Books - नारी को मनुष्य समझा जाय
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
नारी को मनुष्य समझा जाय
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
मानव जाति को एक बड़ा काम करना अभी बाकी है, वह नारी को मानवी अधिकारों का वापस किया जाना। इसके बिना आधी दुनिया पराधीन ही बनी रहेगी और यह कहना कोरा पाखण्ड होगा कि अमुक देश को स्वाधीनता मिल गयी, वहां पराधीनता से छुटकारा पा लिया गया; क्योंकि आधी जनसंख्या नर है और आधी नारी। नारी को मानवता के साथ जुड़े हुए अविच्छिन्न मौलिक अधिकारों से वंचित रहना पड़े, तो यह कहना व्यर्थ है कि न्याय को मान्यता मिल गयी और पराधीनता के अभिशाप से छुटकारा मिला।
नारी नर से किसी बात में पीछे नहीं है। बौद्धिक प्रखरता के क्षेत्र में वह सदा आगे रही है। लड़कों की तुलना में वह अधिक अनुपात में उत्तीर्ण होती है और अच्छे नम्बर लाती है। कला-कौशल के क्षेत्र में सदा उनकी वरिष्ठता रही है। संगीत और गायन तो उनकी सर्वमान्य विशेषता है। प्रतिभा और आकर्षण में वे पुरुषों को सदा पीछे छोड़ती रही है। मातृत्व का भार वहन करते हुए भी शरीर की दृष्टि से हल्की-फुल्की होते हुए भी वे अपेक्षाकृत कम बीमार पड़ती और अधिक दिन जीवित रहती हैं। अभिनय और नृत्य में पुरुष उनका मुकाबला नहीं कर सकता। स्नेह, सौजन्य, उदारता, सहानुभूतियां देने की दृष्टि से उनका अन्तराल ऐसा बना हुआ है, मानों वे ममता और करुणा की साक्षात् प्रतिमा बनकर ही इस धरती पर अवतरित हुई हों।
मानवी वंश परम्परा को चलाने में अधिकांश दायित्व उन्हें ही निभाना पड़ता है। पिता तो इस संदर्भ में निमित्त मात्र है। भ्रूण का शरीर माता का ही जीवन तत्व लेकर बढ़ोत्तरी करता है। प्रसव-यातना में कितनों को ही दम तोड़ना पड़ता है। महीनों बाद वे साधारण स्थिति तक पहुंच पाती है। इसके उपरान्त लम्बी अवधि तक बालक को दूध पिलाती और चौबीस घंटे की नौकरानी की तरह उसकी सेवा-सुश्रूषा साज-संभाल में लगी रहती हैं। नारी का यह योगदान न मिले तो समझना चाहिए कि मानवी सृष्टि इस संसार में से समाप्त हो गयी। बचपन में अधिक सीखने की क्षमता होती है। उसका विकास माता की छत्रछाया में ही होता है।
गृहस्थ का समूचा दायित्व वही संभालती है। जीवन का आधार भोजन है, तो भोजन की कर्त्ता-धर्त्ता नारी। घर की स्वच्छता और सज्जा को पूरी तरह वह संभालती है। माना कि पुरुष अपनी कठोर संरचना और बलिष्ठता के कारण शारीरिक श्रम अधिक कर सकता है। मार काट जैसे क्रूर कामों में भी वही आगे रहता है; पर यदि दोनों के बीच इस क्षेत्र में भी प्रतिद्वन्द्विता हो, तो उपयुक्त अवसर पाने पर वह इस क्षेत्र में भी पीछे न रहेगी। बर्मा, युगोस्लाविया आदि देशों में कृषि और पशुपालन जैसे श्रम साध्य और झंझट भरे काम उसी के बलबूते चलते हैं। इन क्षेत्रों में सफलता का उसने कीर्तिमान स्थापित किया है।
सवर्ण लोगों की महिला पर्दे के पिंजड़े में बन्द होने के कारण शारीरिक दृष्टि से दुर्बल और मानसिक दृष्टि से संकुचित भले ही हो; किन्तु पिछड़े कहे जाने वाले वर्ग की नारियों को जो घर-बाहर का काम करना पड़ता है वह पुरुष की तुलना में हल्का नहीं, भारी ही पड़ता है।
नारी का शोषण जिस कारण हुआ है, वह उसकी प्रजनन क्षमता है। इस कारण उसे शारीरिक दुर्बलता घेरती है और उन दिनों अर्थ उपासना या कड़े काम न करने के कारण आर्थिक उपार्जन उसका कम रहता है। छोटे बच्चे की देख भाल घर की चहार दीवारी में ही संभव है। बाहर से लौटने पर पुरुष के लिए सारी सुविधायें जुटा रखने के निमित्त भी उसकी हाजिरी घर में चाहिए, फिर भी बिना छुट्टी पाने वाली चौकीदारिन भी है। घर खाली हो तो चोर उचक्के दिन-दहाड़ें ही ताला तोड़ कर उठा ले जा सकते हैं। स्त्री व्यवसाय करके कमाती नहीं है। फिर भी वह घर पर जो मजूरी एवम् बचत करती है, उसकी कीमत जोड़ी जाय तो बचाने में उतनी ही उपयोगिता सिद्ध करती है, जितनी पुरुष कमाने में। यदि पुरुष को अकेला रहना पड़े, होटल में खाना और बोर्डिंग में रहना पड़े, तो धोबी की कपड़े की धुलाई समेत उसका खर्च उतना ही पड़ेगा, जितने में कि एक मध्यवर्ती गृहस्थ का गुजारा हो जाता है।
फिर माता की ममता, पत्नी का समर्पण, बहिन का सौजन्य, पुत्री की मृदुल कोमलता जितना अन्तःकरण को परितोष देती है, उसकी कीमत पैसे से नहीं नापी-तोली जा सकती। अनेक दृष्टिकोण से पुरुष नारी का ऋणी और कृतज्ञ है। बदला चुकाने का प्रयत्न करने पर भी वह चुका नहीं सकता। इसलिए वस्तु स्थिति का सही मूल्यांकन कर सकने वाले दार्शनिकों और धर्मवेत्ताओं ने उसे वरिष्ठता दी है, नर तनुधारी ‘देवी’ कहा है। आदि संविधान सृजेता मनु ने तो यहां तक कहा है कि जिस घर में नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं। जहां युग्मों का उल्लेख करना होता है, वहां नारी को प्रधान और नर को गौण कहा जाता है—जैसे सीताराम, राधेश्याम, लक्ष्मीनारायण, उमामहेश्वर, शचीपुरन्दर आदि-आदि।
नारी का अतीत अत्यन्त श्रद्धापूर्ण है। ब्राह्मी, वैष्णवी, रौद्री के रूप में—सरस्वती, लक्ष्मी दुर्गा के रूप में अनेक नाम रूप से उसकी पूजा उपासना होती है। दक्ष पुत्री सती के न रहने पर शिव शोक विह्वल विक्षिप्त जैसे हो गये थे। सीता के वियोग में राम को कितनी व्यथा सहनी पड़ी इसे कौन नहीं जानता। नारीत्व को गंगा के समान पावन और तरण तारिणी कहा गया है।
यह नारी की विशिष्टता और वरिष्ठता का उल्लेख हुआ; पर इतना मानने में किसी को ऐतराज हो तो उसे पुरुष के समतुल्य तो मानना ही पड़ेगा। इस समता पर प्रकटीकरण तभी होता है, जब एक दूसरे के लिए दोनों पक्षों के कर्त्तव्य और अधिकार समान हों। इसमें अन्तर पड़ते ही अन्याय आरम्भ हो जाता है। इस अन्याय से भारत का नारी समुदाय ही नहीं, विश्व के तथाकथित ‘सभ्य’ कहलाने वाले देशों की भी यही स्थिति हैं। अपवाद स्वरूप साम्यवादी देशों में ही अपेक्षाकृत कुछ राहत देखी जाती है। योरोप में कुछ दिन पहले तक स्त्रियों में आत्मा नहीं मानी जाती थी और उन्हें पाप की खदान माना जाता था। मध्यकाल में स्त्रियों को दासी बनाकर खरीदा बेचा जाता था। वे जानवरों की तरह जिस तिस को दान में भी दी जाती थीं। उनके कोई अधिकार नहीं थे। पति के मरने के उपरान्त परिवार वाले ही सारी सम्पत्ति हड़प लेते थे और विधवा को या तो पति के साथ जला देते थे या सिर मुड़ा कर काशी वृन्दावन आदि तीर्थों में भीख मांगकर गुजारा करने के लिए छोड़ देते थे। पुरुष एक साथ कई पत्नियां और रखेलें रख सकता था, किन्तु बाल विधवाओं तक को दूसरे विवाह का अधिकार नहीं था। परित्यक्ताओं को भी विधवाओं जैसा उत्पीड़न सहना पड़ता था।
इन दिनों सभ्यता के विकास क्रम में स्त्री शिक्षा पर से रोक उठी है और उन्हें चुनावों में वोट देने का अधिकार मिला है; पर व्यावहारिक जीवन में उनकी दुर्दशा अभी भी कम नहीं हुई। बिना भारी दहेज के गुणवती सुयोग्य कन्यायें किसी सम्पन्न घर में नहीं जा सकतीं। दहेज कम मिलने पर लड़कियों को जिस प्रकार संत्रस्त किया जाता है वह किसी से छिपा नहीं है। नव वधुओं को इसी कारण जिस प्रकार आत्मघात करने पड़ते हैं या मार दिया जाता है, उसके विवरण पढ़ने से विदित होता है कि मनुष्य आकृति में अभी भी नर पिशाचों की कमी नहीं है। कम दहेज लाने वाली लड़कियां अपमानित तो जन्म भर होती रहती हैं।
वरिष्ठ को वरिष्ठता न मिले, तो कम-से-कम समता तो मिलनी ही चाहिए। किन्तु जो स्थिति है उसे देखते हुए प्रतीत होता है कि घर संभालने वाली नौकरानी से अधिक उसकी कोई स्थिती नहीं है। नौकरानी से भी इन दिनों तमीज से बोलना पड़ता है और भले आदमियों जैसा व्यवहार करना होता है। अपमान तो वह भी नहीं सहती। दूसरे दिन अन्यत्र काम पर चली जाती है और लौटने की खुशामद करने पर भी वापिस आने को तैयार नहीं होती। स्त्री की मान-मर्यादा इतनी तो रखी ही जानी चाहिए, जितनी एक अपरिचित आदमी दूसरे के साथ लोकाचार शिष्टाचार बरतता है। वे दिन चले गये, जब स्त्रियां पशुओं की तरह सभी दुर्व्यवहार सहती रहती थीं और अपनी सफाई देने पर मुंह जोरी का नया इल्जाम लगने पर ऊपर से दूसरा दंड सहती थीं। समय ने मनुष्य के स्वाभिमान को जगाया है और प्रेम सद्भाव न सही, कम-से-कम शिष्टाचार बरतने के लिए तो उत्सुक रहने के लिए नया मन बनाया है। समानता और सभ्यता का प्रथम चिन्ह यही है कि दूसरे के साथ शिष्ट भाषा में बोला जाय और सम्मान सौजन्य का निर्वाह किया जाय। नारी को छोटों से लेकर बड़ों तक से बात-बात पर झिड़कियां सहनी और कटु शब्द सुनने पड़ते हैं। अपने आरोपों का उत्तर देने पर उल्टी और आफत आती है, इसलिए वह रोकर—घूंट भर कर रह जाती है। इस स्थिति में शिक्षित ही नहीं, अशिक्षित भी व्यग्र होती हैं। जहां पूरे जंगलीपन का साम्राज्य है वहां की बात दूसरी है। लड़कियों और लड़कों के बीच बरता जाने वाला भेदभाव पग-पग पर परिलक्षित होता है। कपड़ों में, खाने में, व्यवहार में जब लड़की अपने प्रति घर वालों की उपेक्षा देखती है, तो बदला नहीं ले पाती पर हीनता की भावना से ग्रस्त हो जाती है। अपने को मनुष्य जाति का सदस्य कहते हुये भी हेय और हीन मानती है। यह प्रवृत्ति जब जड़ पकड़ जाती है तो मर्दों के बीच जाना तो दूर, उनके उत्तर तक नहीं दे पाती। अपने मन की बात को कह ही नहीं पाती। यह मानसिक घुटन उसके समूचे व्यक्तित्व को अपंग बनाती है। वह घर में घुसे चोर भिखारी तक को भगाने का साहस नहीं कर सकती। बाजार में सौदा खरीदने में उसकी हीनता को भांपने वाले दुकानदार बुरी तरह ठगते हैं।
यह संकोच वहां तक चला जाता है जहां कि बीमारियां सहती रहती हैं और घर वालों को इसकी चर्चा करने तक में झिझकती हैं। चिकित्सकों के सामने तो पूरा विवरण कह ही नहीं पातीं। ऐसी दशा में बीमारियां बढ़ती रहती हैं और वे धीरे-धीरे घुलती रहती हैं। जवानी में बुढ़ापे के चिन्ह अधिकांश महिलाओं में उभर आते हैं। उन्हें सस्ता बचा हुआ भोजन समय-कुसमय मिलता है। यौनाचार का दबाव इतना पड़ता है कि उनके कोमल अंग अत्याचार का बोझ न सहकर बीमार हो जाते हैं। पति की नाराजी को ध्यान में रखते हुए वे कुछ कह भी नहीं सकतीं।
पिता अपनी कन्या को जामाता के हाथ उसके परिवार के साथ इसलिए सौंपता है कि पितृ पक्ष के कर्त्तव्यों के उपरान्त ससुराल की, विशेषतया पति की जिम्मेदारी बढ़ती है कि वह उसके स्वास्थ्य को अधिक संभालने, शिक्षा को अधिक बढ़ाने, प्रसन्नता का वातावरण अधिक बनाने आदि का ध्यान रखते हुए स्नेह सम्मान में कमी न आने देते हुए उसे अपेक्षाकृत अधिक विकसित करने का प्रयत्न करे। पिता के घर से कली के रूप में आई थी तो उसे ससुराल में फूल की तरह खिलाने में सामर्थ्य भर प्रयत्न करने में कोई कमी न रहने दें। पर होता ठीक उलटा है। उसे दूसरे के घर से बेची हुई नौकरानी की तरह इस तरह की परिस्थितियों में रहने के लिए बाधित किया जाता है कि घुटन ही उसके व्यक्तित्व का कचूमर निकाल दे।
भावुक लड़कियां इस स्थिति को सहन नहीं कर पातीं और अपने निर्दोष होने की सफाई देने लगती हैं। इस कथन में कई बार नये रक्त के कारण आवेश भी आ जाता है और कटु शब्द भी वह कह बैठती हैं। इतना बन पड़ने पर उसे समझा-बुझा कर शान्त करने वाला तो कोई होता नहीं जो उस नमक मिर्च मिली बात को सुनता है, वही उबल पड़ता है। और बात मार पीट तक आगे बढ़ जाती है।
पति बहुधा पत्नी की वस्तु स्थिति समझने पर भी उसका न्यायानुमोदित समर्थन नहीं कर पाते। कई बार सास ननद के भड़काने पर वे उलटा और दुर्व्यवहार करने लगते हैं। ऐसी दशा में दोनों के बीच खाई पड़ जाना स्वाभाविक है।
सास-ननद के बारे में समझा जाता है ये लोग पति से चुगली करके अपमानित कराती हैं, मुहल्ले-पड़ोस वालों से बदनामी कराती हैं, इज्जत घटाती और जलील कराती हैं। एक-दूसरे पर दोषारोपण करने, संदेह की दृष्टि से देखने का परिणाम यह होता है कि मनोमालिन्य घटता नहीं, वरन् बढ़ता ही जाता है, घर में कलह का बीजारोपण होता है, पार्टी वन्दी बनती है और फिर अंत यहां आता है कि संयुक्त कुटुम्ब बिखरने लगता है। चूल्हे अलग-अलग होते हैं और फिर एक प्रकार से संबंध विच्छेद ही हो जाते हैं। होता यह है कि लड़कियों को पिता के घर में सब प्रकार की छूट रहती है। वहां उन्हें कोई विशेष उत्तरदायित्व नहीं संभालने पड़ते; पर ससुराल जाते ही वातावरण एक दम बदल जाता है। वहां उसकी भूमिका बंदिली-नौकरानी जैसी हो जाती है। अनभ्यस्त कामों में भूल भी होती है। ऐसी दशा में उचित यही है कि घर की बड़ी महिलायें उसे बेटी जैसा दुलार दें । जो उसे करना है उसे प्रशिक्षण की तरह सिखाती चलें। प्रवीण होने का समय आने तक धैर्य रखें और जिस प्रकार बच्चे एक-एक कक्षा पास करते हुये उन्नति करते हैं उसी प्रकार की आशा नव वधू से रखें। वह आज नहीं तो परिस्थितियों के अनुकूल ढलना कल-परसों सीख जायेगी। पति पत्नी कभी-कभी जहां-तहां घूम आया करें, ऐसा भी अवसर उन्हें मिलना चाहिए। सुधार का तरीका प्यार में कमी अनुभव न होने देना और भूलों को एकान्त में कान में इशारा कर देना ही पर्याप्त होता है। बाहर के लोगों के सामने उसकी या उसके पितृ परिवार की निन्दा किसी भी कारण नहीं करनी चाहिए। बाहर के व्यक्ति गुत्थी सुलझाते तो नहीं, उलटे इधर की उधर भिड़ा कर कलह कराते और मनोमालिल्य की खाई चौड़ी करते हैं।
कुछ ऐसी ही छोटी मोटी बातें हैं, जिनका बदली परिस्थितियों के अनुकूल अभ्यास कराते रहने से काम चल जाता है और नया व्यक्ति नये परिवार में फिट हो जाता है। आरम्भिक दिनों में उसे मां बाप के यहां जाने और वातावरण बदलने का अवसर भी जल्दी-जल्दी देना चाहिए।
उपार्जन मर्द करे, तो हर्ज नहीं; पर उसे खर्च करने का क्रम पत्नी से पूछ कर करना चाहिए। घरेलू खर्च पत्नी के हाथों कराया जाय तो उसे अपने को गृहस्वामिनी होने का भान होता रहता है। पत्नी को घर की महिलाओं को घरेलू खर्च का हिसाब-किताब विदित न होने दिया जाय, पैसा सदा अपनी ही जेब में रखा जाय तो उन्हें यह भान होता है कि वे अधिकार विहीन हैं। गृह संचालन में उनका कोई हस्तक्षेप नहीं। इस स्थिति में भी उन्हें अपनी हीनता की अनुभूति होती है और घर में रहते हुए भी विरानेपन जैसा अनुभव करती हैं। किसी भी अवसर पर उनकी भावनाओं को चोट न लगे, विशेष रूप से ध्यान रखने योग्य है। स्मरण रहे, महिलायें भाव प्रधान होती हैं। उनको अपनी ओर से उनके मान-सम्मान एवम् प्रोत्साहन—प्रशंसा में कमी न रहने दी जाय, तो इतने भर से काम चल जाता है। गरीबी और व्यस्तता को भी वे किसी प्रकार सहन कर लेती हैं और हंसते—हंसाते समय गुजारने लगती हैं।
पति-पत्नी में से किसी को भी यह अनुभव नहीं होने देना चाहिए कि उनकी उपयोगिता कामाचार भर की है। इसके लिए उत्तेजक वातावरण बनने या आकर्षक अभिनय करने की आवश्यकता है इस मान्यता को जिस सीमा तक जितनी जल्दी घटाया या हटाया जा सके उतना ही उत्तम है। पति-पत्नी का पारस्परिक संबंध दो भाइयों या दो बहिनों जैसा होना चाहिए, जिसका उद्देश्य एक-दूसरे को अधिक स्वस्थ, समुन्नत, प्रसन्नचित्त बनाना होना चाहिए और मिल-जुलकर ऐसी व्यवस्था में जुटना भी जिसका अर्थ होता हो सर्वतोमुखी प्रगति के लिए मिल जुलकर काम करना। इसके लिए मिल बैठकर योजना बनाई जा सकती है। भावी जीवन किस आधार पर किस योजना के साथ पूरा किया जाय? वस्तुतः पति-पत्नी को अपने संबंध वेश्या व्यभिचारी जैसे न रखकर भाई-भाई जैसे रखने चाहिए। इसी आधार पर वह परम्परा टूटेगी जिसके आधार पर पिछले दिनों एक ऐसी खाई उत्पन्न हो गई है, जिसने समाज का पूरा ढांचा ही हिला दिया है और स्थिति ऐसी बना दी है जैसे दरबारी अपनी भलाई इसी में समझते थे कि राजा साहब का उचित अनुचित आदेश मानने या उनकी ‘हां’ में ‘हां’ मिलाने में ही खैर है। इसका परिणाम यह हुआ है कि नारी अपना मनोबल, शरीरबल, आत्मबल बुरी तरह गिरती चली गई है और पुरुष के लिए घर-गृहस्थी के छोटे दायरे को छोड़कर आगे अन्य किसी काम में सहयोग देने लायक नहीं रही है।
यहां तक कि वह अपने बच्चों का पालन और साज-संभाल भी नहीं कर सकती। देश में अधिकांश लोग गरीब हैं। इस गरीबी के रहते यदि पति या घर का कोई सदस्य बीमार पड़ जाय तो इलाज करना तो दूर, इतना भी नहीं कर सकती कि उचित चिकित्सक के पास जाकर उचित उपचार भी पूछ सके। इतना भी नहीं हो सकता कि पति के मर जाने पर उसकी छोड़ी सम्पत्ति को भी सुरक्षित रख सके। उसे देवर, जेठ, भाई भतीजे किसी न किसी बहाने ठग लेते हैं। यदि कुछ भी पास में शेष न बचा हो तो पांच बच्चों की माता अपने सारे बालकों का अपना भरण पोषण और शिक्षा चिकित्सा जैसी महत्वपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति कैसे करे? इसका प्रबन्ध कर सकना भी उसके वश के बाहर की बात होती है और उनके उपरान्त उसका शेष जीवन कैसे कटे? इस कल्पना को करने भर से छाती फटती है। यदि महिला किसी योग्य रही होती तो उसकी योग्यता इस योग्य तो रही होती कि पति के छोड़े हुए निर्धन परिवार का किसी न किसी प्रकार गुजारा कर लेती।
स्त्री पुरुषों के बीच मात्र मैत्री भावना रहे, तो इसका प्रभाव यह हुआ होता कि जिसकी योग्यता कम थी उसकी बढ़ाई गई होती। कार्य, व्यवहार, व्यवसाय आदि में उसका सहयोग लिया होता और एक-एक मिलने से ग्यारह बनने की उक्ति को चरितार्थ करने का अवसर मिला होता।
जिस प्रकार संयुक्त परिवार की अति महत्वपूर्ण परम्परा की आचार संहिता के अभाव में छिन्न-भिन्न होने का अवसर आ गया, उसी प्रकार विवाह को यौनाचार का लाइसेन्स भर मान लेने का परिणाम और भी भयंकर होगा। स्त्री पुरुषों में से दोनों के स्वास्थ्य नष्ट हो जायेंगे। बच्चे बढ़ने से न उनका ठीक से पालन-पोषण हो सकेगा और न शिक्षा-दीक्षा का उपयुक्त प्रबन्ध। आवारा और अस्वस्थ बच्चे देश के लिए, परिवार के लिए भार बनेंगे और समूचे देश की आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था पूरी तरह गड़बड़ा जायेगी।
पति-पत्नी को आरम्भ से ही यह विचार गले उतारना चाहिए कि यौनाचार के साथ जुड़े हुए हजार संकटों से उन्हें बचने का अधिक से अधिक ध्यान रखना चाहिए। बच्चों की संख्या तो किसी भी कीमत पर नहीं बढ़नी चाहिए और अगले दिनों वाली जिम्मेदारी का ध्यान रखते हुए यह सोचना चाहिए कि बीमा, फिक्स डिपोजिट आदि के माध्यम से कुछ बचत भी करते रहें। पारिवारिक दूरदर्शिता में इन सब बातों का समावेश होना चाहिए।
‘कम्यून’ प्रणाली के पुनः प्रचलन के माध्यम से अब फिर नये सिरे से विज्ञजन यह सोचने लगे हैं संयुक्त परिवार प्रणाली ही एक मात्र ऐसी प्रथा है, जिसके अनुसार वैयक्तिक और सामाजिक जीवन सुख, शान्ति प्रगति और व्यवस्था के आधार पर, दूरदर्शिता के आधार पर सुगठित किया जा सके। इस प्रणाली को ठीक से व्यवस्थित किया जा सके तो संयुक्त परिवार में पारस्परिक सहायता से बच्चों का पालन भी हो सकता है और युवतियों को पति का हाथ बंटाने और अपनी योग्यता में बहुस्तरीय उत्कर्ष करने का अवसर भी मिल सकता है। संयुक्त परिवार न बन पड़े तो घरेलू नौकरों के सहारे घर के वे काम सस्ते दाम में कराये जा सकते हैं जिनके लिए एक सुयोग्य पत्नी को अपना बहुमूल्य समय सस्ते और घटिया काम में खर्च करने के लिए विवश होना पड़ता है और पिता के यहां से कमाई हुई योग्यता भी दिन-दिन घटती जाती है।
यौनाचार के दुष्परिणाम की ही यह प्रतिक्रिया है कि हर स्त्री सोचती है कि उसके पति यदि किसी युवती से साधारण बात कर रहे होंगे तो उसके पीछे कोई दुरभिसन्धि सोचती है इसी प्रकार कोई स्त्री किसी पुरुष से सामान्य वार्त्ता कर रही हो, तो उसमें भी दुर्बुद्धि की कल्पना करते हैं। यह अविश्वास की चरम सीमा है और इसलिए बन पड़ी कि हर व्यक्ति के सिर पर यौनोन्माद एक प्रकार से मस्तिष्क ज्वर की तरह हावी हो गया है और उसकी नाक दुर्गन्ध के अतिरिक्त और कुछ नहीं सूंघती, आंखें दुराचार के अतिरिक्त और कुछ नहीं देखतीं। यदि जन मानस में से इस कुकल्पना को हटाया जा सके, तो इन दिनों एक दूसरे पर चौकसी रखना, अनेक प्रतिबंधों में कसने की जो धृष्ट धारणा है, उसके लिए कोई गुंजाइश न रहे। नर-नारी के बीच सनातन रिश्ता बहिन-भाई-पिता-पुत्री का है। पत्नी भी अपनी परम्परा के अनुसार रमणी, कामिनी नहीं हो सकती। उसे धर्मपत्नी कहा जाता है, जिसका अर्थ होता है कि जीवन की नाव को दोनों हाथों से डांड चलाते हुए इस पार से उस पार करना।
विकृतियां सिनेमा ने और हेय साहित्य ने फैलाई हैं। सामन्तकाल में बहु पत्नी प्रथा का प्रचलन चल पड़ा। इसका परिणाम भी यह हुआ कि चोर की दाढ़ी का तिनका अनायास ही उछलने लगा। पुरुष वर्ग नारी को अविश्वस्त समझने लगा। यह और कुछ नहीं अपनी ही आकृति को दर्पण में देखकर उस निर्दोष छांव पर अनेकानेक दोषारोपण करना भर था। जिन देशों में स्त्री पुरुष मिलकर कारोबार चलाते हैं, वहां ऐसी उच्छृंखलता न कोई सोचता है, न बरतता है। यही होना भी चाहिए। शरीर के दो हाथ-पैरों की तरह गाड़ी के दो पहियों की तरह स्त्री पुरुष एक दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखें, परस्पर अविश्वास करें तो बात यौनाचार के संदर्भ तक सीमित नहीं रहती। सर्वत्र परायापन छा जाता है और उस भीतरी भेदभाव का प्रमाण परिचय बहिरंग जीवन के अन्यान्य क्षेत्रों में भी दीख पड़ता है। एक दूसरे की चौकसी करे, अविश्वास की दृष्टि से देखे, तो समझना चाहिए कि उसकी मूल सत्ता समाप्त हो गई, प्रगति का द्वार बन्द हो गया और लोकाचार भर का बाह्य व्यवहार रह गया। ऐसी दशा में वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक प्रगति की बात एक प्रकार से कल्पना मात्र बन कर रह गई। यह स्थिति इतना दुर्भाग्यपूर्ण है कि इसका दुष्परिणाम समूचे कार्यक्षेत्र को अस्त व्यस्त किए बिना नहीं रह सकता।
संसार के प्रगतिवान देशों में स्त्री की क्षमता का भी पुरुष की क्षमता जैसा ही उपयोग होता है। दोनों की शिक्षा पर समान रूप से ध्यान दिया जाता है। योग्यता अभिवर्धन के प्रत्येक क्षेत्र में उन्हें समान रूप से आगे बढ़ने का अवसर मिलता है फलतः उपार्जन क्षेत्र में भी दोनों में से कोई किसी से पीछे नहीं रहता। घर की सम्पन्नता बढ़ती है और उसके सहारे अधिक समुन्नत, साधन सम्पन्न जीवन जी सकना संभव होता है। किसी पर आश्रित नहीं रहना पड़ता। एक दूसरे पर निर्भर अवलम्बित घनिष्ठ आत्मीय की स्थिति में रहें, यहां तक तो संतोष एवम् हर्ष की बात है; पर यह बुरी बात है कि कोई किसी के लिए गले का पत्थर बन कर रहे। पति के बिना विधवा का जीवन ही नरक हो जाय।
यह समूची कल्पना अनीतिमूलक है। यह आधुनिक बाजारू सभ्यता है, जिसमें सयानी लड़कियों को अकेले-दुकेले रास्ता चलना कठिन पड़ता है और असभ्य आचरण की आशंका बनी रहती है। इस डरावनी स्थिति का अन्त होना चाहिए। स्कूली शिक्षा के साथ ही फौजी ड्रिल कवायद या—खेल कूद प्रतियोगिताओं का ऐसा प्रबन्ध चलना चाहिए, जिससे किसी लड़की को न किसी अनाचारी से डरना पड़े और न कोई किसी पर अनर्गल आचरण की कल्पना कर सके। जिन क्षेत्रों में पर्दा नहीं होता और स्त्री-पुरुष अपने-अपने ढंग के श्रम उपार्जन करते हैं, वहां अपेक्षाकृत व्यभिचार का प्रचलन बहुत कम है। अनाचारी दृष्टि तो आवरण के कौतुक में से निकलती है। उसके समापन में ही गर्व करना चाहिए। हमें अपने देश की महिलाओं में रानी लक्ष्मीबाई, रानी दुर्गावती जैसी महिलाओं की कल्पना और स्थापना करनी चाहिए, जो किसी भी अनाचारी के छक्के छुड़ा सके।
इस संदर्भ में एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि नर-नारी के साथ आभूषणों को इस प्रकार का न बनने दिया जाय, जिसके कारण किसी को देखकर प्रतिपक्ष के मन में उत्तेजना उत्पन्न हो या उसके चरित्र पर संदेह करने की कुकल्पना उठे। इस स्थिति में शृंगारिकता भी एक बड़ा दोष है। उसे धारण करने पर प्रतिपक्षी के मन में उसके आचरण, चिन्तन एवं दृष्टिकोण में ओछेपन की कल्पना का समावेश करने का अवसर मिलता है और भ्रान्ति के कारण अवांछनीय घटनायें घटित होने लगती हैं। इस स्थिति को कड़ाई से समाप्त करना चाहिए। सादा जीवन उच्च विचार का मन्त्र नारियों के ही नहीं, पुरुषों के भी हृदय की गहराई तक पहुंचा देना चाहिए। चीन में नर-नारियों की पोशाक प्रायः एक जैसी होती है। ऐसी स्थिति में सभी अपने को मनुष्य मानते हैं। रमणी, कामिनी, मनचली, वेश्या, बेबस, बेचारी जैसी हेय भावनायें किसी के मन में उठती ही नहीं। उद्धत वस्त्राभूषण तथा शृंगार प्रसाधनों से भी धारणकर्त्ता को छिछोरा माना जाता है। या तो वह अमीरी का ढोंग रचे फिरता है या फिर उसकी छिछोरी वृत्ति दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना चाहती है। यह बात पुरुष के सम्बन्ध में भी है।
नर नारी के बीच समता और आत्मीयता का भाव विकसित करना है तो इस मार्ग की सबसे बड़ी बाधा शृंगारिकता के प्रचलन को हटाने के लिए कड़ाई से प्रयत्न करना होगा। अमीरों या बचकाने व्यक्तियों द्वारा चलाये गये इस खर्चीली ढकोसले का अन्त करना चाहिए। यह कुछ बहुत कठिन नहीं है। कुर्त्ता-धोती का प्रचलन नर-नारी दोनों के लिए ही अपने गर्म देश में उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं, साथ ही इस प्रचलन से समता की मान्यता को भारी बल मिल सकता है।
जेवरों में नाक के जेवर तो इतने घिनौने है कि वे नाक जैसे प्राण वायु संचार के सबसे संवेदनशील मार्ग में अड़ंगा अटकाते हैं और नथुनों की सफाई में अड़चन उत्पन्न करते हैं। अन्य जेवरों के संबंध में भी यही बात है। वे जिस भी अवयव पर पहने जाते हैं, वहीं की कोमलता नष्ट करते और कठोरता बढ़ाते हैं। पैसे की तो प्रत्यक्ष हानि है ही। घिसते रहने पर वजन कम होता है घटिया धातुओं की मिलावट तो आमतौर से रहती है। ईर्ष्या भड़कती है चोरी का डर रहता है। उतनी रकम यदि स्त्री धन के रूप में बैंक में डाल दी जाय तो पांच वर्ष में दूरी राशि ब्याज समेत हो जाती है जबकि जेवर में घिसते, टूटते, मरम्मत होते आधी भी नहीं रहती। महिलाओं के रहन-सहन में उत्तेजक आकर्षणों को यदि कम किया जाने लगे तो व्यभिचार, अनाचार की कुकल्पना में सहज ही आधी कटौती हो सकती है। वस्त्रों की सादगी-पेट, पीठ, टांगें आदि का खुला न रखना जैसे मामूली से हेर-फेर ही ऐसे हैं जो न केवल नारी के गौरव और स्तर को बढ़ाते हैं, वरन् उसके शील सदाचार की भी रक्षा करते हैं। पैसे की बचत तो स्पष्ट ही है। अनेक फैशन के, अनेक प्रकार के अधिक कपड़ों से बक्से भरे रहने और उनके जीर्ण-शीर्ण हो जाने, कीड़ों मकोड़ों द्वारा खा लिये जाने के झंझट से सहज ही बच जाते हैं। दैनिक प्रयोग स्तर के कपड़ों को ही यदि साफ-सुथरा, इस्त्री किया हुआ रखा जा सके तो इसमें सादगी; शालीनता और मितव्ययिता के तीनों लाभ एक साथ मिलते हैं। यह बात मात्र महिलाओं के लिए ही नहीं कही जा रही है। सादगी को सज्जनता का पर्यायवाची मानते हुए सभी लोग अपना वेश विन्यास उपयुक्त स्तर का रखें तो उसका भी कम महत्वपूर्ण प्रभाव न पड़ेगा। जब मिशन का संदेश हर भावनाशील के लिए यह है कि वह औसत भारतीय स्तर का जीवनयापन करे और बचत को युग समस्याओं के समाधान में प्रयुक्त करे, तो फिर यह क्यों न किया जाय कि गले में साइन बोर्ड की तरह लटके हुए अमीरी और उच्छृंखलता का बोर्ड क्यों लटकाये फिरा जाय? गांधीजी ने खादी के प्रचलन पर इसी हेतु जोर दिया था कि जन साधारण की हैसियत मालूम पड़े। भीतर जाने कौन कितना धनी निर्धन हैं, इसका पता तो तलाशी लेने पर ही चलता है; पर फौजी सिपाहियों की तरह सबकी एक जैसी ड्रेस हो जाने पर सामान्य दृष्टि से तो यही पता चलता है कि सब एक जैसे हैं, भले ही उनमें से कोई ग्रेजुएट हो या मिडिल पास।
थोड़ा अन्तर तो स्त्री-पुरुषों के पोशाक में रहेगा; पर सादगी और स्वच्छता की दृष्टि से सबका लिवास-पोशाक एक जैसा रहे, तो उतने से भी समता और एकता का एक रूप बनता है। खादी न सही, हैण्डलूम सही-यदि इस सीमा तक भी लोगों की पोशाक समता की दिशा में चलने लगे, तो उसका प्रभाव कम से कम दृश्य रूप से तो एक जैसा बनता है और उसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है। इस आधार पर पारिवारिक दाम्पत्य जीवन की एकता का तो कुछ स्वरूप बनता ही है।
कन्या और पुत्र के लालन-पालन खान-पान, सम्मान, प्यार, शिक्षा आदि में ऐसा अन्तर नहीं होना चाहिए कि लड़के की अहंता और लड़की की हीनता चरितार्थ होने लगे। यह विषमता आरम्भ से ही चल पड़े, तो फिर आगे चलकर उसको हटाया या घटाना कठिन हो जायगा; जबकि नर और नारी के दोनों समुदायों को एक स्तर पर लाना है। आधे समुदाय को दीन-हीन और आधे का स्वामी अहंकारी बने रहने की स्थिति बने हरने पर वह तथ्य कार्यान्वित न हो सकेगा, जिसमें नर और नारी की समता लिए हुए समाज विकसित होगा। अभी तो एक नर की टहल चाकरी में एक नारी की अपनी समूची क्षमता समाप्त करनी पड़ती है। यदि गृह प्रबन्ध की स्वतन्त्र व्यवस्था बनाते हुए कम योग्यता वालों को उसमें लगाते हुए उपयोगी व्यक्तियों को अधिक महत्वपूर्ण कार्यों में लगने लगें तो कई उद्देश्य एक साथ पूरे होते हैं। नारी का अनुभव व्यक्तित्व और स्वावलम्बन बढ़े तो इसका प्रभाव नर की ही नहीं, समूचे समाज की आशाजनक प्रगति के रूप में दृष्टिगोचर हो सकती है।
कन्या शिक्षा का आधा भर समय स्कूलों में खर्च किया जाय। आधे समय में वह सब सिखाया जाय जो नारी को सीखना तो चाहिए पर स्कूलों में उसकी पढ़ाने की व्यवस्था नहीं। घर परिवार कैसे चलाया जाता है? पारस्परिक व्यवहार कैसे चलता है? आपसी तुनक-कड़क का संतुलन किस प्रकार बिठाया जाता है? सादगी से कैसे रहा जाता है? बच्चों को सुधारने संभालने की नीति कैसे अपनानी पड़ती है? आदि बातों को अगर घर की कुशल महिलायें सयानी लड़कियों को सिखाया समझाया करें तो ससुराल पहुंचते ही उन्हें जिन मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है, वह न करना पड़े।
होना तो यह चाहिए था कि कन्या शिक्षा का स्तर और प्रबन्ध उतना ही भिन्न हो जितनी भिन्नता का प्रबन्ध अथवा समस्याओं का सामना करना पड़ता है। प्रायः बारह वर्ष की आयु में लड़कियों में थोड़ी समझदारी बढ़ती है और औसतन भारतीय लड़कियों की शादी अठारह वर्ष की आयु में हो जाती है। यह छह वर्षीय पाठ्यक्रम ऐसा हो सकता है जो नारी को वर्तमान गई गुजरी स्थिति से ऊंची उठाने में मदद करे और साथ ही नारी जीवन में विशेष रूप से काम आने वाले प्रसंगों की अभीष्ट जानकारी प्रदान करे। इसके लिए छह वर्ष का पाठ्यक्रम काफी होना चाहिए। दुर्भाग्य इस बात का है कि इस मौलिक तथ्य को ध्यान में रख कर भी विद्यालय ऐसा नहीं बना। वही विषय लड़कियां भी पढ़ती हैं, जिन्हें लड़के पढ़ते हैं। लड़के तो उसका उपयोग कम से कम नौकरी लगने आदि में प्रयोग कर लेते हैं; पर लड़कियों के लिए वह सब कुछ निरर्थक चला जाता है। ससुराल पहुंचने और गृहस्थी संभालने के बाद वह 90 प्रतिशत विस्मृत हो जाता है, जो बहुमूल्य समय लगाया उसे वास्तविक शिक्षा की अवधि में पढ़ा—सीखा जाना चाहिए।
स्कूली लड़कियों में एक और दुर्व्यसन चलता दीखता है। वे अपने घर की सम्पन्नता और सुरुचि का प्रदर्शन करते हुए कीमती कपड़ों और बढ़िया डिजाइनों के वस्त्र पहन कर आती हैं। गरीब घर की लड़कियां भी उनकी नकल करती हैं। परिणाम यह होता है कि घर वालों पर यह अतिरिक्त भार तो पड़ता ही है लड़कियों की आदत भी बिगड़ती है और वे गृहस्थी के बीच भी ऐसे ही तड़क-भड़क में रहना चाहती हैं। यह व्यसन महंगा तो है ही साथ ही ईर्ष्या और चर्चा का विषय भी बनता है। नाक-भौं सिकोड़ी जाती है। इतराने-इठलाने की लांछना लगती है, सो अलग इन झंझटों से तभी बचा जा सकता था, जबकि नारी जीवन से सम्बन्धित उन्हें सच्चे अर्थों में सन्तुलन बनाने वाली शिक्षा का स्वतंत्र प्रबन्ध रहा होता। 90 प्रतिशत महिलायें ऐसा ही जीवन बिताती हैं। 10 प्रतिशत से भी कम ऐसी हैं, जो नौकरी करती या अविवाहित रहती हैं। इसमें हर्ज नहीं, पर कन्याओं को मात्र 4-6 वर्ष का समय पढ़ने के लिए मिलता है, वह भी बेकार का जाल-जंजाल रटने में बीत जाय, तो यही कहना और समझना चाहिए कि शिक्षा के नाम पर न उन्हें कुछ मिला और न दोनों परिवारों में से किसी को कुछ कहने लायक उपलब्धि हाथ लगी। कन्या गुरुकुलों के नाम पर कुछ संस्थायें खुली, पर वे भी घूम-घाम कर उसी सरकारी स्तर पर आ गईं। विद्यालयों को सरकारी ग्राण्ट मिली और लड़कियों को डिग्री के नाम पर अच्छी जगह विवाह हो जाने में थोड़ी सुविधा हुई। होना यह चाहिए था कि लड़कियों के लिए ऐसी शिक्षा का स्वतंत्र प्रबन्ध हुआ होता जो उनके दैनिक जीवन के काम आता और व्यावहारिक सिद्ध होता। अच्छा होता किन्हीं प्रबुद्ध महिलाओं ने इस कमी को पूरा करने के लिए कदम बढ़ाया होता और समय की एक महती मांग को पूरा किया होता। सरकार का ध्यान इस ओर गया होता तब तो स्थिति के परिवर्तन में चमत्कारी परिणाम भी सामने आ सकते थे।
संभव हो सका तो अगले वर्ष हम एक वर्षीय कन्या शिक्षा का पाठ्यक्रम बनाने का प्रयत्न करेंगे। जिस प्रकार इस वर्ष जन-जागृति का उद्देश्य लेकर 52 सप्ताहों के लिये बावन पुस्तकें लिखी जा रही हैं, उसी प्रकार अगले वर्ष ठीक ऐसा ही पाठ्यक्रम नारी शिक्षा के लिए विनिर्मित करेंगे और उन विद्यालयों को स्थानीय सुशिक्षित महिलाओं के माध्यम से मुहल्ले-पड़ोस को पढ़ाये जाने का प्रबन्ध करेंगे, ताकि कम से कम युग निर्माण परिवार की लड़कियों और वधुओं को ऐसा अवसर मिले कि वे अपने लिए आवश्यक विषयों को समझने के लिए आरम्भिक जानकारी प्राप्त कर सकें तो अपना शेष जीवन सुलझा हुआ और समुन्नत स्तर का बना सकें। इसके उपरान्त कहीं संभव हुआ तो ऐसी नारी शिक्षा व्यवस्था भी हो सकती है। जिसमें छह वर्ष न सही, एक वर्ष की नियमित पढ़ाई का प्रबन्ध तो हो ही सके। युग की यह महती आवश्यकता है।
भारत में पिछड़ेपन की समस्या है—गरीबी, अशिक्षा, अस्वस्थता और कुप्रथा। इन तीनों के कुचक्र में वे बुरी तरह पिस रही हैं। भारतीय नारी की दुर्गति के यह चार प्रधान कारण हैं। विदेशों में खास तौर से सम्पन्न देशों में तो यह कठिनाइयां नहीं हैं पर वहां विलासिता का पिशाच ही नारी समाज को ग्रस लेने के लिए मुंह बाये बैठी है। नर-नारी के मध्यवर्ती पवित्रता का भाव मिट जाता है। यौन स्वेच्छाचार चरम सीमा तक पहुंचने लगा है। फैशन की प्रतिस्पर्धा में एक दूसरे को पीछे छोड़ना चाहती हैं। साज सज्जा और शृंगारिकता इतनी अग्रगामी है कि नारी जीवन को फुटबाल की तरह इधर से उधर फुसलाये और ठुकराये जाने में ही अपना जीवन व्यतीत करना पड़ता है। ऊपरी चमक से थोड़ी गहराई में जाकर जिनने उन देशों की नारी दुर्गति को समझने का प्रयत्न किया है उनने आक्रोश में भर कर स्वतंत्र नारी जीवन जीने का उद्देश्य लेकर नारी मुक्ति आन्दोलन शुरू किया है। वे पुरुष को मात्र शोषक मानते हैं और उसके चित्र, विचित्र शिकंजों से बचकर स्वतंत्र जीवन दिलाना चाहती हैं। वह आन्दोलन पाश्चात्य सभ्यता वाले देशों में बड़ी तेजी से फैला भी है। इतने पर भी वह आक्रोश भर ही है। व्यावहारिक नहीं। जब एक माता के पेट से लड़के और लड़की दोनों ही पैदा होते हैं। एक गोदी में खेलना और एक घर में रहना है यह कैसे हो सकता है कि नर और नारी घृणा आवेश और असंतोष जनक परिस्थितियों से क्रुद्ध होकर एक दूसरे से सर्वथा पृथक रहने लगे। इससे तो भारतीय गृहस्थ ही अच्छा जिसमें किसी प्रकार रोते झींकते परस्पर मिल जुलकर जिन्दगी काट लेते हैं।
फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि विश्व में नारी की स्थिति संतोषजनक है। पिछड़े देशों में अपने ढंग की समस्याएं हैं और सम्पन्न देशों में अपने ढंग की। दोनों ही क्षेत्रों में नारी को एक प्रकार की न सही दूसरे प्रकार की चक्की में पिसना पड़ता है।
एक टांग, एक हाथ, एक आंख, एक फेफड़ा, एक गुर्दा लेकर जिस प्रकार कोई व्यक्ति स्वस्थ सुन्दर और समर्थ नहीं कहा जा सकता। एक पहिए की गाड़ी पर सवार होकर कोई लम्बा सफर नहीं कर सकता। उसी प्रकार नारी को मानवी मौलिक अधिकारों से वंचित रखकर पुरुष वर्ग को न हर्ष उत्साह का अवसर मिल सकता है न प्रसन्नता प्रगतिशीलता का।
परिमार्जन का उपाय एक ही है कि नारी की अशिक्षा को हटाने और शिक्षा को बढ़ाने का प्रयत्न किया जाय। शिक्षा ऐसी न हो जिससे सिर पर निरर्थक पुस्तकों का बोझ लादे-लादे फिरना पड़े वरन् ऐसी हो जिसमें नारी जीवन का स्वरूप, उद्देश्य, विग्रह और साधनों के संदर्भ में सभी आवश्यक साधन और उतार चढ़ाव प्रस्तुत किये गये हों। शिक्षा के उपरान्त उस गरीबी का नम्बर है जो स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दबाव को संभलने नहीं देती। उसके बाद प्रजनन का अत्याचार है जिसे नारी जीवन के लिए, समूचे परिवार के लिए एक न उठ सकने वाला भार कहना चाहिए। तत् पश्चात् नम्बर उस स्वावलम्बन का आता है जिसे पिंजड़े की कैद से निकलकर उन्मुक्त आकाश में विचरण कर सकने जैसी सुविधा कहा जा सकता है। उसे पराश्रित-परावलम्बी न रहना पड़े वरन् अपनी प्रतिभा का लाभ न केवल स्वयं उठाये वरन् समूचे परिवार को दे सके। नारी का मौलिक अधिकार वह है जिसके अनुसार वह बिना पुरुष के संरक्षण के अपने नैतिक, सामाजिक और धार्मिक कर्त्तव्यों के सहारे मनुष्य जाति का सदस्य कहलाने की अधिकारिणी बनती है।
गलती लम्बे समय से चली आ रही है। पर उसे सुधारने की सूझ जब सूझ पड़े तभी उसे सराहा जा सकता है। पुरुष के मरने पर स्त्रियां साथ में सती होती थीं, पर स्त्री के मरने पर पुरुष विवाह रचा लेते थे। पतिव्रत का चिन्ह सुहाग सिन्दूर स्त्रियां मस्तक पर लगाती हैं। पर पत्नी व्रत होने का लोह कंगन कोई नहीं बांधता। दासी के रूप में नारियां ही बिकती हैं। कुलटा सिद्ध होने पर नारी को ही परित्यक्त किया जाता है पुरुष को कोई समाज बहिष्कृत नहीं करता। ऐसे-ऐसे अनेकों प्रसंग हैं जिनमें एक पुरुष ने अनेकों नारियों से एक साथ विवाह किया है पर स्त्रियों का इतिहास पक्ष ढूंढ़ने पर द्रौपदी का उदाहरण ही ऐसा मिलता है।
पिछली बातों को जाने भी दें तो वर्तमान युग धर्म की सीधी सी मांग यह है कि मनुष्य जाति को प्रसन्नता, न्यायनिष्ठा और प्रगतिशीलता के प्रति आस्था आकांक्षा है तो उसे नारी के मानवी मौलिक अधिकार वापिस करने होंगे और इस प्रकार रहने का अवसर देना होगा जिससे वह अपने को मनुष्य कहने का, मनुष्य जैसा सम्मान पूर्ण, स्वावलम्बी जीवन जीने का अवसर प्राप्त कर सके। समय ने हर किसी के लिये न्याय मांगा है, मनुष्य के लिए ही नहीं पशु-पक्षियों के लिये भी, ऐसी दशा में कोई कारण नहीं कि नारी के सम्बन्ध में सर्वथा निष्ठुरता बरती जाय और चिरकाल से चले आ रहे अत्याचार की अन्ध परम्पराओं की आड़ में समर्थन किया जाता रहे।
न्याय की मांग उठाने का हर भावनाशील को अधिकार है। दक्षिण अमेरिका में अफ्रीका वालों को रस्सों से बांधकर ले जाया जाता था और उनसे पशुओं जैसा श्रम लिया जाता था और वैसा ही निष्ठुरता भरा व्यवहार किया जाता था। वे स्वयं इस स्थिति में नहीं थे कि समर्थ स्वामियों से लोहा लेकर अपने को बंधन मुक्त करा सकें। पर विश्व मानव की विशाल अन्तःचेतना में वह निष्ठा बनी ही रहती है जो निजी स्वार्थ न होने पर भी पीड़ित के प्रति करुणा की अभिव्यक्ति करती है और समर्थों से लड़−झगड़ कर उन्हें परास्त करती है। दासी प्रथा, सती प्रथा, बाल वैधव्य, बालविवाह, कन्या विक्रय, वृद्ध विवाह आदि कई अमानवीय प्रथाएं एक-एक करके नष्ट होती चली गईं। पीड़ित स्वयं संघर्ष करने की स्थिति में नहीं थे पर उनकी ओर से भावनाशीलों ने संघर्ष किया। जोखिम उठाये। तब रुके जब अनीति का तिरोधान हुआ और न्याय जीता।
नारी को मध्यकालीन और आज की परिस्थितियों को न्याय की तराजू पर तोला जाय तो एक स्वर में स्वीकार करना पड़ेगा कि पुरुष द्वारा चिरकाल से नारी का उत्पीड़न भरा शोषण होता रहा है। अभी भी दहेज कम लाने के अपराध में अनेकों लड़कियों को जीवित जला देने के समाचार पढ़ने और सुनने को मिलते रहते हैं। परित्यक्ता, विधवाओं और घरों में घुटने वाली महिलाओं की स्थिति देखते हुये कहना पड़ता है कि मनुष्य की नीति, न्याय और धर्म की दुहाई बेकार है जो अपनी माता, बहिन, पुत्री और धर्म पत्नी जैसे महत्व भरे संबंधियों के साथ न्याय का प्रश्न आने पर गये गुजरे स्तर की निष्ठुरता धारण करता है। उसके लिए कहा जा सकता है कि उसने मनुष्य कलेवर ओढ़ कर भी मनुष्यता को पहचानने अपनाने का प्रयत्न नहीं ही किया।
समय आ गया है कि विश्व चेतना नारी पक्ष का समर्थन करेगी और उसे मानव स्तर का न्याय एवं अधिकार दिला कर रहेगी।
मानवी वंश परम्परा को चलाने में अधिकांश दायित्व उन्हें ही निभाना पड़ता है। पिता तो इस संदर्भ में निमित्त मात्र है। भ्रूण का शरीर माता का ही जीवन तत्व लेकर बढ़ोत्तरी करता है। प्रसव-यातना में कितनों को ही दम तोड़ना पड़ता है। महीनों बाद वे साधारण स्थिति तक पहुंच पाती है। इसके उपरान्त लम्बी अवधि तक बालक को दूध पिलाती और चौबीस घंटे की नौकरानी की तरह उसकी सेवा-सुश्रूषा साज-संभाल में लगी रहती हैं। नारी का यह योगदान न मिले तो समझना चाहिए कि मानवी सृष्टि इस संसार में से समाप्त हो गयी। बचपन में अधिक सीखने की क्षमता होती है। उसका विकास माता की छत्रछाया में ही होता है।
गृहस्थ का समूचा दायित्व वही संभालती है। जीवन का आधार भोजन है, तो भोजन की कर्त्ता-धर्त्ता नारी। घर की स्वच्छता और सज्जा को पूरी तरह वह संभालती है। माना कि पुरुष अपनी कठोर संरचना और बलिष्ठता के कारण शारीरिक श्रम अधिक कर सकता है। मार काट जैसे क्रूर कामों में भी वही आगे रहता है; पर यदि दोनों के बीच इस क्षेत्र में भी प्रतिद्वन्द्विता हो, तो उपयुक्त अवसर पाने पर वह इस क्षेत्र में भी पीछे न रहेगी। बर्मा, युगोस्लाविया आदि देशों में कृषि और पशुपालन जैसे श्रम साध्य और झंझट भरे काम उसी के बलबूते चलते हैं। इन क्षेत्रों में सफलता का उसने कीर्तिमान स्थापित किया है।
सवर्ण लोगों की महिला पर्दे के पिंजड़े में बन्द होने के कारण शारीरिक दृष्टि से दुर्बल और मानसिक दृष्टि से संकुचित भले ही हो; किन्तु पिछड़े कहे जाने वाले वर्ग की नारियों को जो घर-बाहर का काम करना पड़ता है वह पुरुष की तुलना में हल्का नहीं, भारी ही पड़ता है।
नारी का शोषण जिस कारण हुआ है, वह उसकी प्रजनन क्षमता है। इस कारण उसे शारीरिक दुर्बलता घेरती है और उन दिनों अर्थ उपासना या कड़े काम न करने के कारण आर्थिक उपार्जन उसका कम रहता है। छोटे बच्चे की देख भाल घर की चहार दीवारी में ही संभव है। बाहर से लौटने पर पुरुष के लिए सारी सुविधायें जुटा रखने के निमित्त भी उसकी हाजिरी घर में चाहिए, फिर भी बिना छुट्टी पाने वाली चौकीदारिन भी है। घर खाली हो तो चोर उचक्के दिन-दहाड़ें ही ताला तोड़ कर उठा ले जा सकते हैं। स्त्री व्यवसाय करके कमाती नहीं है। फिर भी वह घर पर जो मजूरी एवम् बचत करती है, उसकी कीमत जोड़ी जाय तो बचाने में उतनी ही उपयोगिता सिद्ध करती है, जितनी पुरुष कमाने में। यदि पुरुष को अकेला रहना पड़े, होटल में खाना और बोर्डिंग में रहना पड़े, तो धोबी की कपड़े की धुलाई समेत उसका खर्च उतना ही पड़ेगा, जितने में कि एक मध्यवर्ती गृहस्थ का गुजारा हो जाता है।
फिर माता की ममता, पत्नी का समर्पण, बहिन का सौजन्य, पुत्री की मृदुल कोमलता जितना अन्तःकरण को परितोष देती है, उसकी कीमत पैसे से नहीं नापी-तोली जा सकती। अनेक दृष्टिकोण से पुरुष नारी का ऋणी और कृतज्ञ है। बदला चुकाने का प्रयत्न करने पर भी वह चुका नहीं सकता। इसलिए वस्तु स्थिति का सही मूल्यांकन कर सकने वाले दार्शनिकों और धर्मवेत्ताओं ने उसे वरिष्ठता दी है, नर तनुधारी ‘देवी’ कहा है। आदि संविधान सृजेता मनु ने तो यहां तक कहा है कि जिस घर में नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं। जहां युग्मों का उल्लेख करना होता है, वहां नारी को प्रधान और नर को गौण कहा जाता है—जैसे सीताराम, राधेश्याम, लक्ष्मीनारायण, उमामहेश्वर, शचीपुरन्दर आदि-आदि।
नारी का अतीत अत्यन्त श्रद्धापूर्ण है। ब्राह्मी, वैष्णवी, रौद्री के रूप में—सरस्वती, लक्ष्मी दुर्गा के रूप में अनेक नाम रूप से उसकी पूजा उपासना होती है। दक्ष पुत्री सती के न रहने पर शिव शोक विह्वल विक्षिप्त जैसे हो गये थे। सीता के वियोग में राम को कितनी व्यथा सहनी पड़ी इसे कौन नहीं जानता। नारीत्व को गंगा के समान पावन और तरण तारिणी कहा गया है।
यह नारी की विशिष्टता और वरिष्ठता का उल्लेख हुआ; पर इतना मानने में किसी को ऐतराज हो तो उसे पुरुष के समतुल्य तो मानना ही पड़ेगा। इस समता पर प्रकटीकरण तभी होता है, जब एक दूसरे के लिए दोनों पक्षों के कर्त्तव्य और अधिकार समान हों। इसमें अन्तर पड़ते ही अन्याय आरम्भ हो जाता है। इस अन्याय से भारत का नारी समुदाय ही नहीं, विश्व के तथाकथित ‘सभ्य’ कहलाने वाले देशों की भी यही स्थिति हैं। अपवाद स्वरूप साम्यवादी देशों में ही अपेक्षाकृत कुछ राहत देखी जाती है। योरोप में कुछ दिन पहले तक स्त्रियों में आत्मा नहीं मानी जाती थी और उन्हें पाप की खदान माना जाता था। मध्यकाल में स्त्रियों को दासी बनाकर खरीदा बेचा जाता था। वे जानवरों की तरह जिस तिस को दान में भी दी जाती थीं। उनके कोई अधिकार नहीं थे। पति के मरने के उपरान्त परिवार वाले ही सारी सम्पत्ति हड़प लेते थे और विधवा को या तो पति के साथ जला देते थे या सिर मुड़ा कर काशी वृन्दावन आदि तीर्थों में भीख मांगकर गुजारा करने के लिए छोड़ देते थे। पुरुष एक साथ कई पत्नियां और रखेलें रख सकता था, किन्तु बाल विधवाओं तक को दूसरे विवाह का अधिकार नहीं था। परित्यक्ताओं को भी विधवाओं जैसा उत्पीड़न सहना पड़ता था।
इन दिनों सभ्यता के विकास क्रम में स्त्री शिक्षा पर से रोक उठी है और उन्हें चुनावों में वोट देने का अधिकार मिला है; पर व्यावहारिक जीवन में उनकी दुर्दशा अभी भी कम नहीं हुई। बिना भारी दहेज के गुणवती सुयोग्य कन्यायें किसी सम्पन्न घर में नहीं जा सकतीं। दहेज कम मिलने पर लड़कियों को जिस प्रकार संत्रस्त किया जाता है वह किसी से छिपा नहीं है। नव वधुओं को इसी कारण जिस प्रकार आत्मघात करने पड़ते हैं या मार दिया जाता है, उसके विवरण पढ़ने से विदित होता है कि मनुष्य आकृति में अभी भी नर पिशाचों की कमी नहीं है। कम दहेज लाने वाली लड़कियां अपमानित तो जन्म भर होती रहती हैं।
वरिष्ठ को वरिष्ठता न मिले, तो कम-से-कम समता तो मिलनी ही चाहिए। किन्तु जो स्थिति है उसे देखते हुए प्रतीत होता है कि घर संभालने वाली नौकरानी से अधिक उसकी कोई स्थिती नहीं है। नौकरानी से भी इन दिनों तमीज से बोलना पड़ता है और भले आदमियों जैसा व्यवहार करना होता है। अपमान तो वह भी नहीं सहती। दूसरे दिन अन्यत्र काम पर चली जाती है और लौटने की खुशामद करने पर भी वापिस आने को तैयार नहीं होती। स्त्री की मान-मर्यादा इतनी तो रखी ही जानी चाहिए, जितनी एक अपरिचित आदमी दूसरे के साथ लोकाचार शिष्टाचार बरतता है। वे दिन चले गये, जब स्त्रियां पशुओं की तरह सभी दुर्व्यवहार सहती रहती थीं और अपनी सफाई देने पर मुंह जोरी का नया इल्जाम लगने पर ऊपर से दूसरा दंड सहती थीं। समय ने मनुष्य के स्वाभिमान को जगाया है और प्रेम सद्भाव न सही, कम-से-कम शिष्टाचार बरतने के लिए तो उत्सुक रहने के लिए नया मन बनाया है। समानता और सभ्यता का प्रथम चिन्ह यही है कि दूसरे के साथ शिष्ट भाषा में बोला जाय और सम्मान सौजन्य का निर्वाह किया जाय। नारी को छोटों से लेकर बड़ों तक से बात-बात पर झिड़कियां सहनी और कटु शब्द सुनने पड़ते हैं। अपने आरोपों का उत्तर देने पर उल्टी और आफत आती है, इसलिए वह रोकर—घूंट भर कर रह जाती है। इस स्थिति में शिक्षित ही नहीं, अशिक्षित भी व्यग्र होती हैं। जहां पूरे जंगलीपन का साम्राज्य है वहां की बात दूसरी है। लड़कियों और लड़कों के बीच बरता जाने वाला भेदभाव पग-पग पर परिलक्षित होता है। कपड़ों में, खाने में, व्यवहार में जब लड़की अपने प्रति घर वालों की उपेक्षा देखती है, तो बदला नहीं ले पाती पर हीनता की भावना से ग्रस्त हो जाती है। अपने को मनुष्य जाति का सदस्य कहते हुये भी हेय और हीन मानती है। यह प्रवृत्ति जब जड़ पकड़ जाती है तो मर्दों के बीच जाना तो दूर, उनके उत्तर तक नहीं दे पाती। अपने मन की बात को कह ही नहीं पाती। यह मानसिक घुटन उसके समूचे व्यक्तित्व को अपंग बनाती है। वह घर में घुसे चोर भिखारी तक को भगाने का साहस नहीं कर सकती। बाजार में सौदा खरीदने में उसकी हीनता को भांपने वाले दुकानदार बुरी तरह ठगते हैं।
यह संकोच वहां तक चला जाता है जहां कि बीमारियां सहती रहती हैं और घर वालों को इसकी चर्चा करने तक में झिझकती हैं। चिकित्सकों के सामने तो पूरा विवरण कह ही नहीं पातीं। ऐसी दशा में बीमारियां बढ़ती रहती हैं और वे धीरे-धीरे घुलती रहती हैं। जवानी में बुढ़ापे के चिन्ह अधिकांश महिलाओं में उभर आते हैं। उन्हें सस्ता बचा हुआ भोजन समय-कुसमय मिलता है। यौनाचार का दबाव इतना पड़ता है कि उनके कोमल अंग अत्याचार का बोझ न सहकर बीमार हो जाते हैं। पति की नाराजी को ध्यान में रखते हुए वे कुछ कह भी नहीं सकतीं।
पिता अपनी कन्या को जामाता के हाथ उसके परिवार के साथ इसलिए सौंपता है कि पितृ पक्ष के कर्त्तव्यों के उपरान्त ससुराल की, विशेषतया पति की जिम्मेदारी बढ़ती है कि वह उसके स्वास्थ्य को अधिक संभालने, शिक्षा को अधिक बढ़ाने, प्रसन्नता का वातावरण अधिक बनाने आदि का ध्यान रखते हुए स्नेह सम्मान में कमी न आने देते हुए उसे अपेक्षाकृत अधिक विकसित करने का प्रयत्न करे। पिता के घर से कली के रूप में आई थी तो उसे ससुराल में फूल की तरह खिलाने में सामर्थ्य भर प्रयत्न करने में कोई कमी न रहने दें। पर होता ठीक उलटा है। उसे दूसरे के घर से बेची हुई नौकरानी की तरह इस तरह की परिस्थितियों में रहने के लिए बाधित किया जाता है कि घुटन ही उसके व्यक्तित्व का कचूमर निकाल दे।
भावुक लड़कियां इस स्थिति को सहन नहीं कर पातीं और अपने निर्दोष होने की सफाई देने लगती हैं। इस कथन में कई बार नये रक्त के कारण आवेश भी आ जाता है और कटु शब्द भी वह कह बैठती हैं। इतना बन पड़ने पर उसे समझा-बुझा कर शान्त करने वाला तो कोई होता नहीं जो उस नमक मिर्च मिली बात को सुनता है, वही उबल पड़ता है। और बात मार पीट तक आगे बढ़ जाती है।
पति बहुधा पत्नी की वस्तु स्थिति समझने पर भी उसका न्यायानुमोदित समर्थन नहीं कर पाते। कई बार सास ननद के भड़काने पर वे उलटा और दुर्व्यवहार करने लगते हैं। ऐसी दशा में दोनों के बीच खाई पड़ जाना स्वाभाविक है।
सास-ननद के बारे में समझा जाता है ये लोग पति से चुगली करके अपमानित कराती हैं, मुहल्ले-पड़ोस वालों से बदनामी कराती हैं, इज्जत घटाती और जलील कराती हैं। एक-दूसरे पर दोषारोपण करने, संदेह की दृष्टि से देखने का परिणाम यह होता है कि मनोमालिन्य घटता नहीं, वरन् बढ़ता ही जाता है, घर में कलह का बीजारोपण होता है, पार्टी वन्दी बनती है और फिर अंत यहां आता है कि संयुक्त कुटुम्ब बिखरने लगता है। चूल्हे अलग-अलग होते हैं और फिर एक प्रकार से संबंध विच्छेद ही हो जाते हैं। होता यह है कि लड़कियों को पिता के घर में सब प्रकार की छूट रहती है। वहां उन्हें कोई विशेष उत्तरदायित्व नहीं संभालने पड़ते; पर ससुराल जाते ही वातावरण एक दम बदल जाता है। वहां उसकी भूमिका बंदिली-नौकरानी जैसी हो जाती है। अनभ्यस्त कामों में भूल भी होती है। ऐसी दशा में उचित यही है कि घर की बड़ी महिलायें उसे बेटी जैसा दुलार दें । जो उसे करना है उसे प्रशिक्षण की तरह सिखाती चलें। प्रवीण होने का समय आने तक धैर्य रखें और जिस प्रकार बच्चे एक-एक कक्षा पास करते हुये उन्नति करते हैं उसी प्रकार की आशा नव वधू से रखें। वह आज नहीं तो परिस्थितियों के अनुकूल ढलना कल-परसों सीख जायेगी। पति पत्नी कभी-कभी जहां-तहां घूम आया करें, ऐसा भी अवसर उन्हें मिलना चाहिए। सुधार का तरीका प्यार में कमी अनुभव न होने देना और भूलों को एकान्त में कान में इशारा कर देना ही पर्याप्त होता है। बाहर के लोगों के सामने उसकी या उसके पितृ परिवार की निन्दा किसी भी कारण नहीं करनी चाहिए। बाहर के व्यक्ति गुत्थी सुलझाते तो नहीं, उलटे इधर की उधर भिड़ा कर कलह कराते और मनोमालिल्य की खाई चौड़ी करते हैं।
कुछ ऐसी ही छोटी मोटी बातें हैं, जिनका बदली परिस्थितियों के अनुकूल अभ्यास कराते रहने से काम चल जाता है और नया व्यक्ति नये परिवार में फिट हो जाता है। आरम्भिक दिनों में उसे मां बाप के यहां जाने और वातावरण बदलने का अवसर भी जल्दी-जल्दी देना चाहिए।
उपार्जन मर्द करे, तो हर्ज नहीं; पर उसे खर्च करने का क्रम पत्नी से पूछ कर करना चाहिए। घरेलू खर्च पत्नी के हाथों कराया जाय तो उसे अपने को गृहस्वामिनी होने का भान होता रहता है। पत्नी को घर की महिलाओं को घरेलू खर्च का हिसाब-किताब विदित न होने दिया जाय, पैसा सदा अपनी ही जेब में रखा जाय तो उन्हें यह भान होता है कि वे अधिकार विहीन हैं। गृह संचालन में उनका कोई हस्तक्षेप नहीं। इस स्थिति में भी उन्हें अपनी हीनता की अनुभूति होती है और घर में रहते हुए भी विरानेपन जैसा अनुभव करती हैं। किसी भी अवसर पर उनकी भावनाओं को चोट न लगे, विशेष रूप से ध्यान रखने योग्य है। स्मरण रहे, महिलायें भाव प्रधान होती हैं। उनको अपनी ओर से उनके मान-सम्मान एवम् प्रोत्साहन—प्रशंसा में कमी न रहने दी जाय, तो इतने भर से काम चल जाता है। गरीबी और व्यस्तता को भी वे किसी प्रकार सहन कर लेती हैं और हंसते—हंसाते समय गुजारने लगती हैं।
पति-पत्नी में से किसी को भी यह अनुभव नहीं होने देना चाहिए कि उनकी उपयोगिता कामाचार भर की है। इसके लिए उत्तेजक वातावरण बनने या आकर्षक अभिनय करने की आवश्यकता है इस मान्यता को जिस सीमा तक जितनी जल्दी घटाया या हटाया जा सके उतना ही उत्तम है। पति-पत्नी का पारस्परिक संबंध दो भाइयों या दो बहिनों जैसा होना चाहिए, जिसका उद्देश्य एक-दूसरे को अधिक स्वस्थ, समुन्नत, प्रसन्नचित्त बनाना होना चाहिए और मिल-जुलकर ऐसी व्यवस्था में जुटना भी जिसका अर्थ होता हो सर्वतोमुखी प्रगति के लिए मिल जुलकर काम करना। इसके लिए मिल बैठकर योजना बनाई जा सकती है। भावी जीवन किस आधार पर किस योजना के साथ पूरा किया जाय? वस्तुतः पति-पत्नी को अपने संबंध वेश्या व्यभिचारी जैसे न रखकर भाई-भाई जैसे रखने चाहिए। इसी आधार पर वह परम्परा टूटेगी जिसके आधार पर पिछले दिनों एक ऐसी खाई उत्पन्न हो गई है, जिसने समाज का पूरा ढांचा ही हिला दिया है और स्थिति ऐसी बना दी है जैसे दरबारी अपनी भलाई इसी में समझते थे कि राजा साहब का उचित अनुचित आदेश मानने या उनकी ‘हां’ में ‘हां’ मिलाने में ही खैर है। इसका परिणाम यह हुआ है कि नारी अपना मनोबल, शरीरबल, आत्मबल बुरी तरह गिरती चली गई है और पुरुष के लिए घर-गृहस्थी के छोटे दायरे को छोड़कर आगे अन्य किसी काम में सहयोग देने लायक नहीं रही है।
यहां तक कि वह अपने बच्चों का पालन और साज-संभाल भी नहीं कर सकती। देश में अधिकांश लोग गरीब हैं। इस गरीबी के रहते यदि पति या घर का कोई सदस्य बीमार पड़ जाय तो इलाज करना तो दूर, इतना भी नहीं कर सकती कि उचित चिकित्सक के पास जाकर उचित उपचार भी पूछ सके। इतना भी नहीं हो सकता कि पति के मर जाने पर उसकी छोड़ी सम्पत्ति को भी सुरक्षित रख सके। उसे देवर, जेठ, भाई भतीजे किसी न किसी बहाने ठग लेते हैं। यदि कुछ भी पास में शेष न बचा हो तो पांच बच्चों की माता अपने सारे बालकों का अपना भरण पोषण और शिक्षा चिकित्सा जैसी महत्वपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति कैसे करे? इसका प्रबन्ध कर सकना भी उसके वश के बाहर की बात होती है और उनके उपरान्त उसका शेष जीवन कैसे कटे? इस कल्पना को करने भर से छाती फटती है। यदि महिला किसी योग्य रही होती तो उसकी योग्यता इस योग्य तो रही होती कि पति के छोड़े हुए निर्धन परिवार का किसी न किसी प्रकार गुजारा कर लेती।
स्त्री पुरुषों के बीच मात्र मैत्री भावना रहे, तो इसका प्रभाव यह हुआ होता कि जिसकी योग्यता कम थी उसकी बढ़ाई गई होती। कार्य, व्यवहार, व्यवसाय आदि में उसका सहयोग लिया होता और एक-एक मिलने से ग्यारह बनने की उक्ति को चरितार्थ करने का अवसर मिला होता।
जिस प्रकार संयुक्त परिवार की अति महत्वपूर्ण परम्परा की आचार संहिता के अभाव में छिन्न-भिन्न होने का अवसर आ गया, उसी प्रकार विवाह को यौनाचार का लाइसेन्स भर मान लेने का परिणाम और भी भयंकर होगा। स्त्री पुरुषों में से दोनों के स्वास्थ्य नष्ट हो जायेंगे। बच्चे बढ़ने से न उनका ठीक से पालन-पोषण हो सकेगा और न शिक्षा-दीक्षा का उपयुक्त प्रबन्ध। आवारा और अस्वस्थ बच्चे देश के लिए, परिवार के लिए भार बनेंगे और समूचे देश की आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था पूरी तरह गड़बड़ा जायेगी।
पति-पत्नी को आरम्भ से ही यह विचार गले उतारना चाहिए कि यौनाचार के साथ जुड़े हुए हजार संकटों से उन्हें बचने का अधिक से अधिक ध्यान रखना चाहिए। बच्चों की संख्या तो किसी भी कीमत पर नहीं बढ़नी चाहिए और अगले दिनों वाली जिम्मेदारी का ध्यान रखते हुए यह सोचना चाहिए कि बीमा, फिक्स डिपोजिट आदि के माध्यम से कुछ बचत भी करते रहें। पारिवारिक दूरदर्शिता में इन सब बातों का समावेश होना चाहिए।
‘कम्यून’ प्रणाली के पुनः प्रचलन के माध्यम से अब फिर नये सिरे से विज्ञजन यह सोचने लगे हैं संयुक्त परिवार प्रणाली ही एक मात्र ऐसी प्रथा है, जिसके अनुसार वैयक्तिक और सामाजिक जीवन सुख, शान्ति प्रगति और व्यवस्था के आधार पर, दूरदर्शिता के आधार पर सुगठित किया जा सके। इस प्रणाली को ठीक से व्यवस्थित किया जा सके तो संयुक्त परिवार में पारस्परिक सहायता से बच्चों का पालन भी हो सकता है और युवतियों को पति का हाथ बंटाने और अपनी योग्यता में बहुस्तरीय उत्कर्ष करने का अवसर भी मिल सकता है। संयुक्त परिवार न बन पड़े तो घरेलू नौकरों के सहारे घर के वे काम सस्ते दाम में कराये जा सकते हैं जिनके लिए एक सुयोग्य पत्नी को अपना बहुमूल्य समय सस्ते और घटिया काम में खर्च करने के लिए विवश होना पड़ता है और पिता के यहां से कमाई हुई योग्यता भी दिन-दिन घटती जाती है।
यौनाचार के दुष्परिणाम की ही यह प्रतिक्रिया है कि हर स्त्री सोचती है कि उसके पति यदि किसी युवती से साधारण बात कर रहे होंगे तो उसके पीछे कोई दुरभिसन्धि सोचती है इसी प्रकार कोई स्त्री किसी पुरुष से सामान्य वार्त्ता कर रही हो, तो उसमें भी दुर्बुद्धि की कल्पना करते हैं। यह अविश्वास की चरम सीमा है और इसलिए बन पड़ी कि हर व्यक्ति के सिर पर यौनोन्माद एक प्रकार से मस्तिष्क ज्वर की तरह हावी हो गया है और उसकी नाक दुर्गन्ध के अतिरिक्त और कुछ नहीं सूंघती, आंखें दुराचार के अतिरिक्त और कुछ नहीं देखतीं। यदि जन मानस में से इस कुकल्पना को हटाया जा सके, तो इन दिनों एक दूसरे पर चौकसी रखना, अनेक प्रतिबंधों में कसने की जो धृष्ट धारणा है, उसके लिए कोई गुंजाइश न रहे। नर-नारी के बीच सनातन रिश्ता बहिन-भाई-पिता-पुत्री का है। पत्नी भी अपनी परम्परा के अनुसार रमणी, कामिनी नहीं हो सकती। उसे धर्मपत्नी कहा जाता है, जिसका अर्थ होता है कि जीवन की नाव को दोनों हाथों से डांड चलाते हुए इस पार से उस पार करना।
विकृतियां सिनेमा ने और हेय साहित्य ने फैलाई हैं। सामन्तकाल में बहु पत्नी प्रथा का प्रचलन चल पड़ा। इसका परिणाम भी यह हुआ कि चोर की दाढ़ी का तिनका अनायास ही उछलने लगा। पुरुष वर्ग नारी को अविश्वस्त समझने लगा। यह और कुछ नहीं अपनी ही आकृति को दर्पण में देखकर उस निर्दोष छांव पर अनेकानेक दोषारोपण करना भर था। जिन देशों में स्त्री पुरुष मिलकर कारोबार चलाते हैं, वहां ऐसी उच्छृंखलता न कोई सोचता है, न बरतता है। यही होना भी चाहिए। शरीर के दो हाथ-पैरों की तरह गाड़ी के दो पहियों की तरह स्त्री पुरुष एक दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखें, परस्पर अविश्वास करें तो बात यौनाचार के संदर्भ तक सीमित नहीं रहती। सर्वत्र परायापन छा जाता है और उस भीतरी भेदभाव का प्रमाण परिचय बहिरंग जीवन के अन्यान्य क्षेत्रों में भी दीख पड़ता है। एक दूसरे की चौकसी करे, अविश्वास की दृष्टि से देखे, तो समझना चाहिए कि उसकी मूल सत्ता समाप्त हो गई, प्रगति का द्वार बन्द हो गया और लोकाचार भर का बाह्य व्यवहार रह गया। ऐसी दशा में वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक प्रगति की बात एक प्रकार से कल्पना मात्र बन कर रह गई। यह स्थिति इतना दुर्भाग्यपूर्ण है कि इसका दुष्परिणाम समूचे कार्यक्षेत्र को अस्त व्यस्त किए बिना नहीं रह सकता।
संसार के प्रगतिवान देशों में स्त्री की क्षमता का भी पुरुष की क्षमता जैसा ही उपयोग होता है। दोनों की शिक्षा पर समान रूप से ध्यान दिया जाता है। योग्यता अभिवर्धन के प्रत्येक क्षेत्र में उन्हें समान रूप से आगे बढ़ने का अवसर मिलता है फलतः उपार्जन क्षेत्र में भी दोनों में से कोई किसी से पीछे नहीं रहता। घर की सम्पन्नता बढ़ती है और उसके सहारे अधिक समुन्नत, साधन सम्पन्न जीवन जी सकना संभव होता है। किसी पर आश्रित नहीं रहना पड़ता। एक दूसरे पर निर्भर अवलम्बित घनिष्ठ आत्मीय की स्थिति में रहें, यहां तक तो संतोष एवम् हर्ष की बात है; पर यह बुरी बात है कि कोई किसी के लिए गले का पत्थर बन कर रहे। पति के बिना विधवा का जीवन ही नरक हो जाय।
यह समूची कल्पना अनीतिमूलक है। यह आधुनिक बाजारू सभ्यता है, जिसमें सयानी लड़कियों को अकेले-दुकेले रास्ता चलना कठिन पड़ता है और असभ्य आचरण की आशंका बनी रहती है। इस डरावनी स्थिति का अन्त होना चाहिए। स्कूली शिक्षा के साथ ही फौजी ड्रिल कवायद या—खेल कूद प्रतियोगिताओं का ऐसा प्रबन्ध चलना चाहिए, जिससे किसी लड़की को न किसी अनाचारी से डरना पड़े और न कोई किसी पर अनर्गल आचरण की कल्पना कर सके। जिन क्षेत्रों में पर्दा नहीं होता और स्त्री-पुरुष अपने-अपने ढंग के श्रम उपार्जन करते हैं, वहां अपेक्षाकृत व्यभिचार का प्रचलन बहुत कम है। अनाचारी दृष्टि तो आवरण के कौतुक में से निकलती है। उसके समापन में ही गर्व करना चाहिए। हमें अपने देश की महिलाओं में रानी लक्ष्मीबाई, रानी दुर्गावती जैसी महिलाओं की कल्पना और स्थापना करनी चाहिए, जो किसी भी अनाचारी के छक्के छुड़ा सके।
इस संदर्भ में एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि नर-नारी के साथ आभूषणों को इस प्रकार का न बनने दिया जाय, जिसके कारण किसी को देखकर प्रतिपक्ष के मन में उत्तेजना उत्पन्न हो या उसके चरित्र पर संदेह करने की कुकल्पना उठे। इस स्थिति में शृंगारिकता भी एक बड़ा दोष है। उसे धारण करने पर प्रतिपक्षी के मन में उसके आचरण, चिन्तन एवं दृष्टिकोण में ओछेपन की कल्पना का समावेश करने का अवसर मिलता है और भ्रान्ति के कारण अवांछनीय घटनायें घटित होने लगती हैं। इस स्थिति को कड़ाई से समाप्त करना चाहिए। सादा जीवन उच्च विचार का मन्त्र नारियों के ही नहीं, पुरुषों के भी हृदय की गहराई तक पहुंचा देना चाहिए। चीन में नर-नारियों की पोशाक प्रायः एक जैसी होती है। ऐसी स्थिति में सभी अपने को मनुष्य मानते हैं। रमणी, कामिनी, मनचली, वेश्या, बेबस, बेचारी जैसी हेय भावनायें किसी के मन में उठती ही नहीं। उद्धत वस्त्राभूषण तथा शृंगार प्रसाधनों से भी धारणकर्त्ता को छिछोरा माना जाता है। या तो वह अमीरी का ढोंग रचे फिरता है या फिर उसकी छिछोरी वृत्ति दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना चाहती है। यह बात पुरुष के सम्बन्ध में भी है।
नर नारी के बीच समता और आत्मीयता का भाव विकसित करना है तो इस मार्ग की सबसे बड़ी बाधा शृंगारिकता के प्रचलन को हटाने के लिए कड़ाई से प्रयत्न करना होगा। अमीरों या बचकाने व्यक्तियों द्वारा चलाये गये इस खर्चीली ढकोसले का अन्त करना चाहिए। यह कुछ बहुत कठिन नहीं है। कुर्त्ता-धोती का प्रचलन नर-नारी दोनों के लिए ही अपने गर्म देश में उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं, साथ ही इस प्रचलन से समता की मान्यता को भारी बल मिल सकता है।
जेवरों में नाक के जेवर तो इतने घिनौने है कि वे नाक जैसे प्राण वायु संचार के सबसे संवेदनशील मार्ग में अड़ंगा अटकाते हैं और नथुनों की सफाई में अड़चन उत्पन्न करते हैं। अन्य जेवरों के संबंध में भी यही बात है। वे जिस भी अवयव पर पहने जाते हैं, वहीं की कोमलता नष्ट करते और कठोरता बढ़ाते हैं। पैसे की तो प्रत्यक्ष हानि है ही। घिसते रहने पर वजन कम होता है घटिया धातुओं की मिलावट तो आमतौर से रहती है। ईर्ष्या भड़कती है चोरी का डर रहता है। उतनी रकम यदि स्त्री धन के रूप में बैंक में डाल दी जाय तो पांच वर्ष में दूरी राशि ब्याज समेत हो जाती है जबकि जेवर में घिसते, टूटते, मरम्मत होते आधी भी नहीं रहती। महिलाओं के रहन-सहन में उत्तेजक आकर्षणों को यदि कम किया जाने लगे तो व्यभिचार, अनाचार की कुकल्पना में सहज ही आधी कटौती हो सकती है। वस्त्रों की सादगी-पेट, पीठ, टांगें आदि का खुला न रखना जैसे मामूली से हेर-फेर ही ऐसे हैं जो न केवल नारी के गौरव और स्तर को बढ़ाते हैं, वरन् उसके शील सदाचार की भी रक्षा करते हैं। पैसे की बचत तो स्पष्ट ही है। अनेक फैशन के, अनेक प्रकार के अधिक कपड़ों से बक्से भरे रहने और उनके जीर्ण-शीर्ण हो जाने, कीड़ों मकोड़ों द्वारा खा लिये जाने के झंझट से सहज ही बच जाते हैं। दैनिक प्रयोग स्तर के कपड़ों को ही यदि साफ-सुथरा, इस्त्री किया हुआ रखा जा सके तो इसमें सादगी; शालीनता और मितव्ययिता के तीनों लाभ एक साथ मिलते हैं। यह बात मात्र महिलाओं के लिए ही नहीं कही जा रही है। सादगी को सज्जनता का पर्यायवाची मानते हुए सभी लोग अपना वेश विन्यास उपयुक्त स्तर का रखें तो उसका भी कम महत्वपूर्ण प्रभाव न पड़ेगा। जब मिशन का संदेश हर भावनाशील के लिए यह है कि वह औसत भारतीय स्तर का जीवनयापन करे और बचत को युग समस्याओं के समाधान में प्रयुक्त करे, तो फिर यह क्यों न किया जाय कि गले में साइन बोर्ड की तरह लटके हुए अमीरी और उच्छृंखलता का बोर्ड क्यों लटकाये फिरा जाय? गांधीजी ने खादी के प्रचलन पर इसी हेतु जोर दिया था कि जन साधारण की हैसियत मालूम पड़े। भीतर जाने कौन कितना धनी निर्धन हैं, इसका पता तो तलाशी लेने पर ही चलता है; पर फौजी सिपाहियों की तरह सबकी एक जैसी ड्रेस हो जाने पर सामान्य दृष्टि से तो यही पता चलता है कि सब एक जैसे हैं, भले ही उनमें से कोई ग्रेजुएट हो या मिडिल पास।
थोड़ा अन्तर तो स्त्री-पुरुषों के पोशाक में रहेगा; पर सादगी और स्वच्छता की दृष्टि से सबका लिवास-पोशाक एक जैसा रहे, तो उतने से भी समता और एकता का एक रूप बनता है। खादी न सही, हैण्डलूम सही-यदि इस सीमा तक भी लोगों की पोशाक समता की दिशा में चलने लगे, तो उसका प्रभाव कम से कम दृश्य रूप से तो एक जैसा बनता है और उसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है। इस आधार पर पारिवारिक दाम्पत्य जीवन की एकता का तो कुछ स्वरूप बनता ही है।
कन्या और पुत्र के लालन-पालन खान-पान, सम्मान, प्यार, शिक्षा आदि में ऐसा अन्तर नहीं होना चाहिए कि लड़के की अहंता और लड़की की हीनता चरितार्थ होने लगे। यह विषमता आरम्भ से ही चल पड़े, तो फिर आगे चलकर उसको हटाया या घटाना कठिन हो जायगा; जबकि नर और नारी के दोनों समुदायों को एक स्तर पर लाना है। आधे समुदाय को दीन-हीन और आधे का स्वामी अहंकारी बने रहने की स्थिति बने हरने पर वह तथ्य कार्यान्वित न हो सकेगा, जिसमें नर और नारी की समता लिए हुए समाज विकसित होगा। अभी तो एक नर की टहल चाकरी में एक नारी की अपनी समूची क्षमता समाप्त करनी पड़ती है। यदि गृह प्रबन्ध की स्वतन्त्र व्यवस्था बनाते हुए कम योग्यता वालों को उसमें लगाते हुए उपयोगी व्यक्तियों को अधिक महत्वपूर्ण कार्यों में लगने लगें तो कई उद्देश्य एक साथ पूरे होते हैं। नारी का अनुभव व्यक्तित्व और स्वावलम्बन बढ़े तो इसका प्रभाव नर की ही नहीं, समूचे समाज की आशाजनक प्रगति के रूप में दृष्टिगोचर हो सकती है।
कन्या शिक्षा का आधा भर समय स्कूलों में खर्च किया जाय। आधे समय में वह सब सिखाया जाय जो नारी को सीखना तो चाहिए पर स्कूलों में उसकी पढ़ाने की व्यवस्था नहीं। घर परिवार कैसे चलाया जाता है? पारस्परिक व्यवहार कैसे चलता है? आपसी तुनक-कड़क का संतुलन किस प्रकार बिठाया जाता है? सादगी से कैसे रहा जाता है? बच्चों को सुधारने संभालने की नीति कैसे अपनानी पड़ती है? आदि बातों को अगर घर की कुशल महिलायें सयानी लड़कियों को सिखाया समझाया करें तो ससुराल पहुंचते ही उन्हें जिन मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है, वह न करना पड़े।
होना तो यह चाहिए था कि कन्या शिक्षा का स्तर और प्रबन्ध उतना ही भिन्न हो जितनी भिन्नता का प्रबन्ध अथवा समस्याओं का सामना करना पड़ता है। प्रायः बारह वर्ष की आयु में लड़कियों में थोड़ी समझदारी बढ़ती है और औसतन भारतीय लड़कियों की शादी अठारह वर्ष की आयु में हो जाती है। यह छह वर्षीय पाठ्यक्रम ऐसा हो सकता है जो नारी को वर्तमान गई गुजरी स्थिति से ऊंची उठाने में मदद करे और साथ ही नारी जीवन में विशेष रूप से काम आने वाले प्रसंगों की अभीष्ट जानकारी प्रदान करे। इसके लिए छह वर्ष का पाठ्यक्रम काफी होना चाहिए। दुर्भाग्य इस बात का है कि इस मौलिक तथ्य को ध्यान में रख कर भी विद्यालय ऐसा नहीं बना। वही विषय लड़कियां भी पढ़ती हैं, जिन्हें लड़के पढ़ते हैं। लड़के तो उसका उपयोग कम से कम नौकरी लगने आदि में प्रयोग कर लेते हैं; पर लड़कियों के लिए वह सब कुछ निरर्थक चला जाता है। ससुराल पहुंचने और गृहस्थी संभालने के बाद वह 90 प्रतिशत विस्मृत हो जाता है, जो बहुमूल्य समय लगाया उसे वास्तविक शिक्षा की अवधि में पढ़ा—सीखा जाना चाहिए।
स्कूली लड़कियों में एक और दुर्व्यसन चलता दीखता है। वे अपने घर की सम्पन्नता और सुरुचि का प्रदर्शन करते हुए कीमती कपड़ों और बढ़िया डिजाइनों के वस्त्र पहन कर आती हैं। गरीब घर की लड़कियां भी उनकी नकल करती हैं। परिणाम यह होता है कि घर वालों पर यह अतिरिक्त भार तो पड़ता ही है लड़कियों की आदत भी बिगड़ती है और वे गृहस्थी के बीच भी ऐसे ही तड़क-भड़क में रहना चाहती हैं। यह व्यसन महंगा तो है ही साथ ही ईर्ष्या और चर्चा का विषय भी बनता है। नाक-भौं सिकोड़ी जाती है। इतराने-इठलाने की लांछना लगती है, सो अलग इन झंझटों से तभी बचा जा सकता था, जबकि नारी जीवन से सम्बन्धित उन्हें सच्चे अर्थों में सन्तुलन बनाने वाली शिक्षा का स्वतंत्र प्रबन्ध रहा होता। 90 प्रतिशत महिलायें ऐसा ही जीवन बिताती हैं। 10 प्रतिशत से भी कम ऐसी हैं, जो नौकरी करती या अविवाहित रहती हैं। इसमें हर्ज नहीं, पर कन्याओं को मात्र 4-6 वर्ष का समय पढ़ने के लिए मिलता है, वह भी बेकार का जाल-जंजाल रटने में बीत जाय, तो यही कहना और समझना चाहिए कि शिक्षा के नाम पर न उन्हें कुछ मिला और न दोनों परिवारों में से किसी को कुछ कहने लायक उपलब्धि हाथ लगी। कन्या गुरुकुलों के नाम पर कुछ संस्थायें खुली, पर वे भी घूम-घाम कर उसी सरकारी स्तर पर आ गईं। विद्यालयों को सरकारी ग्राण्ट मिली और लड़कियों को डिग्री के नाम पर अच्छी जगह विवाह हो जाने में थोड़ी सुविधा हुई। होना यह चाहिए था कि लड़कियों के लिए ऐसी शिक्षा का स्वतंत्र प्रबन्ध हुआ होता जो उनके दैनिक जीवन के काम आता और व्यावहारिक सिद्ध होता। अच्छा होता किन्हीं प्रबुद्ध महिलाओं ने इस कमी को पूरा करने के लिए कदम बढ़ाया होता और समय की एक महती मांग को पूरा किया होता। सरकार का ध्यान इस ओर गया होता तब तो स्थिति के परिवर्तन में चमत्कारी परिणाम भी सामने आ सकते थे।
संभव हो सका तो अगले वर्ष हम एक वर्षीय कन्या शिक्षा का पाठ्यक्रम बनाने का प्रयत्न करेंगे। जिस प्रकार इस वर्ष जन-जागृति का उद्देश्य लेकर 52 सप्ताहों के लिये बावन पुस्तकें लिखी जा रही हैं, उसी प्रकार अगले वर्ष ठीक ऐसा ही पाठ्यक्रम नारी शिक्षा के लिए विनिर्मित करेंगे और उन विद्यालयों को स्थानीय सुशिक्षित महिलाओं के माध्यम से मुहल्ले-पड़ोस को पढ़ाये जाने का प्रबन्ध करेंगे, ताकि कम से कम युग निर्माण परिवार की लड़कियों और वधुओं को ऐसा अवसर मिले कि वे अपने लिए आवश्यक विषयों को समझने के लिए आरम्भिक जानकारी प्राप्त कर सकें तो अपना शेष जीवन सुलझा हुआ और समुन्नत स्तर का बना सकें। इसके उपरान्त कहीं संभव हुआ तो ऐसी नारी शिक्षा व्यवस्था भी हो सकती है। जिसमें छह वर्ष न सही, एक वर्ष की नियमित पढ़ाई का प्रबन्ध तो हो ही सके। युग की यह महती आवश्यकता है।
भारत में पिछड़ेपन की समस्या है—गरीबी, अशिक्षा, अस्वस्थता और कुप्रथा। इन तीनों के कुचक्र में वे बुरी तरह पिस रही हैं। भारतीय नारी की दुर्गति के यह चार प्रधान कारण हैं। विदेशों में खास तौर से सम्पन्न देशों में तो यह कठिनाइयां नहीं हैं पर वहां विलासिता का पिशाच ही नारी समाज को ग्रस लेने के लिए मुंह बाये बैठी है। नर-नारी के मध्यवर्ती पवित्रता का भाव मिट जाता है। यौन स्वेच्छाचार चरम सीमा तक पहुंचने लगा है। फैशन की प्रतिस्पर्धा में एक दूसरे को पीछे छोड़ना चाहती हैं। साज सज्जा और शृंगारिकता इतनी अग्रगामी है कि नारी जीवन को फुटबाल की तरह इधर से उधर फुसलाये और ठुकराये जाने में ही अपना जीवन व्यतीत करना पड़ता है। ऊपरी चमक से थोड़ी गहराई में जाकर जिनने उन देशों की नारी दुर्गति को समझने का प्रयत्न किया है उनने आक्रोश में भर कर स्वतंत्र नारी जीवन जीने का उद्देश्य लेकर नारी मुक्ति आन्दोलन शुरू किया है। वे पुरुष को मात्र शोषक मानते हैं और उसके चित्र, विचित्र शिकंजों से बचकर स्वतंत्र जीवन दिलाना चाहती हैं। वह आन्दोलन पाश्चात्य सभ्यता वाले देशों में बड़ी तेजी से फैला भी है। इतने पर भी वह आक्रोश भर ही है। व्यावहारिक नहीं। जब एक माता के पेट से लड़के और लड़की दोनों ही पैदा होते हैं। एक गोदी में खेलना और एक घर में रहना है यह कैसे हो सकता है कि नर और नारी घृणा आवेश और असंतोष जनक परिस्थितियों से क्रुद्ध होकर एक दूसरे से सर्वथा पृथक रहने लगे। इससे तो भारतीय गृहस्थ ही अच्छा जिसमें किसी प्रकार रोते झींकते परस्पर मिल जुलकर जिन्दगी काट लेते हैं।
फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि विश्व में नारी की स्थिति संतोषजनक है। पिछड़े देशों में अपने ढंग की समस्याएं हैं और सम्पन्न देशों में अपने ढंग की। दोनों ही क्षेत्रों में नारी को एक प्रकार की न सही दूसरे प्रकार की चक्की में पिसना पड़ता है।
एक टांग, एक हाथ, एक आंख, एक फेफड़ा, एक गुर्दा लेकर जिस प्रकार कोई व्यक्ति स्वस्थ सुन्दर और समर्थ नहीं कहा जा सकता। एक पहिए की गाड़ी पर सवार होकर कोई लम्बा सफर नहीं कर सकता। उसी प्रकार नारी को मानवी मौलिक अधिकारों से वंचित रखकर पुरुष वर्ग को न हर्ष उत्साह का अवसर मिल सकता है न प्रसन्नता प्रगतिशीलता का।
परिमार्जन का उपाय एक ही है कि नारी की अशिक्षा को हटाने और शिक्षा को बढ़ाने का प्रयत्न किया जाय। शिक्षा ऐसी न हो जिससे सिर पर निरर्थक पुस्तकों का बोझ लादे-लादे फिरना पड़े वरन् ऐसी हो जिसमें नारी जीवन का स्वरूप, उद्देश्य, विग्रह और साधनों के संदर्भ में सभी आवश्यक साधन और उतार चढ़ाव प्रस्तुत किये गये हों। शिक्षा के उपरान्त उस गरीबी का नम्बर है जो स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दबाव को संभलने नहीं देती। उसके बाद प्रजनन का अत्याचार है जिसे नारी जीवन के लिए, समूचे परिवार के लिए एक न उठ सकने वाला भार कहना चाहिए। तत् पश्चात् नम्बर उस स्वावलम्बन का आता है जिसे पिंजड़े की कैद से निकलकर उन्मुक्त आकाश में विचरण कर सकने जैसी सुविधा कहा जा सकता है। उसे पराश्रित-परावलम्बी न रहना पड़े वरन् अपनी प्रतिभा का लाभ न केवल स्वयं उठाये वरन् समूचे परिवार को दे सके। नारी का मौलिक अधिकार वह है जिसके अनुसार वह बिना पुरुष के संरक्षण के अपने नैतिक, सामाजिक और धार्मिक कर्त्तव्यों के सहारे मनुष्य जाति का सदस्य कहलाने की अधिकारिणी बनती है।
गलती लम्बे समय से चली आ रही है। पर उसे सुधारने की सूझ जब सूझ पड़े तभी उसे सराहा जा सकता है। पुरुष के मरने पर स्त्रियां साथ में सती होती थीं, पर स्त्री के मरने पर पुरुष विवाह रचा लेते थे। पतिव्रत का चिन्ह सुहाग सिन्दूर स्त्रियां मस्तक पर लगाती हैं। पर पत्नी व्रत होने का लोह कंगन कोई नहीं बांधता। दासी के रूप में नारियां ही बिकती हैं। कुलटा सिद्ध होने पर नारी को ही परित्यक्त किया जाता है पुरुष को कोई समाज बहिष्कृत नहीं करता। ऐसे-ऐसे अनेकों प्रसंग हैं जिनमें एक पुरुष ने अनेकों नारियों से एक साथ विवाह किया है पर स्त्रियों का इतिहास पक्ष ढूंढ़ने पर द्रौपदी का उदाहरण ही ऐसा मिलता है।
पिछली बातों को जाने भी दें तो वर्तमान युग धर्म की सीधी सी मांग यह है कि मनुष्य जाति को प्रसन्नता, न्यायनिष्ठा और प्रगतिशीलता के प्रति आस्था आकांक्षा है तो उसे नारी के मानवी मौलिक अधिकार वापिस करने होंगे और इस प्रकार रहने का अवसर देना होगा जिससे वह अपने को मनुष्य कहने का, मनुष्य जैसा सम्मान पूर्ण, स्वावलम्बी जीवन जीने का अवसर प्राप्त कर सके। समय ने हर किसी के लिये न्याय मांगा है, मनुष्य के लिए ही नहीं पशु-पक्षियों के लिये भी, ऐसी दशा में कोई कारण नहीं कि नारी के सम्बन्ध में सर्वथा निष्ठुरता बरती जाय और चिरकाल से चले आ रहे अत्याचार की अन्ध परम्पराओं की आड़ में समर्थन किया जाता रहे।
न्याय की मांग उठाने का हर भावनाशील को अधिकार है। दक्षिण अमेरिका में अफ्रीका वालों को रस्सों से बांधकर ले जाया जाता था और उनसे पशुओं जैसा श्रम लिया जाता था और वैसा ही निष्ठुरता भरा व्यवहार किया जाता था। वे स्वयं इस स्थिति में नहीं थे कि समर्थ स्वामियों से लोहा लेकर अपने को बंधन मुक्त करा सकें। पर विश्व मानव की विशाल अन्तःचेतना में वह निष्ठा बनी ही रहती है जो निजी स्वार्थ न होने पर भी पीड़ित के प्रति करुणा की अभिव्यक्ति करती है और समर्थों से लड़−झगड़ कर उन्हें परास्त करती है। दासी प्रथा, सती प्रथा, बाल वैधव्य, बालविवाह, कन्या विक्रय, वृद्ध विवाह आदि कई अमानवीय प्रथाएं एक-एक करके नष्ट होती चली गईं। पीड़ित स्वयं संघर्ष करने की स्थिति में नहीं थे पर उनकी ओर से भावनाशीलों ने संघर्ष किया। जोखिम उठाये। तब रुके जब अनीति का तिरोधान हुआ और न्याय जीता।
नारी को मध्यकालीन और आज की परिस्थितियों को न्याय की तराजू पर तोला जाय तो एक स्वर में स्वीकार करना पड़ेगा कि पुरुष द्वारा चिरकाल से नारी का उत्पीड़न भरा शोषण होता रहा है। अभी भी दहेज कम लाने के अपराध में अनेकों लड़कियों को जीवित जला देने के समाचार पढ़ने और सुनने को मिलते रहते हैं। परित्यक्ता, विधवाओं और घरों में घुटने वाली महिलाओं की स्थिति देखते हुये कहना पड़ता है कि मनुष्य की नीति, न्याय और धर्म की दुहाई बेकार है जो अपनी माता, बहिन, पुत्री और धर्म पत्नी जैसे महत्व भरे संबंधियों के साथ न्याय का प्रश्न आने पर गये गुजरे स्तर की निष्ठुरता धारण करता है। उसके लिए कहा जा सकता है कि उसने मनुष्य कलेवर ओढ़ कर भी मनुष्यता को पहचानने अपनाने का प्रयत्न नहीं ही किया।
समय आ गया है कि विश्व चेतना नारी पक्ष का समर्थन करेगी और उसे मानव स्तर का न्याय एवं अधिकार दिला कर रहेगी।