Wednesday 20, November 2024
कृष्ण पक्ष पंचमी, मार्गशीर्ष 2024
पंचांग 20/11/2024 • November 20, 2024
मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष पंचमी, पिंगल संवत्सर विक्रम संवत 2081, शक संवत 1946 (क्रोधी संवत्सर), कार्तिक | पंचमी तिथि 04:49 PM तक उपरांत षष्ठी | नक्षत्र पुनर्वसु 02:50 PM तक उपरांत पुष्य | शुभ योग 01:08 PM तक, उसके बाद शुक्ल योग | करण तैतिल 04:50 PM तक, बाद गर 04:50 AM तक, बाद वणिज |
नवम्बर 20 बुधवार को राहु 12:03 PM से 01:20 PM तक है | 08:47 AM तक चन्द्रमा मिथुन उपरांत कर्क राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 6:51 AM सूर्यास्त 5:14 PM चन्द्रोदय 9:34 PM चन्द्रास्त 11:58 AM अयन दक्षिणायन द्रिक ऋतु हेमंत
- विक्रम संवत - 2081, पिंगल
- शक सम्वत - 1946, क्रोधी
- पूर्णिमांत - मार्गशीर्ष
- अमांत - कार्तिक
तिथि
- कृष्ण पक्ष पंचमी - Nov 19 05:28 PM – Nov 20 04:49 PM
- कृष्ण पक्ष षष्ठी - Nov 20 04:49 PM – Nov 21 05:03 PM
नक्षत्र
- पुनर्वसु - Nov 19 02:56 PM – Nov 20 02:50 PM
- पुष्य - Nov 20 02:50 PM – Nov 21 03:35 PM
अकाल से जूझने वाली कन्या सुप्रिया |
महात्मा बुद्ध के व्यवहारिक उपदेश |
गुरु संरक्षण में किया गंगा स्नान |
संसार में कैसे रहें |
आप यह अच्छी तरह समझ रक्खें कि किसी धर्म-पुस्तक का पाठ करने अथवा उसमें लिखी हुई धर्म विधियों की कवायद करने से ही कोई धार्मिक नहीं हो सकता। किसी धर्म या धर्म-पुस्तक पर विश्वास करने से ही यह ‘जन्म सार्थक नहीं होगा’ उसमें बताये हुए मार्गों का अनुभव करना चाहिये। ‘जिनका अन्तःकरण पवित्र है, वे धन्य हैं, वे ईश्वर को देख सकेंगे ।’ यह बाइबिल का कथन अक्षरशः सत्य है। परमेश्वर का साक्षात्कार करना ही मुक्ति है।
कुछ मन्त्र रट लेने या मन्दिरों में शब्दाडम्बर करने से मुक्ति नहीं मिलती,परमात्मा की प्राप्ति के लिए बाह्य साधन कुछ काम नहीं आते, उसके लिये आन्तरिक सामग्री की जरूरत है। इससे कोई यह न समझलें कि बाहरी साधनों का मैं विरोधी हूँ। आरम्भ में उनकी आवश्यकता होती ही है पर साधक जैसा-जैसा उन्नत होता है, वैसी-वैसी उसकी उस ओर से प्रवृत्ति कम हो चलती है, आप यह निश्चय समझें कि किसी पुस्तक ने ईश्वर को उत्पन्न नहीं किया किन्तु ईश्वर की प्रेरणा से धर्म पुस्तकों की रचना हुई है।
यही बात जीवात्मा और परमात्मा का ऐक्य कर देने का है। यही विश्वधर्म है। कल्पना और मार्ग भिन्न 2 होने पर भी सबका केन्द्र एक ही है। सब धर्मों का मूल्य क्या है? ऐसा यदि कोई मुझ से प्रश्न करे तो मैं उसे यही उत्तर दूँगा कि ‘आत्मा की परमात्मा से एकता कर देना ही सब धर्मों का मूल है। सच्ची दृष्टि से छाया के समान देख पड़ने वाले और इंद्रियों से अनुभव होने वाले इस जगत में जिस दिन परमात्मा का अनुभव कर लेंगे उसी दिन हम कृतकार्य होंगे तब हमको इस बात के विचार करने की आवश्यकता न होगी कि हमें यह दसा किस मार्ग से प्राप्त हुई है। आप चाहे किसी मत को स्वीकार करें, या न करें किसी मत या पन्थ के कहावें या न कहावें परमेश्वर का अस्तित्व अपने आप में अनुभव करने से ही आपका काम बन जायगा।
कोई मनुष्य संसार के सब धर्मों पर विश्वास करता होगा, संसार के सब धर्म ग्रन्थ उसे कंठस्थ होंगे, संसार के सब तीर्थों में उसने स्नान किया होगा। तो भी यह सम्भव नहीं है कि परमात्मा की स्पष्ट कल्पना भी उसके हृदय में हो ! इसके विपरीत सारे जीवन में जिसने एक भी मन्दिर या धर्मग्रन्थ नहीं देखा और न उसमें लिखी कोई विधि ही की होगी, ऐसा पुरुष परमात्मा का अनुभव अन्तःकरण में करता हुआ देख पड़ना सम्भव है।
स्वामी विवेकानन्द जी
अखण्ड ज्योति जनवरी 1941 पृष्ठ 9
गुरुदेव दया करके मुझको अपना लेना |
भगवान पर अटूट विश्वास |
गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन
आज का सद्चिंतन (बोर्ड)
आज का सद्वाक्य
नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन
!! आज के दिव्य दर्शन 20 November 2024 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!
!! परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी का अमृत सन्देश !!
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
पहले जब पृथ्वी पर जीवन आया तब इच्छाशक्ति हमें चाहिए चाहिए की वजह से प्रत्येक प्राणी ने अपने शरीर का विकास किया बुद्धि का विकास किया प्राप्तों को इकट्ठा किया और चाहिए की वजह से यह सृष्टि विकसित होती हुई चली जा रही है और अब हम बंदर से चिंपैंजी से डार्विन के कहने के मुताबिक, हम यह हो गए जो मनुष्य हैं चलिए हम डार्विन कहना नहीं मानते विकासवाद का कहना मानते हैं और 84 लाख योनियों में घूमते हुए यहां आ गए चलिए बात एक ही हो गई। डार्विन की बात गलत है तो हमारे ऋषियों की बात भी गलत हम 84 लाख योनियों में हो करकेे आए हैं। पहले भगवान के 24 अवतार। पहले थी मछली फिर हो गया कछुआ फिर हो गया सुअर फिर हो गया बामन। इसमें सब चले आए। ये बेटे इच्छा का चमत्कार है अगर पारस दुनिया में रहा होता तो वह सब जो कोई भी प्राणी जिस स्थिति में रहे होते उसी स्थिति में रह जाते। कोई काम नहीं करता। काम नहीं करता काम ना करने का परिणाम क्या होता है काम ना करने से हमारी बुद्धि का जो विकास हुआ है सब बंद हो जाता है और इस दुनिया में से विकासक्रम खत्म हो जाता केवल मनुष्य मनुष्य जिंदा रह जाता पर मनुष्य बेकार हो जाते। फिर आदमी का पुरुषार्थ खत्म हो जाता।
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड-ज्योति से
गुरुदेव! मुझे पता नहीं तुम कहाँ आए? क्या करते हो? मेरे मन में तो आज विरह-व्यथा के बादल घुमड़ रहे हैं। प्रेमी होंगे हो तुम्हें पता होगा, विरह की वेदना में कितनी छटपटाहट है। प्राणाधार! तुम कहाँ हो तुम्हें पुकार कर मेरा मन अधीर हो चला। संसार से विरक्ति कर ली, अब मेरा कौन रहा? तुम भी छोड़ दोगे? तुम्हारे भक्त की, तुम्हारे प्रेमी की कैसी दशा है? क्या तुम भी उसे देखने नहीं आयेंगे? क्या यों ही मन भटकता रहेगा और तुम दर्शन नहीं दोगे?”
विरह की पीड़ा घनी-घनी और घनी होती जा रही है। मुझे अपनी परम ज्योति का साक्षात्कार करा कर संतोष दो गुरुवर! कब से आंखें तुम्हारी ओर निर्निमेष देख रही हैं। तुम कहोगे मैं पागल हो गया हूँ। देवेश! कैसे बताऊँ मेरी मनोदशा तुम्हें न पाकर कैसी हो गई है।”
“धैर्य टूट रहा है, इधर उधर दौड़ रहा हूँ, व्याकुल होकर भुजा पसारे तुम्हें पा जाने के लिए बेचैन भटक रहा हूँ। हृदय रोने लगता है। विरह अग्नि से सारा शरीर झुलसा जा रहा है। कैसे निष्ठुर हो तुम। अपने समीप नहीं रखना था तो जीवन क्यों दिया था? जीवन दिया तो भक्ति क्यों दी? भक्ति दे दी तो प्रेम विहीन ही रखते। पर अब जब यह कसक जाग गई है तो तुम्हें पाये बिना जीवित कहाँ रह सकता हूँ? तुम कहो तुम कहाँ हो? आते क्यों नहीं? दिखाई क्यों नहीं देते? जीवन की नाव में विरह का जल भर चुका है। नाव तली में बैठने को है, लगता है अब भी बचाने नहीं आओगे, तो संसार मेरे विश्वास को झूठा नहीं कहेगा? मेरी तपश्चर्या को विक्षिप्त का प्रलाप नहीं कहेगा क्या? क्या तुम यह सब सुनकर भी नहीं आओगे?”
“साँसें गहरी हो गई हैं, गर्म हो गई हैं। शरीर मूर्छित पड़ा है। रात में नींद नहीं आई। मन तुम्हारे लिए दौड़ता रहा। नक्षत्रों के बीच एक क्षण टिक कर तुम्हारे सौंदर्य का रसपान करने के लिए बिलखता रहा। तुम्हारी ज्योति कभी पूर्व में दिखाई दी, कभी पश्चिम में। इतना भटकाते हो, कभी दक्षिण में होते हो और जब तक आत्मा वहाँ पहुँचे तुम उत्तर की ओर क्यों चले जाते हो। क्या यह छलना ही तुम्हारी नीति है? क्या विरहाग्नि में मुझे जलाकर ही तुम्हें सुख मिलेगा?”
“तुम्हें तो करुणा-सागर कहते हैं, पर तुम बड़े निष्ठुर हो। तुम दीन-बन्धु हो पर तुम्हें मेरी दीनता पर दया कहाँ आई? कहते हैं तुम इतने स्नेह कातर हो कि प्रेम से भरी एक ही आवाज पर दौड़े चले आते ही पर अपना मन सारे ब्रह्मांड में भटक गया पर तुम कहीं भी तो नहीं दिखाई दिए। दयानिधि! तुम्हें मेरी पीड़ा का पता होता तो यों ही प्रकृति की ओट में न छुपे रहते। तुम ऐश्वर्यवान हो, प्रभुता संपन्न हो, सारे संसार में तुम्हारा ही वैभव है, तुम भला क्यों मेरे पास आने लगे? यों ही भटकाना था तो प्रेम का प्रकाश अन्तःकरण में जगाया ही क्यों?”
थके-थके शरीर में भी आत्मा को चैन नहीं मिलता। फिर एक प्रकाश आता है बुद्धि में ओतप्रोत हो जाता है। मस्तिष्क में फिर कोई कहने लगता है “आराध्य! मुझसे दूर नहीं हो। मन में तुम्हीं तो बसे हो, आंखों में तुम्हारी ही तो छवि विद्यमान है। मेरी पहुँच के बाहर थोड़े ही हो। अभी हाथ बढ़ा दूँ तो तुम्हें पकड़ लूँ। बहुत समीप हो तुम। कहीं ऐसा तो नहीं, फिर छल करने आये हो। अब पूरी तरह विश्वास कर लूँगा कि अब नहीं जाओगे, तभी हाथ बढ़ाऊंगा। तुम्हें मरे प्रेम की प्यास है तो फिर तुम मुझसे दूर क्यों हो जाते हो? अच्छा अब मैं हाथ बढ़ता हूँ तुम ओझल नहीं हो रहे हो पर पास भी तो नहीं आते। चमक उठते हो तुम जब मैं तुम्हें ढूंढ़ता हूँ, पर जब तुम्हीं में आत्म सात हो जाने के लिए दो पग आगे बढ़ता हूँ तो मैं ही मैं अकेला रह जाता हूँ तुम कहाँ चले जाते हो? कैसी विलक्षण कहानी है, कुछ कहते नहीं बनता गूँगे के गुड़ की सी मधुरिमा मेरे अंग प्रत्यंग में भर देते हो। इतना विश्वास दिलाते हो जितना संसार के करोड़ों जन मिलकर भी नहीं दिला सकते, पर इतने अविश्वासी हो कि एक ही क्षण में दूर भाग जाते हो। प्रभु! प्रेम की पीड़ा इतनी न बढ़े कि आग बन जाए और उसमें तुम्हारे भक्त का अस्तित्व ही समाप्त हो जाए।”
समाप्त होना ही है तो हो जाए। कब तक यह दर्द सहूँ? तुम्हारे सान्निध्य की ललक है। चाह से मन भर गया है। तुम्हें पाने के लिए जो कुछ था सब छोड़ दिया, अब जो है वह तुम्हारा ही तो है। तुम्हारा तुममें ही समाप्त होता है तो हो जाने दूँगा। अब यह नहीं भूलूँगा कि मुझे अपना अहंभाव भी तुम्हीं में समर्पित कर देना है। अपने अस्तित्व को अब मिलन के रास्ते में बाधा न बनने दूँगा। पैरों में चाहे कितने काँटे और कंकड़ चुभें पर मुसकराता हुआ चलूँगा, जब तक तुम्हें स्वयं समा न जाऊँ, कितनी ही पीड़ा हो, कितनी ही छटपटाहट हो, हूक और ललक उठे मेरे पाँव रुकेंगें नहीं। दीवानगी का अंत तो अब तुममें समाकर ही होगा।”
अखण्ड ज्योति, जुलाई 1983
Newer Post | Home | Older Post |