,राष्ट्रीय अथवा मानवीय हानि कर डा़लने में किंचित संकोच नहीं करते। अपनी इस दुर्बलता पर जरा-सा आघात पाकर सर्प की तरह कुपित होकर अपना अथवा पराये का अनिष्ट कर डालने पर तत्पर हो उठते हैं। इस प्रकार का आसुरी जीवन जीना भी जीवन को विनष्ट करना ही है। अनुष्य की यह सब अमानवीय प्रवृत्तियाँ पाप के ही अंतर्गत आती हैं। जो इस लोक में तो शांति, संतोष, शीतलता, निश्चिंतता अथवा निर्भयता का सुख नहीं ही अनुभव करने देती हैं, परलोक में भी सद्गति से वंचित कर देती हैं, जिससे लोक की शांति और परलोक की सद्गति अवरूद्ध हो, वह सारी जीवन-पद्धति जीवन को नष्ट करने का अपप्रयास है, जो न तो किसी प्रकार उचित है, न इसका अधिकार ही है और न यह उस परमपिता परमात्मा द्वारा क्षमा की जा सकती है। देर-सबेर उसका दंड मिलना निश्चित है।
परमात्मा प्रदत्त इस मानव-जीवन का सदुपयोग ही उसका सम्मान करना है। स्वार्थ का त्याग और परमार्थ का ग्रहण ही जीवन का सदुपयोग माना गया है। उपासना, सेवा और सत्कर्म ही परमार्थ-पथ के पावन प्रतीक हैं। अभाव एवं आवश्यकता पीडि़त व्यक्तियों की सहायता करना, दीन अपनी हीन तथा निम्न वृत्तियों को तुष्ट करने के लिए लोग प्रायः अहंकार का पालन किया करते हैं। वे मद में इतने मत्त हो जाते हैं। कि इस बात का विचार ही नहीं रखते कि उनके अहंकार के नीचे दबकर कितने निरपराध तथा असहाय लोगों का बलिदान हो रहा है? यदि धन है तो उसके बल पर लोगों को खरीदकर अपने अधीनस्थ बनाने में बड़प्पन अनुभव किया करते हैं। दूसरों की उन्नति। इस मंतव्य में ही इसको लगाये रखना जीवन की सुरक्षा तथा सम्मान करना है। वे सारे कर्म जिनसे आत्मा का विकास हो, परमात्मा का सामीप्य प्राप्त हो और संसार का हित-साधन हो, जीवन का सदुपयोग है, जिसका फल पुण्य, पावनता और अनंत शांति के रूप में मनुष्य को मिलता है। इसके विपरीत सारे कर्म और सारे मंतव्य जीवन का दुरुपयोग है, उसको नष्ट करना है।" इस गंभीर और यथार्थ विचार ने अहिल्याबाई की आत्मा में आध्यात्मिक प्रकाश भर दिया, जिससे उनका व्यक्तिगत शोक सार्वजनिक सेवा, करूणा तथा संवेदना के भावों में बदल गया। एक प्रकार से उनका आत्मिक, मानसिक तथा बौद्धिक कल्प-सा हो गया। जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण परमार्थिक प्रथाओं में बदल गया।
साध्वी अहिल्याबाई अब पुत्र और पुत्र-वधू दोनों के रूप में सास-श्वसुर की सेवा में उत्साहपूर्वक तत्पर हो गई। सेवा तो वह पहले भी करती थी, पर अब उसकी सेवा में श्रद्धा-भक्ति जैसी गंभीर भावना का समावेश हो गया था। सास श्वसुर ने उसकी सेवा में उस ऊष्मा का स्पष्ट अनुभव किया जो अव्यक्त आँसुओं के प्रभाव से पतिशोक का परिवर्तित स्वरूप ही था। उनकी आत्मा से अहिल्या के लिए शत-शत आशीर्वाद निकलते रहते थे।
किंतु अहिल्या की अग्निपरीक्षायें यही पर समाप्त नहीं हो गई थी। कुछ समय बाद उत्तर भारत की एक मुहिम में महाराज मल्हार राव की मृत्यु हो गई। अहिल्यानबाई ने श्वसुर की मृत्यु का आघात भी अपने चिर सिद्ध स्थैर्य एवं धैर्य की सहायता से सँभाल लिया। मोह की एक कडी़ और टूटने से वह अध्यात्म पथ पर एक कदम और आगे बढ़ गई। इस आघात से निराश होकर घर में पडे़ रहने के स्थान पर अहिल्याबाई ने अपने पूज्य श्वसुर का प्रतिनिधित्व करके उनकी आत्मा को संतोष देने का निश्चय कर लिया। उन्होंने श्वसुर की पावन स्मृति में अनेक विधवाओं, अनाथों तथा अपंग लोगों को आश्रय दिया। मेधावी तथा प्रतिभाशाली कितने ही छात्रों के लिए छात्रवृत्तियाँ नियुक्त की और अनेकों निराजीविका लोगों को काम पर लगवाया। निराश्रित माताओं और उनके बच्चों के पालन-पोषण के लिए अनेक प्रकार के छोटे-मोटे काम-धंधों का प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार उन्होंने अनेक परोपकार कार्यों द्वारा दिवंगत आत्मा का ऐसा हित साधन किया, जिससे परलोकवासी के साथ लोकवासियों का भी हित हुआ।
महाराज मल्हार राव की मृत्यु के बाद उनका धेवता माली राव गद्दी पर बैठा। किंतु वह बडा़ विलासी, क्रूर तथा स्वार्थी था। प्रजा का शोषण और उस पर अत्याचार करना उसका स्वभाव बन गया था। अहिल्याबाई को अपने पुत्र के इन कार्यों पर बडा़ दुःख होता था। उनकी हार्दिक इच्छा थी कि माली राव को गद्दी से उतारकर किसी योग्य तथा उपयुक्त व्यक्ति को राजा बनाया जाये। सच्चे सूर व्यक्ति कर्माकर्म के विषय में अपने-पराये का पक्ष-विपक्ष नहीं करते। वे लोकरंजन की दृष्टि से पराकाष्ठा तक न्याय तथा नियमशील रहा करते हैं। आत्मज होने पर भी अहिल्याबाई अपकर्मों के कारण मालीराव से अंसंतुष्ट थी। प्रजा के हित में वे उसे अधिकार च्युत कर देने पर विचार कर रही थी कि तब तक इंदौर की गद्दी खाली हो गई। केवल नौ महीने प्रजा का पीड़न करने के बाद माली राव की मृत्यु हो गई। विषयी, विलासी और अत्याचारी का अल्पायु होना कोई अस्वाभाविक आश्चर्य का विषय नहीं है। इस प्रकार के अपपुरूष आत्मघातियों की गणना में ही आते हैं, जो किसी समय भी अपने जीवन के अकाल समापन को प्राप्त हो जाते हैं।
आगे कोई उत्तराधिकारी अथवा उपाय न होने से इंदौर की बागडोर अहिल्याबाई ने अपने हाथों में ले ली और गंगाधर नामक एक व्यक्ति को मंत्री बनाकर प्रजा की सेवा करने लगी। किंतु अहिल्याबाई का विश्वासपात्र अभागा गंगाधर बडा़ स्वार्थी और राज्य-लोलुप निकला। अवसर न होने पर भी किसी का अस्वार्थी अथवा ईमानदार बना रहना कोई बडी़ बात नहीं है। विशेषता तो तब है, जब अवसर हाथ आने पर भी निःस्वार्थ तथा ईमानदार बना रहा जाये। इसी में सच्चे चरित्र और सच्ची मानवता का मूल्यांकन निहित है।
गंगाधर राव ने अहिल्याबाई को किसी बच्चे को गोद ले लेने और राज्य-सत्ता उसके अधिकार में सौंपकर भगवत् भजन करने का परामर्श दिया। दूरदर्शिनी अहिल्याबाई वैसे तो भले ही उसके इस सद्दर्शी परामर्श को मान लेतीं, किंतु उन्होंने गंगाधर राव के परामर्श के पीछे छिपी स्वार्थपूर्ण दुरभिसंधि को पहचान लिया था। उन्होंने अपना साहस सँभाला और गंगाधर राव का प्रस्ताव कठोरतापूर्वक अस्वीकृत कर दिया। साथ ही यह भी कह दिया कि राज्य के कार्यों में जो भी व्यक्ति अपने सुयोग्य गुणों का परिचय देगा, मैं उसी को शासन सौंप दूँगी; किसी बच्चे को गोद लेने की आवश्यकता नहीं है। इस पर वह विश्वासघाती गंगाधर राव अपने चाचा रघुनाथ राव पेशवा को इंदौर पर चढा़ लाया।
गंगाधर राव के इस विश्वासघात से अहिल्याबाई का तेज जाग उठा। उन्होंने सेनापतियों, नगरों के मुखियों तथा प्रतिनिधियों की एक सभा बुलाई और सर्वसम्मति से इंदौर की शासिका बनकर तुकोजी राव के सेनापतित्व में पेशवा रघुनाथ राव के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। पेशवा रधुनाथ राव अहिल्याबाई का यह साहस और दृढ़ता देखकर डर गया और बिना लडे़ ही वापस चला गया।
इन आकस्मिक अस्त-व्यस्तताओं के कारण राज्य में चोर-डाकुओं का बाहुल्य हो गया। उन्होंने उनका दमन करने के लिए घोषणा कर दी कि जो व्यक्ति इन अपराधियों का दमन करेगा उसके साथ वे अपनी बेटी मुक्ताबाई का विवाह कर देंगी। अहिल्याबाई की इस घोषणा में उनकी बहुत बडी़ दूरदर्शिता एवं बुद्धिमत्ता छिपी हुई थी। उन्होंने सोच लिया था कि एक तो इस प्रकार चोर-डाकुओं का दमन हो जायेगा, दूसरे वर की योग्यता तथा वीरता की परीक्षा हो जायेगी और तीसरे बेटी के विवाह के लिए राजनीतिक-लोलुपता की संभावना समाप्त हो जायेगी। यह भी एक प्रकार से पणपूर्ण स्वयंवर का ही स्वरूप था। निदान एक साहसी नवयुवक यशवंत राव ने डाकुओं के दमन का बीडा़ उठाया और प्राणों की बाजी लगाकर उस महान् कर्तव्य को पूरा कर दिखलाया। अपनी घोषणा के अनुसार अहिल्याबाई ने यशवंत राव के साथ मुक्ताबाई का विवाह कर दिया।
राज्य में शांति एवं व्यवस्था की स्थापना कर लेने पर अहिल्याबाई ने राज्य के सेठों, साहूकारों, व्यापारियों, शिल्पियों, कलाकारों, मजदूरों तथा अन्य आर्थिक क्षेत्र के व्यक्तियों को प्रोत्साहन दिया और व्यापार तथा शिल्पों में वृद्धि कराकर राज्य की उन्नति की। उन्होंने दूर से ईमानदार व्यापारियों को बुलाकर राज्य का व्यापार विकसित करने के लिए साधन तथा सुविधाएँ दीं। राज्य की आर्थिक दशा सुधर जाने पर अहिल्याबाई ने प्रजा के बहुत से कर हटाकर उन्हें आर्थिक उन्नति करने का अवसर दिया। विद्वानों, कवियों तथा लेखकों ने अहिल्याबाई से सहयोग पाकर अपनी-अपनी शत-शत रचनाओं द्वारा साहित्यिक भंडार की श्रीवृद्धि की। इस प्रकार पुण्यवती अहिल्या की व्यवस्था में सब ओर सुख-शांति तथा उन्नति-विकास की प्रवृत्तियाँ दृष्टिगोचर होने लगीं।
तथापि अभी उनकी अग्नि-परीक्षा समाप्त नहीं हुई थी। कुछ ही समय बाद थोडे़-थोडे़ अंतर से उनकी सास, पुत्री तथा जामाता की मृत्यु हो गई और वे संसार में सर्वथा अकेली रह गईं। किंतु फिर भी अहिल्याबाई ने धैर्य न छोडा़ और अपने कर्तव्य पालन में तत्पर बनी रहीं। वे मुसीबत पर मुसीबत आने और दुःख पर दुःख देखकर भी न तो एक क्षण को आँसू बहाने बैठी और न निष्क्रिय होकर अपने कर्तव्यों से विमुख हुई। जिसने आत्मा को अपना मित्र बना लिया होता है, अपने को कर्तव्य की वेदी पर समर्पित कर दिया होता है, परोपकार तथा परमार्थ को अपना ध्येय बना लिया होता है, वह अकेला रहने पर भी एकांकी नहीं रहता। पुण्य उसके सहचर होते हैं और परमात्मा उसकी रक्षा किया करता है।
विधि-विधान के वशवर्ती शासन का जो उत्तरदायित्व अहिल्याबाई पर आ गया था; यद्यपि वह असंख्यों जटिलताओं और आशंकाओं से भरा हुआ था, तथापि उन्होंने उसे उत्साह, साहस तथा आत्मविश्वास के बल पर वहन किया। उन्होंने चारों और से अपने आपको समेटकर प्रजा की भलाई तथा उन्नति में लगा दिया। जो शासक मन-वचन-कर्म से जनता-जनार्दन की सेवा में तत्पर रहता है, उसकी बहुत-सी राजनीतिक उलझनें आप से आप दूर होती रहती हैं। माहारानी अहिल्याबाई ने प्रजा की सेवा ही अपना ध्येय बना लिया और उसी में तन, मन धन से जुट गईं।
संसार के सत्यों तथा अध्यात्मिक विकास ने यद्यपि अहिल्याबाई को बडी़ सीमा तक विरक्त बना दिया था, तथापि वे अनासक्त भाव से अपने सारे कर्म तथा कर्तव्य करती रहीं। उन्होंने सोचा कि-यदि मैं राज्य-भार से विरत होकर केवल आत्म-साधना में लग जाती हूँ तो न जाने शासन-सूत्र कैसे हाथों में चला जाये और उस दशा में प्रजा का उत्पीड़न हो सकता है। प्रजा के उत्पीड़न की संभावना से तटस्थ होकर यदि मैं आत्म चिंतन में निरत हो जाती हूँ तो कर्तव्यहीनता का दोष मेरी आत्मा का विकास अवरूद्ध कर देगा और मैं उसी प्रकार परमार्थ लाभ की अनधिकारिणी बन जाऊँगी जिस प्रकार अपने पारिवारिक तथा सामाजिक कर्तव्यों को हठात् त्यागकर संन्यास लेने वाला व्यक्ति अथवा तपस्या के लिए वनों, पहाडो़ में चले जाने वाली पलायनवादी। अपने वर्तमान उत्तरदायित्वों को त्यागकर आत्म-साधना करने वालों को मुक्ति कदाचित् ही मिल सकती है।
इसके विपरीत जो गीता के अनुसार अनासक्त भाव से अपने कर्तव्यों का पूर्णरूपेण श्रद्धा के साथ पालन करता रहता है और ऐसा करते हुए ही उसका शरीर छूट जाता है, तब भी वह मोक्ष का अधिकारी बन जाता है फिर चाहे उसने एकांत में बैठकर आत्म-चिंतन किया हो या नहीं। इस प्रकार विवेकपूर्वक विचार करके महारानी अहिल्याबाई ने अपने लिए प्रवृति मार्ग ही चुना। उन्होंने जनता के माध्यम से लोक-सेवा को अपना जीवन लक्ष्य बना लिया और उसी को परमार्थ साधन मानकर उसी में लग गईं। लोक-सेवा वह चाहे व्यक्तिगत रूप से की जाये अथवा किसी संस्था के माध्यम से, यदि उसका लक्ष्य आध्यात्मिक है, उसमें निहित भावना साधनावती है|