Books - सरोजिनी नायडू
Language: HINDI
मातृभूमि की सच्ची सेविका- श्रीमती सरोजिनी नायडू
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गोसे ने बडे़ ध्यान से उन रचनाओं को पढा़, उन पर विचार किया और फिर कहने लगा- "शायद मेरी बात आपको बुरी जान पडे़, पर मेरी सच्ची राय यही है कि आप इन सब रचनाओं को रददी की टोकरी में डाल दें। इसका आशय यह नहीं कि यह अच्छी नहीं है। पर तुम जैसी एक बुद्धिमती भारतीय नारी से, जिसने पश्चिमी भाषा और काव्य- रचना में दक्षता प्राप्त कर ली है, हम योरोप के वातावरण और सभ्यता को लेकर लिखे गये काव्य से तुलना की अपेक्षा नहीं करते। वरन् हम चाहते हैं कि आप हमको ऐसी रचनाएँ दें, जिनमें हम न केवल भारत के वर पूरे पूर्व की आत्मा के दर्शन कर सकें।"
अपनी रचनाओं की यह आलोचना उस कवयित्री को बहुत हितकर जान पडी़ और उसी दिन से उसने गोसेको अपना गुरू मान लिया। उसके पश्चात् उसने जो काव्य- रचना की, उसमें योरोप की नकल करने के बजाय भारत और पूर्व में अंतर्निहित विशेषताओं के दर्शन ही योरोप वालों ने किये और सर्वत्र उनका बडा़ सम्मान होने लगा।
यह बाला और कोई नहीं 'भारत- कोकिला' के नाम से प्रसिद्ध श्रीमती सरोजिनी नायडू (सन् १८७९ से१९४९) ही थीं। वे एक जन्मजात कवयित्री थीं और अंग्रेजी भाषा पर इनका इतना अधिकार था कि उनकी बारह वर्ष की आयु में लिखी हुई कविताओं की भी लोगों ने बडी़ प्रशंसा की। उनकी शिक्षा- दीक्षा भी विशेष रूप से योरोप में हुई थी और वे वहाँ के शिष्टाचार और रहन- सहन के नियमों में पारंगत थीं। पर इतना होने पर भी वे भारतीय संस्कृति को ही सर्वश्रेष्ठ मानती थीं और उसके लिये उनको बडा़ गौरव था। इसका वे सदैव कितना अधिक ध्यान रखती थीं, इसका कुछ आभास एक भारतीय पत्रकार के निम्न संस्मरण से हो सकता है-
श्री रामकृष्ण नामक युवक को एक छात्रवृत्ति अमेरिका जाकर पत्रकारिता की उच्च शिक्षा प्राप्त करने को दी गई। विदेशों के रहन- सहन का कोई अनुभव न होने से उन्होंने श्रीमती नायडू से भेंट की और कहा- "मैं ऐसी सूचनाओं की तलाश में हूँ जिनसे अमेरिका की सही झाँकी मुझे मिल सके। इस संबंध में मैं कई लोगों से बातचीत कर चुका हूँ और पुस्तकें भी काफी संख्या में पढ़ डाली हैं। मेरी इच्छा है कि जब मैं वहाँ की जमीन पर पैर रखूँ तो कोई मुझे वहाँ की सभ्यता, संस्कृति से अनभिज्ञ न समझ पाये?"
श्रीमती नायडू- "लेकिन खुद अपने देश के विषय में तुमने कितनी जानकारी संग्रहित की है? मुझे मालूम है, तुम्हें पढ़ने- लिखने का शौक है। गीता से लेकर गौतम और गांधी तक सबको पढ़ चुके होंगे तुम, इसका भी मैं विश्वास कर सकती हूँ। लेकिन अपनी उस धरती, उस धरती पर रहने वाले लोगों के बारे में तुम्हें कितनी जानकारी है, जिस पर तुम खुद पैदा हुए हो, पले, पनपे और बढे़ हो? तुम्हें इस बात पर विश्वास है कि क्या तुम विदेश पहुँचकर अपने प्रदेश का प्रतिनिधित्व कर सकोगे?
यह थीं श्रीमती सरोजिनी की विचारधारा, जिसने उन्हें भारत माता की एक सच्ची पुत्री बना दिया था। वे कहती थीं कि ज्ञान की कोई सीमा नहीं है और संकुचितता को त्यागकर संसार का सब तरह का जितना अधिक ज्ञान प्राप्त किया जा सके, करना अच्छा ही है। पर यदि कोई विदेशी सभ्यता- संस्कृति की जानकारी की धुन में अपनी सभ्यता को भूल जाय, तो यह एक अपराध होगा।
श्रीमती नायडू यद्यपि बंगाली थीं पर उनके पूर्वज बहुत समय पहले हैदराबाद (दक्खिन) में आ बसे थे। सरोजिनी के पिता डॉ० अघोरनाथ चट्टोपाध्याय का जन्म हैदराबाद में ही हुआ था और वे वहाँ पर एक बडे़सरकारी पद पर काम करते थे। वे स्वंय बड़े़ विद्वान् थे और इंगलैंड जाकर उन्होंने विज्ञान की सर्वोच्च उपाधिडी॰एस॰सी॰ प्राप्त की थी। इसलिए सरोजिनी को आरंभ से ही अंग्रेजी भाषा और रहन- सहन से परिचित होने का सुयोग प्राप्त हो गया। कुछ बडी़ हो जाने पर तो अघोरनाथ जी ने उसे पढ़ाने के लिए अंग्रेजी शिक्षिका रख दी थी। सरोजिनी पढ़ने में काफी परिश्रम करती थीं। इसके फलस्वरूप उन्होंने बारह वर्ष की आयु में मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली। उसी समय उनकी एक रचना पर प्रसन्न होकर, हैदराबाद के नवाब ने उनको विलायत जाकर अध्ययन करने के लिए एक बड़ी छात्रवृत्ति दे दी, जिससे वह चौदह वर्ष की आयु में ही वहाँ पहुँचकर 'किंग्स कॉलेज' में दाखिल हो गईं।
यद्यपि वर्तमान समय में बहुसंख्यक मुसलमानों की विचारधारा इन विचारों के अनुकूल नहीं है और पाकिस्तान बनाकर तो उन्होंने 'मातृभूमि' के साथ विश्वासघात किया ही है, तो भी हम संकीर्ण सांप्रदायिकता को अच्छा नहीं बतला सकते। इससे प्रत्येक दल की हानि ही होती है और यह मानवता के भी विरूद्ध है। विकास सिद्धांत के अनुसार मनुष्य ने जो कुछ प्रगति की है, वह सहयोग और संगठन द्वारा ही संभव हो सकी है। अकेला मनुष्य जंगली अवस्था से शायद ही छुटकारा पा सकता। पर जैसे- जैसे सहयोग का क्षेत्र विस्तीर्ण होता गया, मनुष्य अपनी शक्ति को बढ़ाकर नये- नये क्षेत्रों पर अधिकार करता गया। इसलिए श्रीमती नायडू ने एकता के लिए जो विचार प्रकट किये थे, वस्तुतः देश और समाज की दृष्टि से कल्याणकारी ही थे। यह दूसरी बात है कि एक तीसरी शक्ति की चालों से दोनों पक्षों का मतभेद बढ़ता गया, जिससे अंत में करोड़ों हिंदू- मुसलमानों को हानि उठानी पड़ी। हिंदू- मुस्लिम संस्कृतियों के समन्वय पर अधिक जोर देने से कुछ लोग श्रीमती नायडू पर मुसलमानों की पक्षपाती होने का आरोप लगाते हुए सुने गए हैं। पर यह उनका अज्ञान ही है। श्रीमती नायडू ने देश और विदेशों में सदैव भारत की प्राचीन संस्कृति की प्रशंसा की थी। बड़े गर्व के साथ कहा करती थीं- मैं उस जाति कीवंशजा हूँ, जिसकी माताओं के समक्ष सीता की पवित्रता, सावित्री के साहस और दयमंती के विश्वास का आदर्शहै।"उनकी इस मनोभावना पर ध्यान देने पर कोई भी उन्हें हिंदू- संस्कृति से प्रतिकूल अथवा उदासीन कहने का साहस नहीं कर सकता।
देश- सेवा की लगन-
इस तरह आरंभ से ही विदेशी वातावरण में रहने से अनेक लोगों को यह आशंका होने लगती है कि ऐसा व्यक्ति अपनी जातीयता के प्रति उपेक्षा प्रदर्शित करने लग जायेगा। इसमें संदेह नहीं कि यह आंशका सर्वथा निर्मूल नहीं है और गत सौ- पचास वर्षों में बहुसंख्यक व्यक्ति उच्च अंग्रेजी शिक्षा पाकर 'काले अंग्रेज' बन चुके हैं। पर यह आक्षेप सब लोगों पर लागू नहीं होता, वरन् अरविंद, सरोजिनी नायडू ओर सुभाष बाबू के उदाहरणों से यह सिद्ध होता है कि जो प्रतिभाशाली वास्तव में ज्ञान की उच्च चोटी पर पहुँच जायेगा, वह अपनी जातीयता का और भी अधिक सुदृढ़ अनुयायी बन जायेगा। श्रीमती सरोजिनी के संबंध में यह बात पूरी तरह से सत्य सिद्ध हुई। सन् १८९८ में इंगलैंड से लौटने पर उन्होंने मेजर नायडू से विवाह कर लिया और इसके ४ वर्ष बाद ही उनका ध्यान भारतीय राजनीति की तरफ आकर्षित होने लग गया। सन् १९०८ में जब वे भारत के प्रसिद्ध नेता स्व० श्री गोखले से मिलीं, तो उन्होंने इनसे कहा-
"यहाँ मेरे साथ खड़ी हो जाओ और इन तारों तथा पहाडि़यों को साक्षी बनाकर अपना जीवन, योग्यता, विचार, स्वप्न और सभी कुछ भारत माता को अर्पित कर दो। हे कवयित्री ! इस पहाड़ी की चोटी से महान् सत्य के दर्शन करके तुम भारत के सहस्त्रों गाँवों में बसे हुए किसानों तक आशा का संदेश फैला दो। तभी तुम्हारी यह सदैव प्रदत्त अनुपम काव्य- शक्ति सार्थक हो सकेगी।"
और यही मार्ग है, जिस पर चलकर किसी सच्ची आत्मा वाले और कर्तव्य परायण व्यक्ति को सांत्वना और शक्ति मिल सकती है। अगर कोई मनुष्य अपनी योग्यता और सामर्थ्य का उपयोग अपने ही लिये करता है, समाज के उत्थान और उपकार का ध्यान नहीं रखता, तो वह कभी वास्तविक सम्मान का अधिकारी नहीं हो सकता। ऐसे ही व्यक्तियों के विषय में इंगलैंड के कविवर ‘स्काट’ ने लिखा है- ।
केवल स्वारथ साधन में ही सब समय गँवायो। मन स्वदेश हित साधन में कबहूँ न लगायो।। चाहे पदवी बाकी होय बहुत ही भारी। दुनिया बाको नाम बड़ो कर जाने सारी।। सुरपति के अनुकूल होय बाको अतुलित धन। कविता वाके हेत तऊ नहिं करहहिं कविगन।।
श्रीमती नायडू ने इस तथ्य को आंरभ से ही समझ लिया था और इसलिए एक संपन्न घराने की सुकुमार और सुसंस्कृत महिला होते हुए भी उन्होंने देश- सेवा के उस मार्ग को चुना, जिसमें त्याग और तपस्या की अनिवार्य आवश्यकता होती है। जब उनसे यह प्रश्न किया गया कि आपने एक प्रसिद्ध कवयित्री होते हुए भी राजनीति के कार्य में भाग लेना क्यों स्वीकार किया, तो उन्होंने कहा-
"बार- बार लोगों ने मुझसे प्रश्न किया है कि तुम कवियों स्वप्नलोक की हस्तिदंत- निर्मित मीनार के उच्च शिखर को छोड़कर इस हाट- बाजार में क्यों उतर आई हो? क्यों काव्य की गायिका और मुरलिया का रूप छोड़कर, उन लोगों की रणभेरी बनने के लिए अग्रसर हुई हो, जो कि युद्ध के लिए आह्वान कर रहे हैं? मेरा उत्तर यह है कि कवि का कर्तव्य गुलाब की पुष्प- वाटिका में स्थित हस्तिदंत- निर्मित मीनार के एकांत में, दुनिया से अलग बैठे रहना नहीं हैं, बल्कि उसका स्थान सर्वसाधारण के बीच सड़क की धूलि में है। उसका भाग्य तो बँधा है, संग्राम के उतार- चढ़ाव के साथ ही। सच तो यह है कि उसके कवि होने की सार्थकता ही इसमें है कि संकट की घड़ी में, निराशा एवं पराजय के क्षणों में, वह भविष्य के निर्माण का स्वप्न देखने वालों को साहस और आशा का संदेश दे सके। इसलिए संग्राम की इस घड़ी में, जबकि देश के लिए विजय प्राप्त करना तुम्हारे ही हाथों में हैं, मैं एक स्त्री, होकर अपना घर आँगन छोड़कर आ खड़ी हुई हूँ इस हाट- बाजार में। और मैं, जो कि स्वप्नों की दुनिया में विचारने वाली रही, आज यहाँ खड़ी होकर पुकार रही हूँ- साथियों, आगे बढ़ो और विजय प्राप्त करो।
राजनीति के क्षेत्र में प्रवेश करने से पहले श्रीमती सरोजिनी ने इसके उतार- चढ़ाव पर अच्छी तरह विचार कर लिया था। वे जानती थीं कि इस प्रकार का परिवर्तन हो जाने पर, आज जो अंग्रेज उनके प्रशंसक औरपुरस्कर्ता रहे हैं, विरोधी बन जायेंगे। खासकर भारत सरकार स्वराज्य के आंदोलन करने वालों को जिस निगाह से देखती थीं, उसको समझते हुए इस क्षेत्र में उस समय कठिनाई और हानि के अतिरिक्त और कोई आशा नहीं थीं। फिर भी जब उन्होंने देखा कि हमारा देश दिन पर दिन गरीब बनता जा रहा है, जिससे करोड़ों लोगों को भरपेट अन्न और वस्त्र भी नहीं मिलते। लाखों बालक कूड़े में से उठाकर चाहे जो खा लेते हैं, स्त्रियाँवस्त्राभाव से ठीक तरह लज्जा- निवारण भी नहीं कर सकती। ऐसी दशा में सुरम्य प्राकृतिक दृश्यों का अवलोकन करके मधुर कविता बनाते रहना, निरर्थक ही नहीं कर्तव्यहीनता है। ऐसे समय में तो प्रत्येक नर- नारी का कर्तव्य है कि चाहे उसके विचार, रुचि, उद्देश्य कुछ भी हों, वह देश के उद्धार के लिए यथाशक्ति प्रयत्न अवश्य करें।
यही विचार करके वे कांग्रेस में भाग लेने लगीं। धीरे- धीरे उनका प्रभाव देश की जनता पर पड़ने लगा। स्त्री होने और स्वर- माधुर्य से श्रोतागण उनके भाषण सुनने को उत्सुक रहते थे और कुछ समय बाद सभा- सम्मेलनों में उनकी इतनी माँग होने लगी कि उसकी पूर्ति कर सकना भी कठिन हो गया। सन् १९०७ से१९१५ तक कांग्रेस पर नरमदल वालों का अधिकार रहा, जिसके नेता गोखले, फीरोजशाह मेहता, डी॰वी॰वाचा, तेजबहादुर सप्रू आदि थे। इसलिए वे उन्हीं के सिद्धांतानुसार जनता की विविध माँगों को पूरा कराने का आंदोलन करती रहती थीं।
फिर जब श्रीमती बेकेंट ने होमरूल आंदोलन चलाया तो ये उनका साथ देने लगीं और इंगलैंड जाकर भारतीय माँगों के पक्ष में जोरदार आंदोलन किया। श्रीमती नायडू ने विशेष रूप से जाँच करने वाली कमेटी के सामने भारतीय स्त्रियों का पक्ष उपस्थित किया। इस कार्य को उन्होंने इतने उत्तम ढ़ंग से किया कि कमेटी अध्यक्ष ने उनको धन्यवाद दिया और कहा- "यदि अनुचित न समझा जाय तो मैं यह कहूँगा कि आपके आने से हमारे ‘नीरस साहित्य’ में सरस कविता की एक रेखा मिल गई।" उन्होंने भारतीय स्त्रियों के पक्ष में विलायत की सभाओं में अनेक प्रभावशाली भाषण भी दिये।
असहयोग आंदोलन में-
वे अभी इंगलैंड में काम कर ही रही थीं कि गांधी जी ने भारतवर्ष में असहयोग का शंखनाद कर दिया। ऐसे अवसर पर उनको देश से बाहर रहना ठीक न जान पडा़ बस वे तुरंत भारत चली आईं और महात्मा गांधी के संदेश को चारों ओर घूमकर नगर- नगर में पहुँचाने लगीं। इस संबंध में उन्होंने इतना अधिक काम किया कि वे बीमार पड़ गईं। इसके बाद डॉक्टरों की सलाह से उनको पुनः इंगलैंड जाना पड़ा। पर वहाँ पहुँचकर भी वे चुपचाप नहीं बैठी रहीं। उन्होंने जालियाँवाला हत्याकांड और पंजाब के अन्य नगरों में होने वाले अत्याचारों के संबंध में इतना अधिक प्रचार किया कि वहाँ की जनता सब बातों को समझकर सरकारी नीति के विरुद्ध हो गई। नतीजा यह हुआ कि पार्लियामेंट में इस संबंध में सवालों की झड़ी लग गई। अंत में सरकार को अपनी भूल स्वीकार करके कहना पड़ा कि भारतीय अधिकारियों ने बड़ी गलती की है।
इन्हीं दिनों भारतीय मुसलमानों का एक डेप्युटेशन ‘खिलाफत’ के संबंध में विलायत गया था। उसने ब्रिटिश सरकार से कहा कि अगर वह ‘खिलाफत’ का अंत करने की कोई कार्यवाही करेगा तो भारत के मुसलमान भी अंग्रेजों के विरुद्ध हो जायेंगे। श्रीमती नायडू ने भी इस डेप्युटेशन को सहयोग दिया और कहा कि यदि ‘खिलाफत’ आंदोलन आंरभ किया गया तो वह केवल मुसलमानों का ही नहीं होगा, वरन् हिंदू भी उसमें भाग लेंगे, क्योंकि हम जिस प्रकार अपनी स्वाधीनता की माँग करते हैं, उसी प्रकार दूसरों की स्वाधीनता की भी कदर करते हैं, हम इस बात को पंसद नहीं करते कि सैनिक शक्ति की दृष्टि से बलवान् देश किसी निर्बल देश को अन्यायपूर्वक दबाने की चेष्टा करें। संसार में छोटे‐बड़े सभी को अपने घर मे बिना किसी प्रकार के बाह्य हस्तक्षेप के रह सकने का अधिकार मिलना चाहिये।
इस विदेश- यात्रा के अवसर पर योरोप में होने वाले 'अंतर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन' में भी आपने भाग लिया। आपके भाषण का वहाँ इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि भारत के संबंध में सब प्रतिनिधियों की धारणा ही बदल गई। अभी तक तो अंग्रेज लेखक उनको यही बतलाया करते थे कि भारत एक पिछड़ा हुआ देश है, और हम वहाँ के अर्द्धसभ्य लोगों को शिक्षा देकर सभ्य और सुसंस्कृत बन रहे हैं। पर जब उन्होंने श्रीमती सरोजिनी का विद्वतापूर्ण भाषण सुना और अनुभव किया कि उनका अंग्रेजी भाषा और साहित्य पर इतना अधिकार है, जितना कि अनेक अंग्रेजी विद्वानों का भी नहीं है, तो उनका भ्रम दूर हो गया। वे कहने लगीं कि जिस देश में ऐसी विदुषी महिलायें हो सकती हैं, उसे 'असभ्य' कैसे कहा जा सकता है? सम्मेलन में श्रीमती नायडू की भारतीय वेशभूषा का भी बड़ा प्रभाव पड़ा और योरोप की स्त्रियों में भी इस देश में पहनी जाने वाली साड़ी के प्रति आकर्षण उत्पन्न होने लगा। भारत सरकार से संघर्ष-
इधर श्रीमती नायडू विलायत में भारत के स्वराज्य आंदोलन का समर्थन करके वहाँ की जनता को उसके पक्ष में कर रही थीं और उधर भारत में असहयोग आंदोलन गंभीर रूप धारण करता चला जा रहा था। यह देखकर वे शीघ्र ही वापस आईं और गांधी जी द्वारा प्रस्तुत किये गये असहयोग के प्रतिज्ञा- पत्र पर सबसे पहले उन्होंने हस्ताक्षर किये। उनके अनुसार उन्होंने अपनी ‘केसरी हिंद’ की उपाधि, जिसको उस जमाने में एक बड़ी प्रतिष्ठा की चीज माना जाता था, त्याग दी और इस संबंध में भारत के वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड को एक पत्र में लिखा- "इस समय कितने ही वर्षों से भारतीय जाति को असहाय समझकर अपमानित किया जा रहा है। उसका घोर दमन किया जा रहा है और उसके साथ जो प्रतिज्ञाएँ की गई थीं, वे भंग की जा रही हैं। इन सब बातों के अतिरिक्त दो और बड़े पाप किये गये हैं। एक तो पंजाब का हत्याकांड और दूसरा मुसलमानों को 'खिलाफत' के संबंध में दिये गए आश्वासन की अवहेलना। यह मेरे सम्मान और विचारों के प्रतिकूल बात होगी कि मैं इन अत्याचारों को देखती रहूँ और उस सरकार का, जो ब्रिटिश न्याय का तिरस्कार कर रही हैं, समर्थन करती रहूँ।"
राजनीतिक क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं होता कि यह अन्यायी के विरुद्ध शस्त्र लेकर खड़ा हो जाय और उसे उचित दंड दे। पर उससे संपर्क न रखना, उसकी नीति का खुले रूप में विरोध करना, प्रत्येक न्यायप्रिय और अपनी आत्मा के प्रति सच्चे मनुष्य के लिए संभव है। श्रीमती नायडू ने उसी मार्ग का अवलंबन किया और भारत सरकार की अन्यायपूर्ण नीति के प्रति अपनी विरोधी- भावना उसकी प्रदान की हुई उपाधि को लौटाकर स्पष्ट कर दिया।
अब असहयोग ने एक घमासान आंदोलन का रूप धारण कर लिया था और श्रीमती नायडू ने अपने आपको पूर्णत या इस कार्य के लिए अर्पित कर दिया था। वे विनोद में कहा करती थीं कि- "मैं तो गांधीरूपीकृष्ण की मुरली हूँ और वास्तव में उन्होंने गांधी जी के संदेश को देश भर में फैलाने में और उनके प्रत्येक कार्य में सहायता पहुँचाते रहने में इतना अधिक परिश्रम किया कि उसका अनुमान किया जा सकना भी कठिन है।
उसी समय विलायत से ‘प्रिंस ऑफ वेल्स’ भारत- यात्रा के लिए आये। कांग्रेस ने सरकारी दुर्व्यवहारों के विरोध में उनके स्वागत का बहिष्कार करने का निश्चय किया और इसमें बहुत बड़ी सफलता भी मिली। भारत सरकार इस पर बहुत अधिक नाराज हुई और कहा कि- यह 'ब्रिटिश सिंहासन और सम्राट' का अपमान है। उसने कांग्रेस से बदला लेने के लिए बंबई में हिंदू- मुस्लिम दंगा करा दिया। इस भयंकर अवसर पर श्रीमती नायडू ने बड़े साहस के साथ खतरे के स्थानों में जाकर बलवा को शांत कराया और दोनों संप्रदायों के लड़ने वाले नेताओं को समझाकर मेल कराया। इसके कुछ समय बाद ही सरकार ने लोगों को भड़काकर दक्षिण में 'मोपला- विद्रोह' करा दिया, जहाँ पर हिंदुओं पर अनेक अत्याचार किये गए। श्रीमती नायडू ने सरकार के इस षड्यंत्र का प्रमाणों सहित ऐसा भंडाफोड़ किया कि मद्रास की सरकार की सर्वत्र बदनामी होने लगी। उसने इनसे अपना भाषण वापस लेने को कहा तो उत्तर दिया गया- "यदि सरकार मेरा बयान झूठ समझती है, तो वह मुझ पर मुकदमा चलावे।" पर सरकार तो वास्तव में दोषी थी, इसलिए चुप रह गई।
जब चौत्रीचौरा की दुर्घटना के पश्चा सत्याग्रह स्थगित कर दिया गया और गांधी जी पर मुकदमा चलाकर उन्हें६ वर्ष का कारावास दंड सुना दिया गया, तब भी श्रीमती नायडू उनके साथ थीं। जेल जाते समय गांधी जी नेंउनसे कहा कि- "सांप्रदायिक एकता कायम रखने का काम मैं तुम्हारे जिम्मे छोडे़ जाता हूँ। "श्रीमती नायडू ने उक्त आदेश का पालन इतने परिश्रम से किया कि लगातार भ्रमण और सभाओं में भाषण करते रहने से उनका स्वास्थ्य फिर गिरने लगा। तब डॉक्टरों की सलाह से वे जलवायु परिवर्तन के लिए लंका चली गईं, पर वहाँ भी वे पूर्णतया निष्क्रिय न रहीं। अनेक सभाओं में उन्होंने महात्मा गांधी के सिद्धांतो का प्रचार किया और लंका के लोकमत को भारतीय आंदोलन के प्रति सहानुभूतिजनक बनाने की चेष्टा की।
लंका से वापस आने पर आपको बंबई कॉर्पोरेशन की सदस्या और वहाँ की प्रांतीय कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया। उसी समय आप कांग्रेस की वर्किंग कमेटी में सम्मिलित की गईं और अंतिम समय तक उस पद पर बनी रहीं। भारत के राष्ट्रीय संगठन में यह पद बड़ा महत्त्वपूर्ण है और इसमें योग्यता, सच्चाई और दूरदर्शिता आदि सभी गुणों की बहुत अधिक आवश्यकता पड़ती है।
भारत के राजनीतिक- संघर्ष में भाग लेकर और बड़े- बड़े महत्त्वपूर्ण कार्यों में सफलता प्राप्त करके श्रीमती सरोजिनी ने यह सिद्ध कर दिया कि यदि अवसर मिले तो भारतीय स्त्रियाँ भी प्रत्येक क्षेत्र में अपनी योग्यता प्रदर्शित कर सकती हैं। देश की वर्तमान दशा को देखकर हम कह सकते हैं कि श्रीमती सरोजिनी का परिश्रम और उदाहरण व्यर्थ नहीं गया। यद्यपि अभी इस दृष्टि से सुयोग्य महिलाओं की संख्या अधिक नहीं है, तो भी भारत में स्त्रियों को जितने अधिकार मिल गये हैं, उतने संसार के किसी बड़े देश में भी प्राप्त नहीं हो सके हैं। यहाँ स्त्रियों को वर्षों से राज्यपाल, राजदूत, मंत्री, मुख्य मंत्री आदि के पद दिये जा रहे हैं। इस प्रकार भारत ने, जो अभी तक सामाजिक प्रगति में बहुत पिछड़ा हुआ माना जाता था, स्त्रियों को समानता के अधिकार देने में सर्वोपरि आदर्श उपस्थित किया है। श्रीमती सरोजिनी के लिए यह कम गौरव की बात नहीं थी कि इस दुर्लभ परंपरा को स्थापित करा सकने का श्रेय उन्हीं को है। यदि यह कहा जाय कि इस युग में कोई भी स्त्री- विद्या, बुद्धि, योग्यता तथा विविध प्रकार से राष्ट्रीय महत्व के कार्यों में श्रीमती सरोजिनी से आगे नहीं बढ़ सकी है, तो इसमें तनिक भी अतिश्योक्ति नहीं बतलाई जा सकती।
अफ्रीका यात्रा-
कुछ महीने पश्चात् जब महात्मा गांधी को विशेष आज्ञा द्वारा छोड़ दिया गया तो उन्होंने श्रीमती नायडू से अफ्रीका जाकर वहाँ के प्रवासी भारतवासियों को सहायता करने का अनुरोध किया। इन लोगों की समस्या दिन पर दिन कठिन होती जाती थी और वहाँ की सरकार उनको अधिकारच्युत करने के लिए तरह- तरह की चालें चलती रहती थी। यद्यपि महात्मा गांधी ने उनके साथ न्याय किये जाने के उद्देश्य से कई बार सत्याग्रह किया था और अनेक कष्ट सहन करके उनको कुछ अधिकार दिलाये थे। पर अब उस बात को सात- आठ वर्ष बीत जाने पर, वहाँ के प्रदेशों में फिर नये- नये अन्यायपूर्ण नियम बनाकर भारतवासियों को तंग किया जा रहा था। महात्मा गांधी के कंधो पर तो इस समय समस्त भारतीय आंदोलन का बोझा था, इसलिए किसी अन्य प्रभावशाली व्यक्ति को ही वहाँ भेजना उचित समझा और इसके लिए श्रीमती नायडू ही सबसे अधिक उपयुक्त जान पडी़।
जिस समय श्रीमती नायडू ने जहाज से उतरकर अफ्रीका की भूमि पर पैर रखा, उसी समय संवाददाताओं ने उनको घेरकर तरह- तरह के प्रश्न करने आंरभ कर दिये। एक संवाददाता ने कहा- "जनरल स्मट इज़ ए स्ट्रॉन्गमैन" (अर्थात् दक्षिण अफ्रीका का शासक जनरल स्मट बड़ा़ जोरदार आदमी है।) इस पर श्रीमती सरोजिनी ने उत्तर दिया- "आई एम टू ए स्ट्रॉन्ग वूमैन।"(अर्थात् मैं भी बड़ी जोरदार औरत हूँ।) इस पर उपस्थित जनों मेंबड़ी़ हास्य- ध्वनि हुई।
दक्षिण अफ्रीका और कीनिया आदि प्रदेशों का दौरा करके आपने प्रवासी- भारतवासियों को हर प्रकार से आश्वासन दिया और बताया कि- "अब भारत में भी काफी जाग्रति हो गई है। वह प्रवासी भारतवासियों का सब प्रकार से समर्थन करेगा और सक्रिय सहायता भी देगा।"
श्रीमती नायडू को इन उपनिवेशों में भारतीयों के साथ किये जाने वाले दुर्व्यवहारों और खासकर वहाँ की भारतीय स्त्रियों की दुर्दशा का सदा से बडा़ ध्यान रहता था और जब कभी अवसर मिलता था, वे इस संबंध में कुछ न कुछ प्रयत्न करती ही रहती थीं। जब मि० एंडरूज ने फिजी टापू की कुली प्रथा को बंद कराने का आंदोलन शुरू किया था और वहाँ भेजी जाने वाली स्त्रियों के प्रति किये जाने वाले लज्जाजनक व्यवहार का रहस्योद्घाटन किया था तो श्रीमती नायडू ने एक सार्वजनिक सभा में कहा था- तुम लोग जो स्वराज्य- आंदोलन कर रहे हो, तुम लोग देश भक्ति के जो सपने देख रहे हो, यदि तुम समुद्र पार से सुनाई पड़ने वाली करुण पुकारों को नहीं रोक सकते, तो क्या तुम देश- भक्त कहला सकते हो? यह करुण पुकार उन देश के भाइयों की हैं, जिनकी दशा कुत्ते से भी बुरी है। यह पुकार उन बहिनों की है, जिनके साथ जानवरों का- सा बर्ताव हो रहा है। तुम स्वराज्य आखिर किसके लिए चाहते हो? क्यों चाहते हो? क्या उन लोगों के लिए चाहते हो, जो अपनी महिलाओं का क्रंदन सुनकर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं, जो घोरतम अपमान सहते हुए भी मौन रहते हैं। धन हमारे लिए क्या वस्तु है? बल लेकर हम क्या करेंगे? महिमा से हमें क्या प्रयोजन? जब हम अपनी स्त्रियों के सतीत्व तक की रक्षा नहीं कर सकते, तो ऐसे धन, बल, महिमा से क्या लाभ?’’
"आज मैं अपने भीतर उस यातना का अनुभव कर रही हूँ, जिसे वर्षों से वे बहिनें सहन करती रही हैं, जिनको अब मृत्यु से ही शांति मिल सकती है। मैं स्वयं कुली प्रथा में निहित अकथनीय लज्जा और ग्लानि का अनुभव कर रही हूँ।"
श्रीमती नायडू के भाषणों को देश और विदेशों में बड़ा प्रभाव पड़ा और कुली- प्रथा का आंदोलन दिन पर दिन बढ़ने लगा। लोगों को मालूम हुआ कि हमारे लाखों भाई- बहिनों को दूर देशों में ले जाकर कितना कष्ट दिया जाता है और अपमानपूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य किया जाता है। इन उपनिवेशों में सामाजिक कारणों से स्त्रियों को जिस प्रकार का निर्लज्ज जीवन बिताना पड़ता था, उसे जानकर प्रत्येक सहृदय मनुष्य का सिर शर्म से नीचा हो जाता था।
सन् १९१७ में कलकत्ते में होने वाले कांग्रेज के अधिवेशन में भी उन्होंने अपनी इन समुद्र पार रहने वाली बहिनों का उल्लेख करते हुए कहा- तुम अपने हृदय के खून से उस अपमान को धो डालो, जो तुम्हारी स्त्रियों को विदेशों में सहना पड़ता है। आज तुमने जो शब्द सुने हैं, उन्होंने अवश्य तुम्हारे हृदयों में भयंकर क्रोध की अग्नि उत्पन्न कर दी होगी। भारत के पुरुषों ! इस आग को शर्तबंद कुली- प्रथा की चिता बनाकर शांत कर दो। आज आप मुझसे शब्दों की आशा रखते है? नहीं, आज मेरे रोने का समय है। यद्यपि आप अपनी माँ- बहिनों का अपमान अनुभव कर रहे होंगे, पर मैं तो इस अपमान को अपनी जाति (स्त्री- जाति) के अपमान के रूप में अनुभव कर रही हूँ।"
वास्तव में यह कुली- प्रथा लाखों स्त्री- पुरुषों के जीवन को किस प्रकार नष्ट- भ्रष्ट करने वाली थी, इसका अनुमान भी हम इतनी दूर बैठे हुए व्यक्त नहीं कर सकते। चाहे जिस घर की भली स्त्री को बहकाकर टापुओं में भेज देना और वहाँ उसे कई पुरुषों के साथ रहने को बाध्य करना, एक ऐसी बात थी कि जिसे सुनकर प्रत्येक मनुष्य का खून गर्म हो उठेगा। पर उन टापुओं के गोरे मालिक अपने खेतों का काम सस्ते दामों में कराने के लालच से धोखा देकर भारतवासियों को पकड़ मँगाते थे और उनको हंटरों तथा बेंतों की मार का भय दिखाकर पशुओं की तरह काम लेते थे। उनको इस बात का कुछ भी ख्याल नहीं था कि ऐसी परिस्थिति में रहने से उसका प्रभाव उनके चरित्र पर कैसा घातक पड़ेगा? इस प्रथा की जड़ उखाड़ने में सबसे अधिक परिश्रमएंडरूज साहब ने ही किया था। उन्होंने इस संबंध में फिजी टापू के निवासी भारतीयों की अवस्था का वर्णन करते हुए एक भाषण में कहा था- "फिजी में मैंने अपनी आँखो से भले घर की सम्माननीय हिंदुस्तानी स्त्रियों को शर्तबंदी की प्रथा की वजह से असह्य निर्लज्जतापूर्ण जीवन व्यतीत करते हुए देखा है। मैंने अपनी आँखों से अपवित्र और पापपूर्ण स्थानों में भोले- भाले छोटे- छोटे भारतीय बालकों को रहते देखा है और इन्हीं आँखों से उन भारतीय पुरुषों को देखा है, जो वहाँ पशुओं से भी बुरा जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
"इसलिए मैं आप लोगों से मनुष्यता के नाम पर अपील करता हूँ कि आप अपनी आवाज इस शर्तबंदी की प्रथा के विरुद्ध इतने जोर से उठावें कि भारत सरकार को फौरन ही यह गुलामी बंद करनी पड़े। यह कुली- प्रथा केवल व्यापारिक हानि- लाभ का सवाल नहीं है, वरन् यह स्त्रियों के सतीत्व का प्रश्न है, भोले- भाले नन्हें बच्चों की रक्षा का है और मनुष्यों की स्वतंत्रता का है। आज मैं यह बात स्पष्टतया कह देना चाहता हूँ कि मैं जो कुछ वर्णन कर रहा हूँ, वह इन दुराचारों को प्रत्यक्ष देखकर ही कह रहा हूँ। माताओं और सज्जनों ! अगर इन दुराचारोंकी बात जान लेने के पश्चात् एक भी भारतीय स्त्री इन टापुओं में व्यभिचारपूर्ण जीवन व्यतीत करने को भेजी जायेगी तो इसका अपराध भारत सरकार और भारतीय जनता के सिर पर होगा।"
इस समस्या पर इसी पहलू से विचार करके श्रीमती नायडू ने इतने जोर के साथ चेतावनी दी थी कि निस्संदेह यह प्रश्न केवल राजनीति और व्यापार का न था, वरन् लोगों के चरित्र का था, जिसके नष्ट होने पर कुछ भी शेष नहीं रहता। जब इस संबंध में सब प्रमाण वाइसराय और भारतमंत्री के सामने रखे गए तो उससे प्रभावित होकर उन्होंने तुरंत ही इस प्रथा को रोकने का आदेश दे दिया।
कांग्रेस के अध्यक्ष-
उस पराधीनता के युग में अपने किसी सुपुत्र या पुत्री के लिए भारतवर्ष के पास सबसे बड़ा पुरस्कार या गौरव यही था कि उसे राष्ट्रीय महासभा (कांग्रेस) का अध्यक्ष बना दिया जाय। श्रीमती सरोजिनी की सेवाओं को देखते हुए सन् १९२५ में कानपुर में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन का अध्यक्ष इन्हीं को चुना गया। कानपुर पहुँचने पर बड़ी धूमधाम से इनका जलूस निकाला गया और बड़े विशाल पंडाल में अधिवेशन की कार्यवाही आरंभ की गईं। सदैव की प्रथा का अनुसरण करके श्रीमती सरोजिनी ने अपना भाषण छपाकर पढ़ने की बजाय मौखिक ही दिया। आपने समस्त देशवासियों को देश के स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने की प्रेरणा देते हुए कहा कि- "स्वतंत्रता के युद्ध में कायरता सबसे अक्षम्य अपराध और निराशा सबसे भयानक पाप है। स्वतंत्रता की देवी सदा बलिदानों से प्रसन्न होती है, और जो जाति इस मार्ग में जितने त्याग और कष्ट- सहन को तैयार होती है, वह उतनी ही शीघ्र लक्ष्य पर पहुँचती है। यह आवश्यक नहीं कि जाति का प्रत्येक व्यक्ति एक समान त्याग या एक समान कष्ट सहन कर सके। अपनी शक्ति और परिस्थिति के अनुसार इसकी मात्रा में अंतर हो सकता है। पर जो कुछ यथाशक्ति किया जाय, उसमें कायरता अथवा निराशा की भावना होना बड़ा घातक है। ये दो दोष ऐसे हैं कि जिनके कारण एक व्यक्ति दूसरे अनेक व्यक्तियों पर भी हानिकारक प्रभाव डालता है। उसका उदाहरण देख ऐसे अन्य व्यक्ति भी पीछे हटने लग जाते हैं, जिनमें थोड़ा- बहुत कच्चापन होता है। इसलिए मनुष्यों को सार्वजनिक संस्थाओं या आंदोलनों में भाग लेते समय उतना ही उत्तरदायित्व ग्रहण करना चाहिए, जिसका निर्वाह अच्छी तरह किया जा सके और जब एक बार कदम बढ़ाया जाय तो डर या स्वार्थ या हानि की संभावना से उसे पीछे हटाना नहीं चाहिए।"
आगे चलकर श्रीमती सरोजिनी ने कहा- "मैं एक स्त्री ठहरी, इसलिए मेरा कार्यक्रम सीधा- सादा और गृहस्थी से संबंध रखने वाला है। मैं तो केवल यह चाहती हूँ कि भारत माता अपने घर की एक बार फिर से स्वामिनी हो जाय। अपने अपार साधनों की एकमात्र अधिकारिणी वही हो और आतिथ्य- सत्कार की सारी क्षमता भी उसी के हाथ में रहे। भारतमाता की आज्ञाकारिणी पुत्री की हैसियत से मेरा काम यह होगा कि अपनी माता का घर ठीक करूँ और उन शोचनीय झगड़ो का निपटारा कराऊँ, जिनके कारण उनका संयुक्त पारिवारिक जीवन, जिनमें अनेक जातियाँ और धर्म शामिल हैं, छिन्न- भिन्न न हो जाय।"
सांप्रदायिक एकता-
भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में श्रीमती नायडू की सबसे बडी़ सेवा सांप्रदायिक एकता की स्थापना थी। इस देश का शासन करने वाली विदेशी सरकार ने बहुत समय पहले ही यह समझ लिया था कि अपनी सत्ता बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि यहाँ कि दो प्रमुख जातियों- हिंदू तथा मुसलमानों में सदा वैमनस्य का भाव बना रहे। इसलिए जब राजनीतिक अधिकारों की माँग के लिए ‘राष्ट्रीय महासभा’ (कांग्रेस) की स्थापना की गई तो उसके कुछ समय बाद ही उसने सर सैयद अहमद खाँ तथा कई नवाबों को प्रेरणा देकर मुस्लिम लीग की स्थापना करा दी, जो जन्मकाल से ही मुसलमानों के लिए प्रत्येक क्षेत्र में पृथक् अधिकारों की माँग करने लगी।
सन् १९१६ से जब कांग्रेस ने खुले आम ‘स्वराज्य’ आन्दोलन शुरू किया, तो कांग्रेस के प्रमुख नेता इस बात की कोशिश करने लगे कि विदेशी शासकों के विरुद्ध सभी भारतवासी, चाहे वे किसी धर्म या संप्रदाय के क्यों न हों, सम्मिलित होकर आंदोलन करें। उस वर्ष लखनऊ में लो॰ तिलक, ऐनी बेसेंट, मुहम्मदअली जिन्नाजैसे विभिन्न दलों के नेताओं ने मिलकर समझौते की कोशिश की और उसके फल से कुछ वर्षों तक सांप्रदायिक तनाव में कुछ कमी भी आ गई। फिर जब महात्मा गांधी ने नेतृत्व सँभाला तो उन्होंने अपने आंदोलन में खिलाफत के प्रश्न को भी शामिल करके, मुसलमानों की बहुत अधिक सहानुभूति प्राप्त कर ली। इस कार्य में उनको श्रीमती सरोजिनी से बहुत सहयोग मिला और जैसा पीछे लिखा जा चुका है, वे जेल जाते समय इस कार्य का भार उन्हीं पर छोड़ गये। इसलिए यदि उन्होंने कानपुर में कांग्रेस अध्यक्ष- पद से भाषण करते हुए अपना मुख्य कार्य भारत के सब धर्मों और संप्रदायों में मेल- मिलाप बनाये रखना बतलाया, तो यह महात्मा जी के आदेश का पालन करना ही था। इनके धार्मिक और सामाजिक विचारों की समीक्षा करते हुए एक लेखक ने ठीक ही लिखा है-
"श्रीमती नायडू की अटूट श्रद्धा आर्य संस्कृति पर थी। वे हिंदू धर्म के गहन तत्वों को समझती थीं और उसके दर्शन से भी पूर्णतया परिचित थीं। किंतु उनमें संकीर्णता न थी। हिंदू धर्म के साथ उन्होंने अन्य धर्मों का भी गहन अध्ययन किया था और इसके परिणामस्वरूप वे इस निष्कर्ष पर पहुँची थीं कि मूलतः किसी धर्म में विरोध नहीं है। जो विरोध दिखाई पड़ता है, वह धर्म की शाखाओं और उपशाखाओं में है।"
'इसलिए उन्हें किसी धर्म से द्वेष न था। फिर जिस परिस्थिति में उनका लालन- पालन हुआ था, उसके प्रभाव से भी उसमें 'हिंदू मुस्लिम' दोनों मजहबों का समन्वय स्वाभाविक था। उनका जन्म एक उच्च ब्राह्यणकुल में हुआ था, पर उनका निवास हैदराबाद जैसे मुस्लिम संस्कृति प्रधान नगर में था। उनके पिता विदेशों में रहकर छूआछूत के संस्कारों से छूट गये थे और उनके यहाँ प्रायः मुसलमान नौकर काम करते थे। इसलिए उनकी धार्मिक संकीर्णता स्वभावतः दूर हो गई थी।"
उन्होंने अपने इन विचारों को सन् १९१३ में मुसलमानों के एक विशाल सम्मेलन में प्रकट किया। एकता के लिए उनके इस भाषण का सब लोगों पर बड़ा प्रभाव पड़ा। जबसे वह सार्वजनिक जीवन में प्रविष्ट हुई अनेक सांप्रदायिक दंगे हुए, पर इसका उन पर तनिक भी प्रभाव न पड़ा। वह सदा इन दंगों को गुंडों, बदमाशों और सरकारी पिट्ठुओं की करतूत समझती रहीं उन्होंने अपने प्रत्येक भाषण में यही बताया कि भारतीय मुसलमान किसी अन्य देश के निवासी नहीं हैं, वरन् उनकी भी मातृभूमि भारतवर्ष ही है। उन्होंने कहा-
"इस विशाल देश में मुसलमान अपना घर बनाने आये थे। वे यहाँ केवल इसलिए नहीं आये कि लूटमार कर अपने घर चले जाएँ। उन्होंने इस भूमि को अपना स्थायी निवास स्थान बना लिया और इसको सब तरह से संपन्न बनाने के लिए उन्होंने पूरा उद्योग किया। तब वे इस भूमि के बच्चों से अलग कैसे हो सकते हैं? इतिहास से भी यह सिद्ध नहीं होता कि वे हिंदुओं से पृथक् रहते थे।"
साहित्यिक से राजनीतिक-
यह तो पाठक जान ही चुके हैं कि श्रीमती सरोजिनी ने आरंभ में एक कवयित्री के रूप में ही प्रसिद्धि पाई थी और अंग्रेज समालोचक एंडमंड गोसे की सलाह से वे भारतीय दृष्टिकोण से काव्य- रचना करने लगीं थीं। इसके पश्चात् उसकी तीन कविता पुस्तकें इंगलैंड में प्रकाशित हुईं- (१) 'गोल्डन थ्रेशोल्ड (सुनहरी देहरी) (२) 'बर्डऑफ टाइम (कालपखेरू) (३)ब्रोकन विंग (भग्न- पंख) ये तीनों १९०५ से १९१७ तक रची गई। इसके बाद राजनीतिक आंदोलन में आपादमस्तक निमग्न हो जाने से कवि- कर्म समाप्त समाप्त ही हो गया।
पर इन तीन पुस्तकों ने उनका नाम इंगलैंड और अन्य देशों में प्रसिद्ध कर दिया। वैसे इनकी और भी कई रचनाएँ हैं, जिनमें भारतीय और पाश्चात्य जीवन के आकर्षक पहलुओं पर दृष्टि डाली गई है। इन सबमें इनकी फुटकर कविताओं का संग्रह हैं, पर उनमें ऐसी भाव- प्रवणता पाई जाती है कि अनेक बार उनको विश्व- साहित्य की कृतियाँ बतलाया गया है। इनके ‘बर्ड ऑफ टाइम’ की आलोचना करते हुए- इंगलैंड के प्रख्यात समालोचकएंडमडं गोसे ने कहा था- "आलोचना की ऐसी कोई कसौटी नहीं ,, जिस पर कि वह परिपूर्ण रूप से खरी न उतरी हो।"
एक ऐसी सुकुमार और भावुक कवयित्री का, जिसको लोग प्रायः ‘स्वप्न- देश की रानी’ कहा करते थे, सक्रिय राजनीतिक संघर्ष के मैदान में उतर आना एक विशेष घटना है। प्रत्यक्ष में तो यह सुखी और संपन्न जीवन को स्वेच्छा से त्यागकर कष्टों और विपत्तियों का वरण करना ही था और इस कटकाकीर्ण मार्ग पर चलते हुए वे कभी विचलित नहीं हुई। जब महात्मा गांधी ने नमक- सत्याग्रह के लिए 'डांडी' की प्रसिद्ध यात्रा की और५ मई १९३० को वे गिरफ्तार कर लिये गए, तो श्रीमती सरोजिनी ने उनका स्थान ग्रहण किया। वे धरसाना के नमक- गोदाम पर धावा करने वाले स्वयं- सेवको का नेतृत्व करती हुई सरकारी फौज के घेरे में एक ही स्थान पर ७२ घंटे तक डटी रहीं। इस बीच में उन्होंने न अन्न- जल ग्रहण किया और न जेठ मास की भयंकर दोपहरी की परवाह की। इसके पश्चात् वे गिरफ्तार कर ली गईं। इसी प्रकार सन् १९४२ के 'भारत छोड़ो' क्रांतिकारी आंदोलन में वे भी सबसे पहले गिरफ्तार कर ली गईं और महात्मा गांधी के साथ 'आगाखाँ महल' में कैद की गईं। वहाँ और भी कई प्रमुख नेता रखे गये थे। उस जेल के वातावरण में भी ये अपने विनोदपूर्ण और सरस वार्तालाप से प्रसन्नता का वातावरण बनाये रखती थीं।
स्वाधीनता के पुण्य- पर्व पर-
अंत में जब दूसरा योरोपीय महासमर समाप्त हुआ और इंगलैंड के राजनीतिज्ञों ने समझ लिया कि अब भारत को पराधीन अवस्था में रखना संभव नहीं है और वहाँ पर अधिक दमन करने से इंगलैंड की बदनामी होगी, तो उन्होंने भारत को स्वाधीन बनाने की घोषणा कर दी। १५ अगस्त १९४७ को जिस समय यह ‘पुण्य- पर्व’उपस्थित हुआ तो विश्व के करोड़ों व्यक्तियों ने आकाशवाणी (रेडियो) पर एक दैवीवाणी की तरह श्रीमती सरोजिनी का एक संदेश सना- हे संसार के स्वतंत्र राष्ट्रों ! आज स्वाधीनता के इस मंगल दिवस पर हम सब आपका अभिनंदन करते हैं। हे दुनिया के परतंत्र राष्ट्रों ! अपनी आजादी की इस घड़ी में, हम आप सबसे भावी- स्वातंत्र्य की हार्दिक कामना करते हैं। हमारा यह ‘मुक्ति- संग्राम’ एक युगांतरकारी- संघर्ष था, जो वर्षों जारी रहा और असंख्य प्राणों की आहुतियाँ हमें देनी पड़ीं। यह था एक नाटक जैसा रोमांचक संघर्ष, उन लाखों वीरों का, जिनके नाम अज्ञात ही रहेंगे। यह उन वीर बालाओं का संग्राम था, जो महाकाली की भाँति एकाएक शक्ति की प्रचंड मूर्तियाँ बन गईं और यह था उन वीर युवकों का संग्राम, जो आन की आन में ओजस्विता, बलिदान और उच्च आदर्श के सजीव प्रतीक बन गये। यह था युवा और वृद्ध, धनी और निर्धन, पंडित और अनपढ़ तथा दलित- दीन, साधू- संत सभी का एक सामान्य संघर्ष।"
"इस तरह हम, जो कि सदैव स्वर्ग लोक में विचरण करने वाले रहे- जिन्होंने उच्च कल्पना में ही अधिकतर समय बिताया, जो कि विवेक की राह और त्याग मार्ग के ही अनुगामी रहे- वहीं हम आवश्यकता पड़ने पर मातृभूमि की मुक्ति की लड़ाई हेतु, वीर सैनिक प्रस्तुत करने में भी पीछे न रहे। आज मैं अपनी माँ भारत- भूमि के नाम पर- आप सबका अभिनंदन करती हूँ। उस भारत- माता के नाम पर, जिसके घर की छत हिम से मंडित है, जिसकी दीवारें गरजते हुए समुद्र हैं और जिसके द्वार आपके लिए सदैव खुले हैं। क्या आप शांति और विवेक की खोज में है? क्या आप आश्रय और सहायता के इच्छुक हैं? क्या आप सच्चे प्रेम अथवा ज्ञान की तृषा से तृषित हैं? तो आइये ! पूरी आशा के साथ आइये !"
यह थी एक ऐसी महिमामयी नारी की वाणी, जिसने अपने महान् त्याग और तप द्वारा अपने को इस विशाल राष्ट्र की नेत्री की पदवी के योग्य सिद्ध किया था। जिसने रेशमी कालीनों से उतरकर स्वेच्छा से धूल भरे रास्तों में भ्रमण किया था और चमक- दमक वाले होटलों की 'डिशों' को छोड़कर, ग्रामीणों की मोटी रोटियों का स्वाद चखा था। श्रीमती सरोजिनी की इसी महानता- संपत्ति और विपत्ति में समान भाव रखने से ही भारतीय जनता आपके गुणों पर मुग्ध थी और आपको 'दुर्गा- सरस्वती' की त्रिमूर्ति के रूप में याद करती थी। इस तथ्य की व्याख्या करते हुए श्रीमती शचीरानी गुर्टू ने लिखा है-
"श्रीमती सरोजिनी नायडू अपनी विलक्षण प्रतिभा, काव्यकुशलता, वक्तृत्व- शक्ति, राजनीतिक- ज्ञान तथा अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव के कारण, भारत में ही नहीं, वरन् समस्त एशिया के नारी जगत् में विशिष्ट स्थान रखती थीं। निस्संदेह, वे भारतीय- महिला की मूर्तिमान् प्रतीक थीं और उनका बहुगुण समन्वित रूप अत्यंत विस्मयकारी था। वे एक सफल कवयित्री थीं, जो मधुर कल्पना- लोक की कोमल भावनाओं और करूण अनुभूतियों को हृदय में सँजोये, एक दिन राजनीति के काँटों- भरे क्षेत्र में उतर पड़ी थीं। वे एक कटु राजनीतिज्ञ थीं, जिन्होंने विनाश और संघर्षों का सामना मुस्कान और गान के साथ किया था। वे एक कुशल वक्ता थीं, जिन्होंने अपनी वाणी के जादू से लाखों नर- नारियों के दिलों में घर बना लिया था। वे एक निःस्वार्थ देशसेविका थीं, जो अंधकार के बीच आशा की किरण लेकर आई थीं। वे एक सफल पत्नी थीं, जो अपने पति और घर की एकछत्र स्वामिनी थीं। वे एक स्नेहमयी माँ थीं, जो हताश, पीडा़कुल मानवता को सांत्वना देने के लिए अवतीर्ण हुईथीं।"
इतने गुणों का एक स्थान पर एकत्र हो सकना वास्तव में दैवी- संयोग ही है। देवी सरोजिनी ने कवि की मधुरता और राजनीतिज्ञ की कठोरता का जो समन्वय करके दिखाया, वह अद्वितीय है। जिसका राजाओं और नवाबोंके महलों में अबाध प्रवेश था, धनिष्ठता थी और जो देश और विदेश में रईसों की शान से ही रही थीं, वह आवश्यकता पड़ते ही जेलखाने की तंग कोठरियों में रहने लगीं और वहाँ भी किसी तरह का विषाद अनुभव करने के बजाय सदैव प्रसन्न और प्रफुल्लित बनी रहीं, तो यह कोई साधारण बात नहीं है। सुख और दुःख, हर्ष और शोक, हानि और लाभ में समान भाव बनाये रहना, जीवन्मुक्त व्यक्तियों का लक्षण बताया गया है। यद्यपि श्रीमती सरोजिनी प्रकट रूप में साधुनी अथवा तपस्विनी नहीं थीं, वरन् अपने घर में अंतिम समय तक बड़े आदमियों की तरह ही रहीं। पर उन्होंने अपने कार्यों और व्यवहार से यह सिद्ध कर दिया कि वे वैभव अथवा सुख- सामिग्रि की भूखी नहीं है। उनके सामने सबसे प्रधान लक्ष्य 'कर्तव्य' का ही रहता था और उसके पालने के लिए उन्हें स्वर्ग या नर्क जहाँ भी जाना पड़े, खुशी से तैयार रहती थीं।
यों भारतीय नारी को त्याग और तपस्या की प्रतिमूर्ति माना गया है और समय- समय पर उसने बलिदान के अनुपम दृश्य भी उपस्थित किये हैं। पर अभी तक उसकी यह विशेषता अधिकतर परिवार के छोटे- से क्षेत्र तक ही सीमित रही है। उन्होंने अपने पतियों की रक्षा के लिए प्राण दे दिए हैं, अपनी संतान के लिए उन्होंने सर्वस्व त्याग दिया है.
अपने कुटुंबियों के प्रति सेवा- भावना का भी अपूर्व परिचय दिया है। पर उनके इन गुणों का परिचय सार्वजनिक रूप से बहुत कम मिल पाता है, जिससे उनका महत्त्व भी अज्ञात रहता है। श्रीमती सरोजिनी ने इन सब गुणों का परिचय स्वदेश के एक विशाल परिवार में सम्मिलित होकर दिया। इसीलिए उनके त्याग और बलिदान को देखकर लोग चमत्कृत हो उठे। आज भी देश और विदेशों में उनका नाम जिस सम्मान के साथ लिया जाता है, उसका कारण यही है कि उन्होंने परिवार की संकीर्ण परिधि को छोड़कर अपनी सेवाएँ सर्वसाधारण के लिए, अत्याचार पीडितों और अभावग्रस्तों के लिए, अर्पित कर दीं। उन्होंने स्वयं ही देशोद्धार के लिए इस प्रकार का त्याग नहीं किया, वरन् उनकी प्रेरणा से और भी बहुसंख्यक उच्च पदस्थ नर‐नारी मातृभूमि के सेवक बन गए।
उत्तर प्रदेश के राज्यपाल के पद पर-
जिस समय १५ अगस्त १९४७ को भारत स्वाधीन हुआ, उसी समय देश के ऊपर एक महान् संकट आया। अंग्रेजों ने विवश होकर, भारत का अधिकार छोडा तो सही, पर उन्होंने उसे भारत और पाकिस्तान दो भागों में विभाजित कर दिया। नतीजा यह हुआ कि १४ अगस्त की रात को जैसे ही १२ का घंटा बजा कि पाकिस्तान के गुंडा- दल ने, जो पहले से ही तैयार बैठा था ,, वहाँ के अल्पसंख्यक हिंदुओं पर हमला बोल दिया एवं खुले तौर पर लूटमार और हत्याकांड आरंभ कर दिया इसकी प्रतिक्रिया तुरंत ही भारत में भी हुई और जगह- जगह सांप्रदायिक उपद्रव फैल गए। यद्यपि इसका संबंध तो पंजाब से था और वहीं की जनसंख्या की विशेष रूप से अदला- बदली हो रही थी, पर उत्तर प्रदेश पर भी इसका प्रभाव कम नहीं पडा। एक तो भारतीय राजनीति में इसकी स्थिति प्रमुख मानी जाती है, और दूसरे हिंदू संगठन, संस्कृति की दृष्टि से भी इसका महत्त्व अधिक माना गया है। इसलिए जैसे ही पाकिस्तान से भागने वाले शरणार्थियों के दल पंजाब और दिल्ली से आगे बढ़ते हुए उत्तर प्रदेश में फैले, वैसे ही वहाँ भी आग लग गई। चारों तरफ अशांति और सांप्रदायिक वैमनस्य के चिह्न दृष्टिगोचर होने लगे।
ऐसे अवसर पर इस बडे प्रांत में शांति और सुव्यवस्था की स्थापना में सहायता देने के लिए श्रीमती सरोजिनी से कहा गया। उस समय उनकी आयु ६८ वर्ष की हो चुकी थी और वर्षों तक राजनीतिक क्षेत्र में कठोर श्रम करने से उनका स्वास्थ्य भी जर्जर हो गया था, तो भी देश के प्रति अपना कर्त्तव्यपालन करने की भावना सेउन्होंने उस कार्य- भार को स्वीकार कर लिया। इसके पश्चात् यद्यपि वे डेढ़ वर्ष से भी कम जीवित रहीं, तो भी उन्होंने इस प्रांत में शांति स्थापित करके सुख- सहयोग के जीवन की जो नींव डाली, उससे इसकी प्रगति में बहुत सहयोग मिला। सन् १९४८ में दिल्ली में होने वाले एशियाई राष्ट्रों के विशाल सम्मेलन की सफलता के लिए भी उन्होंने बड़ा कार्य किया। सन् १९४९ के आरंभ में उनकी अस्वस्थता अधिक बढ़ गई और दो मार्च सन् १९४९ को सत्तर वर्ष की आयु में उनका देहावसान हो गया।
महान् पुरूषों की श्रद्घांजलियाँ-
महान् व्यक्तियों का मूल्य उनके विदा हो जाने पर ही पूरी तरह विदित होता है। उनके जीवन काल में तो जहाँ अनेक व्यक्ति उनके गुणों को, सेवाओं की प्रशंसा करने वाले होते हैं, वहाँ कुछ निजी स्वार्थ, द्वेष, मतभेद या अन्य कारणों से दोष दिखलाने वाले भी मिल जाते हैं। पर जब उसके चले जाने पर वह स्थान खाली हो जाता है और कोई दूसरा उसे शीघ्र भरने वाला दिखाई नहीं पड़ता तो लोग उनके महत्त्व को अनुभव करने लगते हैं। श्रीमती सरोजिनी के देहावसान पर बड़े- बड़े नेताओं ने भी उनके चले जाने से होने वाले घाटे को स्वीकार किया। श्री बल्लभभाई पटेल ने जो उनके साथ लगातार २५ वर्ष तक कांग्रेस वर्किंग कमेटी में काम करते रहे थे और जिन्होंने जेल में भी उनके साथ काफी समय बिताया था, उनकी महानता पर प्रकाश डालते हुए कहा- इस घाटे को भुला देना कितना कठिन है, यह कहा नहीं जा सकता। जहाँ जिस कमरे में सरोजिनी देवी पहुँच जाती थीं, वहाँ अपने आप सैकड़ों बत्तियों का प्रकाश फैल जाता था। उनके व्यक्तित्व का आकर्षण, शब्दों का जादू किसे नहीं मोह लेता था? उनका भाषण, उनका रजत स्वर, उनकी भाव भरी आँखें, उनकी अर्थ भरी मुद्रा, अपनी एक अलग विशेषता रखती थीं। देश के लिए सन् १९२५ से जो कार्य उन्होंने किया, वह स्वर्ण- अक्षरों में लिखने की चीज है। गांधी जी की वह छाया थीं, उनमें गाँधी जी का पूर्ण प्रतिबिंब था। शोक है कि केवल तेरह महीने बाद ही हमें उस धागे का भी बिछोह सहना पड़ा, जो महात्मा जी की आत्मा से जुड़ा हुआ था।" पं० जवाहर लाल नेहरू जी ने कहा- "वह सर्वप्रिय थी। वह क्या नहीं थीं? वह राष्ट्रीय ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय व्यक्ति थीं। हमारा और संसार का इतिहास इस तथ्य की साक्षी दे रहा है। वे स्वप्न की स्वप्न- द्रष्टा, संगीत की गायिका और राष्ट्र की सेविका- सब कुछ थीं। वह जीवन में कभी जीवनविहीन नहीं हुईं। उनमें विद्युत् की शक्ति थी और जिसे छू देती थीं वही प्रमुख और प्रज्वलित हो उठता था।"
श्री राजेंद्रप्रसाद जी ने श्रीमती नायडू की पुत्री श्रीमती पद्मजा को एक पत्र द्वारा संवेदना प्रकट करते हुए लिखा- "तुम्हीं ने नहीं, असंख्य भारतवासियों ने आज अपनी माता को खो दिया। परमात्मा हम सबको सहन- शक्तिदे।"
श्री राजगोपालचारी ने, जो उस समय भारत के गवर्नर- जनरल थे, कहा- "सरोजिनी देवी ने क्या नहीं किया और वह क्या नहीं कर सकती थीं? उनके हृदय में संकीर्णता को स्थान न था। भारत को स्वाधीनता प्राप्त कराने में उनका कार्य चिरस्मरणीय रहेगा। काश, कि हम उसकी रक्षा करके, उनके पदचिह्नो पर चल सकें।"
इस प्रकार देश और विदेशों के सैकड़ों प्रसिद्घ पुरूषों ने उनके गुणों और कार्यों की प्रशंसा करते हुए, जो भावनाएँ प्रकट की, उनसे उनकी महानता पर काफी प्रकाश पड़ता है। एक ही व्यक्ति में अनेक गुणों का होना और फिर उनका उपयोग देश- सेवा तथा लोकोपकार के निमित्त किया जाना, एक बहुत बड़ी बात है। जबकि इस समय दुनिया में स्वार्थ का ही बोलबाला है और साधारण मनुष्यों की क्या बात, प्रसिद्घ पुरुष और राष्ट्र- नेता तक अपनी शक्ति और सत्ता का प्रयोग आर्थिक लाभ के लिए ही करते हैं, तब श्रीमती सरोजिनी के समान निःस्वार्थ देश- सेविका की प्रशंसा कौन न करेगा?
इस समय तो ऐसा अवसर आ गया है कि राजनीतिक क्षेत्र में निःस्वार्थ सेवा के दर्शन ही मुश्किल हो गये हैं और अधिकांश लोग इस बात पर विश्वास भी नहीं कर पाते कि श्रीमती सरोजिनी और उनके समय के अन्य कितने ही पूज्य नेता, वास्तव में बिना किसी स्वार्थ भावना के देश की सेवा करते थे। पर उसके लिए हम किसी को विशेष रूप से दोषी भी नहीं कह सकते। इसमें परिस्थितियों का भी बड़ा प्रभाव है। उस समय उग्र राजनीतिक आंदोलन में हाथ डालने पर, सिवाय सरकार की अप्रसन्न्ता और दंड भोगने के अन्य किसी प्रकार की संभावना ही नहीं थी। इसलिए उन दिनों जो कोई इस क्षेत्र में पदार्पण करता था, उसे स्वार्थ- त्याग की भावना को हृदय में स्थान देना ही पड़ता था। फिर अंग्रेज राजनीतिज्ञों तथा अनुभवी शासकों के मुकाबले में, बिना उच्चकोटि की योग्यता के कोई कुछ सफलता भी प्राप्त नहीं कर सकता था। यही कारण है कि उस समय तिलक, गांधी, अरविन्द, लाजपतराय, मालवीय जी जैसे महामानवों के दर्शन हो सके, जिन्होंने बड़ी से बडीपदवी और वैभव की संभावना को ठुकराकर दंड और जेल का मार्ग ग्रहण किया। यद्यपि भारतीय महिलाएँ सामाजिक- बंधनों के कारण इतना आगे बढ़कर कार्य कर सकने की स्थिति में नहीं थीं, तो भी श्रीमती सरोजिनी ने उनके प्रतिनिधि रूप में देश के सर्वोच्च नेताओं की पंक्ति में खड़े होकर और उसके उत्तरदायित्व को प्रशंसनीय ढंग से निभाकर, इस त्रुटि का बहुत कुछ मार्जन कर दिया। इसी प्रकार भारतमंत्री मि० मांटेग्यु के दौरे के समय उन्होंने 'अखिल भारतीय महिला डेप्युटेशन' का नेतृत्व किया और नारियों के पक्ष को ऐसी कुशलता के साथ उनके सामने रखा कि उनकी प्रशंसा बड़े- बड़े सरकारी अधिकारियों ने भी की थी।
श्रीमती नायडू ने भारत की माँगों का समर्थन प्राप्त करने के लिए अमेरिका और कनाडा का दौरा किया था और वहाँ की जनता पर भी उनका उल्लेखनीय प्रभाव पड़ा था। उनकी सुगृहिणी होने की विशेषता के संबंध में कहा गया है कि इतने राजनीतिक और साहित्यिक कार्यक्रमों में भाग लेते रहने पर भी वे अपना गृहिणी कर्तव्य नहीं भूली थीं। वे बडा बढ़िया भोजन बनाना जानती थीं। और घर की तमाम व्यवस्था बडी सावधानी से करती थीं। उनकी रुचि बहुत परिमार्जित तथा उच्चकोटि की थी। वह घर की कोई वस्तु अस्त- व्यस्त रीति से पडी रहना पसंद नहीं करती थीं। वे अपने हाथ से उनको उपयुक्त स्थान पर सजाती और सँवारती थीं।
उनके भाषण की एक बहुत बडी विशेषता यह थी कि तेजस्वितापूर्ण और प्रभावशाली होने के साथ ही वह सुंदर, स्पष्ट और संगीतमय होता था। उसमें मोहकता होती थी, रूखापन नहीं। वर्तमान समय में श्रीमतीविजयलक्ष्मी भी, राजनीतिक क्षेत्र की एक प्रसिद्ध वक्ता मानी जाती हैं, पर जिन लोगों ने इन दोनों के भाषण सुने हैं, उनका कहना है कि जहाँ विजयलक्ष्मी जी के बोलने में ऐसा जान पड़ता है कि कोई पुरुष बोल रहा है, वहाँ श्रीमती नायडू के बोलने में आद्योपांत स्त्रीत्व की छाप रहती थी और स्त्रियोचित शील और स्वाभाविक आकर्षण झलकता था। इसीलिए उनके भाषण सीधे हृदय में उतरने वाले होते थे और श्रोता उनको बार- बार सुनने की इच्छा करते थे।
अंतिम सार्वजनिक उत्सव, जिसमें श्रीमती नायडू ने भाग लिया, वह लखनऊ यूनिवर्सिटी का स्पेशल- जुबली था।
'स्त्री- धर्म' संबंधी विचार-
श्रीमती नायडू अंग्रेजी की धुरंधर विद्वान थीं और बडे- बडे अग्रेजों से उनकी मित्रता थी। यह सुनकर हमारे अधिकांश देश- भाई उनको विदेशी महिलाओं की तरह केवल फैशनपरस्त, अपने दांपत्य- कर्तव्यों से विमुख और उच्छृंखल समझ सकते हैं और उनके संबंध में बहुत से गप- शप करने वाले तरह- तरह के किस्से बनाकर कहते भी रहते थे। पर वास्तव में नारीत्व दृष्टि से वे एक गंभीर विचार रखने वाली महिला थीं और सदैव भारतीय आदर्शों की श्रेष्ठता पर बल देती रहती थीं। एक महिला सभा में अपने विचार प्रकट करते हुए उन्होंने योरोपीय नारियों की त्रुटियों के संबंध में कहा था- "पाश्चात्य देशों की कौन- सी बात अनुकरणीय है और कौन- सी नहीं, इस संबंध में हमारे यहाँ बडा भ्रम फैला हुआ है। इस समय मैं केवल उन्हीं बातों को कहूँगी, जो महिलाओं के विषय में हैं। पाश्चात्य जगत् की अन्य बातें चाहे भले ही कुछ सुंदर और अनुकरणीय हों, पर वहाँ की नारी- संस्कृति तो एकदम हेय और त्याज्य है। जिन बहिनों का यह ख्याल है कि विदेशों में स्त्रियों को बडी स्वाधीनता है, वह भ्रम में हैं। वहाँ स्वाधीनता नहीं है, वरन् प्रबल और कठोरतम पराधीनता है। जिसे आप स्वाधीनता कहती है, वह स्वाधीनता नहीं है। वह तो उनके सामाजिक जीवन का एक पहलू है। "बाहर घूमना, हर किसी के साथ बात करना, किसी के भी साथ घूमने निकल जाना, दफ्तरों में काम करना और घर में पुरुषों के साथ ही पहुँचकर समान रूप से खाना, पीना और मनोरंजन करना- क्या इसी का नाम स्वाधीनता है? कदापि नहीं। यह तो है मैत्री। दो मित्र जैसे एक साथ किसी घर में रह लेते हैं, वैसे ही वहाँ कादांपत्य जीवन होता है। मित्रता में किसी भी कारण कटुता आते ही दोनों मित्र अलग- अलग हो सकते हैं। वहाँ के दंपतियों में ऐसी कटुता आये दिन आती रहती है, क्योंकि ऐसे कारणों की सूची बहुत लंबी है।"
इस प्रकार श्रीमती नायडू ने बतलाया कि ऊपरी खेल- तमाशों और भोग- विलास के विषय में स्वतंत्रता रखना कोई महत्त्व की बात नहीं है। दांपत्य संबंध तो हृदय और आत्मा का होता है। यही कारण है कि हमारे देश मेंकरोडों दांपत्य संबंध अनेक त्रुटियों के होते हुए भी, आजीवन कायम रह जाते हैं और उनमें कोई बहुत बडा दोष पैदा नहीं होता। चाहे इसको हम आदर्श न मानें और कभी- कभी इसमें अनेक गंभीर दुर्घटनाएँ भी हो जाती हैं, तो भी सब मिलाकर दोनों का मुकाबला करने से भारतीय नारी का जीवन कहीं अधिक सराहनीय है। योरोप केदांपत्य कलह तो प्रायः अत्यंत दुःखदाई परिणाम उत्पन्न करती है, जिसकी कल्पना भी हम अपने देश में नहीं कर सकते।
श्रीमती सरोजिनी ने जिस प्रकार भारतीय नारी को हानिकारक बंधनों को तोड़कर सार्वजनिक कल्याण के कार्यों में भाग लेने का मार्ग दिखलाया है, उसी प्रकार उन्होंने भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता सिद्ध करके अपनी बहिनों को यह भी प्रेरणा दी कि वे पश्चिम के अंधानुकरण की चेष्टा कभी न करें। यदि भारतीय नारियाँ उनकी दोनों शिक्षाओं पर ध्यान देकर उनका अनुसरण करेंगी, तो अवश्य ही अपना और देश का मंगल- साधन कर सकेंगी।
भारतीय नारीत्व का विकास और श्रीमती नायडू-
श्रीमती सरोजिनी के समग्र जीवन पर जब हम विश्लेषणात्मक दृष्टि से विचार करते हैं तो उनमें प्राचीनता और नवीनता का एक अद्भुत समन्वय दृष्टिगोचर होता है। जिस समय उनका जन्म हुआ था, उस समय भारतीय स्त्रियों की क्या, पुरुषों तक में शिक्षा का बहुत कम प्रचार था और अंग्रेजी लिखने- पढ़ने को तो यहाँ के समझदार व्यक्ति भी धर्म और नीति की निगाह से हानिकर बतलाते थे। उस समय लड़कियों के स्कूल समस्त देश में गिनती के ही थे और जो साधन संपन्न व्यक्ति अपनी पुत्रियों को थोडी- बहुत शिक्षा दिलाना चाहते थे, वे किसी 'मिशनरी' (ईसाई) शिक्षिका को अपने घर पर बुलाकर पढाने की व्यवस्था करते थे।
पर उस समय यहाँ की जनता में, खासकर स्त्रियों में, स्कूली ढ़ग की शिक्षा के विरुद्ध ऐसे भाव फैले हुए थे कि वे जिस किसी लड़की या युवती को पढ़ती देखती थीं, तो उसकी तरह- तरह से निंदा करने लग जाती थीं। वे कहती थीं कि- "पढ़ने- लिखने से स्त्रियों की आँखों का पानी उतर जाता है।" ग्रामीण औरतों में तो आमतौर से यह भावना फैली हुई थी कि "जो लड़कियाँ पढ़ती- लिखती हैं, वे विधवा हो जाती हैं।"
ऐसे वातावरण में, जबकि प्रथम तो शिक्षा की कहीं ठीक व्यवस्था ही न थी और दूसरे स्त्री- शिक्षा को एक प्रकार का दोष समझा जाता था, किसी भारतीय स्त्री का अधिक अंग्रेजी लिखना- पढ़ना आश्चर्यजनक ही था। अगर कोई स्त्री ऐसा साहस करती थी तो उसके घर और पड़ोस की स्त्रियाँ ही उसका हर तरह से विरोध करने लगती थीं और चारों तरफ उसकी चर्चा और निंदा होनी आरंभ हो जाती थी। श्री महादेव गोविंद रानाडे जैसे प्रसिद्ध पुरुष ने जब अपनी पत्नी रमाबाई को प्रेरणा देकर अंग्रेजी पढ़ना प्रारंभ किया, तो उनके घर की अन्य स्त्रियों ने उन्हें इतना तंग किया कि वह परेशान हो गईं। वे उन पर तरह- तरह के ताने मारतीं और कटु आलोचना करती थीं। एक दिन श्री रानाडे के आग्रह से रमाबाई ने एक सार्वजनिक सभा में अंग्रेजी भाषा में लिखा अभिनंदन- पत्र पढ़कर सुना दिया तो उनकी ताई बहुत बिगड़ उठीं और रमाबाई से कहने लगीं-
"अबकी स्त्रियों की तो बात ही निराली है। वे पुरुषों के सामने नाचने में भी नहीं शर्मातीं। पहले ही स्त्रियाँ तो पुरुषों के सामने जाने में भी लजाती थीं, पर तुम्हारा भी क्या दोष है, समय ही ऐसा आ गया है। अब तो औरतें मर्दों की नाक काट रही हैं और उनके साथ- साथ कुर्सी पर बैठने में भी लज्जा का अनुभव नहीं करतीं। वे पुरुषों की तरह ही पढ़ती- लिखती और सब कुछ करती है। तुम्हें क्या सूझी थी? हजारों पुरुषों के बीच में खडी होकर अंग्रेजी पढ़ने में तुम्हें लाज नहीं आई?"
यह एक नमूना है जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उस समय स्त्रियों का अच्छी तरह पढ़- लिख सकना कितना कठिन था? इसलिए उस जमाने में एक विदेशी भाषा में इतनी दक्षता प्राप्त कर लेना कि स्वयं उस देश के विद्वान् भी उसे देखकर चकित हों और प्रशंसा करने लगें, सामान्य बात नहीं थी। इसलिए आरंभ से ही श्रीमती सरोजिनी का नाम देश भर में फैल गया और लोग अनुकूल अथवा प्रतिकूल भावनाओं से उनकी चर्चा करने लगे। देशहितैषी विद्वान् तो उनको भारतमाता का नाम उज्जवल करने वाली विदुषी के रूप में सम्मान की पात्र बतलाते थे और पुराने ढंग के लकीर के फकीर विदेशी भावापन्न और एक दृष्टि से भारतीय- समाज से च्युत स्त्री समझते थे। इसमें संदेह नहीं कि यदि श्रीमती सरोजिनी देशोद्धार के आंदोलन में भाग लेकर जनता की स्मरणीय सेवाएँ न करती और केवल अंग्रेजी में काव्य- रचना तक ही सीमित रह जाती, तो आज उनका नाम लेने वालों की संख्या उँगलियों पर गिनने लायक ही होती।
पर वे वास्तव में एक सच्ची भारतीय नारी थी, जिन्होंने आधुनिकता के क्षेत्र में महान् सफलताएँ प्राप्त करके भी अपनी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के महत्त्व को नहीं भुलाया था। वे अपने श्रोताओं के सम्मुख सदैव सीता और सावित्री का उदाहरण ही पेश करती थीं और अपने को इन्हीं की वंशधर बतलाती थीं। यद्यपि हमारे देश में सामाजिक कारणों से अधिकांश स्त्रियों का कार्यक्षेत्र घर के भीतर ही रहा है, पर फिर भी यहाँ की नारियों ने अपने निकटवर्ती व्यक्तियों के हित- साधन और सेवा के लिए जिस प्रकार त्याग और तपस्या का परिचय दिया था, वही उनकी सबसे बडी विशेषता है। श्रीमती नायडू ने भी इस विशेषता को पूर्ण रूप से चरितार्थ किया और अब देश की पुकार उनके कानों में पडी तो उन्होंने बिना किसी प्रकार के संकोच के आधुनिक रहन- सहन और फैशन को त्यागकर, यहाँ की अति सामान्य जनता के बीच में रहना आरंभ कर दिया।
यदि हम यह कहें कि भारत के सार्वजनिक तथा राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश करके भारतीय नारियों का प्रतिनिधित्व करने वाली सर्वप्रथम और सर्वोच्च महिला श्रीमती सरोजिनी ही थीं, तो इसमें कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं। उनके पश्चात् इस क्षेत्र में श्रीमती विजयलक्ष्मी, राजकुमारी अमृतकौर, कमालादेवी चट्टोपाध्याय, सुचेताकृपलानी, अरुणा आसफअली आदि कुछ महिलाओं ने उल्लेखनीय कार्य किया है, पर इन सबमें प्राचीन भारतीय परंपरा का प्रभाव क्रमशः कम होना ही दिखाई पड़ता है। भारतीय नारीत्व और राजनीति के संबंध में श्रीमती नायडू के विचार हम पहले ही बता चुके हैं। अब उनके पश्चात् होने वाली विदुषियों के उद्गारों पर ध्यान देने से पाठक उपयुक्त तथ्य की सच्चाई को स्वयं अनुभव कर सकेंगे।
राजकुमारी अमृताकौर- "नारी- जीवन की समस्याएँ आज के युग में सर्वतोमुखी हो उठी हैं। कारीगर जैसे टूटी दीवार का पुनर्निर्माण करता है, वैसे ही हमें तो नारी- जीवन की सभी समस्याओं का एक ही हल दिखाई पड़ता है और वह है उसकी निर्माण- शक्ति। उन्हें प्रारंभ से ही मानसिक और नैतिक अनुशासन की शिक्षा देना आवश्यक है। हमें उनमें काम की महत्ता जाग्रत् करनी चाहिए, ताकि वे समाज पर बोझ न बन सकें।"
श्री विजयलक्ष्मी पंडित- "आज तक हमारा काम परदेशी नींव के भवन को गिराना रहा है। परंतु अब हमें अपना भवन बनाना है, जिसकी ईंटें हम और आप हैं। हमें बडे राष्ट्रों का मुकाबला करना है। हमें अपनी शक्ति और दुर्बलता की जाँच करनी चाहिए। हमारी स्वतंत्रता, उस स्वतंत्रता का अंग है, जिसके लिए दुनिया के सब व्यक्ति तड़प रहे हैं। हम अपने द्वारा विश्व को लाभ पहुँचा सकते हैं। विश्व की आँखें हमारी क्रांति पर लगीं हैं।"
कमलादेवी चट्टोपाध्याय- "मानव- मस्तिष्क को एक गढे हुए ढाँचे में से ढालकर विशेष ढंग से सोचने और समझने को विवश नही करना चाहिए। वरन् उसे स्वतंत्र विचारों कोन ग्रहण करने के लिए उत्साहित करना चाहिए। स्वतंत्रता की भाँति लोकतंत्र भी केवल नारे लगाने से अनुभवगम्य नहीं होता, उसे जीवन में बरतना पड़ता है। पारस्परिक उत्तरदायित्व की सुदृढ़ परंपरा का विकास सर्वाधिक आवश्यक है।"
इसमें संदेह नहीं कि भारतीय नारी का दृष्टिकोण विगत वर्षों में निरंतर विकसित और विस्तृत होता गया है, पर साथ ही प्राचीन सभ्यता तथा संस्कृति से उसका परिचय भी घटता जा रहा है। इसका अंत कहाँ और कैसा होगा? यह तो कह सकना कठिन है, पर अभी तो हमारे देश को उन्हीं व्यक्तियों की आवश्यकता है, जो प्राचीन और नवीन ज्ञान तथा संस्कृतियों में समन्वय करके यहाँ कि सामान्य जनता को उपयोगी और व्यावहारिक मार्ग दिखला सकें। इस दृष्टि से श्रीमती सरोजिनी का स्थान निस्संदेह बहुत ऊँचा था। उन्होंने पश्चिमीय संस्कृति को पूर्णतया आयत्त कर लेने पर भी पूर्वीय संस्कृति का निरंतर ध्यान रखा और उसकी महत्ता को बढाने का अंतिम समय तक प्रयास करती रहीं।