Books - रानी दुर्गावती
Language: HINDI
स्वतंत्रता के लिए प्राण अर्पण करने वाली- रानी दुर्गावती
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मानव सभ्यता के आदिकाल से नारी का कार्यक्षेत्र घर माना गया है। वही संतान की जननी, पालन करने वाली और संरक्षिका है। पुरुष को वह जैसा बनाती है, वह प्रायः वैसा ही बन जाता है। इस दृष्टि से यदि उसे मानव जाति की निर्माणकर्ता कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है। वैसे प्रकृति ने नारी को सब प्रकार की शक्तियाँ और प्रतिभाएँ पूर्ण मात्रा में प्रदान की हैं, पर गृह- संचालन की जिम्मेदारी के कारण उसमें मातृत्व और पत्नीत्वके गुणों का ही विकास सर्वाधिक होता है। उसको अपने इस क्षेत्र से बाहर निकलने की आवश्यकता बहुत कम पड़ती है, पर जब आवश्यकता पड़ती है तो वह अन्य क्षेत्रों में भी ऐसे महानता के कार्य कर दिखाती है कि दुनिया चकित रह जाती है।
यद्यपि वर्तमान समय में परिस्थितियों में परिवर्तन हो जाने के कारण स्त्रियाँ विभिन्न प्रकार के पेशों में प्रवेश कर रही हैं और शिक्षा, व्यवसाय, कला उद्योग- धंधे, सार्वजनिक सेवा आदि अनेक क्षेत्रों में पर्याप्त संख्या में स्त्रियाँ दिखाई पड़ने लगी हैं। यद्यपि हमारे देश में अभी यह प्रकृति आरंभिक दशा में है, पर विदेशों में तोकरोडों स्त्रियाँ सब प्रकार के जीवन- निर्वाह के पेशों में भाग ले रही हैं। यदि यह कहा जाए कि इंग्लैंड, अमेरिका, रूस आदि देशों की तीन चौथाई से अधिक स्त्रियाँ गृह- व्यवस्था के अतिरिक्त अर्थोपार्जन और समाज- संचालन के अन्य कार्यों में भी संलग्न हैं तो इसे गलत नहीं कहा जा सकता।
पर एक क्षेत्र ऐसा अवश्य है, जिसमें हमारे देश तथा अन्य देशों की स्त्रियों ने बहुत कम भाग लिया है, वह है, सेना और युद्ध का विभाग। हमारे देश में बहुत समय से नारी को कभी इस कार्य के लिए उपयुक्त माना ही नहीं गया और इसलिए उसका एक नाम 'अबला' भी रख दिया गया है। लोगों का ख्याल है कि अधिकांश में घर के भीतर रहने से स्त्रियों में दुर्धर्षता का वह गुण उत्पन्न ही नहीं हो पाता, जो सैनिक कार्यों के लिए आवश्यक है।
पर फिर भी कोई यह नहीं कह सकता कि स्त्रियाँ इस क्षेत्र में कुछ कर ही नहीं सकतीं। यद्यपि सामाजिक परिस्थितियाँ तथा नियमों के कारण ऐसे अवसर बहुत कम आते हैं, पर समय- समय पर ऐसी विरागंनायें उत्पन्न हुई हैं, जिन्होंने वीरता तथा युद्ध संबंधी कार्यों में पुरुषों से अधिक साहस और योग्यता दिखलाई है। ऐसी एक वीर नारी तो हमारे समय ही हो चुकी है। वह थी झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई जिसने सन् १८५७ के स्वाधीनता- संग्राम के इतिहास में अपना नाम अमर कर दिया है। यद्यपि गदर में सैकडो़ ही सरदारों राजाओं और नवाबों ने भाग लिया था, पर इतिहासकार मुक्त कंठ से स्वीकार करते हैं कि उनमें से किसी ने झाँसी की रानी से बढ़कर शौर्य- वीरता का परिचय नहीं दिया। झाँसी के किले में और कालपी तथा ग्वालियर युद्ध- क्षेत्रों में उसने जैसा पराक्रम, युद्ध संबंधी कुशलता दिखाई, उस पर मुग्ध होकर अंग्रेजी सेनाओं के मुख्य सेनापति और युद्ध- कला में निष्णांत सरह्यूरोज ने अपने संस्मरणों में स्पष्ट लिखा है कि "भारतीय विद्रोही दल में अगर कोई मर्द था तो वह झाँसी की रानी थी।" इसीलिए हम आज भी गाँव- गाँव और गली- गली में बच्चों के मुख से भी सुनते रहते हैं- "खूब लडी़ मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।"
अकबर का मान- मर्दन करने वाली दुर्गावती-
एक ऐसी ही वीराँगना आज से लगभग चार सौ वर्ष पहले भी हुई थी। उस समय भी सम्राट अकबर के दबदबे सेबडे़- बडे़ राजा उसके आधीन हो गये थे। जयपुर, जोधपुर, बीकानेर आदि के प्रसिद्ध क्षत्रिय नरेशों ने अकबर कीअधीनता ही स्वीकार नहीं कर ली थी; वे उसके सहायक भी बन गये थे। एकमात्र चितौड़ के महाराणा प्रताप सिंह को छोड़कर किसी राजा ने अकबर का सामना करने का साहस नहीं किया। पर उस समय भी नारी होते हुए भी रानी दुर्गावती ने दिल्ली- सम्राट् की विशाल सेना के सामने खडे़ होने का साहस किया और उसे दो बार पराजित करके पीछे खदेड़ दिया। रानी दुर्गावती कालिंजर के राजा कीर्तिराय की पुत्री थी। उनकी एकमात्र संतान वही थी और इसलिए उन्होंने उसे पुत्र के समान ही पाला था। उसने शस्त्र चलाने की शिक्षा बचपन से पाई थी और तेरह- चौदह वर्ष की आयु में ही वह सिंह, तेंदुआ आदि भयंकर वन जंतुओं का शिकार करने लग गई थी।
दलपतिशाह से विवाह-
दुर्गावती के विवाह की घटना कम रोमांचकारी नहीं है। दलपतिशाह एक प्रसिद्ध, वीर और योग्य शासक था। उसके राज्य की सुव्यवस्था ऐसी उत्तम थी और सुरक्षा की दृष्टि से भी उसकी सेना इतनी तैयार और समस्त साधनों से युक्त थी कि मुसलमान शासकों का उस पर आक्रमण करने का कभी साहस नहीं होता था। जबदलपतिशाह ने राजकुमारी दुर्गावती के रूप और वीरता की चर्चा सुनी तो उसने उसी को अपनी पत्नी बनाने का निश्चय किया। उसने पुरोहित और एक- दो सरदारों को कालिंजर भेजा कि वे राजा कीर्तिराय के सम्मुख इस प्रस्ताव को रखें। दुर्भाग्यवश कीर्तिराय कुछ पुराने ढर्रे के व्यक्ति थे और जात- पाँति की मर्यादा को ही सबसेबडी़ चीज मानते थे। वे मोरबा के चंदेल राजाओं के वंशज थे, जिनके दरबार में आल्हा, ऊदल जैसे भारत प्रसिद्ध वीर रहते थे। यद्यपि उनका अंत हुए पाँच सौ वर्ष बीत चुके थे और इसी बीच में मुसलमानों ने हिंदू धर्म और जाति की खूब दुर्गति की थी, पर कीर्तिराय उन लोगों में से थे, जो इन बातों से शिक्षा ग्रहण करने के बजाय पुरानी शान में डूबे हुए थे। उनको मालूम हुआ कि दलपती शाह उनकी अपेक्षा कुछ नीची श्रेणी का क्षत्री है, बस उन्होंने अन्य सब बातों की अपेक्षा करके इस प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए स्पष्ट कह दिया कि हम अपने से निम्न श्रेणी के क्षत्रिय को अपनी पुत्री नहीं दे सकते।
जिस प्रकार दलपतिशाह दुर्गावती के रूप गुण की चर्चा सुनकर उसकी तरफ आकर्षित हुआ था, उसी प्रकार दुर्गावती भी उसकी प्रशंसा सुनकर अपने मन में उसे अपना पति बनाने का विचार करती रहती थी। पर उस समय यहाँ के क्षत्रियों की बुद्धि कुछ ऐसी विपरीत हो गई थी कि वे विवाह- शादी के अवसर पर प्रायःलडा़ई- झगडा़ पैदा कर लेते थे। आल्हा- ऊदल की कथाएँ चाहे जितनी अतिशयोक्तिपूर्ण हों, पर इतना माननापडे़गा कि निम्न श्रेणी के होने के कारण अधिकांश राजा उनके साथ अपनी पुत्रियों का विवाह करने को राजी न होते थे और उन्हें लड़कर ही अपनी पत्नियाँ प्राप्त करनी पडी़ थीं। इतना ही क्यों, इतिहास प्रसिद्ध महाराज पृथ्वीराज भी कनौज के राजा जयचंद्र की पुत्री को स्वयंवर में से बलपूर्वक हरकर लाये थे, इसी के प्रतिकार- स्वरूप जयचंद ने विदेशी आक्रमणकारी मुहम्मद गौरी को दिल्ली पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया था। पृथ्वीराज को पराजित कर लेने के उपरांत पठान आक्रमणकारियों ने किस प्रकार एक- एक करके भारत के समस्त राजाओं को पद- दलित किया और हिंदू- धर्म के पवित्र स्थानों की कैसी दुर्दशा की, यह भी इतिहास के पढ़ने वालों से छिपा नहीं है।
सच पूछा जाय तो भारतवर्ष की पराधीनता का एक बडा़ कारण यहाँ के शासक वर्ग का झूठा अहंकार और जात- पाँत का भेदभाव ही था। इससे उनकी एकता नष्ट हो गई और वे जात- पाँत का भेदभाव ही था। इससे उनकी एकता नष्ट हो गई और वे छोटे- छोटे टुकड़ों में बँटकर तीन- तेरह हो गये। उनकी देखा- देखी उनकी प्रजा में भी ऊँच- नीच और छोटी- बडी़ जाति का विष फैल गया और समस्त देश का संगठित शक्ति होने के बजाय छोटे- छोटे भागों में विभाजित लोगों की भीड़ की तरह हो गया। ऐसी दशा देखकर विदेशियों का लार टपकना स्वाभाविक ही था। वे धर्म, सामाजिक आचार विचार, वेश भाषा आदि सब दृष्टियों से एक समान थे और इस आधार पर पूर्णतः संगठित थे। जब उन्होंने देखा कि भारतवर्ष जैसा समृद्ध तथा सब प्रकार के साधनों से संपन्न देश ऐसे असंगठित और आपस में फूट रखने वाले लोगों के अधिकार में हैं, तो उन्होंने उसे बलपूर्वक छीन लिया। यदि ऐसा न होता तो कोई कारण न था कि कुछ हजार आक्रमणकारी, करोडों की आबादी वाले देश को कुछ वर्षों में पद दलित करके यहाँ अपना शासन स्थापित कर सकते।
बिहार के कई नगरों के लिए तो इतिहासकारों ने यहाँ तक लिखा है कि बख्तियार खिलजी ने केवल अठारह सवारों को लेकर कब्जा कर लिया। कीर्तिराय की अहमन्यतापूर्ण उत्तर को सुनकर दलपतिराय को बुरा लगा और उसने एक शक्तिशाली सेना लेकर कालिंजर पर हमला कर दिया। कीर्तिराय भी वीर था, पर दलपतिराय उसके मुकाबले नई उम्र काजोशिला व्यक्ति था। उसने दो- चार मुठभेडों़ के बाद ही, जिनमें सैकडों़ वीर मारे गये, कालिंजर पर अधिकार कर लिया। फिर भी उसने पराजित कीर्तिराय से किसी प्रकार का दुर्व्यवहार नहीं किया और उसकी कन्या दुर्गावती की उसी प्रकार याचना की मानो कोई बात ही न हुई हो। उसकी सज्जनता देखकर कीर्तिराय को अपनी करनी पर बड़ा पश्चाताप हुआ और उसने विधिपूर्वक दुर्गावती का विवाह उसके साथ कर दिया।
पुत्र का जन्म और पति का निधन-
विवाह के पश्चात् दंपत्ति सुखपूर्वक अपनी राजधानी गढ़मंडला में रहने लगे और वर्ष भर बाद ही एक पुत्र का जन्म होने से उनकी प्रसन्न्ता का ठिकाना न रहा। पर होनहार को कौन जानता है? दो साल बाद हीदलपतिराय बीमार पडे़ और कुछ ही समय में उनके बचने की आशा न रही। दुर्गावती के शोक- संताप का ठिकाना न रहा। पति के न रहने पर उसने सती होकर उसी के साथ जाने का निश्चय कर लिया, पर दलपतिरायने तीन वर्ष के राजकुमार के अनाथ हो जाने का भय दिखाकर उसे ऐसा कृत्य करने से सर्वथा रोक दिया। पुत्र के मुँह को देखकर दुर्गावती को भी विवश होकर इसे स्वीकार करना पडा़।
पति के मरने पर दुर्गावती ने अपने पुत्र वीर नारायण को गद्दी पर बैठाया और स्वयं संरक्षिका के रूप में राज्य की व्यवस्था करने लगी। उसने यह कार्य ऐसे मनोयोग, योग्यता और परिश्रम से किया कि थोडे़ ही समय में वहाँ की काया पलट हो गई। प्रजा के सुखी और संतुष्ट होने से राज्य का वैभव भी बढ़ने लगा और दुर्गावती का नाम चारों तरफ फैल गया। उसने राजकुमार की शिक्षा का भी बहुत अच्छा प्रबंध किया और स्वयं उसको हर तरह के हाथियार चलाना और अपनी रक्षा करना सिखाने लगी। लोगों को आशा हो गई कि वीर नारायण अवश्य ही बडा़ होकर एक आदर्श नृपति बनेगा।
स्त्रीत्व का अभिशाप-
पर पर्दे के पीछे दुर्गावती के लिए विपत्ति सिर उठा रही थी। जैसे- जैसे उसके राज्य की समृद्धि बढ़ती जाती थी और चारों तरफ यश फैलता जाता था, वैसे ही वैसे उससे अनेक ईर्ष्या करने वाले भी पैदा होते जाते थे। अगर कोई पुरुष शासक ऐसी उन्नति करता तो संभवतः लोगों का ध्यान उसकी तरफ अधिक आकर्षित न होता। पर एक स्त्री का इतना आगे बढ़ना और अधिकांश पुरुष शासकों के लिए उदाहरणस्वरूप बन जाना, उनको खटकने लगा। वास्तव में दलपतिराय का देहांत हो जाने पर आस- पास के शासकों ने तो उसके गोंडवानाराज्य को लावारिसी माल समझ लिया था कि अब हमारे ही अधिकार में आयेगा। पर जब दुर्गावती के सुप्रबंधऔर शक्ति बढ़ते जाने से उसकी स्थिति और भी मजबूत हो गई तो उनकी आँखे खुली। पहले तो मालवा के शासक बाज बहादुर ने गढ़ मंडल पर हमला किया, पर दुर्गावती ने उसे ऐसी करारी हार दी कि उसे अपना सब कुछ छोड़कर जान बचाकर भागना पडा़। उसके बाद अन्य किसी छोटे शासक की यह हिम्मत न हुई किगढ़मंडला की तरफ आँख उठाकर देख सके।
इस समय दिल्ली के तख्त पर अकबर विराजमान था। वह भी कम उम्र का ही था, पर परिस्थितियों ने उसे उसी उम्र में महत्त्वकांक्षी और कूटनितिज्ञ बना दिया था। उसने देखा कि इस देश में जम कर सफलतापूर्वक शासन करना है, तो यहाँ के प्रभावशाली व्यक्तियों को मिलाकर ही चलना चाहिए। इसलिए उसने राजपूत राजाओं के साथ शादी विवाह का प्रस्ताव किया और दो- एक स्थानों के शासक से ऐसा संबंध स्थापित करके उसके पक्के हितैषी और मित्र भी बन गया। जो लोग इस तरह की चालों में आये उनको ताकत के जोर से दबा दिया गया। उसने मालवा और बंगाल को अपने अधिकार में कर लिया था और अब गोंडवाना(मध्य प्रदेश) तथा दक्षिण की तरफ बढ़ने की कोशिश कर रहा था। रानी दुर्गावती ने भी उसके ईरादों का अनुमान कर लिया था, पर इतने बडे़ सम्राट् का सामना करने की शक्ति गढ़मंडला में थी नहीं। फिर भी रानी समय को निकालती हुई चुपचाप अपनी सैनिक शक्ति को बढा़ती रही। उसने निश्चय कर लिया कि चाहे वह एक स्त्री ही है, तो भी अकबर के किसी अन्यायपूर्ण आदेश को नहीं मानेगी और न अपनी स्वाधीनता को सहज में चली जाने देगी।
अकबर की दुरभिसंधि-
अकबर ने कडा़ (प्रायग) के सूबेदार आसफखाँ को आदेश दे रखा था कि वह गोंडवाना राज्य का हाल- चाल लेता रहे और भीतर ही भीतर ऐसी तोड़- फोड़ करता रहे कि वह प्रदेश सहज में ही अपने अधिकार में आ जाय। आसफखाँ स्वयं ही गोंडवाना के वैभव को देखकर ललचा रहा था कि दिल्ली से सैनिक सहायता मिल जाए तो उसका एक ही बार में सफाया कर दिया जाए। उसने अपने गुप्तचर भेजकर रानी दुर्गावती के कुछ लालची और चरित्रहीन सरदारों को भी धन और पद का लोभ दिखाकर अपनी ओर कर लिया।
इतनी तैयारी की खबर पाकर अकबर युद्ध का बहाना ढूँढ़ने लगा। उसने सुन रखा था कि गढ़मंडलाका पुराना मंत्री आधारसिंह बडा़ योग्य और स्वामिभक्त है और रानी की सफलता में उसका बडा़ हाथ है। बस उसने एक चाल सोची और दूत के हाथ एक पत्र दुर्गावती को भेजा कि वह मंत्री आधारसिंह को दिल्ली भेज दे, जहाँ उससे कुछ शासन संबंधी कार्य कराया जायेगा। अकबर का वास्तविक इरादा यह था कि अगर रानीआधारसिंह को भेजने से इनकार करेगी तो इसी बहाने उस पर चढा़ई कर दी जायेगी और यदि वह दिल्ली आ गया तो उसे हर तरह का लालच दिखाकर अपनी ओर मिला लिया जायेगा और उसी को आगे करके गोंडवानेपर आक्रमण किया जायेगा, जिससे वहाँ कि प्रजा में भी फूट पड़ जाये।
इस पत्र को पाकर रानी सोच- विचार में पड़ गई। वह अपने स्वामिभक्त मंत्री को किसी प्रकार की विपत्ति में फँसने देना नहीं चाहती थी। पर यह भी समझती थी की यदि वह बादशाह के आदेश को अमान्य कर देगी तो यही उसके लिए एक बहाना मिल जायेगा। अंत में उसने यही निर्णय किया कि जब घटना एक दिन होनी है तो इसी समय क्यों न हो जाए। व्यर्थ में अपने सच्चे हितैषी मंत्री के प्राण संकट में क्यों डाले जाएँ? पर आधारसिंह ने स्वयं इस विचार से असहमति प्रकट की। उसने कहा कि अगर मेरे वहाँ जाने से यह बला टल जाए तो इससे अच्छा क्या होगा? मैं कोई बच्चा या नमक हराम तो हूँ नहीं, कि मुझे अकबर अपनी तरफ मोड़ ले। इसके बजाय दिल्ली जाकर मैं स्वयं उसकी योजना और चालों का पता लगाऊँगा और उनको निष्फल करने का भी प्रयत्न करूँगा। मैं आपके स्वाधीनता प्रेम का जिक्र उसके सामने अच्छी तरह कर दूँगा और समझा दूँगा कि गोंडवानाको जीतना उतना सहज नहीं है, जितना उसने समझ रखा है। अगर वह किसी तरह मान जाए तो अच्छा ही है, अन्यथा अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए प्राण देना तो प्रत्येक स्वाभिमानी पुरुष का कर्तव्य ही है।
रानी ने मंत्री को रोकने की बहुत चेष्टा की, पर अंत में उसका दृढ़ आग्रह देखकर वह चुप हो गई। दिल्ली पहुँचने पर आधारसिंह ने वही बात पाई जिसकी आशंका थी। अकबर ने पहले तो उसी को गोंडवाने का शासक अथवा अपना मंत्री बनाने का लालच दिया, पर जब उस पर इसका कोई प्रभाव न पडा़ तो जेलखाने में बंद कर दिया। इसके बाद उसने आसफखाँ को शीघ्र ही गोंडवाना पर चढा़ई की तैयारियाँ करने का आदेश दिया।
यद्यपि इतिहास में अकबर को महान् कहा गया है और वास्तव में भारत में मुगल- साम्राज्य की जड़ को मजबूत जमाने वाला वही था। वह बडा़ दूरदर्शी और प्रतिभाशाली शासक था और बिना पढा़- लिखा होने पर भी उसने वह काम कर दिखाया, जो सैकडो़ं विद्वानों के लिए भी संभव नहीं। उसने एक तरफ अपना राज्य चारों तरफ खूब बढा़या और दूसरी तरफ, प्रजा की रक्षा और सुख- सुविधा की वृद्धि करके श्रेष्ठ शासक होने की ख्याति भी प्राप्त की। वह पक्का साम्राज्यवादी था और उत्तर से दक्षिण तक तथा पूरब से पश्चिम तक संपूर्ण देश को अपने अधिकार में कर लेना चाहता था। इसमें उसे बहुत कुछ सफलता भी मिली।
पर फिर भी हम रानी दुर्गावती पर चढा़ई करने की उसकी कार्यवाही का समर्थन किसी प्रकार से नहीं कर सकते। साम्राज्यवादियों के लिए अकारण भी दूसरे राजाओं पर चढा़ई करना और उनका राज्य छीन लेना कोई नई बात नहीं है। सिकंदर महान् और चंगेजखाँ जैसे शासकों ने ही दूर- दूर के देशों पर आक्रमण नहीं किया। हमारे भारतीय पुराणों में सैकडो़ं चक्रवर्ती नरेशों का उल्लेख है, जिन्होंने उस समय तक विदित सभी देशों पर अपनी प्रभुसत्ता स्थापित कर ली थी। इसका आशय यही निकलता है कि साम्राज्यवाद एक प्रकार का अभिशाप है, जो लाखों निर्दोष लोगों का संहार कर डालता है और लाखों का ही घरबार नष्ट करके उन्हें पथ का भिखारी बना देता है।
पर अकबर का गोंडवाना पर आक्रमण इस श्रेणी में भी नहीं आता। रानी दुर्गावती से कभी यह आशंका नहीं हो सकती थी कि वह अकबर की सल्तनत पर आक्रमण करेगी या उससे शत्रुता ठानकर किसी प्रकार से हानि पहुँचाने का ही प्रयत्न करेगी। फिर स्त्री पर आक्रमण करना एक प्रकार से कायरता की बात समझी जाती है। दुर्गावती एक ऐसे प्रदेश में पडी़ हुई थी, जो अर्द्धसभ्य मनुष्यों का निवास स्थान समझा जाता था। दिल्ली, आगरा जैसे सभ्यता के केंद्रों से बहुत दूर था। उसका कैसा भी भला या बुरा प्रभाव मुगल- साम्राज्य पर नहीं पड़ सकता था। पर इनमें से किसी बात का विचार किए बिना उसने गोंडवाना को रौंद डालने का निश्चय कर लिया। सच है धन और राज्य की लालसा मनुष्य को न्याय- अन्याय के प्रति अंधा बना देती है। वह यह विचार कर ही नहीं सकता कि इसके लिए मुझे लोग भला कहेंगे या बुरा? लोभ उसकी आँखों पर ऐसी पट्टी बाँध देता है कि उसे सिवाय अपनी लालसा पूर्ति के और कोई बात दिखाई ही नहीं देती।
पर इस प्रकार का आचरण और आदर्श मनुष्य को कभी स्थायी रूप से लाभदायक नहीं हो सकता। उसका दूषित प्रभाव दूर- दूर तक पड़ता है और सब किए धरे पर पानी फेर देता है। इस प्रकार के मामलों में प्रायः "जैसी करनी वैसी भरनी" की कहावत ही चरितार्थ होती दिखाई पड़ती है। राज्य के लोभ से ही अकबर के इकलौते बेटे जहाँगीर ने विद्रोह किया। जहाँगीर के बेटे खुर्रम ने और भी अधिक उत्पात मचाया और औरंगजेब ने तो राज्य पाने के लिए तीनों भाईयों का सिर काटकर बाप को भी सात वर्ष कैद रखा। कुछ लोगों ने लिखा है कि अकबर को किसी ने शाप दे दिया था कि तुम्हारे समस्त आगामी वशंज एक- दूसरे के शत्रु होंगे। पर हमारी मान्यता तो यही है कि हम स्वयं जैसा आचरण करेंगे, वैसे ही संस्कार हमारी आगामी पीढि़यों के भी बनेंगे। रानी दुर्गावती पर आक्रमण करने का कोई कारण न होते हुए केवल इस भावना से चढ़- दौड़ना कि हमारी शक्ति और साधनों का वह मुकाबला कर ही नहीं सकेगी, तो उसे लूटा- मारा क्यों ना जाय? उच्चता तथा श्रेष्ठता का प्रमाण नहीं माना जा सकता। यों तो डाकू- दल भी अपनी संगठन शक्ति और अस्त्र- शस्त्रों के बल पर चाहे जिसको लूटते- मारते हैं और अपने को बडा़ बहादुर ख्याल करते हैं। पर कभी किसी डाकू का अंत अच्छा हुआ हो, यह आज तक नहीं सुना गया।
आधारसिंह को कैद करना भी नीचता का ही कार्य माना जायेगा। एक भिन्न राज्य का व्यक्ति यदि आप पर भरोसा करके आ जाता है, तो उसके साथ किसी प्रकार का अनुचित व्यवहार करना श्रेष्ठ पुरुषों का कार्य नहीं। वह एक प्रकार से दुर्गावती के प्रतिनिधि अथवा दूत की हैसियत से दिल्ली आया था। दूत यदि कोई कठोर बात कह देता है, तो भी उसे अवध्य माना जाता है और उसे अपने यहाँ से राजी खुशी घर जाने देना आर्य संस्कृति का एक नियम है। यवन- संस्कृति में अवश्य इससे विपरीत आचरण होता देखने में आता है। औरंगजेब ने शिवाजी को बहुत विश्वास दिलाकर बुलाया, पर बाद में अपने यहाँ कैद कर लिया। इसी प्रकार का उदाहरण अकबर ने भी उपस्थित किया, तो इसे उसके लिए कलंक स्वरूप ही कहा जायेगा। श्रेष्ठ व्यक्तियों का अपनी प्रतिज्ञा के विपरीत आचरण कभी न करना चाहिए।
गढ़मंडला पर आक्रमण-
अकबर का आदेश पाकर और यह जानकर कि अब आधारसिंह भी दिल्ली में कैद है, आसफखाँ ने चटपट चढा़ईकी तैयारी की और गोंडवाना राज्य में घुस गया। पर मुगल शासक फिर भी इस वीरांगना से सशंक थे और उन्होंने एक साथ दो 'मोरचों' पर आक्रमण करने की योजना बनाई। एक तरफ तो बादशाही फौज मार्ग में पड़ने वाले छोटे राजाओं तथा जागीरदारों आदि को दबाती हुई आगे बढे़ और दूसरी ओर बहुत से गुप्तचर समस्त रियासत में फैलकर प्रजा में रानी के विरुद्ध प्रचार करें और अकबर की उदारता, दानशीलता, गुण ग्राहकता की प्रशंसा लोगों को सुनायें। साथ ही कुछ विशेष गुप्तचरों को इसलिए भेजा गया कि वे गढ़मंडला के कुछ उच्च अधिकारियों और फौजी अफसरों को धन और पद का लालच देकर उन्हें अपनी ओर मिला लें। दुर्भाग्यवश भारत में ऐसे लोगों की कमी कभी नहीं रही। सन् ११०० में मुहम्मद गौरी के हमले से लेकर सन् १७५७ तकक्लाइव द्वारा बंगाल के शासक सिराजुद्दौला के पतन तक जयचंद तथा मीरजाफर जैसे देशघातक पैदा होते रहे, जिन्होंने भारतभूमि पर आक्रमण करने वालों का प्रतिरोध करने के बजाय उनको सहयोग दिया और देश को दासता के बंधनों में डालने का पाप कमाया। मुगलों को गढ़मंडला में भी ऐसे कई देशद्रोही मिल गये। उनमें सेबदनसिंह नाम का सरदार कुछ व्यक्तियों को लेकर अकबर से जा मिला और गढ़मंडला के समस्त सैनिक रहस्य उसे बतला दिये। इससे अकबर वहाँ के शक्तिशाली और कमजोर पहलुओं को अच्छी तरह समझ गया और उसने अपनी सेना में उन सभी साधनों तथा युद्ध सामग्री की व्यवस्था कर दी जिसकी वहाँ आवश्यकता पड़ने वाली थी।
तोपखाने का अभाव-
एक तरफ दिल्ली के साधन संपन्न शासकों की तरफ से गढ़मंडला को ध्वस्त करने की इस तरह की तैयारियाँ हो रही थी और दूसरी ओर रानी दुर्गावती अपने पूर्वजों की भूमि की रक्षा के लिए प्राणपण से संलग्न थी। उसे इस बात का बडा़ खेद था कि उसके साथियों में से ही कुछ "घर का भेदिया" बनकर शत्रु को आगे बढ़ने में मदद पहुँचा रहे हैं, तो भी वह अपने मार्ग से च्युत नहीं हुई। वह अच्छी तरह जानती थी कि मुगल बादशाह के साधनों की तुलना में गढ़मंडला के साधन अल्प ही हैं, तो भी उसने अपने मन में एक क्षण के लिए भी न तो निराशा आने दी और न कायरता। उसकी दृष्टि अपने कर्तव्य पालन की तरफ थी, फिर परिणाम चाहे जो कुछ निकले।
मुगल सेना के आगे बढ़ने का समाचार पाकर रानी ने अपनी सेना को भी पूरी तरह तैयार हो जाने की आज्ञा दे दी। सिपाहियों की संख्या बढा़ई गई और उनको कारगर हथियार दिये गये। इसके अतिरिक्त वह अपनी प्रजा में भी हर तरह से शत्रु का प्रतिरोध करने का उत्साह उत्पन्न करने लगी। वह स्वयं और उसका पुत्र वीर नारायण जो अब सोलह वर्ष का हो चुका था, चारों तरह घूमकर सैनिक तैयारियों का निरीक्षण करते और उत्साहपूर्ण वार्तालाप से लोगों के साहस को बढा़ते। अभी तक समस्त युद्धों में गढ़मंडला की सेना ने जिस प्रकार वीरता दिखाकर विजय प्राप्त की थी, उसकी चर्चा करके इस बार उससे भी अधिक जोर से लड़ने की सैनिकों को प्रेरणा देते। उन्होंने अपने व्यवहार और परिश्रम से लोगों में एक नई चेतना उत्पन्न कर दी, जिससे वे युद्ध- भावना से भरकर मरने- मारने को उद्यत हो गये।
गढ़मंडला की सेना की सबसे बडी़ कमजोरी तोपखाने का अभाव था। मुगल लोग तोप बनाने तथा चलाने में निपुण हो चुके थे और तोपों के जोर से ही अकबर के पितामह बाबर ने दिल्ली के पठान बादशाहइब्राहीम लोदी को हराकर अपनी हकूमत कायम की थी, चितौड़ के सुप्रसिद्ध किले पर भी तोपों और बंदूकों से विजय प्राप्त की गई थी। पर अभी तक भारतीय राजा इस दिशा में ज्यादा प्रगति नहीं कर सके थे। पर्याप्त संख्या में तोपों का शीघ्र बना सकना संभव भी न था। इसलिए गढ़मंडला की सेना को ज्यादा भरोसा अपने तीर कमान, तलवार, भाले आदि का ही था। बंदूकों का व्यवहार भी वे करने लगे थे और रानी दुर्गावती तो उससे अचूक निशाना लगाती थी। उनके पास घोडे़ और हथियारों की भी काफी संख्या थी और अभी तक इन्हीं के द्वारा गढ़मंडला की सेना कई बार शत्रुओं को हरा चुकी थी।
युद्ध का आरंभ-
जब शत्रु सेना काफी नजदीक आ पहुँची तो रानी दुर्गावती स्वयं घोडे़ पर सवार होकर आगे बढी़। उस समय हाथ में नंगी तलवार लिए वह साक्षात् दानव दलनी दुर्गा कि तरह ही दिखाई पड़ रही थी। उसने मुगलों की तोपों को व्यर्थ करने के लिए अपना मोर्चा ऐसे पहाडी़ स्थान में लगाया, जहाँ तोपों के गोले के निशाने तक पहुँच ही नहीं सकते थे, बीच में पहाड़ से टकराकर व्यर्थ हो जाते थे। इस प्रकार जब शत्रु की तोपें अपना बहुत- सा गोला बारुद व्यर्थ में बर्बाद कर चुकीं, तब रानी ने मुगल सेना पर जोरों से हमला किया। उसने अपने सैनिकों में यह भावना भर दी थी कि हम धर्मयुद्ध कर रहे हैं। अपनी मातृभूमि और घरों की रक्षा करना प्रत्येक मनुष्य का पवित्र कर्तव्य है, जो इस कर्तव्यपालन से पीछे हटता है, वह 'मानव' नाम का अधिकारी नहीं और निश्चय कुल कलंक कहा जाने योग्य है। मुगल सेना आततायी है, जो बिना कारण लूटमार के लालच से हमारे राज्य से हमारे राज्य में घुस आई है, इसे मारकर खदेड़ देना ही हमारा कर्तव्य है।
अपने सैनिकों को इस प्रकार उत्साहित कर रानी ने स्वयं मुगल सेना में घुसकर ऐसी मारकाट मचाई कि उसके छक्के छूट गये। कहाँ तो वे गढ़मंडला के धन को लूटकर ले जाने का स्वप्न देख रहे थे और कहाँ यहाँ प्राणों के ही लाले पड़ गये। हजारों लाशों से पृथ्वी के पट जाने से बादशाही सेना में भगदड़ मच गई औरआसफखाँ अपने कैंप को कई मील पीछे हटा ले गया। रानी की सेना विजय का डंका बजाती हुई अपने कैंप में वापस आई।
युद्ध का दूसरा दौर-
इस पराजय से आसफखाँ बडा़ दुःखी हुआ। उसकी गिनती मुगल साम्राज्य के प्रसिद्ध सेनाध्यक्षों में की जाती थी और पहले वह अनेक राजाओं को जीतकर मुगल सम्राट् के आधीन कर चुका था।
अब एक स्त्री से हारकर वह अपना मुँह दुनिया को कैसे दिखायेगा? उसने इस बात को अपने लिए बडा़अपमानजनक समझा और सारी बुद्धि लगाकर इसका प्रतिकार करने की युक्ति सोचने लगा। उसने नई सैनिक सहायता आने तक किसी चाल से युद्ध को स्थगित रखने का प्रयत्न किया। बादशाही पक्ष की तरफ से एक दूत सफेद झंडा लेकर गढ़मंडला की तरफ चला। उसके द्वारा आसफखाँ ने रानी के पास संधि का संदेश भेजा था। हार जाने पर भी उसने संधि की शर्तें ऐसी रखी थीं, मानो विजय उसी की हुई हो। उसने रानी को लिखा कि वीर नारायण को दिल्ली भेजा जाय और वह सम्राट् अकबर की संरक्षकता में रहकर गोंडवाना का शासन कार्य करे, तो मुगल सेना का आक्रमण रोका जा सकता है।
इस शर्त को सुनकर रानी ने दूत को उसी क्षण लौट जाने को कहा। उसने कहा कि मैंने उसी समय मुगल सेना को राज्य के बाहर तक खदेड़कर उसकी छावनी (कैंप) में आग नहीं लगा दी, इसका अहसान तो तुम नहीं मानते और उलटा मेरे पुत्र को दिल्ली दरबार में हाजिर होने की माँग करते हो। आसफखाँ रानी का उत्तर सुनकर बडा़ लज्जित हुआ और मन ही मन आगे की चाल सोचने लगा। उसने अपने अधीनस्थ अधिकारियों की बहुत लानत- मलामत की, कि तुम एक औरत के सामने पीठ दिखाकर भाग आये और फिर भी बहादुरी का दम भरते हो। सब लोगों ने मिलकर फिर दूसरी बार हमला करने का निश्चय किया। उसी समय दिल्ली से कुछ नई सेना और तोपें आ पहुँची। बस आसफखाँ की हिम्मत बढ़ गई और उसने अपनी सेना को पुनः मजबूती के साथ संगठित करके हमला करने का आदेश दिया।
दूसरा आक्रमण-
इस बार आसफखाँ ने अपने सिपाहियों को तोपखाने के पीछे चलने का संकेत किया। इधर रानी दुर्गावती मुगल सिपाहियों पर ही हमला करना चाहती थी। इसलिए उसने अपनी सेना को तोपों के सामने ही चलने की आज्ञा दी। यह बडा़ कठिन अवसर था। विपक्ष के सैनिक तो तोपों की आड़ लेकर लड़ रहे थे और गढ़मंडला वालों को तोपों के अभाव में उनके गोले, गोली अपनी छाती पर झेलने पड़ रहे थे। इस तरह का असमानता का युद्ध अधिक समय तक लडा़ जा सकना कठिन होता है। उस तीर- तलवारों के जमाने की बात तो जाने दीजिये, आजकल वैज्ञानिक युग में होने वाले प्रथम योरोपीय महाभारत (१९१४ से १९१८) में जब इंग्लैंड ने अकस्मात् टैंक (बख्तरदार मोटल) से हमला किया, तो थोडे़ ही समय बाद जर्मन सेना को आत्म- समर्पण करना पडा़। उसके बाद जर्मन सेना बराबर दबती ही चली गई और कुछ महीनों में जर्मनी ने पराजय स्वीकार कर ली। उस अवसर पर जर्मन सेना के सर्वोच्च, सेनापति हिंडेन बर्ग ने कहा था- "हम जनरल फ्रांक(मित्रसेनाओं के प्रधान सेनापति) द्वार नहीं हराये गये हैं, वरन् 'टैंक' ने हमको हराया है।"
यही परिस्थिति उस समय गढ़मंडला वालों के सामने थी। वे अब तक तीर, तलवार, भाले आदि से ही लड़ते आये थे। कुछ लोग पुराने ढंग की बंदूकों का प्रयोग करना भी जान गये थे। पर इन हथियारों से तोप का मुकाबला नहीं किया जा सकता था। तोप की मार दो- चार मील तक ही थी और उनका गोला जहाँ गिरता था वहाँ पर दस- पाँच आदमियों को मार ही देता था। उस समय तोपों की संख्या बहुत अधिक नहीं थी और बहुत भारी होने के कारण उनका इधर- उधर हटाया जाना भी कठिन होता था, पर उनके भयंकर शब्द और गोलों द्वारा किले की दीवारों से टूटते देखकर लोगों में आतंक का भाव उत्पन्न हो जाता था, तो भी दुर्गावती इससे न तो भयभीत हुई और न निराशा का भाव मन में लाई। उसने अपने सैनिकों का उत्साह बढा़ते हुए कहा कि "यद्यपि हमारे पास तोपें नहीं हैं, पर उससे भी शक्तिशाली आत्मबल हमारे पास है। हम स्वदेश की रक्षा के लिए सत्य और धर्म के अनुकूल युद्ध कर रहे हैं, यह कम महत्त्व की बात नहीं है। याद रखो, सत्य की सदा विजय होती है, असत्य की नहीं। ये दस- बीस तोपें मातृभूमि के मतवालों को कदापि नहीं रोक सकतीं।" यह कहकर उसने एक हजार सेनानी लेकर बडी़ तेजी के साथ तोपों पर धावा किया। यद्यपि इस संघर्ष में कई सौ वीर तोपों की भेंट हो गये, पर रानी ने तोपों के पास पहुँचकर गोलंदाजों का सफाया कर दिया। इस प्रकार तोपखाने को निष्क्रिय हुआ देखकर आसफखाँ बडा़ घबडा़या। उस समय रानी थोडे़ से साथियों को लेकर ही शत्रु दल में ऐसी मारकाट मचा रही थी कि बडे़- बडे़ वीरों के होश उड़ गये, इतने में गढ़मंडला की शेष सेना भी वहाँ पहुँची और बादशाही सेना पर ऐसी मार पडी़ कि वह प्राण बचाने के लिए फिर भाग खडी़ हुई।
तीसरा आक्रमण और गढ़मंडला का पतन-
इस प्रकार दो आक्रमणों में रानी दुर्गावती ने शत्रु को अच्छी तरह हरा दिया। पर न मालूम किस कारण उसकी सेना ने दुश्मन की भागती हुई सेना का पीछा नहीं किया? शायद इसका कारण क्षत्रियों का यह विरोध हो कि भागते हुए और शरणागत शत्रु को मारना धर्म के विरुद्ध है, अथवा उनकी व्यवस्था किले के समीप ही लड़ने की हो, जहाँ से आवश्यकतानुसार युद्ध- साम्रगी प्राप्त होती रहे और अवसर आने पर उसके भीतर पहुँचकर भीलडा़ जा सके। कुछ भी कारण रहा हो, पर शत्रु को आधा कुचलकर छोड़ देने से वह प्रायः प्रतिशोध की ताक में रहता है और फिर से तैयार होकर आक्रमण कर सकता है। गढ़मंडला के सेनाध्यक्षों से यही भूल हुई, जिसके फलस्वरूप मुगल सेना एक के बाद एक करके तीन आक्रमण कर सकी और अंत में सुयोग मिल जाने से उसने सफलता प्राप्त कर ली। क्षत्रियों ने युद्धों में जैसी वीरता दिखाई उसकी प्रशंसा इतिहास के पन्ने- पन्ने में लिखी मिलती है, पर साथ ही अवसर के अनुकूल कार्य प्रणाली न अपनाकर और केवल परंपराओं के ही पीछे लगे रहकर उन्होंने जो बहुत बडी़ भूल की, उसकी अबुद्धिमत्ता की आलोचना भी अनेक विद्वानों ने की है।
महाराज पृथ्वीराज ने प्रथम बार के आक्रमण में मुहम्मद गौरी को हराकर पकड़ लिया था। पर बाद में कुछ लोगों की लल्लो- चप्पो में आकर मुहम्मद गौरी की क्षमा प्रार्थना करने पर, उसे छोड़ दिया। परिणाम यह हुआ कि उसने फिर से अधिक तैयारी के साथ आक्रमण किया और विजय मिलने पर पृथ्वीराज को मरवा ही डाला हमारे नीतिकारों ने भी यही कहा है कि दुष्ट शत्रु पर दया दिखाना अपना और दूसरे भी अनेकों का अहित करना है आजकल के व्यवहारशात्र का तो स्पष्ट नियम है कि दूसरों को सताने वाले दुष्ट- जन पर दया करना सज्जनों को दंड देने के समान है। क्योंकि दुष्ट तो अपनी स्वभावगत क्रूरता और नीचता को छोड़ नहीं सकता, वह जब तक स्वतंत्र रहेगा और उसमें शक्ति रहेगी, वह निर्दोष व्यक्तियों को सब तरह से दुःख और कष्ट ही देगा। इसलिए वर्तमान युग के एक बहुत बडे़ दार्शनिक बर्नार्डशा ने एक लेख में स्पष्ट कहा है कि- स्वभाव से ही दुष्ट और आततायी अयक्तियों को समाज में रहने का अधिकार नहीं है। उनका अंत उसी प्रकार कर देना चाहिए, जिस प्रकार हम सर्प और भेडि़या आदि अकारण आक्रमणकारी और घात में लगे रहने वाले जीवों का कर देते हैं।
विश्वासघातियों की करतूत-
द्वितीय आक्रमण में विजय पाकर गढ़मंडला की सेना उल्लास में आकर राग- रंग मनाने लगी और अनुशासन ढीला पड़ गया। उधर आसफखाँ दो बार हार हो जाने से बुरी तरह तिलमिला रहा था और अपने सब सलाहकारों को इक्कठा करके आगे की नई चाल सोच रहा था। उसी अवसर पर उससे मिले हुए गढ़मंडला के विश्वासघाती कुछ व्यक्तियों ने उसके कैंप में पहुँचकर खबर दी कि इस समय गढ़मंडला की सेना राग- रंग में मस्त है, अगर इस समय आकस्मिक रूप से आक्रमण कर दिया जायेगा तो वह तैयार होने का भी अवसर न पायेगी और नगर पर कब्जा किया जा सकेगा। आसफखाँ तो ऐसे मौके की ताक में ही था, उसने उन घर केभेदियों को साथ लेकर उसी समय सेना को किले पर धावा करने की आज्ञा दे दी। जब यह समाचार रानी दुर्गावती को मालूम हुआ तो वह गंभीर हो गई। घर के भेदियों का कुछ हाल तो उसे पहले से ही मालूम था, पर वे इस प्रकार प्रकट रूप से शत्रु से मिल जायेंगा, इसका अनुमान वह न कर सकी थी, फिर भी युद्ध का अभ्यस्त होने के कारण वह घबडा़ने वाली न थी। उसने शीघ्रता में जितनी सेना इकट्ठी हो सकी, उसे लेकर शत्रुओं को बीच में ही रोका और घमासान संग्राम आरंभ हो गया।
इस बार सेना में जो कमजोरी दिखाई पड़ती थी, उसको पूरा करने के उद्देश्य से अपने पुत्र वीर नारायण को ही सैन्य- संचालन का भार दे दिया। उसने सोचा कि अपने राजा को इस प्रकार आगे बढ़ते देखकर सैनिकों का उत्साह बढ़ जायेगा और वे अपने पराक्रम से शत्रुओं के छक्के छुडा़ देंगे। पर इसका परिणाम कुछ उलटा ही निकला। पुराने और बडे़- बूढे़ सेनाध्यक्षों को एक सोलह वर्ष के किशोर के आदेशानुसार कार्य करना अपमानजनक प्रतीत हुआ और उन्होंने अपना हाथ ढीला कर दिया। परिणाम यह हुआ कि वीर नारायण के अत्यंत शौर्य दिखलाने और अकेले सैकड़ों शत्रुओं का सफाया करने पर भी मुगल सेना आगे बढ़ती गई और किले के फाटक के समीप पहुँच गई। रानी दुर्गावती कुछ दूरी पर युद्ध करती हुई इस स्थिति को देख रही थी और आश्चर्य कर रही थी कि ऐसा क्यों हो रहा है? अंत में एक सिपाही ने संकेत द्वारा उसे वास्तविक कारण बतलाया। यह सुनकर वह बहुत ही दुःखी हो गई। उसने तो अपने इकलौते अल्प- वयस्क पुत्र को इसीलिए सबसे आगे लड़ने को भेजा था कि लोग उसके त्याग और बलीदान के भाव को समझें और उन्हें पूरी शक्ति से जूझने की प्रेरणा मिले। पर मनुष्य के हीन, अहंकार तथा ईर्ष्या की वृत्ति ने उसे कुछ और ही रूप दे दिया। मुगलों की नई सेना और युद्ध- सामग्री के जोर से गढ़मंडला उस दिन नहीं, तो दूसरे दिन शत्रुओं के हस्तगत हो ही जाता, क्योंकि सेना में अव्यवस्था पैदा हो गई थी, पर इन पुराने सरदारों ने ऐसे कठिन अवसर पर झूठी शान के पीछे जो अकर्मण्यता दिखाई, उसके लिए वे सदा निंदा के पात्र बने रहे। उससे भीषण संघर्ष करना उनको भी पडा़, पर जहाँ रानी दुर्गावती तथा वीर नारायण का नाम आज चार सौ वर्ष बीत जाने पर भी आदर के साथ लिया जाता है, उनको देश का गौरव बढा़ने वाला माना जाता है, वहाँ उन हीन मनोवृत्ति के सरदारों को घृणा के साथ ही याद किया जाता है। क्या यह उनका बडा़ दुर्भाग्य नहीं है?
इसी समय रानी ने वीर नारायण को पचासों शत्रु सैनिकों से अकेले लड़ते- लड़ते घोडे़ से गिरते देखा। साथ ही समाचार आया कि तोपों की मार से किले की दीवार एक स्थान पर टूट गई है। उसने समझ लिया कि बस अब अंत आ गया। वीर नारायण की वीर गति पाने से अब उसे जीवन से तनिक भी मोह न रह गया था। वह चुने हुए तीन सौ सवारों को लेकर मुगल सेना पर टूट पडी़। उसने सैकड़ों शत्रुओं को यमलोक पहुँचाया, पर अचानक एक तीर आकर उसकी आँख में लगा। उसने उसे अपने हाथ से बाहर खींच लिया। इतने में दूसरा तीर गर्दन में लगा। उससे असह्य वेदना होने लगी। उस समय रानी ने आधारसिंह को सामने देखकर कहा "मैं अब रक्त निकलने से अशक्त होती जा रही हूँ। मैं कभी नहीं चाहती कि शत्रु मुझे जीवित अवस्था में छू सकें। इसलिए तुम तलवार से मेरी जीवन लीला समाप्त कर दो।" पर आधारसिंह इस बात को सुनकर काँप उठा और उसने भरे हुए कंठ से कहा- "मैं असमर्थ हूँ, मेरा हाथ आप पर नहीं उठ सकता। रानी जोश में आ गई और मरते- मरते उठकर बैठ गई और अपनी कटार जोर से अपनी छाती में घुसेड़ ली। दूसरे ही क्षण उसकी निर्जीव लाश भूमि पर पडी़ दिखाई दी।
इसके पश्चात् मुगल सेना को रोकने वाला कोई न रहा। उसने नगर में घुसकर बहुत मार- काट मचाई तथा गढ़मंडला के खजाने तथा महलों की संपत्ति को लूट लिया। कहा जाता है, वहाँ पर आसफखाँ को बहुत अधिक सोना, चाँदी, जवाहरात आदि मिले। उनका अधिकांश उसने स्वयं रख लिया, केवल पंद्रह हाथियों पर लूट का थोडा़- सा भाग लदवाकर दिल्ली भेज दिया। गोंडवाना के गौरव का दीपक सदा के लिए बुझ गया और आज वह एक उजाड़ नगर के रूप में ही शेष है।
दुर्गावती मरकर भी अमर है-
दुर्गावती ने जिस प्रकार मातृभूमि की रक्षा के लिए विदेशी आक्रमणकारियों से युद्ध करके वीरगति पाई, उस तरह की मृत्यु शोक नहीं, गौरव की बात मानी जाती है। अपने लाभ के लिए तो सभी प्रयत्न करते और संकट उठाते हैं, पर जो न्याय की खातिर अपनी प्रत्यक्ष हानि देखकर भी संघर्ष करते हैं, उनकी गिनती महान् पुरुषों में होती है। दुर्गावती अगर चाहती तो अकबर की आधीनता स्वीकार करके आजन्म सुखपूर्वक रह सकती थी, पर ऐसा करने में उसे अपना और देश का अपमान जान पडा़। हम जयपुर के राजा मानसिंह आदि को "गद्दार" ही समझते हैं, क्योंकि उन्होंने अकबर के राज्य को फैलाने और जमाने में ही अपनी समस्त वीरता और युद्ध- कौशल को झोंक दिया- इसका अर्थ यह है कि उन्होंने हिंदुओं के प्रभुत्व का अंत करके विदेशियों की जड़ जमाने का कार्य किया, जिसे कभी आदरणीय नहीं कहा जा सकता।
इसके विपरीत भारत का बच्चा- बच्चा मेवाड़ के महाराणा प्रताप सिंह का यशगान करता है, क्योंकि उन्होंने हर प्रकार के कष्ट सहन करके भी अकबर के साथ वर्षों तक संघर्ष किया और देश की स्वाधीनता की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया। हम शिवाजी को भी राष्ट्ररक्षक की पदवी देते हैं, क्योंकि उन्होंने औरंगजेब जैसे निष्ठुर और हिंदुत्व के प्रबल विरोधी बादशाह का सामना किया और अल्प- साधन युक्त होते हुए भी जाति और धर्म के झंडे को झुकने नहीं दिया। हम गुरु गोविंद सिंह को देश का उद्धारक इसीलिए मानते हैं कि उन्होंने चारों पुत्रों का बलिदान स्वाधीनता की वेदी पर कर दिया और मुगल बादशाह को सहयोग देना स्वीकार नहीं किया यही कारण है कि सैकड़ों वर्ष बीत जाने पर भी इन सब वीरों के चरित्र पढे़ जाते हैं, उनकीजयंतियाँ मनाई जाती हैं और आगामी पीढि़यों को उनसे प्रेरणा लेने को कहा जाता है। उनकी गणना महापुरुषों में की जाती है। इसके विपरीत मानसिंह, जयसिंह आदि कितने भी सफल और संपन्न क्यों न बन गये, उनको देश और जाति का विरोधी ही घोषित किया जाता है। चाहे उस समय वे बहुत बडे़ पदवीधारी कहे जाते थे और उन्होंने इतना धन भी कमाया, जो पीढि़यों तक काम देता रहा, पर उनकी प्रशंसा में आज तक एक शब्द भी किसी के मुहँ से सुनने में न आया।
रानी दुर्गावती भी इस दृष्टि से भारतीयता की रक्षक और स्वाधीनता के लिए बलिदान करने वाली मानी जाती है। यद्यपि परिस्थितियों के कारण विदेशी शासकों के साथ संघर्ष अल्पकालीन ही रहा, महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी की तरह वह वन, जंगल और पर्वतों में घुसकर वर्षों तक संघर्ष न कर सकी, पर भारतीय स्त्रियों की तत्कालीन और आज की भी स्थिति को देखते हुए उसने जो कुछ किया, वह उसे प्रथम श्रेणी के राष्ट्रीय वीरों की पंक्ति में बिठाने के लिए पर्याप्त है। जहाँ स्त्रियों को घर से बाहर निकलने का भी अधिकार नहीं है।, जहाँ उनका सार्वजनिक जीवन में भाग लेना आलोचना का विषय बन जाता है, जहाँ थोडी़- सी स्वतंत्रता का रहन- सहन देखते ही लोग उनके चरित्र पर शंका करने लगते हैं, वहाँ दुर्गावती ने जो कुछ किया उसकी सौ मुखों से प्रशंसा की जाय तो भी अनुचित नहीं है।
यह भारतीय पुरुषों की बहुत बडी़ त्रुटि है कि उन्होंने स्त्रियों को ऐसे बंधनों में जकड़ दिया कि वे देश और जाति की प्रगति के लिए कोई महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकने के योग्य ही नहीं रहीं, इससे हमारी आधी शक्ति ही बेकार हो गई, और अपने अज्ञान तथा जड़ता के कारण वह हमारे अग्रसर होने में भी पैरों की बेडी़ के समान सिद्ध होने लगी। कौन नहीं जानता कि हमारे पिछले पचास वर्ष के स्वाधीनता आंदोलन में लाखों व्यक्ति इच्छा रहने पर भी स्त्री और संतान के बंधनों के कारण भाग न ले सके। अगर स्त्रियाँ सुयोग और व्यवहार कुशल होतीं तो वे ऐसे अवसर पर घर का भार स्वयं सँभालकर पुरुषों को देशोद्धार के कार्य के लिए छुट्टी दे सकती थी। पर जब हमने स्वयं ही उनको "पिंजरे के पंक्षी" बना रखा है, तो हम उनकी शिकायत भी किस मुख से करें? एसी दशा में जो दस- पाँच देश तथा समाज की सेविकाएँ अपने प्रयत्न और साहस से निकल आईं, उन्हीं को गनीमत माना जायेगा। वीरांगनाओं में दुर्गावती का स्थान सर्वोच्च है-
यह सब कुछ होने पर भी दुर्गावती ने युद्ध- क्षेत्र में जो वीरता और रण- कौशल दिखलाया। वह अद्वितीय ही है। हमको भारत तथा संसार की अन्य वीरांगनाओं का इतिहास भी मालूम है, पर बहुत कुछ खोज करने पर भी ऐसी दूसरी नारी दिखाई नहीं पडी़, जिसने उसके सामने वर्षों सुशासन करके सेना को इतना दृढ़ बनाया हो कि वह अकबर जैसे प्रसिद्ध सम्राट् की शक्तिशाली फौज को दो बार पराजित कर सके। साथ ही अन्य किसी स्त्री ने युद्ध के खुले मैदान में उसके समान अस्त्र- शस्त्र का प्रयोग करके प्रसिद्ध वीरों के छक्के छुडा़ देने का कठिन कार्य भी करके नहीं दिखाया। इतिहास में वीराबाई, कर्माबाई आदि दो चार क्षत्राणियों के नाम ही पढ़ने में आते हैं, जिन्होंने कोई आकस्मिक अवसर उपस्थित हो जाने पर युद्ध- क्षेत्र में प्रत्यक्ष युद्ध करके शत्रु पर विजय प्राप्त की हो। पर उनके संबंध में इतनी कम बातें ज्ञात हो सकीं हैं कि उनके आधार पर उनका विशेष वर्णन नहीं किया जा सकता है। एकमात्र झाँसी वाली रानी लक्ष्मीबाई ही गत सैकड़ों वर्षों के भीतर ऐसी निकली हैं। जिसने स्त्रियों के "अबला" कहे जाने वाले "कलंक" को मिटाने के लिए एक प्रशंसा के योग्य उदाहरण सामने रखा है। देश की स्वाधीनता संग्राम में एक महत्त्वपूर्ण पार्ट अदा करके अपनी आहुति डाल देने की दृष्टि से इन "दुर्गा", "लक्ष्मी" मे कोई अंतर नहीं, पर शस्त्र- संचालन में दुर्गावती ने जो जौहर दिखाया, वह बेमिसाल है।
संसार के पुराने इतिहास में किसी देश की महिला ने युद्ध में ऐसी वीरता और कौशल दिखाया हो, इसका कोई प्रसिद्ध उदाहरण पढने में नहीं आया, हाँ आधुनिक समय में विभिन्न देशों में ऐसी कितनी ही महिलाएँ सामने आई हैं, जिन्होंने महत्त्वपूर्ण कार्य करके स्वाधीनता के लिए बलिदान दिया है। पर चूँकी इस समय युद्ध- क्षेत्र का रूप बदल गया है, इसलिए तीर- तलवार या बंदूक लेकर सैनिकों के दल से जूझने वाली महिलाएँ तो नहीं मिल सकतीं, पर जिन्होंने स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए शत्रुओं से संघर्ष किया है, उनके प्रहार सहन किये हैं और स्वयं शत्रुओं से संघर्ष किया है, उनके प्रहार सहन किये हैं और स्वयं प्रहार किया है, ऐसी विरांगनायें पर्याप्त संख्या में मिलती हैं।
ऐसी देशभक्त महिलाओं की सबसे अधिक संख्या रूस में पाई जाती है। वहाँ पर लगभग सौ वर्ष पहले जार का ऐसा अत्याचारी शासन कायम था कि करोड़ों प्रजा त्राहि- त्राहि कर रही थी। किसान, मजदूर, दुकानदार, छोटे सरकारी कर्मचारी सबकी हालत खराब थी और सब कष्ट पा रहे थे। प्रत्येक विभाग में भ्रष्टाचार का बोलबाला था, जिससे प्रजा को घोर गरीबी में निर्वाह करना पड़ता था। यह दशा देखकर अनेक स्वाभिमानी युवक- युवतियों को जोश आया और उन्होंने इस अन्याय का खात्मा करने की प्रतिज्ञा की। पर उनके पास साधन तो थे नहीं, कि फौज खडी़ करके अत्याचारियों पर आक्रमण कर देते। इसलिए वे बम और पिस्तौल लेकर गुप्त रूप से अत्याचारी अधिकारियों और स्वयं जार पर भी हमला करते थे। इनमें से सोफिया नाम की युवती ने जार पर ऐसा जोरदार आक्रमण किया कि वह भाग्यवश ही बच गया। जब सोफिया को गिरफ्तार किया गया, तो उसको अपने दल का भेद खोलने के लिए अमानुषिक यातनाएँ दी गईं, पर वह अंत तक अटल बनी रही और प्रसन्न्ता- पूर्वक फाँसी पर चढ़ गई। उसी की तरह के थर्रान आदि और भी बहुसंख्यक युवतियों ने क्रांतिकारी कार्यों में भाग लिया और परिणाम- स्वरूप वर्षों तक रूस के "काले पानी" साइबेरिया में, जहाँसैकडों़ मील तक बर्फ बिछी रहती है, घोर कष्ट सहन किये।
द्वितीय महा समर (सन् १९३९ से १९४५) के अवसर पर भी जब जर्मन सेना ने अकस्मात् आक्रमण करके रूस के एक बडे़ भाग पर कब्जा कर लिया और वहाँ के स्त्री- पुरुषों को घोर कष्ट दिये, तब भी वहाँ अनेक स्त्रियाँ ऐसी निकलीं जिन्होंने जर्मन सेना की परवाह न करके उनके विरुद्ध संघर्ष किया। इनमें "जोया" नामक अठारह वर्ष की लड़की का नाम सबसे अधिक प्रसिद्ध है। उसके विषय में एक लेखक ने लिखा है-
"रूसी इतिहास की बीसवीं शताब्दी के चित्रपट पर "जोया" एक जीवित केंद्र बिंदु है' जिसने अपने देश की अंधकारपूर्ण और भयावह घडी़ में मर्दानगी को चुनौती देकर शत्रु के नृशंस प्रहार अपने सुकुमार शरीर पर सहे और आजादी के लिए हँसते- हँसते प्राण- विसर्जन कर दिये। तभी से जोया के जीवन- मृत्यु की अमर गाथा विश्व भर के लिए नवीन चेतना और शक्ति का उद्गम बन गई है। विभिन्न रूसी पत्रों में सैकड़ों लेख और निबंध इस अठारह वर्षीय किशोरी कन्या की बलिदान- कथा पर निकलते हैं। सार्वजनिक संग्रहालय (म्यूजियम) के लिए चित्रकार ने उसके चित्र बनाये। रूस के एक प्रसिद्ध नाटककार ने उस पर एक नाटक लिखा। एक कवि ने लंबी कविता लिखी। दो प्रसिद्ध मूर्तिकारों ने उसकी संगमरमर की मूर्ति बनाये और प्रख्यात् फिल्म निर्माता उसके जीवन की कल्पित फिल्म बनाने में व्यस्त हैं। नगर, सड़कें स्कूल, कारखाने म्युजियम उसके नाम पर खोले जा रहे हैं। रूसी लड़कियाँ जोया के दृष्टांत से जीवन- पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा प्राप्त करती हैं।
एक सामान्य ग्रामीण लड़की की इतनी महिमा इसीलिए है कि उसने प्राणों की तनिक भी चिंता किये बिना अपने देश के शत्रुओं को नष्ट करने का हर तरह से प्रयत्न किया। वह पहले तो गुरिल्ला फौज में शामिल होकर जर्मन सेना को तरह- तरह की हानि पहुँचाने की कार्यवाईयाँ करती रही। फिर एक दिन जर्मनी की छवनीके पास जाकर उसमें आग लगाकर चली गई। पर जब उसे मालूम हुआ कि उसकी लगाई आग से बहुत थोडा़नुकसान हुआ, तो वह दूसर दिन फिर आग लगाने चली। उसके साथियों ने उसे रोका भी, आज मत जाओ, क्योंकि जर्मन सिपाही सतर्क होंगे, पर वह अपनी प्रतिज्ञा को पूरी करने को चल ही दी और आग लगाते हुए पकड़ ली गई। जर्मनों ने उसे पहले तो गुरिल्ला दल का भेद पूछने के लिए कोडो़ं से खूब मारा तथा अन्ययातनायें दीं और फिर फाँसी पर चढा़ दिया गया।
अल्जीरिया की तीन "जमीला" नाम की युवतियाँ भी बहुत प्रसिद्ध हैं। वहाँ के देशभक्तों ने फ्रांस कीआधीनता से छुटकारा पाने के लिए जो मुक्ति- संग्राम आरंभ किया था, उसमें ये अग्रगण्य थीं। ये एक के बाद एक आंदोलन की नेतृ बनीं और ऐसे साहस से फ्रांस की शासन सत्ता पर प्रहार किया कि सारा संसार चकित हो गया। इन तीनों को ही फ्रांस के जेलखानों में बंद करके यातनाएँ दी गईं पर वे टस से मस न हुईं। अंत में फ्रांस की सरकार को झुकना पडा़ और अल्जीरिया को स्वतंत्रता देनी पडी़।
हमारे भारत के क्रांतिकारी दल में एक ऐसी ही कुमारी कल्पना हुई थी, जिसने देश की स्वाधीनता संग्राम की सैनिक बनकर भरी सभा में बंगाल के गवर्नर पर गोली चलाई थी। संयोगवश वे बच गये, पर कल्पना को उस अपराध में दंडित होकर अनेक वर्ष तक जेलखाने की भयानक कोठरी में बंद रहना पड़ता था। नारी का दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता-
इस प्रकार संसार में समय- समय पर कुछ महिलायें ऐसी सामने आती रही हैं, जिन्होंने देश और जाति की रक्षा के लिए पुरुषों की तरह ही सशस्त्र संघर्ष किया है और उसकी सफलता के लिए हर तरह की यातनायेंसहन की हैं, प्राणों तक को अर्पण कर दिया है। पर यह कहना पडे़गा कि इस प्रकार की साहसी और त्याग करने वाली नारियाँ अपवादस्वरूप ही मानी जा सकती हैं। भारतीय क्रांतिकारी दल के इतिहास में ही जहाँ भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राम प्रसाद 'बिस्मिल' खुदीराम, शचींद्र सान्याल, सावरकर आदि पचासों एक से एक बढ़कर शहीदों और वीरों के चरित्र चमक रहे हैं, वहाँ उसमें भाग लेने वाली दो- चार स्त्रियों का ठीक परिचय भीथोडे़ ही लोग जानते हैं। यह बात नहीं कि नारियों में त्याग और बलिदान की भावनाओं का अभाव है। ये गुण उनमें पुरुषों की अपेक्षा अधिक ही पाये जाते हैं। पर आज ये गुण प्रायः निजी छोटे से परिवार तक ही सीमित रहते हैं। स्त्रियों को जन्म से मृत्यु तक ऐसे संकीर्ण वातावरण में रखा जाता है और ऐसी ही शिक्षा- दीक्षा दी जाती है, जिससे वे अपने से संबंधित कुछ व्यक्तियों के सिवाय दूरवर्ती अथवा अपरिचित लोगों के प्रति अपनेपन की भावना रख ही नहीं सकती।
हम यह भी नहीं कहते कि नारी घर के क्षेत्र की अपेक्षा करके केवल सार्वजनिक क्षेत्र में तल्लीन हो जाए। वर्तमान समय में विदेशों की बहुसंख्यक और भारत की भी कुछ नारियों ने शिक्षा का आशय यह समझ लिया है कि घर के काम- धंधे को त्यागकर फैशेनेबिल गोष्ठियों और समारोहों में मनोरंजन किया जाए और वाहवाही हासिल की जाए। हमारी सम्मति में यह कोई प्रशंसनीय बात नहीं। यह तो संभव है कि पिछले दस- पाँच हजार वर्षों में जिस प्रकार अराजक- अवस्था से राजतंत्र, राजतंत्र से प्रजातंत्र स्थापित हो गया और अब अनेक बडे़- बडे़ देशों में साम्यवादी समाज की स्थापना हो रही है, उसी प्रकार नया युग बदलने पर किसी ऐसे समाज का निर्माण हो, जिसमें स्त्री- पुरुष के भेद के आधार पर कार्य विभाजन की परंपरा उठ जाए और दोनों सुविधानुसार प्रत्येक काम में हिस्सा बँटाने लगें, पर यह एक ऐसी परिवर्ती कल्पना है, जिस पर अभी से वाद- विवाद करना निरर्थक है। अभी तो हम समाज के हित की दृष्टि से इतना ही कह सकते हैं कि स्त्रियों के दृष्टिकोण को परिवार हित से बढा़कर समाज हित के क्षेत्र तक अवश्य विस्तृत करना चाहिए। गांधी जी के आंदोलन के प्रभाव से सरोजिनी नायडू, सरला देवी चौधरानी, अवंतिका बाई गोखले, जानकी बाई बजाज, राजकुमारी अमृत और विजय लक्ष्मी पंडित आदि जो थोडी़- सी स्त्रियाँ सार्वजनिक सेवाक्षेत्र में काम करने लग गईं, तो उससे यहाँ के सामाजिक वातावरण में अद्भुत परिवर्तन हो गया। इनके उदाहरण से प्रेरणा प्राप्त करके लाखों अन्य नारियों के भी बंधन ढीले हुए और समाज- सेवा के क्षेत्र में कई उपयोगी कार्य करने लगीं।
रानी दुर्गावती का आदर्श चरित्र भी नारियों को यह शिक्षा देता है कि घर और परिवार की व्यवस्था में संलग्न रहते हुए भी उनको कूप- मंडूक बनकर नहीं रहना चाहिए। उन्हें इतनी शिक्षा और योग्यता तो प्राप्त कर ही लेनी चाहिए। कि किसी प्रकार की विपरीत परिस्थिति सम्मुख आ जाने पर स्वयं उसका प्रतिकार कर सकें। हमें खेद से कहना पड़ता है कि वर्तमान समय में अधिकांश साधन- संपन्न घरों की स्त्रियाँ इस दृष्टि से अपंग- सी बनी रहती हैं। जब तक समय अनुकूल रहता है, वे मौज- शौक, फैशन, विलास में समय बिताती हैं, घर का काम नौकरों से करा लेती हैं, पर जब समय प्रतिकूल हो जाता है तो सिवाय रोने- झींकने और भाग्य तथा भगवान् को दोष देने के अतिरिक्त वे कुछ नहीं कर सकतीं।
श्री महादेव गोविंद रानाडे ने एक बार एक ऐसी फारसी स्त्री का हाल बतलाया था, जिसका पति एकबडा़ व्यापारी था। पर पति की मृत्यु के उपरांत घर का वैभव शीघ्र ही समाप्त हो गया और उसका लड़का सामान्य नौकरी करके घर का काम चलाने लगा। तब घर के खान- पान और रहन- सहन में बहुत अंतर पड़ गया और वह सदैव इसी के लिए दुःखी होकर प्रलाप किया करती। एक बार श्री रानाडे से बात होने पर उसने कहा कि मेरा लड़का सामान्य हालत में ही बडा़ हुआ है, इसलिए वह मामूली खाना पाकर राजी हो जाता है। पर मेरी पुराने समय की बिगडी़ हुई जीभ तो भोजन में दस तरह की चीज हुए बिना संतुष्ट ही नहीं होती।" यह स्त्री न तो उद्योग और सुव्यवस्था द्वारा घर की संपत्ति की रक्षा ही कर सकी और न इतना संयम कर सकी किजिह्ना के स्वाद की परवाह न करे। ऐसी स्त्रियों को अपना जीवन भार मालूम पडे़ तो इसमें क्या आश्चर्य है?
रानी दुर्गावती एक राजा की पुत्री थी, जिसे शौक- मौज और सुख- साधनों की कोई कमी हो ही नहीं सकती थी। विवाह के बाद वह और भी बडे़ राजा की पत्नी बनी, जहाँ सैकड़ों दास- दासी उसकी आज्ञा की राह देखा करते थे। पर यह सब होने पर भी उसने अपने भीतर वह शक्ति और साहस उत्पन्न किया कि बडे़- बडे़शासक और सेनाध्यक्ष उससे हार मान गये। इससे सिद्ध होता है कि उतना वैभव और पद पा लेने पर भी उसने अपने उद्देश्य को नहीं भुलाया था और अपना रहन- सहन तथा खान- पान वैसा ही रखा था, जिससे वह विलासी और निर्बल चित्त की न हो जाय। इसी श्रेणी के नर- नारी संसार में कोई महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकते हैं। वे संपत्ति और विपत्ति में अपना संतुलन कायम रखते हैं और कर्तव्यपालन से पीछे कदम नहीं हटाते। सच्चे मनुष्य का यही धर्म और यही कर्तव्य होना चाहिए।
भारतीय समाज में सुधार की आवश्यकता-
पर यह स्थिति तब तक नहीं आ सकती जब तक समाज के कर्णधार और मार्गदर्शक अपना दृष्टिकोण सही न कर लें। यद्यपि वैदिक काल में हमे नारी की पराधीनता अथवा उसका दर्जा निम्न होने का कोई संकेत नहीं मिलता। उलटा कई महिलायें ऋग्वेद की 'ऋषि' मानी गई हैं और विवरण संबंधी सुक्तों में नारी की सत्ता का बहुत प्रशंसनीय शब्दों में वर्णन किया गया है। वैदिक काल में वे स्वतंत्रतापूर्वक समस्त- कर्म करती थीं और यज्ञों में भाग लेती थीं। वे घर की पूरी मालकिन और संचालक मानी जाती थीं। विदुषी स्त्रियाँ बडे़ सम्मान के साथ सब जगह आदरणीय स्थान पाती थी, उनमें से अनेक "ब्रह्मवादिनी" भी होती थीं, जिसका आशय यह था कि अविवाहित रहकर अपना समस्त जीवन ज्ञान और अध्यात्म की साधना में व्यतीत करती थीं। युद्ध क्षेत्र में जाकर वीरता प्रदर्शित करने के भी कुछ स्त्रियों के उदाहरण मिलते हैं जैसे दशरथ के साथ कैकई ने युद्ध में भाग लिया था। इस प्रकार भारतीय सभ्यता के उस स्वर्णकाल में स्त्रियों पर कोई प्रतिबंध न था और मुख्यता गृह व्यवस्था में लगे रहने पर भी वे आवश्यकतानुसार सार्वजनिक जीवन में भी सहयोग देती रहती थीं।
पर मध्यकाल में जब हमारे देश पर विदेशियों के आक्रमण होने लगे अथवा बहुसंख्यक व्यक्ति किन्हीं कारणों से अपना देश छोड़कर यहाँ आ बसे, तो उनके संसर्ग से भारतीय सामाजिक स्थिति में भी अंतर पड़ने लगा और स्त्रियों के अधिकार सीमित किये जाने लगे। खासकर मुसलमानों के आगमन के बाद तो यहाँ के शास्त्र- ग्रंथों में "न स्त्री स्वातंत्र्यर्हति" "स्त्री शुद्रसेनताम" "अष्टवर्षा भवेद् गौरी" आदि ऐसे अनेक वाक्य सम्मिलित कर दिये, जिनके कारण स्त्रियों की स्वतंत्रता बहुत कुछ अपहरण कर ली गई और उनको घर के भीतर ही बंद रहकर एक कैदी जैसा परतंत्र जीवन व्यतीत करने को बाध्य किया गया। तभी से भारतीय समाज का वास्तविक पतन आरंभ हुआ और तरह- तरह की हानिकारक रुढि़याँ और परंपरायें प्रचलित होने लगीं। उदाहरण के लिए प्राचीन समय में इस देश में पर्दे का कहीं नाम न था, पर मुसलमानों के अनुकरण से यहाँ केबडे़ लोगों में वह फैल गया और देखा- देखी मध्यम- वर्ग में भी प्रचलित हो गया। इसी प्रकार बाल- विवाह यहाँ कभी नहीं होता था, बडी़ आयु में सोच- समझकर विवाह करने की प्रणाली अधिकांश में प्रचलित थी। हम प्राचीन ग्रंथों में जिन स्वयंवरों के वर्णन पढ़ते हैं, वे दस- बारह वर्ष की अवस्था में कभी संभव न थे। तभी रामायण में लिखा गया था कि सीता स्वयंवर के समय उसकी आयु अठारह वर्ष की थी।
इस प्रकार स्पष्ट है कि हमारे समाज में प्रचलित अधिकांश सामाजिक जातियाँ या तो संसर्ग से उत्पन्न हुई हैं या किसी सामाजिक परिस्थिति के कारण प्रचलित हो गई हैं। उनकी जड़ में कोई ऐसा ठोस धार्मिक सिद्धांत या कारण नहीं है, जिसके आधार पर उनमें सुधार करना या उनको त्याग देना "पाप" समझा जाय। सामाजिकप्रथायें सदा देशकाल के अनुसार परिवर्तित होती रहती हैं। जो लोग या जातियाँ उनको शाश्वत या अमिट समझकर अपने को उनमें जकड़ लेते हैं, वे स्वयं भी जड़ हो जाते हैं और उनकी प्रगति का क्रम रुक जाता है। भारतीय नारी की वर्तमान दशा इस तथ्य का एक जीता जागता प्रमाण है। जबसे वह बंधनग्रस्त हो गई, उसे केवल पति की एक "संपत्ति" या गृह कार्य करने वाली "दासी" की तरह समझ लिया गया। तब से भारतीय समाज में तरह- तरह के दोष बढ़ने लग गये और वह उन्नति के बजाय पतन की तरफ अग्रसर होने लग गया, क्योंकि संतान का पालन तथा उसके चरित्र का गठन अधिकांश में माता के ऊपर ही निर्भर होता है। यदि माता ही अशिक्षित, कुसंस्काराच्छन्न और शक्तिहीन हुई, तो संतान के सुयोग्य, सदगुणी और शक्तिशाली होने की आशा कैसे की जा सकती है? महात्मा गांधी ने ठीक ही कहा है-
"स्त्री अबला नहीं है, बल्कि अपनी शक्ति को पहचाने तो पुरुष से भी अधिक सबला है। वह माता के रूप में जिस प्रकार बालक को गढ़ती है और पत्नी होकर पति को जिस तरह चलाती है, बहुत करके पुरुष वैसे ही बनते हैं। स्त्री वास्तव में साक्षात् त्याग की मूर्ति है। जब कोई स्त्री किसी काम में जी जान से लग जाती है तो वह पहाड़ को भी हिला देती है।"
वास्तव में भारतवर्ष का पतन तभी से आरंभ हुआ, जब से स्त्रियाँ अपनी शक्ति को पहचानना भूल गईं और अपने जीवन का उद्देश्य केवल चौका- चूल्हा और संतानोत्पदान ही समझने लग गई। जब कोई व्यक्ति किसी परिस्थिति में सैकडों़ वर्ष तक रह लेता है और उसका अभ्यस्त हो जाता है, तो उसे वही स्वाभाविक और सुखकर जान पड़ने लगता है। यही दशा इस समय अधिकांश में भारतीय स्त्रियों की हो गई है। उसने अपने को भगवान् की तरफ से परतंत्र, असहाय और अबला समझ लिया है और वह ख्याल करती है कि उसका कल्याण इसी में है कि वह घर के भीतर बैठी रहे और अपने हाव- भाव और सेवा से पति को प्रसन्न रखकर सुख- सामग्री प्राप्त करती रहे। यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो यह स्थिति और मनोवृत्ति ने तो सराहनीय है और न कल्याणकारी। स्त्री को भी अपने लिए समाज का एक उपयोगी अंग, एक कर्मठ सदस्य समझना चाहिए। उसे कोई भी कार्य केवल निजी स्वार्थ अथवा परिवार के लाभ की दृष्टि से ही नहीं करना चाहिए, वरन् इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि वह समाज की दृष्टि से भी उपयोगी है या नहीं। जिस दिन वह इस तथ्य को हृदयंगम कर लेगी और संकीर्ण दायरे से निकलकर समस्त समाज के हित की दृष्टि से कार्य करने लगेगी, उस दिन समाज की काया पलट होने में देर न लगेगी क्योंकी स्त्री में शक्ति का अभाव नहीं है, वरन् हमारे शास्त्रकारों ने तो उसे "शक्ति" का अवतार माना है। विदेशी विचारको ने ऐसा ही बतलाया है। कार्लटन नामक विद्वान् ने लिखा है-
"कौन- सी ऐसी ऊँचाई है, जहाँ स्त्री चढ़ नहीं सकती? कौन- सा ऐसा स्थान है, जहाँ वह पहुँच नहीं सकती? हजारों अपराधियों को वह क्षमा कर देती है। जब किसी बात पर जुट जाय तो संसार की कोई भी शक्ति उसे रोक नहीं सकती।" यदि हम रानी दुर्गावती के चरित्र पर ध्यान दें तो उक्त विद्वान् का कथन सर्वथा सत्य जान पड़ता है। उसने एक सामान्य स्त्री की स्थिति से अपने को इतना ऊँचा उठाया कि मुगल- साम्राज्य का गुणगान करने वाले इतिहास लेखकों ने भी उसके महत्त्व को स्वीकार किया। अकबर के मुख्यमंत्री तथा उस युग के सर्वोच्च विद्वान् सुप्रसिद्ध ग्रंथ "आईने अकबरी" के लेखक अबुल- फजल ने लिखा है- "दुर्गावती में अदम्य उत्साह था। उसकी कार्यक्षमता की बराबरी आसानी से नहीं हो सकती। वह अपने राज्य और प्रजा की रक्षा में सदैव तत्पर रहा करती थी। उसका निशाना कभी नहीं चूकता था। उसकी आदत थी कि जब कहीं कोई शेर दिखाई पडे़, तो उसे मारे बिना वह जल तक ग्रहण नहीं करती थी। वह दूरदर्शिता तथा सूझ- बूझ में अच्छे- अच्छे राजनीतिज्ञों को भी मात करती थी।"
एक भारतीय नारी के लिए जिसने अकबर के विरुद्ध शस्त्र ग्रहण किया और मुगल सेना की दो बार मिट्टी पलीद की हो, अकबर के ही सच्चे सहयोगी और हितचिंतक अबुल- फजल स्वीकारोक्ति साधारण नहीं है। इससे हम विश्वास कर सकते हैं कि रानी दुर्गावती निस्संदेह उस जमाने के वीरों में अग्रण्य और नारी जाति का मुख उज्जवल करने वाली थी। उसने यह सिद्ध कर दिया कि पुरुषों की तुलना में स्त्रियों पर हीनता का जो आक्षेप किया जाता है, वह निराधार ही है। स्त्रियाँ भी, अगर उनको उचित अवसर और साधन प्राप्त हो, तो प्रत्येक क्षेत्र में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त कर सकती है। समाज और उसके संचालनकर्ताओं का कर्तव्य यही है कि स्त्रियों के प्रगति- पथ में लगे प्रतिबंधों को दूर कर दें और जन समुदाय को ऐसी शिक्षा दें, जिससे वे समाज सेवा के विविध कार्यों में स्त्रियों के प्रविष्ट होने का विरोध करना छोड़ दें। वर्तमान युग समता का है। जब मजदूरपूँजीपतियों के बराबर अधिकार चाहते हैं, तो कोई कारण नहीं कि स्त्रियों को केवल लिंग भेद के अधार पर उच्च और समजोपयोगी विविध कार्यों के करने से वंचित रखा जाय।
यद्यपि रानी दुर्गावती ने जिस क्षेत्र में अपनी विशेषता प्रकट की थी, सशस्त्र संग्राम में बडे़- बडे़ पुरुष सेनापतियों को शस्त्र- संचालन में जिस प्रकार हतप्रभ किया था, अब उसका युग समाप्त हो गया है। अगर हम ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करें तो झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई इस क्षेत्र में अंतिम थी, अब नारियाँ तो क्या पुरुष सेनापति भी आमने- सामने के युद्ध में ऐसी वीरता नहीं दिखाते हैं। वे अपने कार्यालय में बैठकर ही बडे़- बडे़युद्धों का संचालन करते हैं। पर महान् कार्यों के लिए नैतिक साहस, धैर्य और आत्म- त्याग आदि गुणों की अब भी वैसी ही आवश्यकता है और हम कह सकते हैं कि यदि उपयुक्त वातावरण मिले तो भी भारतीय नारियाँ अब भी वैसे कार्य करके दिखा सकती हैं जैसे महारानी दुर्गावती, अहिल्याबाई और लक्ष्मीबाई ने किये थे। फिर यह भी नहीं समझ लेनी चाहिए कि गत पाँच- चार सौ वर्ष के भीतर ये तीन नारियाँ ही पराक्रमी और देशभक्त हुई थीं। इतिहास में नील देवी, कर्माबाई, वीराबाई, कलावती, रानी भवानी आदि और भी अनेक वीर क्षत्राणियों का वर्णन मिलता है, जिन्होंने घोर संग्राम करके शत्रुओं को पराजित किया था। और भी राजघरानों में अनेकवीरांगनायें इनकी समता करने वाली मिल सकती थीं, पर पर्दा- प्रथा और स्त्रियों का कार्यक्षेत्र घर के भीतर ही मान लेने की मनोवृत्ति ने उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया संतोष की बात है कि अब समाज ने अपनी इस भूल को समझ लिया है और स्त्रियों को पुरुषों के समान सब प्रकार के अधिकार देने को सिद्धांत रूप से स्वीकार कर लिया है। इस संबंध में एक प्रसिद्ध भारतीय विद्वान ने कुछ समय पूर्व लिखा था- "यह बात निर्विवाद है कि स्त्रियों को कानून द्वारा किसी भी धंधे को करने से रोकना अनुचित है। उनको वे सब सुविधायें मिलनी चाहिए, जिससे राष्ट्र के बडे़ से बडे़ पद तक पहुँच सके, परंतु नारी के लिए यह कभी उचित न समझा जायेगा कि वे अपनी संख्या के अनुपातानुसार पुरुषों के समान नौकरियाँ माँगने लगें, मैं तो यह भविष्यवाणी कर सकता हूँ कि ऐसी परिस्थिति कभी उपस्थित हो ही नहीं सकती, चाहे स्त्रियों को कितने ही अधिकार क्यों न मिल जायें, उनमें से अधिकांश सदा यही मानेंगी कि 'घर' बनना या बिगड़ना उन्हीं पर आधारित रहता है और बिना घर के स्त्रियों और पुरुषों के जीवन की कृतकार्यता असंभव है। पर जिन स्त्रियों के लिए घर बना सकना या घर पा सकना कठिन हो, वे अवश्य नौकरी या कोई अन्य पेशा करेंगी और प्रत्येक सभ्य जाति का कर्तव्य है कि उनको वे सब सुविधाएँ दिये जायें, जिससे वे ऊँचे से ऊँचे सम्मानयुक्त पदों पर पहुँच सकें।"
संतोष की बात है कि यह विचार जो बहुत वर्ष पूर्व प्रकट किया गया था, आज कार्यरूप में परिणत हो रहा है। आज भारत स्त्री- स्वाधीनता की दृष्टि से किसी अन्य देश से पीछे नहीं है और यहाँ की नारियाँ ऊँचे से ऊँचे पदों के उत्तरदायित्व का योग्यतापूर्वक निर्वाह करके महारानी दुर्गावती तथा अहिल्याबाई जैसी महान् स्त्रियों का पदानुसरण कर रही हैं।