Books - वह-जो आपको आज ही करना है
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Language: HINDI
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वह-जो आपको आज ही करना है
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इन दिनों महाकाल की परिवर्तन प्रक्रिया द्रुतगति से परिभ्रमण कर रही है। गलाई और ढलाई का काम तेजी से चल रहा है। आपरेशन थियेटर भरा हुआ है। दूसरी ओर घावों को भरने वाली पट्टी वाले कक्ष में गतिविधियां धीमी नहीं हैं। मनुष्यकृत उत्पात और प्रकृति प्रकोपों ने मिलकर जहां विनाशकारी घटाटोपों को प्रलयमेघ की तरह बरस पड़ने के लिए बुलाया है, वहां पावस ने अभिनव उत्पादन से समूची धरती पर हरियाली की चादर बिछा दी है। बुभुक्षा के समाधान का उत्पादन करने में भी कोताही नहीं की है। यह विचित्र समय ऐसी विचित्रता लिए है जैसी पिछले लाखों वर्षों से देखने को नहीं मिली।
समय की विलक्षणताएं भावनाशील प्राणवान् मनुष्यों को भाव-भरा आमन्त्रण भेजती हैं और उन्हें असन्तुलन को सन्तुलन में बदलने के लिए युगधर्म के अनुरूप अपनी गतिविधियों में परिवर्तन करने की चुनौती भेजती हैं। बाढ़ अग्निकाण्ड, भूकम्प, तूफान महामारी जैसे विकट प्रसंगों में जहां दूसरे लोग भयभीत होकर अपने बचाव के लिए बंगले झांकते हैं वहां जीवन्त व्यक्ति आगत विपत्तियों से असंख्यों को बचाने में अपने श्रम, समय और साधनों का खुले हाथों उपयोग करते हैं। कृपण और कायर जीवित रह कर भी मरते हैं; किन्तु उदारचेता मरकर भी अमर हो जाते हैं। खरे-खोटे की परीक्षा समय की कसौटी पर ही होती है। व्यक्तित्व और स्तर को जांचने के लिए समय की समस्याओं से जूझना, अपनी नाव में असंख्यों को बिठाकर पार करना—यही दो परखें ऐसी हैं जिनके आधार पर कायर एवं साहसी, कृपण एवं उदार अलग-अलग छांटे जाते हैं। इन दिनों वही सब हो रहा है। चलनी और सूप इस तेजी से काम कर रहे हैं कि कूड़ा-करकट किसी दूर घूरे पर सड़ता दिखाई देगा और जो उपयोगी हैं, उसे सराहा, अपनाया और शिरोधार्य किया जायेगा।
विनाश की ओर दृष्टि डालते हैं, तो लगता है कि मानवी दुर्बुद्धि और प्रकृति प्रताड़ना जो भी, कर बैठे कम है। व्यक्तिगत और सामूहिक समस्याएं एक दूसरे से बढ़कर प्रचण्ड होती जाती हैं। सर्वत्र आतंक, आशंका और अविश्वास का वातावरण छाया हुआ है। हंसने हंसाने के, मिल-जुलकर बांटकर खाने के दिन लगता है, चले ही गये हैं। इस विपन्नता के बीच भी नव युग की आशा की किरणें आगमन-अवतरण की सूचना देती है। कहते हैं कि प्रभात का आगमन और दिनमान का वैभव सर्वत्र दीख पड़ने में अब बहुत विलम्ब नहीं है।
ब्रह्ममुहूर्त में मुर्गा बांग लगाता है और समय परिवर्तन की वेला में भावनाशीलों का पराक्रम रोके नहीं रुकता। वह उछलता है, मचलता और वहां जा पहुंचता है, जहां कर्तव्यों की चुनौती उसे बुलाती है।
महान् परिवर्तन भगवान की इच्छा से होते हैं, पर उन्हें सम्पन्न करने के लिए हाथ-पैर वाले देव-मानवों की आवश्यकता पड़ती है। उन्हें बनाना नहीं पुकारना भर पड़ता है। समय की परख उनकी अन्तः चेतना को पुलकित-तरंगित करती है और भवबन्धनों की रोक थाम करने के हानि लाभ सुझाते हुए भी उनके चरण रोके नहीं रुकते और भगवान से वे अपने योग्य कर्त्तव्य पूछते हैं और उनको पूरा करने के लिए बड़े से बड़ा दुस्साहस सिर पर ओढ़ते हैं। इन्हीं को ईश्वर का सामयिक प्रतिनिधि कहा जाता है। वे समय को गति, दिशा, ऊर्जा और जीवट प्रदान करते हैं। देखने में वे घटा उठाते प्रतीत होते हैं; पर वस्तुतः उनका श्रेय-सौभाग्य इतना बड़ा होता है कि पीढ़ियां प्रेरणा लेती रहें और इतिहासकार उन्हें स्वर्णाक्षरों में अंकित करते रहें। बुद्ध, गांधी, विनोवा, विवेकानन्द, दयानन्द, शिवाजी और प्रताप जैसे महामानव थे तो मानवी काया में ही, पर उनकी जीवनगाथाएं इतने दिन बीत जाने पर भी मानवी गरिमा को सींचने-संजोने में सफल होती रही हैं। अर्जुन-हनुमान जैसों ने खोया कम पाया बहुत। बीज की तरह गलने का आरम्भ में उन्हें साहस तो करना पड़ा; पर नन्दनवन के अमर वृक्षों में उनकी गणना होती रहेगी। गांधी के सत्याग्रहियों में से भी हम अनेकों को अभी भी मिनिस्टर पद पर आसीन देखते हैं। युग धर्म के अनुरूप आचरण करने के लिए कटिबद्ध होना मनुष्य का ऐसा सौभाग्य है, जिस पर विभूतियों के भण्डारों को निछावर किया जा सकता है। ऐसा अवसर आज ही है, ठीक इसी समय है। विलम्ब करने से वह चला जायेगा और हम पश्चाताप भर ही करते रहेंगे।
काम पर्वतों जितने बिखरे पड़े हैं। क्या करें, कितने समय करें—यह पूछने की अपेक्षा यह बताना चाहिए कि हम विशिष्ट अवसर पर कितना अधिक और कितना भाव—साहस से भरा पूरा समय दे सकते हैं। ढर्रे पर चलते रहा जाय, पड़ोसियों के प्रचलन को ही सब कुछ समझा जाय और उसी का अनुकरण करते रहा जाय, तो पेट और प्रजनन की—लोभ और मोह की—समस्याएं ही इतनी भरी पड़ी हैं, जिन्हें पूरा करने में अपना श्रम-समय और बुद्धि कौशल सभी कम पड़ते हैं, पर यदि विवेकपूर्वक देखा जाय तो आठ घण्टे का श्रम, सात घंटे का सोना, पांच घंटे का अन्य काम करते हुए भी कोई व्यस्त और अभावग्रस्त व्यक्ति भी चार घंटे नित्य निकाल सकता है। युगधर्म के निर्वाह हेतु हर विचारशील और दूरदर्शी व्यक्ति को इतना समय तो निकालना ही चाहिए।
ढेरों व्यक्ति ऐसे हैं, जिनकी पारिवारिक जिम्मेदारियां हलकी हैं, नहीं हैं या संचित राशि के सहारे वे निभती चल सकती हैं। उनके लिए पूरा समय भी दे सकना संभव है। पूर्वकाल में ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और सद्गृहस्थ औसत नागरिक का निर्वाह स्वीकार करते, बड़प्पन की महत्वाकांक्षाओं को पैरों तले कुचलते; उन परमार्थ प्रयोजनों में लगाते थे, जिनके कारण भारत भूमि को तैंतीस कोटि देवताओं की जन्मदात्री स्वर्गादपि गरीयसी कहा जाता था। संसार भर को जिनने सामर्थ्य और समृद्धि से समुन्नत बनाया था। आज मनुष्य कितना बौना और स्वार्थी हो गया है कि उसे वासना-तृष्णा के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं। युगधर्म की पुकार को सुनने और उसकी पूर्ति के लिए कुछ करने का उत्साह उमंगता ही नहीं।
युग देवताओं को ‘एकला चलो रे’ का गीत गाते हुए अग्रगामी बनना पड़ेगा और असंख्यों को प्रेरणा प्रदान करने वाला उदाहरण सर्वप्रथम प्रस्तुत करना पड़ेगा। सिख धर्म में बड़ा बेटा सिख बन जाता था और धर्मयुद्ध में जीवन समर्पित करते हुए कुल को कृतार्थ करता था। राजपूतों में भी ऐसा ही रिवाज था कि परिवार पीछे एक व्यक्ति राजकीय सेना में भर्ती होता था। साधु-ब्राह्मण और वानप्रस्थी की परम्परा भी यही थी कि इस समुदाय के लोग न्यूनतम में अपना निर्वाह करते थे और अधिकतम समय विश्वकल्याण के लिए नियोजित करते थे। अब उस समय को पुनः लौटाना है। वानप्रस्थ परम्परा का न्यूनाधिक भाग हर नर-नारी को अपनी-अपनी परिस्थिति के अनुसार नवसृजन के लिए समर्पित करना है। धन किसी के पास नहीं भी हो सकता, पर समय और भावसंवेदना तो हर किसी के पास है, उसे तो उदारतापूर्वक हर स्थिति का व्यक्ति दे सकता है। यदि निश्चय कर लिया जाय कि लोभ, मोह, और अहंकार में थोड़ी कटौती करने का साहस संकल्पपूर्वक बरता जा सकेगा, तो फिर हर स्थिति का व्यक्ति अपनी मनःस्थिति और परिस्थिति के अनुसार सामने प्रस्तुत अगणित सृजन कार्यों में से अपने लायक कोई भी कार्य चयन कर सकता है और मन की दुर्बलता तथा स्वजनों की आदर्शहीनता से अपना बचाव करते हुए सदा−सर्वदा हर परिस्थिति में किसी न किसी मात्रा में भाग लेता रह सकता है; जिसे महाकाल का आह्वान-आमन्त्रण ही कहना चाहिए। कुछ कार्य ऐसे हैं, जिन्हें घर छोड़कर बाहर ही भली प्रकार किया जा सकता है, पर कुछ कार्य ऐसे भी है, जिन्हें घर के समीपवर्ती क्षेत्र में भी करते रहा जा सकता है और आर्थिक तथा पारिवारिक कार्यों का भी ढर्रा किसी प्रकार चलाया जा सकता है।
घर से बाहर रह कर करने योग्य कार्यों में तीन प्रमुख हैं—(1) शान्ति कुञ्ज की बहुमुखी कार्य पद्धति में कहीं फिट हो जाना और वहीं रहकर देशव्यापी सूत्र संचालन के कार्यों में अपने को जुटा देना। (2) विनिर्मित प्रज्ञा पीठों में से किसी में निवास करते हुए उस मंडल में जनजागरण के रचनात्मक कार्यों में संलग्न रहना। (3) समय-समय पर साइकिल तीर्थयात्रा के लिए प्रवास पर जाना और जनजागरण के लिए गांव-गांव, मुहल्ले-मुहल्ले अलख जगाना।
जो कारणवश बाहर नहीं जा सकते, जिनका घर रहना अनिवार्य है, उन्हें दो चार घंटे तक का समय, न्यूनतम बीस पैसे या एक मुट्ठी अनाज का अंशदान निकालते हुए अपने या अपने एक-दो सच्चे सहयोगियों के बलबूते स्थानीय गतिविधियों का सूत्र संचालन स्वयं ही शुरू कर देना चाहिए।
(1) झोला पुस्तकालय- हर शिक्षित को युग साहित्य पढ़ने को देना और वापस लेना। (2) विचारशील परिजनों के जन्म दिवसोत्सव मनाना और परिवार निर्माण की ज्ञानगोष्ठी सम्पन्न करना। (3) बालसंस्कार शाला चलाना, जिसमें स्कूली बच्चों को अध्ययन में प्रवृत्त रखा जाय और शिष्टाचार अनुशासन का बोध कराया जाय। (4) आंगनबाड़ी, तुलसी आरोपण, हरीतिमा अभिवर्धन के कार्यों का घर-घर विस्तार करना (5) व्यायाम शाला-खेलकूद-फर्स्टएड आदि का प्रशिक्षण (6) दीवारों पर आदर्श वाक्य लेखन। यह रचनात्मक कार्य नियमित रूप से किये जा सकते हैं। प्रचारात्मक कार्यों में कुरीतियों का निवारण प्रमुख है। जाति-पांति के नाम पर बरती जाने वाली ऊंच-नीच, पर्दाप्रथा, नशेबाजी, धूमधाम और दहेज वाली शादियां, मृतक भोज, भिक्षा व्यवसाय, भाग्यवाद, रिश्वत, मिलावट, आलस्य-प्रमाद जैसे दुर्गुणों के विरुद्ध वातावरण बनाया जाय। विरोध, असहयोग और संघर्ष के तरीकों में से जो उपयुक्त बैठता हो, उसे काम में लाया जाय। परिवार वृद्धि, फैशनपरस्ती, जेवर जैसे प्रचलनों को निरुत्साहित करना और अल्प बचत योजना जैसे कार्यक्रमों को गति देना हम में से प्रत्येक का कार्य होना चाहिए।
यह प्रचार कार्य तब और भी अधिक सरल हो जाते हैं, जब स्लाइड प्रोजेक्टर, टेपरिकॉर्डर, लाउडस्पीकर से व्याख्या करते हुए उन्हें माध्यम बनाया जाय। इनमें बिजली की जरूरत पड़ती है। जहां बिजली नहीं वहां मोटर की बैटरी और चार्जर का जोड़ा लगाकर अपनी काम चलाऊ बिजली उन छोटे देहातों देहातों में भी उत्पन्न की जा सकती है। जहां सरकारी बिजली नहीं है, इन उपकरणों के माध्यम से काम करने पर ऊंची श्रेणी के वक्ता या गायक की आवश्यकता नहीं रहती। यह सभी उपकरण प्रायः पांच हजार की लागत में बन जाते हैं। उसी कीमत में यज्ञशाला एवं संगीत उपकरणों का भी सैट खरीदा जा सकता है। अपनी शाखा की स्मारिका प्रकाशित करके इतनी रकम जुटाई जा सकती है या फिर मिल जुलकर इतना चन्दा किया जा सकता है।
तीर्थयात्रा का शास्त्रकारों ने अतिशय पुण्य माना है। देशवासी अभी भी विभिन्न तीर्थों में धर्म लाभ के लिए जाते हैं। इस कार्य को साइकिल यात्राओं के माध्यम से भी किया जा सकता है। आवश्यक नहीं कि प्रख्यात तीर्थों में जाते रहने की लकीर पीटी जाय। अपने समीपवर्ती ग्राम इसके लिए चुने जा सकते हैं। पांच अशोक वृक्षों का एक झुरमुट किसी उपयुक्त स्थान पर लगाकर उसी को ग्राम तीर्थ की संज्ञा दी जा सकती है। उन्हीं की छाया में धर्म कृत्य किये जाते रह सकते हैं। कथावार्ता के लिए थोड़ा बड़ा चबूतरा बना लिया जाय, तो कथा वार्ता ही नहीं बाल संस्कार शाला भी उसमें चल सकती है। कथा कीर्तन भी होते रह सकते हैं। अशोक वाटिका में सीता रही थीं, हनुमान उसी में छिपे थे। अशोक अनेक दवाओं के काम भी आता है, उसकी वायु में अध्यात्म भावनाओं का ही प्रवाह होता है। ऐसी अशोक वाटिकाएं लगाकर हमें हर गांव को एक ग्राम तीर्थ के रूप में विकसित करना चाहिए। ईंट-चूने से बने खर्चीले देवालयों की तुलना में यह अशोक उद्यान वृक्ष भगवान का खुला मन्दिर माना जा सकता है और उसे धर्म भावनाओं के परिपोषण का प्रतीक बनाया जा सकता है। ऐसे अशोक वृक्षों की छोटी पौध शान्तिकुञ्ज से भी मिल सकती है। प्रयत्न करने पर वह समीप भी मिल जायेगी। पांच अशोकों का एक झुरमुट ग्राम तीर्थ बन जाता है
धर्म प्रचार की पद यात्रा ही वास्तविक तीर्थ यात्रा है। इसे सुविधा के अनुरूप साइकिल यात्रा में भी परिवर्तित किया जा सकता है। चार साइकिल सवार इस पुण्य प्रयोजन में हाथ डालकर उसे भली-भांति पूरा कर सकते हैं। न्यूनतम एक सप्ताह का, अधिकतम पन्द्रह दिन या एक महीने का प्रवास चक्र बनाया जा सकता है। दिन में वे लोग दीवारों पर आदर्श वाक्य लेखन करें। रात्रि को जहां विराम रहे वहां कथा-कीर्तन तथा सामयिक समस्याओं का समाधान इन तीनों प्रसंगों को गूंथते हुए लोक शिक्षण करें। एक तरीका यह भी हो सकता है, कि यह प्रचार कार्य यन्त्रों से लिया जाय। आदर्श वाक्यों के स्टेंसिल बनवा लिए जायं। उन्हें ब्रुश से अक्षर बनाते और साफ करते चला जाय, तो अच्छे वाक्य जल्दी-जल्दी लिखे जा सकते हैं। (1) हम बदलेंगे-युग बदलेगा। (2) जाति-वंश सब एक समान। नर और नारी एक समान। (3) दुराचार जीता है तब। सदाचार चुप रहता जब। (4) खर्चीली शादियां हमें दरिद्र और बेईमान बनाती हैं। इन चार वाक्यों का लेखन अच्छे अक्षरों या स्टेंसिलों से होता रहे, तो दीवारें बोलने लगेंगी और लोक शिक्षण का एक अच्छा तरीका हाथ लगेगा।
रात्रि विराम के लिए अच्छे वक्ता या गायक न हों तो फिर स्लाइड प्रोजेक्टर, टेपरिकॉर्डर, लाउडस्पीकर की सहायता ली जा सकती है। बिजली का काम मोटर बैटरी और सेल चार्जर से चल सकता है। इस प्रकार इतना सामान और बिस्तर आदि लेकर दो-तीन आदमी भी प्रचार पर निकल सकते हैं। एक रिक्शे से भी यह सारा काम चल सकता है। तीर्थ यात्रा से पापों का प्रायश्चित्य होता है और अलख जगाने का पुण्य मिलता है। युगान्तरीय चेतना को व्यापक बनाने की दृष्टि से तो यह नितान्त आवश्यक है। हमें हर क्षेत्र में विशेषतया प्रज्ञा पीठों, स्वाध्याय मण्डलों के क्षेत्रों में तो ऐसे सहयोगी तैयार करने ही चाहिए जो समय-समय पर तीर्थयात्रा प्रवास में जाते रहें।
जन सम्पर्क—जन सम्पर्क से जनसमर्थन—जनसमर्थन से जन सहयोग। इन्हीं तीन सीढ़ियों पर चढ़ते हुए हम संगठन और सुधार-परिष्कार की प्रक्रिया को पूर्ण कर सकते हैं। इसके लिए तीर्थ यात्रा जितनी आज उपयोगी है, उतनी इससे पहले कभी नहीं रही। राह चलने और कुशल क्षेम पूछने वालों से हम युग परिवर्तन और उसके लिए किये जाने वाले प्रयासों की चर्चा कर सकते हैं। तर्क और भावना के सम्मिश्रण से सच्चाई व्यक्त की जाय तो प्रभाव भी असाधारण हो सकता है।
तीर्थयात्रा में एक पक्ष सात्विक भोजन भी है। इसके लिए यह किया जाय कि सवेरे खिचड़ी-दलिया जैसा हल्का भोजन अपने हाथ से बना खाकर चला जाय। रात्रि को जहां विराम हो वहां साफ सफाई वाले घरों से एक-एक रोटी इकट्ठी करके उसे स्थानीय कार्यकर्ताओं समेत मिलजुल कर खाया जाय। इसमें प्रीति भोज का आनन्द आता है और रोटी का जो बन्धन जाति-पांति के साथ बंधा था, सो टूटता है। भविष्य में बड़े आयोजन बड़े सम्मेलन युग परिवर्तन के सम्बन्ध में होने हैं। उसके लिए भोजन व्यवस्था का यही तरीका सर्वसुलभ और सर्वोत्तम रह सकता है। यह भिक्षा प्रसंग नहीं वरन् आत्मीयता का स्तर है। भोजन उन घरों से न लिया जाय जहां मांस, अण्डा, शराब अथवा प्याज लहसुन आदि का सेवन होता हो।
चार साथी आवश्यक सामान लेकर चलें, रास्ते में आदर्श वाक्य लेखन, रात्रि का संगीत-प्रवचन चलावें। इस प्रकार यह साइकिलें एक से दूसरे क्षेत्र को स्थानान्तरित होती रह सकती हैं और अधिक वर्षा अधिक गर्मी के दिन छोड़ कर यह क्रम आठ महीने वर्ष में चल सकता है। आठ महीने अर्थात् 240 दिन। यदि एक यात्रा चक्र 10 दिन का माना जाय, तो चार साइकिलों का एक जत्था 24 स्थानों पर प्रवास चक्र पूरे कर सकता है। एक चक्र में 10 गांव रहें, तो 240 गांव हर वर्ष पूरे होते रह सकते हैं। देश को ग्राम प्रधान मानकर यह योजना बनी है। पर कस्बों और शहरों को सर्वथा छोड़ नहीं दिया जाना चाहिए। किसी बड़े नगर को 7 या 10 हिस्सों में बांटकर वही क्रम चलाया जा सकता है, जो गांवों में चलता है। शहरी तीर्थयात्रा में घर से सम्पर्क रखने की भी सुविधा बनी रह सकती है।
जिस प्रकार अनुपयुक्त का विनाश करने की महाकाल की योजना चल रही है, उसी प्रकार नव सृजन के प्रयास भी अग्रगामी हो रहे हैं। इस सचाई को प्रज्ञा अभियान की बढ़ी हुई प्रवृत्तियों को देख कर सहज ही जाना जा सकता है।
हीरक जयन्ती वर्ष बीत जाने पर महाकाल की योजनाएं पांच नये कार्यक्रम लेकर प्रकट हुई है जो बिना विलम्ब लगाये, बिना समय गंवाये कार्यान्वित करना भी आरम्भ कर दिया गया है। महा जागरण के पांच सूत्र इस प्रकार हैं—(1) एक लाख सृजन शिल्पियों का उभार तथा प्रशिक्षण (2) एक लाख घरों में जन्मदिवसोत्सव सहित सरल यज्ञ। (3) एक लाख गांवों में अशोक वाटिकाएं स्थापित करते हुए ग्राम तीर्थों की स्थापना। (4) एक लाख ग्राम मंडलों की तीर्थ-यात्रा। (5) एक लाख वर्ष का समयदान संग्रह।अजनबी के लिए यह एक-एक लाख के पांच संकल्प अतिकठिन या असंभव प्रतीत हो सकते हैं। पर जिन्हें मिशन के साथ जुड़ी हुई शक्ति की क्षमता का बोध है, वे जानते हैं कि अब तक एक से एक बढ़कर महान् कार्य सम्पन्न होते रहे हैं। ऐसी दशा में यह महा जागरण वाले 5 संकल्प भी कठिन न होने चाहिए। मिशन से सम्बन्धित 24 लाख व्यक्ति हैं। इनमें से एक लाख व्यक्ति अवश्य निकल सकते हैं, जो एक एक महीने का नये सिरे से प्रशिक्षण शान्ति कुञ्ज में प्राप्त करे और साथ ही कुछ घंटे नियमित रूप से समयदान का भी व्रत धारण करें। किन्हीं का पूरा, किन्हीं का अधूरा समयदान गिना जाय, तो इस सारे समयदान का औसत एक लाख वर्ष जितना हो जाता है। शान्ति कुञ्ज को अब युगशिल्पी विश्वविद्यालय स्तर का बना दिया गया है। नालन्दा, तक्षशिला विश्वविद्यालयों द्वारा एक लाख छात्र पढ़े थे जिनने देश विदेशों में नव चेतना का संचार किया था। शान्ति कुञ्ज में 500 छात्र हर महीने प्रशिक्षित करने की योजना बनी है और वह तब तक चलेगी, जब तक कि वह संख्या एक लाख पूरी नहीं हो जाती। शान्ति कुञ्ज का संचालन एवं दायित्व जिस महाकाल के संरक्षण में चल रहा है, वह अजर अमर है। हमारा सूक्ष्म शरीर भी सन् 2000 तक क्रमशः अधिक सशक्त होता जायेगा। इसलिए इस संकल्प के पूर्ण होने में किसी को कोई सन्देह नहीं करना चाहिए। एक लाख युग शिल्पी, एक लाख अशोक वाटिकाएं न चल सकें, एक लाख घरों में जन्मदिवसोत्सवों का प्रबन्ध न बन सके—ऐसी बात नहीं।
तीर्थ यात्रा आन्दोलन को नई गति देनी है। इसके लिए शान्ति कुंज ने एक लाख साइकिलों का उनके साथ रहने वाले उपकरणों का प्रबन्ध करने का निश्चय किया है। इस आधार पर जीप योजनाओं के आधार पर चलने वाले प्रज्ञा आयोजन कार्यक्रम अधिक विकेन्द्रित होंगे। अधिक व्यापक बनेंगे और सम्मिलित होने वालों के लिए सुविधाजनक रहेंगे। इस आधार पर जो प्रज्ञापीठ एवं प्रज्ञा संस्थान इन दिनों शिथिलता की स्थिति में हैं, वे सक्रिय हो जावेंगे और 24 लाख परिजनों के कार्यक्रम उत्तर भारत में सीमित आलोक वितरण करने की अपेक्षा देश के कोने-कोने में हर भाषायी क्षेत्रों में अपने आलोक से नव चेतना का संचार करते दिखाई देंगे। इस कार्यक्रम के साथ वे सभी योजनाएं गतिशील हो उठेंगी, जो उद्बोधनकर्ताओं, मार्गदर्शकों की कमी से जितनी चाहिए थी उतनी प्रखरता प्रकट न कर सकीं।
समयदान हर विचारशील से मांगा गया है। इसमें स्त्रियां और बच्चे भी शामिल हैं। वे पढ़ाने में नहीं, पढ़ने में अपना समय लगायें। अपने परिवारों में सुसंस्कारिता की प्रतिष्ठापना करें और सम्पर्क क्षेत्र में सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन का प्रयास करें। वृद्धजन, बच्चों और महिलाओं को पढ़ाने के कार्य में अपना समय व्यतीत कर सकते हैं। भारभूत जीवन में नया उल्लास भर सकते हैं। जो अत्यधिक व्यस्त हैं, वे अपने बदले किन्हीं दूसरे का समय खरीद कर उन्हें अपने बदले का काम करने में लगा सकते हैं। इस प्रकार मिल-जुलकर इस महा जागरण संकल्प को पूरा किया जा सकेगा। जिसे अपने युग का अद्भुत, अनुपम एवं असाधारण कहा जा सकता है; पर ध्यान रहे यह संकल्प किसी व्यक्ति विशेष का नहीं वरन् महाकाल का है। इसलिए उसमें जितनी शक्ति खर्च होगी, उससे अधिक मिलती भी रहेगी। व्यक्ति के मनोरथ असफल रह सकते हैं, पर दिव्य शक्ति की प्रेरणा एवं उत्कण्ठा अधूरी रहेगी—ऐसी आशंका कोई श्रद्धालु आत्मविज्ञानी कर नहीं सकता। प्रश्न इतना भर है कि जो लोग इन दिनों प्रज्ञा परिवार में हैं, वे श्रेय लाभ करते हैं या नहीं? अग्रगामी होने का श्रेय सौभाग्य उनके पल्ले आता है या नहीं? इसकी पूर्ति तो होनी ही है। इतना हो सकता है कि वर्तमान समुदाय के प्रमादी पछताते रहें और जिनका परिचय भी नहीं था, वे अग्रिम पंक्ति में खड़े होकर मोर्चा संभालें और वह प्राप्त करें जो विरले ही सौभाग्यवानों को प्राप्त होता है। राज तन्त्र की शक्ति से सभी परिचित हैं। उसके द्वारा कई भौतिक क्षेत्र के कार्य भी सम्पन्न होते हैं। व्यवस्था, सुरक्षा, सुविधा के लिए उसी की क्षमता काम करती है, किन्तु धर्म क्षेत्र अपने निखरे हुए रूप में मानवी चेतना और गरिमा को कितना समुन्नत बनाने में समर्थ है, इसे देखने का अवसर मुद्दतों से नहीं मिला। धर्म विडंबना चलती रहे पर उसकी यथार्थता कितनी समर्थ है—यह जानने का अवसर अभी बहुत दिनों से देखने को नहीं मिला। सतयुग की वापसी के इन पुनीत क्षणों में यह देखा जा सकेगा कि चेतनात्मक, भावनात्मक परिष्कार में संलग्न धर्मतन्त्र जनसाधारण के लिए कितना श्रेयस्कर, समर्थ और समृद्ध हो सकता है। इसका प्रत्यक्ष दर्शन करने का अवसर अगले ही दिनों मिलेगा। धर्मतन्त्र राजतन्त्र दोनों के समन्वय से मनुष्य की भौतिक और आत्मिक प्रगति में किस प्रकार समग्र, सर्वतोमुखी योगदान मिल सकता है—इसे प्रत्यक्ष देखा और अनुभव किया जायेगा।
महाकाल के आह्वान पर जिन लोगों ने ध्यान दिया और कान धरा है, उनके लिए लोक मंगल से सम्बन्धित सेवा कार्यों में संलग्न होना तो आवश्यक है ही। साथ ही यह भी आवश्यक है कि वह आत्म परिष्कार एवं उत्कर्ष के लिए भी कुछ करें। चिन्तन, चरित्र एवं व्यवहार में उत्कृष्ट आदर्शवादिता का समावेश करें। विवेक और श्रद्धा का उच्चस्तरीय सम्मिलन करें। इसके लिए आवश्यक है उनकी उपासना, साधना, आराधना का क्रम नियमित रूप से निरन्तर चलता रहे। शक्ति के स्रोत के साथ अपना सम्बन्ध सघन करें, जो प्रसुप्त है उसे प्रखर एवं प्रदीप्त करें। उसके लिए संयम साधना की तपश्चर्या आवश्यक है। इस हेतु दैनिक योगाभ्यास आवश्यक है। भले ही वह लम्बे समय का न हो, पर होना नियमित, अनुशासित एवं उच्चस्तरीय ही चाहिए।
इन निमित्त प्रतिदिन दो माला का गायत्री जप आवश्यक है। एक माला आत्म कल्याण के लिए, एक लोक कल्याण के लिए। प्रातः सोकर उठते ही नये जन्म की भावनाएं जागृत की जानी चाहिए। वह पुराना उपक्रम है। इन दिनों एक श्रेणी ऊंचा चढ़ा जा रहा है, एक मोर्चे को फतह करके अगले को संभाला जा रहा है। इसलिए यज्ञोपवीत के समय द्विजत्व का प्रथम चरण उठता है और वानप्रस्थ धारण में दूसरा। उसे भी द्वितीय जन्म कहते हैं। साधना सत्र में भी ऐसा ही होता है। त्रिपदा गायत्री के भी तीन चरण है, एक जप, दूसरा ध्यान, तीसरा तप। इन दिनों सभी वरिष्ठ प्रज्ञा पुत्रों को तप योग के तृतीय चरण को भूः भुवः के बाद स्वः स्तर की लय उपासना में लगाया जा सकता है। बड़े मोर्चे के लिए बड़े अस्त्रों की ही जरूरत पड़ती है। आत्मशोधन जप, ध्यान से भी हो जाता है। पर लोक मंगल की पेचीदा रणनीति अपनाते समय लय योग का आश्रय लेना पड़ता है।
‘‘अजपा गायत्री’’ लययोग का महामंत्र है। उसी को ‘सोऽहम्’ साधना भी कहते हैं। दूसरे शब्दों में यह प्रसुप्त शक्तियों का महाजागरण है। पंचकोषों का अनावरण, षट्चक्रों का जागरण, कुण्डलिनी उन्नयन आदि नामों और प्रयोगों से इसी लक्ष्य को तय किया जाता है। वरिष्ठ प्रज्ञा परिजनों को समय की महती अवगति से जूझने के लिए इसी महत् तत्व के साथ जोड़ा जा रहा है। उन्हें महाकाल के महान् भण्डागार से जोड़ा जा रहा है।
सामान्य दीक्षाएं गुरुमंत्र कहलाती हैं। उनमें शुद्ध उच्चारण और साधनात्मक मार्गदर्शन का ही क्रम बन पाता है। परन्तु लयदीक्षा में वैसा होता है जैसा कि आग-ईंधन के, नाले और नदी के सम्मिलित हो जाने पर होता है।
वेदान्त साधना में आत्म जागरण ही प्रमुख है। इसी को आत्मदर्शन या आत्म साक्षात्कार कहते हैं। यही महादेव के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें अजपा गायत्री का सोऽहम् बीजमन्त्र अपनाना पड़ता है और आत्मदर्शन का दर्पण में मुखाकृति देखते हुए किया जाता है। सोऽहम् का तात्पर्य है अपने आरम्भिक प्रयोग में परमात्मा को या परमात्मा में अपने को देखना। यही देखना ही अनुभव भूमिका में उतर कर साक्षात्कार रूप में प्रकट होता है। यही अद्वैत है। अपने को ईश्वरमय बना लेना, ईश्वर को अपनी जैसी आकृति का बना लेना है। यह कल्पना या धारणा नहीं है, वरन् गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से भी यह एकत्व स्थापित करना होता है। इसी स्थिति में वह महा प्रज्ञा निखरती है, जिसके साथ श्रद्धा विश्वास का गहरा पुट हो। अपने सम्बन्ध में हेय या हीन भाव न रहे। तथाकथित स्वजन संबंधियों के असहमत रहते हुए भी ऐसी राह अपना सकें जो दुनियादारों के तो पसन्द नहीं आती, हानिकारक प्रतीत होती है किन्तु प्राणवान अन्तःप्रेरणा के बलबूते वह कर गुजरता है, जो आदर्शों के अनुरूप तथा लोक कल्याण की दृष्टि से आवश्यक है।
विशिष्ट प्रज्ञा परिजनों को महाकाल के आह्वान एवं युगधर्म के अनुरूप चल सकने की अभिनव क्षमता प्राप्त करने के लिए ‘सोऽहम्’ साधना के रूप में आत्मसाक्षात्कार एवं ब्रह्म साक्षात्कार की ब्रह्म दीक्षा दी जा रही है। इसे यदि ठीक तरह साधा-संभाला जा सके, तो चिन्तन-चरित्र और व्यवहार के क्षेत्रों में व्यक्ति नर पशु न रहकर नर-नारायण बनता है। वह करना है कि जिसे महामानव ही कर पाते हैं। नर पामर तो उस स्थिति को कठिन या असाध्य ही कहते रहते हैं।
डम्बल मुगदर घुमाने से भुजाएं मजबूत होती हैं, यह ठीक है पर नाव चलाने से दुहरा लाभ है। डांड़ खेने से भुजाएं तो मजबूत होती ही हैं साथ ही दूसरे अनेकों को नदी की तेज धारा को पार कराने का यश पुण्य और धन भी मिलता है। समझदारी की दृष्टि से डम्बल-मुगदर घुमाने वाले की अपेक्षा नाव खेने का व्यवसाय करने वाले अधिक दूरदर्शी हैं। इसी प्रकार जप तप की साधनाएं करके अपने लिए ऋद्धि-सिद्धि कमाने वाले स्वार्थी माने जाते हैं। भले ही वे सन्त क्यों न कहलाएं। किन्तु सेवा योग में मल्लाह जैसी बुद्धिमानी है। वह आत्म कल्याण का लाभ तो उठाता ही है, साथ ही विश्व कल्याण का पुण्य परमार्थ उसे अनायास ही मिल जाता है। सेवा धर्म सरल भी है, मनोरंजक भी और अधिक आत्मशान्ति तथा दैवी अनुग्रह, लोक सम्मान प्रदान करने वाला भी। सन्तों को मात्र आत्मशोधन का लाभ ही मिलता है किन्तु सेवा भावी अन्य अनेकों का परिशोधन, मार्गदर्शन करके उन्हें यशस्वी समुन्नत एवं सद्गति का अधिकारी बनाते हैं। प्राचीन काल में आदमी में परिपूर्ण जीवनी शक्ति होने से वे शारीरिक और मानसिक कठिन श्रमों से भरी पूरी तपश्चर्याएं भी कर लेते थे। ब्रह्मचर्य इस दिशा में विशेष सहायक होता था। पर आज वैसी स्थिति नहीं रही। शरीर की दुर्बलता और मन की असन्तुलित स्थिति में इतना ही संभव है कि व्यक्ति इन्द्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम और विचार संयम अपनाये और उस पवित्रता को स्वल्प प्रयास से उपलब्ध करे जिसे प्राचीन काल के योगी कठिन कष्टसाध्य तपश्चर्याओं द्वारा प्राप्त करते थे। इसी प्रकार योग साधना में आत्मा और परमात्मा को जोड़ना पड़ता है। निराकार परमात्मा का साकार स्वरूप यह दृश्य संसार ही है जिसको समुन्नत, सुसंस्कारी बनाने का प्रयत्न योगाभ्यास की सैद्धान्तिक आवश्यकता को पूरी करता है। सेवा सहायता से यदा कदा विपत्ति ग्रस्तों का अपने पैरों खड़ा करने की सहायता भी आवश्यक होती है। पर वैसे प्रसंग सदा ही उपलब्ध न हों तो आमतौर से तो दान भावना का शोषण ही होता है। धूर्त कोई न कोई पाखण्ड रचकर मूर्खों को ठगते रहते हैं। इस प्रवंचना से बचते हुए उचित यही है कि सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन के क्रिया-कलापों में संलग्न रहा जाय। यह सच्चे अर्थों में समयानुरूप योगाभ्यास है।
कौन व्यक्ति क्या करे? इस संदर्भ में विशेष प्रतिभावानों को विशेष कार्य भी बताए जा सकते हैं। धनी, विद्वान, सत्ताधीश, प्रतिभावान व्यक्ति ऐसे काम हाथ में ले सकते हैं जो उपस्थित समस्याओं एवं योग्यताओं से संबंधित है। किन्तु साधारण व्यक्तियों के लिए तो सरल एवं सर्व सुलभ काम ही तलाश करने पड़ते हैं। ऐसे कार्यों में पिछले पृष्ठों पर उन क्रिया कलापों का उल्लेख किया गया है जिसे मध्यवर्ती लोग सामान्य उदारता एवं साहसिकता अपनाते हुए सहज सम्पन्न कर सकते हैं।
पिछले दिनों भी समय-समय पर प्रज्ञा परिजनों का मार्गदर्शन किया जाता रहा है। पर इन दिनों समय की विपन्नता देखते हुए अधिक जोर देकर कहा जा रहा है कि वे औसत नागरिक-जीवन-स्तर अपना कर निजी आवश्यकताएं घटाएं और समूचे श्रम साधनों की बचत को परमार्थ प्रयोजनों में लगाएं। दूसरे साथी नहीं मिले इसके चिन्ता न करें। अकेले ही चलते रहें संकल्पवान परमार्थ परायण सदा अकेले ही चलते रहे हैं। उनका आदर्श और मनोबल देखकर पीछे अनेक साथी भी मिलते रहे हैं। अभी भी उस परम्परा का पुनरावर्तन होता रहता है, होता रहेगा। अग्रगामियों का साहस सदा सराहा गया है। पीछे चलने वाले भी श्रम तो करते हैं पर श्रेय से वंचित रह जाते हैं।
इन दिनों तुरन्त करने योग्य कार्य यह है कि साधना में श्रद्धा विश्वास का अधिकाधिक समावेश करें, भले ही संख्या या समय घट चले आत्मदर्शन ही ईश्वर दर्शन है। सोऽहम् साधना इसमें विशेष सहायक होती है। उससे अद्वैतवाद प्राप्त होता है और अन्तराल की सोयी हुई विभूतियों को जागृत होने का अवसर मिलता है। शरीर के पंच तत्वों और चेतना के पांच प्राणों में समाहित उत्कृष्टता को समझा और कार्यान्वित किया जा सके तो व्यक्तित्व के परिष्कृत और प्रखर होने का लाभ अविलम्ब ही मिलता है। इसी को आत्मोत्कर्ष कहते हैं, यही सिद्धियों का मूल है।
ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ियों की आवश्यकता होती है। पानी की टंकी से गुजरने पर नल तब तक पानी फेंकते रहते हैं जब तक टंकी खाली नहीं हो जाती। बिजली के तार से जो वस्तु छूती है उसमें भी करेंट आ जाता है। प्रयत्न यह भी होना चाहिए कि अपने को किसी महाशक्ति या व्यक्ति के साथ जोड़ा और आदान-प्रदान का क्रम बनाया जाय।
उपासनात्मक उपचार पूरे करते रहने भर से काम नहीं चलता। खेत में खाद पानी भी लगाना चाहिए। इसका तात्पर्य है—जीवन में पुण्य और व्यवहार में परमार्थ की मात्रा का अधिकाधिक समावेश किया जाय। एकाकी योजनाएं एवं चेष्टाएं सीमित बनकर ही रह जाती हैं। डेढ़ चावल की खिचड़ी नहीं पकती, ढाई ईंट की मस्जिद नहीं बनती। तिनके-तिनके मिलकर ही रस्सी और धागे-धागे मिलकर ही कपड़ा बनता है। इसलिए अपनी सीमित शक्तियों को महा प्रयासों से सम्मिलित करके ही अपनी क्षमता को असंख्य गुनी बढ़ाना चाहिए। रीछ-वानर, ग्वाल-बाल इसी तथ्य को अपनाकर अभिनन्दनीय बने थे।
इन दिनों प्रज्ञा परिजनों के लिए महा जागरण की पंच सूत्री योजना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। उसमें आत्म कल्याण और विश्व कल्याण अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। व्यक्तित्व की सार्थकता इसी में है कि वह परमार्थ में काम आये। पंच सूत्री योजना कहने सुनने में सामान्य प्रतीत होती है पर जब उसके फलितार्थ सामने प्रस्तुत होंगे तो प्रतीत होगा कि छोटे से बीज में कितना विशाल वृक्ष छिपा हुआ था।
प्राचीन परम्पराओं में समयदान की साधु ब्राह्मण परम्परा इतनी उच्च कोटि की रही है कि उसे देव परम्परा ही कहा जाता रहा है। जो ‘‘दें’’ सो देव। आवश्यक नहीं कि धन ही दिया जाय। समय दान का महत्त्व उससे किसी भी प्रकार कम नहीं है। दान हमारे जीवन क्रम में नित्य कर्म की तरह जुड़ा रहना चाहिए। व्यस्तता और असमर्थता हो तो उन्हें चिन्ह पूजा के रूप में छोटे रूप में भी दिया जा सकता है। बीस पैसा नित्य और 1 घण्टा समय का अनुबन्ध इसीलिए रखा गया है कि जो इतना छोटा अनुदान, अंशदान भी प्रस्तुत न करता रहे तो समझना चाहिए कि उसकी श्रद्धा और सामर्थ्य शक्ति का दिवाला निकल गया। नित्य अभ्यास के बिना कोई शक्ति या कला परिपक्व नहीं हो सकती।
नेवला जब सांप से लड़ता है तब लौट-लौटकर विष नाशक बूटी खाता है और इसके बाद शत्रु पर नये उत्साह से झपटता है। इसी प्रकार शान्ति कुञ्ज के प्राण चेतना भण्डार से बार-बार अपना सम्पर्क साधना चाहिए और युग शिल्पी सत्रों में जो हर सत्र में नये नये विषय समावेश होते रहते हैं, उनमें सम्मिलित होकर असाधारण लाभ लेते रहना चाहिए। इस वर्ष तो महा जागरण सत्र प्रत्येक वरिष्ठ प्रज्ञा पुत्र के लिए अनिवार्य किए गए हैं, तो भी अपना आवेदन पत्र भेजकर स्वीकृति लेकर ही आना चाहिए। अब भोजन व्यय का कोई निर्धारित शुल्क शिविरार्थियों के लिए निश्चित नहीं है। भोजन भण्डार में जो स्वेच्छापूर्वक संभव हो दिया जा सकता है।
प्रज्ञा परिवार की सम्यक सदस्यता में अंशदान, समयदान की शर्त अनिवार्य इसलिए रखी गई है कि उस आधार पर झोला पुस्तकालय, घरेलू पुस्तकालय नियमित रूप से चलता रहे। परिजनों, पड़ोसियों तथा मित्र सम्बन्धियों को युग साहित्य पढ़ने को मिलता रहे हमारा विचार मंथन अखण्ड ज्योति का अमृत निरन्तर चखने को मिलता रहे। अपना एक ऐसा मित्र मण्डल बनता रहे जिनकी सज्जनता और सशक्तता निरन्तर बढ़ रही हो। ऐसे मित्र हर दृष्टि से हर किसी के लिए लाभकारी ही सिद्ध होते हैं। परिवार की सम्पत्ति छोड़कर मरने में एक अनुबन्ध यह भी होना चाहिए कि घर में युग साहित्य से भरी पूरी अलमारी भी रहे जिसे र्वशज और सम्बन्धी पढ़ते और उससे लाभ उठाते रहें।
जो भी विद्यार्थी यहां से प्रशिक्षण प्राप्त करके जाय, उनके लिए यह अनिवार्य शर्त है कि वे अपने-अपने क्षेत्रों में प्रज्ञा विद्यालय चलाएं। इन विद्यालयों में नियमित रूप से गायन-वादन का सुगम संगीत का, भाषण-सम्भाषण का, बौद्धिक ज्ञान संवर्धन का एवं प्रचार कार्य हेतु जानकारियों का, शिक्षण विद्यालयों का समावेश हो। साइकिल रिपेयर, स्लाइड प्रोजेक्टर-टेपरिकॉर्डर-एंप्लिफायर चलाने, मरम्मत करने, बैटरी चार्ज करने वी.सी.पी. व टेलीविजन चलाने तथा साज संभाल रखने, सुलेख, नर्सरी लगाने व वृक्षों की देख-रेख तथा बालसंस्कार शालाओं, प्रौढ़ पाठशालाओं को चलाने का काम, यहां का अनुभव वे स्थानीय शिक्षण में अन्य विद्यार्थियों को दें। जड़ी-बूटी उपचार, प्राथमिक सहायता, नर्सिंग, पौरोहित्य इत्यादि अभ्यास जो वे यहां सीखेंगे, उन्हें वहां अध्यापक के रूप में सिखायेंगे। ‘‘महा जागरण सत्र’’ के रूप में घोषित इस वर्ष के ये युगशिल्पी सत्र कई अर्थों में विशिष्ट हैं। उपरोक्त शिक्षण की विद्याओं के बहुमुखी स्वरूप से इनकी महत्ता को समझा जा सकता है।
इन दिनों विषम पर्व बेला है। इसमें अधिक समयदान देकर वह श्रेय लेना चाहिए जो फिर कभी भविष्य में न मिलेगा। महाकाल का संकल्प कभी भी अधूरा नहीं रहा, उसमें सम्मिलित होने के लाभ से हम ही अपनी कृपणता और कायरता के कारण आगा पीछा सोचते, बंगले झांकते रह जाते हैं। कुसमय का व्यामोह हमारे गौरव और भविष्य को गिराता है, उठाता नहीं। अग्रगामी साहसी हर दृष्टि से लाभ में ही रहते हैं।
लक्ष-लक्ष की पांच योजनाएं अपनाने पर अदृश्य जगत का परिशोधन, समाज की विपत्तियों का निवारण और व्यक्तित्व वर्चस्व का उन्नयन यह तीनों ही लाभ उसमें समाहित हैं। कर्त्तव्यों में कदाचित ही ऐसे त्रिविधि सम्मिश्रणों के सुयोग आते हैं। भाग्यशाली उनकी उपेक्षा नहीं करते वरन् सर्वतोमुखी हित साधन का ध्यान रखते हुए दूरदर्शी दुस्साहसियों की तरह उसे प्रसन्नतापूर्वक अपनाते और सूझ-बूझ पर गर्व, सन्तोष करते हैं।
इन दिनों वातावरण का रौद्ररूप देखते ही बनता है। दुर्घटनाओं, विग्रहों और विनाश प्रकरण की धूम मची हुई है। आतंकभरी आशंकाएं निरन्तर सिर पर गहराती रहती हैं। प्रकृति प्रकोप अपनी विभीषिकाओं का दौर निरन्तर चला रहा है। इनका शमन समाधान करने के लिए प्रस्तुत पांच सूत्री महाजागरण योजना को अदृश्य वातावरण के संशोधन का एक अमोघ उपाय समझना चाहिए। एक लाख वेदियों का अग्निहोत्र, जिसमें चौबीस करोड़ आहुतियां हों, अपने ढंग का अनोखा अध्यात्म उपचार है। एक लाख व्यक्तियों की गायत्री उपासना और सोऽहम् साधना से अध्यात्म जगत् में एक सृजनात्मक हलचल मचनी चाहिए।
वह दिन दूर नहीं, जब प्रकृति प्रकोप और मानवी विग्रह निरन्तर अधिकाधिक ही बढ़ते चलेंगे। रक्तपात और अनर्थों के दृश्य आये दिन आंखों से देखने और कानों से सुनने पड़ेंगे। उन विपत्ति विभीषिकाओं से लड़ने, गुंथने, तोड़ने-मरोड़ने, निपटने सुधारने और उन्हें निरस्त करने के लिए हमने अपने को पृथक रखा है और सोचा यह है कि इस महाविनाश के विकट संग्राम में अपने को प्रदीप्त आहुति की तरह होमने की आवश्यकता पड़े तो उसके लिए तैयार रहा जाय। एक के जाने से यदि कई करोड़ बचते हैं तो उसे घाटे का सौदा नहीं कहा जा सकता है। इस शक्ति सामर्थ्य के अर्जन हेतु ही हमारी वर्तमान एकान्त साधना चल रही है। ऐसी दशा में आवश्यक है कि महाकाल के एक-एक लक्ष घटकों वाले पंचसूत्री महाअभियान की पूर्ति वरिष्ठ प्रज्ञा परिजन करें। महाजागरण की संकल्प पूर्ति में अपना दायित्व निबाहें और महाकाल की आपत्तिकालीन चुनौती स्वीकार करें।
तीर्थ यात्रा की परम्परा का युग के अनुरूप पुनर्जीवन समाज का कायाकल्प करेगा। जन्म दिनों और तीर्थयात्राओं में सम्पन्न होते रहने वाली ज्ञान गोष्ठियां करोड़ों को व्यक्तिगत प्रेरणा देंगी और औचित्य अपनाने के लिए विवश करेगी। हर गांव को अशोक वाटिका तीर्थ बनाने से वृक्ष भगवान के खुले एक लाख मन्दिर बनेंगे, जो प्राकृतिक जीवन की प्रेरणा भी देंगे और बिना साधनों तथा परम्पराओं का आश्रय लिए हर गांव को वह गौरव प्रदान करेंगे कि वह भी एक तीर्थ है और उस परिधि में तीर्थों जैसी सत्प्रवृत्तियां ही चलनी चाहिए। बूंद-बूंद से घड़ा भरता है। लोगों का थोड़ा-थोड़ा श्रम तथा समयदान भी एकत्रित होने पर एक लाख वर्ष हो जाता है और नव निर्माण के लिए इतने समय का किया हुआ श्रम चमत्कार दिखाये बिना नहीं रह सकता। एक समय में, एक केन्द्र से, एक लाख सहायकों द्वारा सम्पन्न हुआ इतना बड़ा कार्यक्रम आज तक कभी संपन्न नहीं हुआ। जैसी अनुपम यह योजना है, वैसी ही अद्भुत इसकी परिणति भी होगी। इसका आलोक जहां-जहां फैलेगा वहां-वहां कायाकल्प जैसा प्रतिफल भी दृष्टिगोचर होगा। समय के परिवर्तन में—समाज में नवजीवन जैसी दिशाधारा प्रदान करने में यह योजना सुनिश्चित रूप से सफल होकर रहेगी, इसका सुनिश्चित विश्वास किया जा सकता है।
इस भागीरथ प्रयासों में संलग्न होने का, आरम्भ करके अन्त तक पहुंचने का जिनमें साहस जगेगा, वे ओजस्वी और मनस्वी बनेंगे। अपने पद चिह्नों पर असंख्यों अनुगामियों को चलता देखेंगे और अनुभव करेंगे कि उन्हें किसी महान् सेनापति जैसा कौशल प्रदर्शित करने का अवसर मिल रहा है। महान् पुरुषों को ऐसे ही प्रयासों को आगे बढ़कर अपनाना पड़ा है और वे उसी आधार पर न केवल स्वयं महान् बने हैं, वरन् अपने प्रभाव क्षेत्र में महानता का वातावरण विनिर्मित करने में समर्थ हुए हैं।
एक शब्द में इस समूचे प्रयास की संयुक्त परिणति को सतयुग की वापसी कह सकते हैं। योजना के किसी भी पक्ष से जिसे संबंधित होने का अवसर मिलेगा, वे अनुभव करेंगे कि उनके व्यक्तित्व में—गुण, कर्म, स्वभाव में देवोपम परिवर्तन हो रहा है और वे सामान्य परिस्थितियों में रहते हुए योगी, तपस्वियों जैसी विभूतियों से लाभान्वित हो रहे हैं, तुच्छ से महान बन रहे हैं कामनाओं के भव-बन्धनों से छूट कर वे भावनाओं के स्वर्गलोक में विचरण कर रहे हैं।
जिन सद्गुणों को—सत्प्रवृत्तियों को मानवी कल्याण और उत्थान के लिए आवश्यक माना गया है, उन सब का समावेश इसमें है। आरम्भ से पूर्व तद् विषयक सभी उतार-चढ़ावों का, समाधानों और प्रयोगों का प्रशिक्षण एक महीने के सत्र में दिया जा रहा है। इसे द्वार पर लटके हुए ताले की चाबी समझना चाहिए। जो इसमें सम्मिलित होंगे वे दो प्रतिभाओं को भी इस सत्र में सम्मिलित करने की प्रतिज्ञा लेकर वापस लौटेंगे। इसे ही इस प्रशिक्षण की गुरु दक्षिणा मानें। एक महीने जैसे स्वल्पकाल में जितने महत्वपूर्ण विषय सीखने को मिलते हैं, उन्हें शिक्षार्थी जीवन भर स्मरण करता रहेगा।
समय की विलक्षणताएं भावनाशील प्राणवान् मनुष्यों को भाव-भरा आमन्त्रण भेजती हैं और उन्हें असन्तुलन को सन्तुलन में बदलने के लिए युगधर्म के अनुरूप अपनी गतिविधियों में परिवर्तन करने की चुनौती भेजती हैं। बाढ़ अग्निकाण्ड, भूकम्प, तूफान महामारी जैसे विकट प्रसंगों में जहां दूसरे लोग भयभीत होकर अपने बचाव के लिए बंगले झांकते हैं वहां जीवन्त व्यक्ति आगत विपत्तियों से असंख्यों को बचाने में अपने श्रम, समय और साधनों का खुले हाथों उपयोग करते हैं। कृपण और कायर जीवित रह कर भी मरते हैं; किन्तु उदारचेता मरकर भी अमर हो जाते हैं। खरे-खोटे की परीक्षा समय की कसौटी पर ही होती है। व्यक्तित्व और स्तर को जांचने के लिए समय की समस्याओं से जूझना, अपनी नाव में असंख्यों को बिठाकर पार करना—यही दो परखें ऐसी हैं जिनके आधार पर कायर एवं साहसी, कृपण एवं उदार अलग-अलग छांटे जाते हैं। इन दिनों वही सब हो रहा है। चलनी और सूप इस तेजी से काम कर रहे हैं कि कूड़ा-करकट किसी दूर घूरे पर सड़ता दिखाई देगा और जो उपयोगी हैं, उसे सराहा, अपनाया और शिरोधार्य किया जायेगा।
विनाश की ओर दृष्टि डालते हैं, तो लगता है कि मानवी दुर्बुद्धि और प्रकृति प्रताड़ना जो भी, कर बैठे कम है। व्यक्तिगत और सामूहिक समस्याएं एक दूसरे से बढ़कर प्रचण्ड होती जाती हैं। सर्वत्र आतंक, आशंका और अविश्वास का वातावरण छाया हुआ है। हंसने हंसाने के, मिल-जुलकर बांटकर खाने के दिन लगता है, चले ही गये हैं। इस विपन्नता के बीच भी नव युग की आशा की किरणें आगमन-अवतरण की सूचना देती है। कहते हैं कि प्रभात का आगमन और दिनमान का वैभव सर्वत्र दीख पड़ने में अब बहुत विलम्ब नहीं है।
ब्रह्ममुहूर्त में मुर्गा बांग लगाता है और समय परिवर्तन की वेला में भावनाशीलों का पराक्रम रोके नहीं रुकता। वह उछलता है, मचलता और वहां जा पहुंचता है, जहां कर्तव्यों की चुनौती उसे बुलाती है।
महान् परिवर्तन भगवान की इच्छा से होते हैं, पर उन्हें सम्पन्न करने के लिए हाथ-पैर वाले देव-मानवों की आवश्यकता पड़ती है। उन्हें बनाना नहीं पुकारना भर पड़ता है। समय की परख उनकी अन्तः चेतना को पुलकित-तरंगित करती है और भवबन्धनों की रोक थाम करने के हानि लाभ सुझाते हुए भी उनके चरण रोके नहीं रुकते और भगवान से वे अपने योग्य कर्त्तव्य पूछते हैं और उनको पूरा करने के लिए बड़े से बड़ा दुस्साहस सिर पर ओढ़ते हैं। इन्हीं को ईश्वर का सामयिक प्रतिनिधि कहा जाता है। वे समय को गति, दिशा, ऊर्जा और जीवट प्रदान करते हैं। देखने में वे घटा उठाते प्रतीत होते हैं; पर वस्तुतः उनका श्रेय-सौभाग्य इतना बड़ा होता है कि पीढ़ियां प्रेरणा लेती रहें और इतिहासकार उन्हें स्वर्णाक्षरों में अंकित करते रहें। बुद्ध, गांधी, विनोवा, विवेकानन्द, दयानन्द, शिवाजी और प्रताप जैसे महामानव थे तो मानवी काया में ही, पर उनकी जीवनगाथाएं इतने दिन बीत जाने पर भी मानवी गरिमा को सींचने-संजोने में सफल होती रही हैं। अर्जुन-हनुमान जैसों ने खोया कम पाया बहुत। बीज की तरह गलने का आरम्भ में उन्हें साहस तो करना पड़ा; पर नन्दनवन के अमर वृक्षों में उनकी गणना होती रहेगी। गांधी के सत्याग्रहियों में से भी हम अनेकों को अभी भी मिनिस्टर पद पर आसीन देखते हैं। युग धर्म के अनुरूप आचरण करने के लिए कटिबद्ध होना मनुष्य का ऐसा सौभाग्य है, जिस पर विभूतियों के भण्डारों को निछावर किया जा सकता है। ऐसा अवसर आज ही है, ठीक इसी समय है। विलम्ब करने से वह चला जायेगा और हम पश्चाताप भर ही करते रहेंगे।
काम पर्वतों जितने बिखरे पड़े हैं। क्या करें, कितने समय करें—यह पूछने की अपेक्षा यह बताना चाहिए कि हम विशिष्ट अवसर पर कितना अधिक और कितना भाव—साहस से भरा पूरा समय दे सकते हैं। ढर्रे पर चलते रहा जाय, पड़ोसियों के प्रचलन को ही सब कुछ समझा जाय और उसी का अनुकरण करते रहा जाय, तो पेट और प्रजनन की—लोभ और मोह की—समस्याएं ही इतनी भरी पड़ी हैं, जिन्हें पूरा करने में अपना श्रम-समय और बुद्धि कौशल सभी कम पड़ते हैं, पर यदि विवेकपूर्वक देखा जाय तो आठ घण्टे का श्रम, सात घंटे का सोना, पांच घंटे का अन्य काम करते हुए भी कोई व्यस्त और अभावग्रस्त व्यक्ति भी चार घंटे नित्य निकाल सकता है। युगधर्म के निर्वाह हेतु हर विचारशील और दूरदर्शी व्यक्ति को इतना समय तो निकालना ही चाहिए।
ढेरों व्यक्ति ऐसे हैं, जिनकी पारिवारिक जिम्मेदारियां हलकी हैं, नहीं हैं या संचित राशि के सहारे वे निभती चल सकती हैं। उनके लिए पूरा समय भी दे सकना संभव है। पूर्वकाल में ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और सद्गृहस्थ औसत नागरिक का निर्वाह स्वीकार करते, बड़प्पन की महत्वाकांक्षाओं को पैरों तले कुचलते; उन परमार्थ प्रयोजनों में लगाते थे, जिनके कारण भारत भूमि को तैंतीस कोटि देवताओं की जन्मदात्री स्वर्गादपि गरीयसी कहा जाता था। संसार भर को जिनने सामर्थ्य और समृद्धि से समुन्नत बनाया था। आज मनुष्य कितना बौना और स्वार्थी हो गया है कि उसे वासना-तृष्णा के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं। युगधर्म की पुकार को सुनने और उसकी पूर्ति के लिए कुछ करने का उत्साह उमंगता ही नहीं।
युग देवताओं को ‘एकला चलो रे’ का गीत गाते हुए अग्रगामी बनना पड़ेगा और असंख्यों को प्रेरणा प्रदान करने वाला उदाहरण सर्वप्रथम प्रस्तुत करना पड़ेगा। सिख धर्म में बड़ा बेटा सिख बन जाता था और धर्मयुद्ध में जीवन समर्पित करते हुए कुल को कृतार्थ करता था। राजपूतों में भी ऐसा ही रिवाज था कि परिवार पीछे एक व्यक्ति राजकीय सेना में भर्ती होता था। साधु-ब्राह्मण और वानप्रस्थी की परम्परा भी यही थी कि इस समुदाय के लोग न्यूनतम में अपना निर्वाह करते थे और अधिकतम समय विश्वकल्याण के लिए नियोजित करते थे। अब उस समय को पुनः लौटाना है। वानप्रस्थ परम्परा का न्यूनाधिक भाग हर नर-नारी को अपनी-अपनी परिस्थिति के अनुसार नवसृजन के लिए समर्पित करना है। धन किसी के पास नहीं भी हो सकता, पर समय और भावसंवेदना तो हर किसी के पास है, उसे तो उदारतापूर्वक हर स्थिति का व्यक्ति दे सकता है। यदि निश्चय कर लिया जाय कि लोभ, मोह, और अहंकार में थोड़ी कटौती करने का साहस संकल्पपूर्वक बरता जा सकेगा, तो फिर हर स्थिति का व्यक्ति अपनी मनःस्थिति और परिस्थिति के अनुसार सामने प्रस्तुत अगणित सृजन कार्यों में से अपने लायक कोई भी कार्य चयन कर सकता है और मन की दुर्बलता तथा स्वजनों की आदर्शहीनता से अपना बचाव करते हुए सदा−सर्वदा हर परिस्थिति में किसी न किसी मात्रा में भाग लेता रह सकता है; जिसे महाकाल का आह्वान-आमन्त्रण ही कहना चाहिए। कुछ कार्य ऐसे हैं, जिन्हें घर छोड़कर बाहर ही भली प्रकार किया जा सकता है, पर कुछ कार्य ऐसे भी है, जिन्हें घर के समीपवर्ती क्षेत्र में भी करते रहा जा सकता है और आर्थिक तथा पारिवारिक कार्यों का भी ढर्रा किसी प्रकार चलाया जा सकता है।
घर से बाहर रह कर करने योग्य कार्यों में तीन प्रमुख हैं—(1) शान्ति कुञ्ज की बहुमुखी कार्य पद्धति में कहीं फिट हो जाना और वहीं रहकर देशव्यापी सूत्र संचालन के कार्यों में अपने को जुटा देना। (2) विनिर्मित प्रज्ञा पीठों में से किसी में निवास करते हुए उस मंडल में जनजागरण के रचनात्मक कार्यों में संलग्न रहना। (3) समय-समय पर साइकिल तीर्थयात्रा के लिए प्रवास पर जाना और जनजागरण के लिए गांव-गांव, मुहल्ले-मुहल्ले अलख जगाना।
जो कारणवश बाहर नहीं जा सकते, जिनका घर रहना अनिवार्य है, उन्हें दो चार घंटे तक का समय, न्यूनतम बीस पैसे या एक मुट्ठी अनाज का अंशदान निकालते हुए अपने या अपने एक-दो सच्चे सहयोगियों के बलबूते स्थानीय गतिविधियों का सूत्र संचालन स्वयं ही शुरू कर देना चाहिए।
(1) झोला पुस्तकालय- हर शिक्षित को युग साहित्य पढ़ने को देना और वापस लेना। (2) विचारशील परिजनों के जन्म दिवसोत्सव मनाना और परिवार निर्माण की ज्ञानगोष्ठी सम्पन्न करना। (3) बालसंस्कार शाला चलाना, जिसमें स्कूली बच्चों को अध्ययन में प्रवृत्त रखा जाय और शिष्टाचार अनुशासन का बोध कराया जाय। (4) आंगनबाड़ी, तुलसी आरोपण, हरीतिमा अभिवर्धन के कार्यों का घर-घर विस्तार करना (5) व्यायाम शाला-खेलकूद-फर्स्टएड आदि का प्रशिक्षण (6) दीवारों पर आदर्श वाक्य लेखन। यह रचनात्मक कार्य नियमित रूप से किये जा सकते हैं। प्रचारात्मक कार्यों में कुरीतियों का निवारण प्रमुख है। जाति-पांति के नाम पर बरती जाने वाली ऊंच-नीच, पर्दाप्रथा, नशेबाजी, धूमधाम और दहेज वाली शादियां, मृतक भोज, भिक्षा व्यवसाय, भाग्यवाद, रिश्वत, मिलावट, आलस्य-प्रमाद जैसे दुर्गुणों के विरुद्ध वातावरण बनाया जाय। विरोध, असहयोग और संघर्ष के तरीकों में से जो उपयुक्त बैठता हो, उसे काम में लाया जाय। परिवार वृद्धि, फैशनपरस्ती, जेवर जैसे प्रचलनों को निरुत्साहित करना और अल्प बचत योजना जैसे कार्यक्रमों को गति देना हम में से प्रत्येक का कार्य होना चाहिए।
यह प्रचार कार्य तब और भी अधिक सरल हो जाते हैं, जब स्लाइड प्रोजेक्टर, टेपरिकॉर्डर, लाउडस्पीकर से व्याख्या करते हुए उन्हें माध्यम बनाया जाय। इनमें बिजली की जरूरत पड़ती है। जहां बिजली नहीं वहां मोटर की बैटरी और चार्जर का जोड़ा लगाकर अपनी काम चलाऊ बिजली उन छोटे देहातों देहातों में भी उत्पन्न की जा सकती है। जहां सरकारी बिजली नहीं है, इन उपकरणों के माध्यम से काम करने पर ऊंची श्रेणी के वक्ता या गायक की आवश्यकता नहीं रहती। यह सभी उपकरण प्रायः पांच हजार की लागत में बन जाते हैं। उसी कीमत में यज्ञशाला एवं संगीत उपकरणों का भी सैट खरीदा जा सकता है। अपनी शाखा की स्मारिका प्रकाशित करके इतनी रकम जुटाई जा सकती है या फिर मिल जुलकर इतना चन्दा किया जा सकता है।
तीर्थयात्रा का शास्त्रकारों ने अतिशय पुण्य माना है। देशवासी अभी भी विभिन्न तीर्थों में धर्म लाभ के लिए जाते हैं। इस कार्य को साइकिल यात्राओं के माध्यम से भी किया जा सकता है। आवश्यक नहीं कि प्रख्यात तीर्थों में जाते रहने की लकीर पीटी जाय। अपने समीपवर्ती ग्राम इसके लिए चुने जा सकते हैं। पांच अशोक वृक्षों का एक झुरमुट किसी उपयुक्त स्थान पर लगाकर उसी को ग्राम तीर्थ की संज्ञा दी जा सकती है। उन्हीं की छाया में धर्म कृत्य किये जाते रह सकते हैं। कथावार्ता के लिए थोड़ा बड़ा चबूतरा बना लिया जाय, तो कथा वार्ता ही नहीं बाल संस्कार शाला भी उसमें चल सकती है। कथा कीर्तन भी होते रह सकते हैं। अशोक वाटिका में सीता रही थीं, हनुमान उसी में छिपे थे। अशोक अनेक दवाओं के काम भी आता है, उसकी वायु में अध्यात्म भावनाओं का ही प्रवाह होता है। ऐसी अशोक वाटिकाएं लगाकर हमें हर गांव को एक ग्राम तीर्थ के रूप में विकसित करना चाहिए। ईंट-चूने से बने खर्चीले देवालयों की तुलना में यह अशोक उद्यान वृक्ष भगवान का खुला मन्दिर माना जा सकता है और उसे धर्म भावनाओं के परिपोषण का प्रतीक बनाया जा सकता है। ऐसे अशोक वृक्षों की छोटी पौध शान्तिकुञ्ज से भी मिल सकती है। प्रयत्न करने पर वह समीप भी मिल जायेगी। पांच अशोकों का एक झुरमुट ग्राम तीर्थ बन जाता है
धर्म प्रचार की पद यात्रा ही वास्तविक तीर्थ यात्रा है। इसे सुविधा के अनुरूप साइकिल यात्रा में भी परिवर्तित किया जा सकता है। चार साइकिल सवार इस पुण्य प्रयोजन में हाथ डालकर उसे भली-भांति पूरा कर सकते हैं। न्यूनतम एक सप्ताह का, अधिकतम पन्द्रह दिन या एक महीने का प्रवास चक्र बनाया जा सकता है। दिन में वे लोग दीवारों पर आदर्श वाक्य लेखन करें। रात्रि को जहां विराम रहे वहां कथा-कीर्तन तथा सामयिक समस्याओं का समाधान इन तीनों प्रसंगों को गूंथते हुए लोक शिक्षण करें। एक तरीका यह भी हो सकता है, कि यह प्रचार कार्य यन्त्रों से लिया जाय। आदर्श वाक्यों के स्टेंसिल बनवा लिए जायं। उन्हें ब्रुश से अक्षर बनाते और साफ करते चला जाय, तो अच्छे वाक्य जल्दी-जल्दी लिखे जा सकते हैं। (1) हम बदलेंगे-युग बदलेगा। (2) जाति-वंश सब एक समान। नर और नारी एक समान। (3) दुराचार जीता है तब। सदाचार चुप रहता जब। (4) खर्चीली शादियां हमें दरिद्र और बेईमान बनाती हैं। इन चार वाक्यों का लेखन अच्छे अक्षरों या स्टेंसिलों से होता रहे, तो दीवारें बोलने लगेंगी और लोक शिक्षण का एक अच्छा तरीका हाथ लगेगा।
रात्रि विराम के लिए अच्छे वक्ता या गायक न हों तो फिर स्लाइड प्रोजेक्टर, टेपरिकॉर्डर, लाउडस्पीकर की सहायता ली जा सकती है। बिजली का काम मोटर बैटरी और सेल चार्जर से चल सकता है। इस प्रकार इतना सामान और बिस्तर आदि लेकर दो-तीन आदमी भी प्रचार पर निकल सकते हैं। एक रिक्शे से भी यह सारा काम चल सकता है। तीर्थ यात्रा से पापों का प्रायश्चित्य होता है और अलख जगाने का पुण्य मिलता है। युगान्तरीय चेतना को व्यापक बनाने की दृष्टि से तो यह नितान्त आवश्यक है। हमें हर क्षेत्र में विशेषतया प्रज्ञा पीठों, स्वाध्याय मण्डलों के क्षेत्रों में तो ऐसे सहयोगी तैयार करने ही चाहिए जो समय-समय पर तीर्थयात्रा प्रवास में जाते रहें।
जन सम्पर्क—जन सम्पर्क से जनसमर्थन—जनसमर्थन से जन सहयोग। इन्हीं तीन सीढ़ियों पर चढ़ते हुए हम संगठन और सुधार-परिष्कार की प्रक्रिया को पूर्ण कर सकते हैं। इसके लिए तीर्थ यात्रा जितनी आज उपयोगी है, उतनी इससे पहले कभी नहीं रही। राह चलने और कुशल क्षेम पूछने वालों से हम युग परिवर्तन और उसके लिए किये जाने वाले प्रयासों की चर्चा कर सकते हैं। तर्क और भावना के सम्मिश्रण से सच्चाई व्यक्त की जाय तो प्रभाव भी असाधारण हो सकता है।
तीर्थयात्रा में एक पक्ष सात्विक भोजन भी है। इसके लिए यह किया जाय कि सवेरे खिचड़ी-दलिया जैसा हल्का भोजन अपने हाथ से बना खाकर चला जाय। रात्रि को जहां विराम हो वहां साफ सफाई वाले घरों से एक-एक रोटी इकट्ठी करके उसे स्थानीय कार्यकर्ताओं समेत मिलजुल कर खाया जाय। इसमें प्रीति भोज का आनन्द आता है और रोटी का जो बन्धन जाति-पांति के साथ बंधा था, सो टूटता है। भविष्य में बड़े आयोजन बड़े सम्मेलन युग परिवर्तन के सम्बन्ध में होने हैं। उसके लिए भोजन व्यवस्था का यही तरीका सर्वसुलभ और सर्वोत्तम रह सकता है। यह भिक्षा प्रसंग नहीं वरन् आत्मीयता का स्तर है। भोजन उन घरों से न लिया जाय जहां मांस, अण्डा, शराब अथवा प्याज लहसुन आदि का सेवन होता हो।
चार साथी आवश्यक सामान लेकर चलें, रास्ते में आदर्श वाक्य लेखन, रात्रि का संगीत-प्रवचन चलावें। इस प्रकार यह साइकिलें एक से दूसरे क्षेत्र को स्थानान्तरित होती रह सकती हैं और अधिक वर्षा अधिक गर्मी के दिन छोड़ कर यह क्रम आठ महीने वर्ष में चल सकता है। आठ महीने अर्थात् 240 दिन। यदि एक यात्रा चक्र 10 दिन का माना जाय, तो चार साइकिलों का एक जत्था 24 स्थानों पर प्रवास चक्र पूरे कर सकता है। एक चक्र में 10 गांव रहें, तो 240 गांव हर वर्ष पूरे होते रह सकते हैं। देश को ग्राम प्रधान मानकर यह योजना बनी है। पर कस्बों और शहरों को सर्वथा छोड़ नहीं दिया जाना चाहिए। किसी बड़े नगर को 7 या 10 हिस्सों में बांटकर वही क्रम चलाया जा सकता है, जो गांवों में चलता है। शहरी तीर्थयात्रा में घर से सम्पर्क रखने की भी सुविधा बनी रह सकती है।
जिस प्रकार अनुपयुक्त का विनाश करने की महाकाल की योजना चल रही है, उसी प्रकार नव सृजन के प्रयास भी अग्रगामी हो रहे हैं। इस सचाई को प्रज्ञा अभियान की बढ़ी हुई प्रवृत्तियों को देख कर सहज ही जाना जा सकता है।
हीरक जयन्ती वर्ष बीत जाने पर महाकाल की योजनाएं पांच नये कार्यक्रम लेकर प्रकट हुई है जो बिना विलम्ब लगाये, बिना समय गंवाये कार्यान्वित करना भी आरम्भ कर दिया गया है। महा जागरण के पांच सूत्र इस प्रकार हैं—(1) एक लाख सृजन शिल्पियों का उभार तथा प्रशिक्षण (2) एक लाख घरों में जन्मदिवसोत्सव सहित सरल यज्ञ। (3) एक लाख गांवों में अशोक वाटिकाएं स्थापित करते हुए ग्राम तीर्थों की स्थापना। (4) एक लाख ग्राम मंडलों की तीर्थ-यात्रा। (5) एक लाख वर्ष का समयदान संग्रह।अजनबी के लिए यह एक-एक लाख के पांच संकल्प अतिकठिन या असंभव प्रतीत हो सकते हैं। पर जिन्हें मिशन के साथ जुड़ी हुई शक्ति की क्षमता का बोध है, वे जानते हैं कि अब तक एक से एक बढ़कर महान् कार्य सम्पन्न होते रहे हैं। ऐसी दशा में यह महा जागरण वाले 5 संकल्प भी कठिन न होने चाहिए। मिशन से सम्बन्धित 24 लाख व्यक्ति हैं। इनमें से एक लाख व्यक्ति अवश्य निकल सकते हैं, जो एक एक महीने का नये सिरे से प्रशिक्षण शान्ति कुञ्ज में प्राप्त करे और साथ ही कुछ घंटे नियमित रूप से समयदान का भी व्रत धारण करें। किन्हीं का पूरा, किन्हीं का अधूरा समयदान गिना जाय, तो इस सारे समयदान का औसत एक लाख वर्ष जितना हो जाता है। शान्ति कुञ्ज को अब युगशिल्पी विश्वविद्यालय स्तर का बना दिया गया है। नालन्दा, तक्षशिला विश्वविद्यालयों द्वारा एक लाख छात्र पढ़े थे जिनने देश विदेशों में नव चेतना का संचार किया था। शान्ति कुञ्ज में 500 छात्र हर महीने प्रशिक्षित करने की योजना बनी है और वह तब तक चलेगी, जब तक कि वह संख्या एक लाख पूरी नहीं हो जाती। शान्ति कुञ्ज का संचालन एवं दायित्व जिस महाकाल के संरक्षण में चल रहा है, वह अजर अमर है। हमारा सूक्ष्म शरीर भी सन् 2000 तक क्रमशः अधिक सशक्त होता जायेगा। इसलिए इस संकल्प के पूर्ण होने में किसी को कोई सन्देह नहीं करना चाहिए। एक लाख युग शिल्पी, एक लाख अशोक वाटिकाएं न चल सकें, एक लाख घरों में जन्मदिवसोत्सवों का प्रबन्ध न बन सके—ऐसी बात नहीं।
तीर्थ यात्रा आन्दोलन को नई गति देनी है। इसके लिए शान्ति कुंज ने एक लाख साइकिलों का उनके साथ रहने वाले उपकरणों का प्रबन्ध करने का निश्चय किया है। इस आधार पर जीप योजनाओं के आधार पर चलने वाले प्रज्ञा आयोजन कार्यक्रम अधिक विकेन्द्रित होंगे। अधिक व्यापक बनेंगे और सम्मिलित होने वालों के लिए सुविधाजनक रहेंगे। इस आधार पर जो प्रज्ञापीठ एवं प्रज्ञा संस्थान इन दिनों शिथिलता की स्थिति में हैं, वे सक्रिय हो जावेंगे और 24 लाख परिजनों के कार्यक्रम उत्तर भारत में सीमित आलोक वितरण करने की अपेक्षा देश के कोने-कोने में हर भाषायी क्षेत्रों में अपने आलोक से नव चेतना का संचार करते दिखाई देंगे। इस कार्यक्रम के साथ वे सभी योजनाएं गतिशील हो उठेंगी, जो उद्बोधनकर्ताओं, मार्गदर्शकों की कमी से जितनी चाहिए थी उतनी प्रखरता प्रकट न कर सकीं।
समयदान हर विचारशील से मांगा गया है। इसमें स्त्रियां और बच्चे भी शामिल हैं। वे पढ़ाने में नहीं, पढ़ने में अपना समय लगायें। अपने परिवारों में सुसंस्कारिता की प्रतिष्ठापना करें और सम्पर्क क्षेत्र में सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन का प्रयास करें। वृद्धजन, बच्चों और महिलाओं को पढ़ाने के कार्य में अपना समय व्यतीत कर सकते हैं। भारभूत जीवन में नया उल्लास भर सकते हैं। जो अत्यधिक व्यस्त हैं, वे अपने बदले किन्हीं दूसरे का समय खरीद कर उन्हें अपने बदले का काम करने में लगा सकते हैं। इस प्रकार मिल-जुलकर इस महा जागरण संकल्प को पूरा किया जा सकेगा। जिसे अपने युग का अद्भुत, अनुपम एवं असाधारण कहा जा सकता है; पर ध्यान रहे यह संकल्प किसी व्यक्ति विशेष का नहीं वरन् महाकाल का है। इसलिए उसमें जितनी शक्ति खर्च होगी, उससे अधिक मिलती भी रहेगी। व्यक्ति के मनोरथ असफल रह सकते हैं, पर दिव्य शक्ति की प्रेरणा एवं उत्कण्ठा अधूरी रहेगी—ऐसी आशंका कोई श्रद्धालु आत्मविज्ञानी कर नहीं सकता। प्रश्न इतना भर है कि जो लोग इन दिनों प्रज्ञा परिवार में हैं, वे श्रेय लाभ करते हैं या नहीं? अग्रगामी होने का श्रेय सौभाग्य उनके पल्ले आता है या नहीं? इसकी पूर्ति तो होनी ही है। इतना हो सकता है कि वर्तमान समुदाय के प्रमादी पछताते रहें और जिनका परिचय भी नहीं था, वे अग्रिम पंक्ति में खड़े होकर मोर्चा संभालें और वह प्राप्त करें जो विरले ही सौभाग्यवानों को प्राप्त होता है। राज तन्त्र की शक्ति से सभी परिचित हैं। उसके द्वारा कई भौतिक क्षेत्र के कार्य भी सम्पन्न होते हैं। व्यवस्था, सुरक्षा, सुविधा के लिए उसी की क्षमता काम करती है, किन्तु धर्म क्षेत्र अपने निखरे हुए रूप में मानवी चेतना और गरिमा को कितना समुन्नत बनाने में समर्थ है, इसे देखने का अवसर मुद्दतों से नहीं मिला। धर्म विडंबना चलती रहे पर उसकी यथार्थता कितनी समर्थ है—यह जानने का अवसर अभी बहुत दिनों से देखने को नहीं मिला। सतयुग की वापसी के इन पुनीत क्षणों में यह देखा जा सकेगा कि चेतनात्मक, भावनात्मक परिष्कार में संलग्न धर्मतन्त्र जनसाधारण के लिए कितना श्रेयस्कर, समर्थ और समृद्ध हो सकता है। इसका प्रत्यक्ष दर्शन करने का अवसर अगले ही दिनों मिलेगा। धर्मतन्त्र राजतन्त्र दोनों के समन्वय से मनुष्य की भौतिक और आत्मिक प्रगति में किस प्रकार समग्र, सर्वतोमुखी योगदान मिल सकता है—इसे प्रत्यक्ष देखा और अनुभव किया जायेगा।
महाकाल के आह्वान पर जिन लोगों ने ध्यान दिया और कान धरा है, उनके लिए लोक मंगल से सम्बन्धित सेवा कार्यों में संलग्न होना तो आवश्यक है ही। साथ ही यह भी आवश्यक है कि वह आत्म परिष्कार एवं उत्कर्ष के लिए भी कुछ करें। चिन्तन, चरित्र एवं व्यवहार में उत्कृष्ट आदर्शवादिता का समावेश करें। विवेक और श्रद्धा का उच्चस्तरीय सम्मिलन करें। इसके लिए आवश्यक है उनकी उपासना, साधना, आराधना का क्रम नियमित रूप से निरन्तर चलता रहे। शक्ति के स्रोत के साथ अपना सम्बन्ध सघन करें, जो प्रसुप्त है उसे प्रखर एवं प्रदीप्त करें। उसके लिए संयम साधना की तपश्चर्या आवश्यक है। इस हेतु दैनिक योगाभ्यास आवश्यक है। भले ही वह लम्बे समय का न हो, पर होना नियमित, अनुशासित एवं उच्चस्तरीय ही चाहिए।
इन निमित्त प्रतिदिन दो माला का गायत्री जप आवश्यक है। एक माला आत्म कल्याण के लिए, एक लोक कल्याण के लिए। प्रातः सोकर उठते ही नये जन्म की भावनाएं जागृत की जानी चाहिए। वह पुराना उपक्रम है। इन दिनों एक श्रेणी ऊंचा चढ़ा जा रहा है, एक मोर्चे को फतह करके अगले को संभाला जा रहा है। इसलिए यज्ञोपवीत के समय द्विजत्व का प्रथम चरण उठता है और वानप्रस्थ धारण में दूसरा। उसे भी द्वितीय जन्म कहते हैं। साधना सत्र में भी ऐसा ही होता है। त्रिपदा गायत्री के भी तीन चरण है, एक जप, दूसरा ध्यान, तीसरा तप। इन दिनों सभी वरिष्ठ प्रज्ञा पुत्रों को तप योग के तृतीय चरण को भूः भुवः के बाद स्वः स्तर की लय उपासना में लगाया जा सकता है। बड़े मोर्चे के लिए बड़े अस्त्रों की ही जरूरत पड़ती है। आत्मशोधन जप, ध्यान से भी हो जाता है। पर लोक मंगल की पेचीदा रणनीति अपनाते समय लय योग का आश्रय लेना पड़ता है।
‘‘अजपा गायत्री’’ लययोग का महामंत्र है। उसी को ‘सोऽहम्’ साधना भी कहते हैं। दूसरे शब्दों में यह प्रसुप्त शक्तियों का महाजागरण है। पंचकोषों का अनावरण, षट्चक्रों का जागरण, कुण्डलिनी उन्नयन आदि नामों और प्रयोगों से इसी लक्ष्य को तय किया जाता है। वरिष्ठ प्रज्ञा परिजनों को समय की महती अवगति से जूझने के लिए इसी महत् तत्व के साथ जोड़ा जा रहा है। उन्हें महाकाल के महान् भण्डागार से जोड़ा जा रहा है।
सामान्य दीक्षाएं गुरुमंत्र कहलाती हैं। उनमें शुद्ध उच्चारण और साधनात्मक मार्गदर्शन का ही क्रम बन पाता है। परन्तु लयदीक्षा में वैसा होता है जैसा कि आग-ईंधन के, नाले और नदी के सम्मिलित हो जाने पर होता है।
वेदान्त साधना में आत्म जागरण ही प्रमुख है। इसी को आत्मदर्शन या आत्म साक्षात्कार कहते हैं। यही महादेव के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें अजपा गायत्री का सोऽहम् बीजमन्त्र अपनाना पड़ता है और आत्मदर्शन का दर्पण में मुखाकृति देखते हुए किया जाता है। सोऽहम् का तात्पर्य है अपने आरम्भिक प्रयोग में परमात्मा को या परमात्मा में अपने को देखना। यही देखना ही अनुभव भूमिका में उतर कर साक्षात्कार रूप में प्रकट होता है। यही अद्वैत है। अपने को ईश्वरमय बना लेना, ईश्वर को अपनी जैसी आकृति का बना लेना है। यह कल्पना या धारणा नहीं है, वरन् गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से भी यह एकत्व स्थापित करना होता है। इसी स्थिति में वह महा प्रज्ञा निखरती है, जिसके साथ श्रद्धा विश्वास का गहरा पुट हो। अपने सम्बन्ध में हेय या हीन भाव न रहे। तथाकथित स्वजन संबंधियों के असहमत रहते हुए भी ऐसी राह अपना सकें जो दुनियादारों के तो पसन्द नहीं आती, हानिकारक प्रतीत होती है किन्तु प्राणवान अन्तःप्रेरणा के बलबूते वह कर गुजरता है, जो आदर्शों के अनुरूप तथा लोक कल्याण की दृष्टि से आवश्यक है।
विशिष्ट प्रज्ञा परिजनों को महाकाल के आह्वान एवं युगधर्म के अनुरूप चल सकने की अभिनव क्षमता प्राप्त करने के लिए ‘सोऽहम्’ साधना के रूप में आत्मसाक्षात्कार एवं ब्रह्म साक्षात्कार की ब्रह्म दीक्षा दी जा रही है। इसे यदि ठीक तरह साधा-संभाला जा सके, तो चिन्तन-चरित्र और व्यवहार के क्षेत्रों में व्यक्ति नर पशु न रहकर नर-नारायण बनता है। वह करना है कि जिसे महामानव ही कर पाते हैं। नर पामर तो उस स्थिति को कठिन या असाध्य ही कहते रहते हैं।
डम्बल मुगदर घुमाने से भुजाएं मजबूत होती हैं, यह ठीक है पर नाव चलाने से दुहरा लाभ है। डांड़ खेने से भुजाएं तो मजबूत होती ही हैं साथ ही दूसरे अनेकों को नदी की तेज धारा को पार कराने का यश पुण्य और धन भी मिलता है। समझदारी की दृष्टि से डम्बल-मुगदर घुमाने वाले की अपेक्षा नाव खेने का व्यवसाय करने वाले अधिक दूरदर्शी हैं। इसी प्रकार जप तप की साधनाएं करके अपने लिए ऋद्धि-सिद्धि कमाने वाले स्वार्थी माने जाते हैं। भले ही वे सन्त क्यों न कहलाएं। किन्तु सेवा योग में मल्लाह जैसी बुद्धिमानी है। वह आत्म कल्याण का लाभ तो उठाता ही है, साथ ही विश्व कल्याण का पुण्य परमार्थ उसे अनायास ही मिल जाता है। सेवा धर्म सरल भी है, मनोरंजक भी और अधिक आत्मशान्ति तथा दैवी अनुग्रह, लोक सम्मान प्रदान करने वाला भी। सन्तों को मात्र आत्मशोधन का लाभ ही मिलता है किन्तु सेवा भावी अन्य अनेकों का परिशोधन, मार्गदर्शन करके उन्हें यशस्वी समुन्नत एवं सद्गति का अधिकारी बनाते हैं। प्राचीन काल में आदमी में परिपूर्ण जीवनी शक्ति होने से वे शारीरिक और मानसिक कठिन श्रमों से भरी पूरी तपश्चर्याएं भी कर लेते थे। ब्रह्मचर्य इस दिशा में विशेष सहायक होता था। पर आज वैसी स्थिति नहीं रही। शरीर की दुर्बलता और मन की असन्तुलित स्थिति में इतना ही संभव है कि व्यक्ति इन्द्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम और विचार संयम अपनाये और उस पवित्रता को स्वल्प प्रयास से उपलब्ध करे जिसे प्राचीन काल के योगी कठिन कष्टसाध्य तपश्चर्याओं द्वारा प्राप्त करते थे। इसी प्रकार योग साधना में आत्मा और परमात्मा को जोड़ना पड़ता है। निराकार परमात्मा का साकार स्वरूप यह दृश्य संसार ही है जिसको समुन्नत, सुसंस्कारी बनाने का प्रयत्न योगाभ्यास की सैद्धान्तिक आवश्यकता को पूरी करता है। सेवा सहायता से यदा कदा विपत्ति ग्रस्तों का अपने पैरों खड़ा करने की सहायता भी आवश्यक होती है। पर वैसे प्रसंग सदा ही उपलब्ध न हों तो आमतौर से तो दान भावना का शोषण ही होता है। धूर्त कोई न कोई पाखण्ड रचकर मूर्खों को ठगते रहते हैं। इस प्रवंचना से बचते हुए उचित यही है कि सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन के क्रिया-कलापों में संलग्न रहा जाय। यह सच्चे अर्थों में समयानुरूप योगाभ्यास है।
कौन व्यक्ति क्या करे? इस संदर्भ में विशेष प्रतिभावानों को विशेष कार्य भी बताए जा सकते हैं। धनी, विद्वान, सत्ताधीश, प्रतिभावान व्यक्ति ऐसे काम हाथ में ले सकते हैं जो उपस्थित समस्याओं एवं योग्यताओं से संबंधित है। किन्तु साधारण व्यक्तियों के लिए तो सरल एवं सर्व सुलभ काम ही तलाश करने पड़ते हैं। ऐसे कार्यों में पिछले पृष्ठों पर उन क्रिया कलापों का उल्लेख किया गया है जिसे मध्यवर्ती लोग सामान्य उदारता एवं साहसिकता अपनाते हुए सहज सम्पन्न कर सकते हैं।
पिछले दिनों भी समय-समय पर प्रज्ञा परिजनों का मार्गदर्शन किया जाता रहा है। पर इन दिनों समय की विपन्नता देखते हुए अधिक जोर देकर कहा जा रहा है कि वे औसत नागरिक-जीवन-स्तर अपना कर निजी आवश्यकताएं घटाएं और समूचे श्रम साधनों की बचत को परमार्थ प्रयोजनों में लगाएं। दूसरे साथी नहीं मिले इसके चिन्ता न करें। अकेले ही चलते रहें संकल्पवान परमार्थ परायण सदा अकेले ही चलते रहे हैं। उनका आदर्श और मनोबल देखकर पीछे अनेक साथी भी मिलते रहे हैं। अभी भी उस परम्परा का पुनरावर्तन होता रहता है, होता रहेगा। अग्रगामियों का साहस सदा सराहा गया है। पीछे चलने वाले भी श्रम तो करते हैं पर श्रेय से वंचित रह जाते हैं।
इन दिनों तुरन्त करने योग्य कार्य यह है कि साधना में श्रद्धा विश्वास का अधिकाधिक समावेश करें, भले ही संख्या या समय घट चले आत्मदर्शन ही ईश्वर दर्शन है। सोऽहम् साधना इसमें विशेष सहायक होती है। उससे अद्वैतवाद प्राप्त होता है और अन्तराल की सोयी हुई विभूतियों को जागृत होने का अवसर मिलता है। शरीर के पंच तत्वों और चेतना के पांच प्राणों में समाहित उत्कृष्टता को समझा और कार्यान्वित किया जा सके तो व्यक्तित्व के परिष्कृत और प्रखर होने का लाभ अविलम्ब ही मिलता है। इसी को आत्मोत्कर्ष कहते हैं, यही सिद्धियों का मूल है।
ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ियों की आवश्यकता होती है। पानी की टंकी से गुजरने पर नल तब तक पानी फेंकते रहते हैं जब तक टंकी खाली नहीं हो जाती। बिजली के तार से जो वस्तु छूती है उसमें भी करेंट आ जाता है। प्रयत्न यह भी होना चाहिए कि अपने को किसी महाशक्ति या व्यक्ति के साथ जोड़ा और आदान-प्रदान का क्रम बनाया जाय।
उपासनात्मक उपचार पूरे करते रहने भर से काम नहीं चलता। खेत में खाद पानी भी लगाना चाहिए। इसका तात्पर्य है—जीवन में पुण्य और व्यवहार में परमार्थ की मात्रा का अधिकाधिक समावेश किया जाय। एकाकी योजनाएं एवं चेष्टाएं सीमित बनकर ही रह जाती हैं। डेढ़ चावल की खिचड़ी नहीं पकती, ढाई ईंट की मस्जिद नहीं बनती। तिनके-तिनके मिलकर ही रस्सी और धागे-धागे मिलकर ही कपड़ा बनता है। इसलिए अपनी सीमित शक्तियों को महा प्रयासों से सम्मिलित करके ही अपनी क्षमता को असंख्य गुनी बढ़ाना चाहिए। रीछ-वानर, ग्वाल-बाल इसी तथ्य को अपनाकर अभिनन्दनीय बने थे।
इन दिनों प्रज्ञा परिजनों के लिए महा जागरण की पंच सूत्री योजना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। उसमें आत्म कल्याण और विश्व कल्याण अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। व्यक्तित्व की सार्थकता इसी में है कि वह परमार्थ में काम आये। पंच सूत्री योजना कहने सुनने में सामान्य प्रतीत होती है पर जब उसके फलितार्थ सामने प्रस्तुत होंगे तो प्रतीत होगा कि छोटे से बीज में कितना विशाल वृक्ष छिपा हुआ था।
प्राचीन परम्पराओं में समयदान की साधु ब्राह्मण परम्परा इतनी उच्च कोटि की रही है कि उसे देव परम्परा ही कहा जाता रहा है। जो ‘‘दें’’ सो देव। आवश्यक नहीं कि धन ही दिया जाय। समय दान का महत्त्व उससे किसी भी प्रकार कम नहीं है। दान हमारे जीवन क्रम में नित्य कर्म की तरह जुड़ा रहना चाहिए। व्यस्तता और असमर्थता हो तो उन्हें चिन्ह पूजा के रूप में छोटे रूप में भी दिया जा सकता है। बीस पैसा नित्य और 1 घण्टा समय का अनुबन्ध इसीलिए रखा गया है कि जो इतना छोटा अनुदान, अंशदान भी प्रस्तुत न करता रहे तो समझना चाहिए कि उसकी श्रद्धा और सामर्थ्य शक्ति का दिवाला निकल गया। नित्य अभ्यास के बिना कोई शक्ति या कला परिपक्व नहीं हो सकती।
नेवला जब सांप से लड़ता है तब लौट-लौटकर विष नाशक बूटी खाता है और इसके बाद शत्रु पर नये उत्साह से झपटता है। इसी प्रकार शान्ति कुञ्ज के प्राण चेतना भण्डार से बार-बार अपना सम्पर्क साधना चाहिए और युग शिल्पी सत्रों में जो हर सत्र में नये नये विषय समावेश होते रहते हैं, उनमें सम्मिलित होकर असाधारण लाभ लेते रहना चाहिए। इस वर्ष तो महा जागरण सत्र प्रत्येक वरिष्ठ प्रज्ञा पुत्र के लिए अनिवार्य किए गए हैं, तो भी अपना आवेदन पत्र भेजकर स्वीकृति लेकर ही आना चाहिए। अब भोजन व्यय का कोई निर्धारित शुल्क शिविरार्थियों के लिए निश्चित नहीं है। भोजन भण्डार में जो स्वेच्छापूर्वक संभव हो दिया जा सकता है।
प्रज्ञा परिवार की सम्यक सदस्यता में अंशदान, समयदान की शर्त अनिवार्य इसलिए रखी गई है कि उस आधार पर झोला पुस्तकालय, घरेलू पुस्तकालय नियमित रूप से चलता रहे। परिजनों, पड़ोसियों तथा मित्र सम्बन्धियों को युग साहित्य पढ़ने को मिलता रहे हमारा विचार मंथन अखण्ड ज्योति का अमृत निरन्तर चखने को मिलता रहे। अपना एक ऐसा मित्र मण्डल बनता रहे जिनकी सज्जनता और सशक्तता निरन्तर बढ़ रही हो। ऐसे मित्र हर दृष्टि से हर किसी के लिए लाभकारी ही सिद्ध होते हैं। परिवार की सम्पत्ति छोड़कर मरने में एक अनुबन्ध यह भी होना चाहिए कि घर में युग साहित्य से भरी पूरी अलमारी भी रहे जिसे र्वशज और सम्बन्धी पढ़ते और उससे लाभ उठाते रहें।
जो भी विद्यार्थी यहां से प्रशिक्षण प्राप्त करके जाय, उनके लिए यह अनिवार्य शर्त है कि वे अपने-अपने क्षेत्रों में प्रज्ञा विद्यालय चलाएं। इन विद्यालयों में नियमित रूप से गायन-वादन का सुगम संगीत का, भाषण-सम्भाषण का, बौद्धिक ज्ञान संवर्धन का एवं प्रचार कार्य हेतु जानकारियों का, शिक्षण विद्यालयों का समावेश हो। साइकिल रिपेयर, स्लाइड प्रोजेक्टर-टेपरिकॉर्डर-एंप्लिफायर चलाने, मरम्मत करने, बैटरी चार्ज करने वी.सी.पी. व टेलीविजन चलाने तथा साज संभाल रखने, सुलेख, नर्सरी लगाने व वृक्षों की देख-रेख तथा बालसंस्कार शालाओं, प्रौढ़ पाठशालाओं को चलाने का काम, यहां का अनुभव वे स्थानीय शिक्षण में अन्य विद्यार्थियों को दें। जड़ी-बूटी उपचार, प्राथमिक सहायता, नर्सिंग, पौरोहित्य इत्यादि अभ्यास जो वे यहां सीखेंगे, उन्हें वहां अध्यापक के रूप में सिखायेंगे। ‘‘महा जागरण सत्र’’ के रूप में घोषित इस वर्ष के ये युगशिल्पी सत्र कई अर्थों में विशिष्ट हैं। उपरोक्त शिक्षण की विद्याओं के बहुमुखी स्वरूप से इनकी महत्ता को समझा जा सकता है।
इन दिनों विषम पर्व बेला है। इसमें अधिक समयदान देकर वह श्रेय लेना चाहिए जो फिर कभी भविष्य में न मिलेगा। महाकाल का संकल्प कभी भी अधूरा नहीं रहा, उसमें सम्मिलित होने के लाभ से हम ही अपनी कृपणता और कायरता के कारण आगा पीछा सोचते, बंगले झांकते रह जाते हैं। कुसमय का व्यामोह हमारे गौरव और भविष्य को गिराता है, उठाता नहीं। अग्रगामी साहसी हर दृष्टि से लाभ में ही रहते हैं।
लक्ष-लक्ष की पांच योजनाएं अपनाने पर अदृश्य जगत का परिशोधन, समाज की विपत्तियों का निवारण और व्यक्तित्व वर्चस्व का उन्नयन यह तीनों ही लाभ उसमें समाहित हैं। कर्त्तव्यों में कदाचित ही ऐसे त्रिविधि सम्मिश्रणों के सुयोग आते हैं। भाग्यशाली उनकी उपेक्षा नहीं करते वरन् सर्वतोमुखी हित साधन का ध्यान रखते हुए दूरदर्शी दुस्साहसियों की तरह उसे प्रसन्नतापूर्वक अपनाते और सूझ-बूझ पर गर्व, सन्तोष करते हैं।
इन दिनों वातावरण का रौद्ररूप देखते ही बनता है। दुर्घटनाओं, विग्रहों और विनाश प्रकरण की धूम मची हुई है। आतंकभरी आशंकाएं निरन्तर सिर पर गहराती रहती हैं। प्रकृति प्रकोप अपनी विभीषिकाओं का दौर निरन्तर चला रहा है। इनका शमन समाधान करने के लिए प्रस्तुत पांच सूत्री महाजागरण योजना को अदृश्य वातावरण के संशोधन का एक अमोघ उपाय समझना चाहिए। एक लाख वेदियों का अग्निहोत्र, जिसमें चौबीस करोड़ आहुतियां हों, अपने ढंग का अनोखा अध्यात्म उपचार है। एक लाख व्यक्तियों की गायत्री उपासना और सोऽहम् साधना से अध्यात्म जगत् में एक सृजनात्मक हलचल मचनी चाहिए।
वह दिन दूर नहीं, जब प्रकृति प्रकोप और मानवी विग्रह निरन्तर अधिकाधिक ही बढ़ते चलेंगे। रक्तपात और अनर्थों के दृश्य आये दिन आंखों से देखने और कानों से सुनने पड़ेंगे। उन विपत्ति विभीषिकाओं से लड़ने, गुंथने, तोड़ने-मरोड़ने, निपटने सुधारने और उन्हें निरस्त करने के लिए हमने अपने को पृथक रखा है और सोचा यह है कि इस महाविनाश के विकट संग्राम में अपने को प्रदीप्त आहुति की तरह होमने की आवश्यकता पड़े तो उसके लिए तैयार रहा जाय। एक के जाने से यदि कई करोड़ बचते हैं तो उसे घाटे का सौदा नहीं कहा जा सकता है। इस शक्ति सामर्थ्य के अर्जन हेतु ही हमारी वर्तमान एकान्त साधना चल रही है। ऐसी दशा में आवश्यक है कि महाकाल के एक-एक लक्ष घटकों वाले पंचसूत्री महाअभियान की पूर्ति वरिष्ठ प्रज्ञा परिजन करें। महाजागरण की संकल्प पूर्ति में अपना दायित्व निबाहें और महाकाल की आपत्तिकालीन चुनौती स्वीकार करें।
तीर्थ यात्रा की परम्परा का युग के अनुरूप पुनर्जीवन समाज का कायाकल्प करेगा। जन्म दिनों और तीर्थयात्राओं में सम्पन्न होते रहने वाली ज्ञान गोष्ठियां करोड़ों को व्यक्तिगत प्रेरणा देंगी और औचित्य अपनाने के लिए विवश करेगी। हर गांव को अशोक वाटिका तीर्थ बनाने से वृक्ष भगवान के खुले एक लाख मन्दिर बनेंगे, जो प्राकृतिक जीवन की प्रेरणा भी देंगे और बिना साधनों तथा परम्पराओं का आश्रय लिए हर गांव को वह गौरव प्रदान करेंगे कि वह भी एक तीर्थ है और उस परिधि में तीर्थों जैसी सत्प्रवृत्तियां ही चलनी चाहिए। बूंद-बूंद से घड़ा भरता है। लोगों का थोड़ा-थोड़ा श्रम तथा समयदान भी एकत्रित होने पर एक लाख वर्ष हो जाता है और नव निर्माण के लिए इतने समय का किया हुआ श्रम चमत्कार दिखाये बिना नहीं रह सकता। एक समय में, एक केन्द्र से, एक लाख सहायकों द्वारा सम्पन्न हुआ इतना बड़ा कार्यक्रम आज तक कभी संपन्न नहीं हुआ। जैसी अनुपम यह योजना है, वैसी ही अद्भुत इसकी परिणति भी होगी। इसका आलोक जहां-जहां फैलेगा वहां-वहां कायाकल्प जैसा प्रतिफल भी दृष्टिगोचर होगा। समय के परिवर्तन में—समाज में नवजीवन जैसी दिशाधारा प्रदान करने में यह योजना सुनिश्चित रूप से सफल होकर रहेगी, इसका सुनिश्चित विश्वास किया जा सकता है।
इस भागीरथ प्रयासों में संलग्न होने का, आरम्भ करके अन्त तक पहुंचने का जिनमें साहस जगेगा, वे ओजस्वी और मनस्वी बनेंगे। अपने पद चिह्नों पर असंख्यों अनुगामियों को चलता देखेंगे और अनुभव करेंगे कि उन्हें किसी महान् सेनापति जैसा कौशल प्रदर्शित करने का अवसर मिल रहा है। महान् पुरुषों को ऐसे ही प्रयासों को आगे बढ़कर अपनाना पड़ा है और वे उसी आधार पर न केवल स्वयं महान् बने हैं, वरन् अपने प्रभाव क्षेत्र में महानता का वातावरण विनिर्मित करने में समर्थ हुए हैं।
एक शब्द में इस समूचे प्रयास की संयुक्त परिणति को सतयुग की वापसी कह सकते हैं। योजना के किसी भी पक्ष से जिसे संबंधित होने का अवसर मिलेगा, वे अनुभव करेंगे कि उनके व्यक्तित्व में—गुण, कर्म, स्वभाव में देवोपम परिवर्तन हो रहा है और वे सामान्य परिस्थितियों में रहते हुए योगी, तपस्वियों जैसी विभूतियों से लाभान्वित हो रहे हैं, तुच्छ से महान बन रहे हैं कामनाओं के भव-बन्धनों से छूट कर वे भावनाओं के स्वर्गलोक में विचरण कर रहे हैं।
जिन सद्गुणों को—सत्प्रवृत्तियों को मानवी कल्याण और उत्थान के लिए आवश्यक माना गया है, उन सब का समावेश इसमें है। आरम्भ से पूर्व तद् विषयक सभी उतार-चढ़ावों का, समाधानों और प्रयोगों का प्रशिक्षण एक महीने के सत्र में दिया जा रहा है। इसे द्वार पर लटके हुए ताले की चाबी समझना चाहिए। जो इसमें सम्मिलित होंगे वे दो प्रतिभाओं को भी इस सत्र में सम्मिलित करने की प्रतिज्ञा लेकर वापस लौटेंगे। इसे ही इस प्रशिक्षण की गुरु दक्षिणा मानें। एक महीने जैसे स्वल्पकाल में जितने महत्वपूर्ण विषय सीखने को मिलते हैं, उन्हें शिक्षार्थी जीवन भर स्मरण करता रहेगा।