Thursday 21, November 2024
कृष्ण पक्ष षष्ठी, मार्गशीर्ष 2024
पंचांग 21/11/2024 • November 21, 2024
मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष षष्ठी, पिंगल संवत्सर विक्रम संवत 2081, शक संवत 1946 (क्रोधी संवत्सर), कार्तिक | षष्ठी तिथि 05:03 PM तक उपरांत सप्तमी | नक्षत्र पुष्य 03:35 PM तक उपरांत आश्लेषा | शुक्ल योग 12:01 PM तक, उसके बाद ब्रह्म योग | करण वणिज 05:03 PM तक, बाद विष्टि 05:29 AM तक, बाद बव |
नवम्बर 21 गुरुवार को राहु 01:21 PM से 02:38 PM तक है | चन्द्रमा कर्क राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 6:51 AM सूर्यास्त 5:14 PM चन्द्रोदय 10:36 PM चन्द्रास्त 12:33 PM अयन दक्षिणायन द्रिक ऋतु हेमंत
- विक्रम संवत - 2081, पिंगल
- शक सम्वत - 1946, क्रोधी
- पूर्णिमांत - मार्गशीर्ष
- अमांत - कार्तिक
तिथि
- कृष्ण पक्ष षष्ठी - Nov 20 04:49 PM – Nov 21 05:03 PM
- कृष्ण पक्ष सप्तमी - Nov 21 05:03 PM – Nov 22 06:08 PM
नक्षत्र
- पुष्य - Nov 20 02:50 PM – Nov 21 03:35 PM
- आश्लेषा - Nov 21 03:35 PM – Nov 22 05:10 PM
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यज्ञ एक संस्कृति, जीवन जीने की कला |
Book: 05, EP: 09, आपत्ति निवारण के कुछ स्वर्णिम सूत्र |
योग साधना की तीन धाराएँ |
सिक्ख संप्रदाय के दसवें गुरु गोविंदसिंह एक महान् योद्धा होने के साथ बड़े बुद्धिमान् व्यक्ति थे। धर्म के प्रति उनकी निष्ठा बडी गहरी थी। वह धर्म के लिए ही जिए और धर्म के लिए ही मरे। धर्म के प्रति अडिग आस्थावान् होते हुए भी वे अंधविश्वासी जरा भी न थे और न अंधविश्वासियों को पसंद करते थे।
गुरु गोविंदसिंह का संगठन और शक्ति बढा़ने की चिता में रहते थे। उनकी इस चिंता से एक पंडित ने लाभ उठाने की सोची। वह गुरु गोविंदसिंह के पास आया और बोला-यदि आप सिक्खो की शक्ति बढाना चाहते हैं, तो दुर्गा देवी का यज्ञ कराइए। यज्ञ की अग्नि से देवी प्रकट होगी और वह सिक्खों को शक्ति का वरदान दे देगी। गुरु गोविंदसिंह यज्ञ करने को तैयार हो गये। उस पंडित ने यज्ञ कराना शुरू किया।
कई दिन तक यज्ञ होते रहने पर भी जब देवी प्रकट नही हुइ तो उन्होंने पंडित से कहा-" महाराज! देवी अभी तक प्रकट नहीं हुई।'' धूर्त पंडित ने कहा-देवी अभी प्रसन्न नहीं हुई है। वह प्रसन्नता के लिये बलिदान चाहती है। यदि आप किसी पुरुष का वलिदान दे सकें तो वह प्रसन्न होकर दर्शन दे देगी और बलिदानी व्यक्ति को स्वर्ग की प्राप्ति होगी।
देवी की प्रसन्नता के लिए नर बलि की बात सुनकर गुरु गोविंदसिंह उस पंडित की धूर्तता समझ गए। उन्होंने उस पडित को पकडकर कहा- 'बलि के लिए आपसे अच्छा आदमी कहाँ मिलेगा। आपका बलिदान पाकर देवी तो प्रसन्न हो ही जायेगी, आपको भी स्वर्ग मिल जायेगा। इस प्रकार हम दोनों का काम बन जाएगा। गुरु गोविंदसिंह का व्यवहार देखकर पंडित घबरा गया, गुरु गोविंदसिंह ने बलिदान दूसरे दिन के लिए स्थगित करके पंडित को एक रावटी में रख दिया।
पंडित घबराकर गुरु गोबिंदसिंह के पैरों पर गिर पड़ा और गिडगिडाने लगा-'मुझे नहीं मालूम था कि बलिदान की बात मेरे सिर पर ही आ पडेगी, गुरु जी, मुझे छोड़ दीजिए। मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ। गुरु गोविंदसिंह ने कहा क्यों घबराते हो ? बलिदान से तो स्वर्ग मिलेगा, क्यों पंडित जी, बलिदान की बातें तभी तक अच्छी लगती हैं न जब तक वह दूसरों के लिए होती हैं? अपने सिर आते ही असलियत खुल गई न।''
पंडित बोला- इस बार क्षमा कर दीजिए महाराज। अब कभी ऐसी बातें नहीं करूँगा।'' गुरु गोविंदसिंह ने उसे छोड़ दिया और समझाया-इस प्रकार का अंध-विश्वास समाज में फैलाना ठीक नही। देवी अपने नाम पर किसी के प्राण लेकर प्रसन्न नहीं होती। वह प्रसन्न होती है अपने नाम पर किए गए अच्छे कामो से। '' बाद में गुरु गोविंदसिंह ने उसे रास्ते का खर्च देकर भगा दिया। गोविदसिंह ने सिक्खों को समझाया। किसी देवी-देवता के नाम पर जीव हत्या करने से न तो पुण्य है और न शक्ति। धर्म के नाम पर किसी जीव का प्राण लेना घोर पाप है। शक्ति बढती आपस में प्रेम रखने से, धर्म का पालन करने से। शक्ति बढ़ती है-ईश्वर की उपासना करने से और उसके लिए त्याग-करने से। शक्ति बढ़ती है-अन्याय और अत्याचार का विरोध और निर्बल तथा असहायों की सहायता करने से। सभी लोग एक मति और एक गति होकर संगठित हो जाएँ और धर्म रक्षा में रणभूमि में अपने प्राणो की बलि दें। देवी इसी सार्थक बलिदान से प्रसन्न होगी और आज के इसी मार्ग से मुक्ति मिलेगी। अंध-विश्वास के आधार पर अपनी जान देने अथवा किसी दूसरे जीव की जान लेने से न तो देवी-देवता प्रसन्न होते हैं और न सद्गति मिलती है।
गुरु गोविंदसिंह के इन सार वचनों को सभी सिक्खों ने हृदयगम किया। उस पर आचरण किया और अपने जीवन का कण-कण देश धर्म की रक्षा में लगाकर ऐतिहासिक यश प्राप्त किया।
~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 151, 152
आप के दाम्पत्य जीवन में प्रेम की धारा कैसे बहे?
विश्वास की परीक्षा संकट में होती है |
गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन
आज का सद्चिंतन (बोर्ड)
आज का सद्वाक्य
नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन
!! परम पूज्य गुरुदेव का कक्ष 21 November 2024 गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!
!! आज के दिव्य दर्शन 21 November 2024 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!
!! अखण्ड दीपक Akhand Deepak (1926 से प्रज्ज्वलित) एवं चरण पादुका गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार 21 November 2024 !!
!! परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी का अमृत सन्देश !!
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
हमारी कामनायें अगर परिष्कृत हो जाएं तो फिर हमारी परिष्कृत कामनायें अपने आप से ही पूर्ण हो जाती हैं। हमारी इच्छा और हमारे संकल्प अच्छे काम करने के पूरे हो गए तो क्या न हो गए तो क्या कामनाएं परिष्कृत हो जाती हैं इसलिए गायत्री मंत्र की महत्ता कल्पवृक्ष से तुलना में की गई है इससे आदमी आप्तकाम हो जाता है। क्या होता है? आप्तकाम होते हैं तो क्या मतलब? कामनाएं पूरी रहती हैं। हर समय पूरी कामनाएं रहती हैं क्यों क्योंकि उसकी कामनाएं निकृष्ट होती हैं। स्वार्थोंं से भरी हुई, तृष्णाओं से भरी हुई, वासनाओं से भरी हुई नहीं होती। उनका सिद्धांतों से भरी होती हैं इसलिए सफलता राई भर मिल जाए तो क्या और पहाड़ भर मिल जाए तो क्या?अच्छा हम काम करते हैं। दो कदम चल दिए तो क्या और 21 कदम चल लिए तो क्या?तो हमेशा प्रसन्नता बनी रहती है। इसका गायत्री मंत्र का नाम कल्पवृक्ष है गायत्री मंत्र का नाम है अमृत। अमृत किसे कहते हैं? अमृत उसे कहते हैं जिसको पीकर के आदमी मरता नहीं है तो साहब ऐसा दुनिया में अमृत होगा। अगर बेटे दुनिया में अमृत रहा होता तो दुनिया में अब तक खड़े होने को जगह नहीं बचती।
अखण्ड-ज्योति से
जीवन का अर्थ है- सक्रियता, उल्लास, प्रफुल्लता। निराशा का परिणाम होता है- निष्क्रियता, हताशा, भय उद्विग्नता और अशान्ति। जीवन है प्रवाह जबकि निराशा है सड़न। जीवन पुष्प आशा की उष्ण किरणों के स्पर्श से खिलता है, निराशा का तुषार उसे कुम्हलाने को बाध्य करता है। निराशा एक भ्राँति के अतिरिक्त और कुछ नहीं।
आज तक ऐसा कोई व्यक्ति पैदा नहीं हुआ, जिसके जीवन में विपत्तियाँ और विफलतायें न आयी हों। संसार चक्र किसी एक व्यक्ति की इच्छा के संकेतों पर गतिशील नहीं है। वह अपनी चाल चलता है। इसके अलग-अलग धागों के बीच व्यक्तियों का अपना एक निजी संसार होता है। चक्र की गति के साथ आरोह-अवरोह अनिवार्य है, अवश्यंभावी है। उस समय सम्मुख उपस्थित परिस्थितियों का निदान-उपचार भी आवश्यक है पर उसके कारण कुँठित हो जाना व्यक्ति के जीवन की एक हास्यास्पद प्रवृत्ति मात्र है। उसका विश्व गति से कोई भी तालमेल नहीं। निराशा व्यक्ति का अपना ही एक मनमाना और आत्मघाती उत्पादन हैं। ईश्वर की सृष्टि में वह एक विजातीय तत्व है। इसीलिए निराशा का कोई भी स्वागत करने वाला नहीं।
निराशा, सोचने की त्रुटिपूर्ण पद्धति हैं। निषेधात्मक चिन्तन और दृष्टिकोण की निष्पत्ति है। गिलास आधा भरा है, आधा खाली है- इस पर दोनों तरह से सोचा जा सकता है। एक तरीका यह है कि हाय, हमारा गिलास आधा खाली है। इसमें अब रस कहाँ, स्वाद कहाँ। दूसरा तरीका यह है कि हमारा गिलास तो आधा भरा है, लाखों ऐसे हैं जिनके गिलास में एक बूँद भी जल नहीं हैं। वे प्रयास कर रहे हैं-पूरा गिलास भरने का। तब हमारे गिलास के भरने में क्या कठिनाई है?
मात्र कठिनाइयों, अभावों, पर विचार करते रहना मानसिक रुग्णता और विकृति है। वह आन्तरिक दरिद्रता के चश्मे से देखा गया वस्तु-जगत है। स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में कहें-“तो वह नास्तिक है। क्योंकि उसे स्वयं पर भी विश्वास नहीं है। सृष्टि की व्यवस्था पर तो नहीं ही है।
सामान्य जीवन क्रम के उतार-चढ़ावों से ही जो उद्विग्न, अशान्त हो जाते हैं, वे जीवन में किसी बड़े काम को करने की कल्पना भी नहीं कर सकते। बड़े काम तो धैर्य,, अध्यवसाय तथा कठोर श्रम की अपेक्षा रखते हैं। मानसिक सन्तुलन वहाँ पहली शर्त है। तरह-तरह की जटिल, पेचीदी परिस्थितियाँ, बड़े कामों में पैदा होती रहती हैं। अशान्त, व्यग्र मनः स्थिति में डरते बीच कोई रास्ता नहीं ढूँढ़ा जा सकता असफलता और हताशा ही ऐसे व्यक्तियों की ललाट रेखा है।
इसका यह अर्थ नहीं कि बचकानी कामनाओं को लेकर सपने देखते रहा जायं उनकी परिणति तो भ्रम-भंग में ही होने वाली है। यथार्थ पर आधारित आशावादी सपने भी कई बार सच नहीं हो पाते फिर बाल कल्पनाओं की तो बात ही क्या? यथार्थपरक आशावादी सपने टूटने पर भी हताशा को नहीं, नवीन प्रेरणा को ही जन्म देते हैं क्योंकि परिस्थितियों की जटिलता से उपस्थित हो सकने वाली बाधाओं का अनुमान तो उनके साथ रहता ही है, अप्रत्याशित आघातों को झेल सकने की तत्परता भी विद्यमान रहती है। ऊँचे उज्ज्वल और यथार्थपरक आदर्शवादी प्रदान करते हैं तथा पुरुषार्थ की प्रेरणा देते हैं।
संसार बना ही सफलता-असफलता दोनों के ताने-बाने से है। सभी व्यक्ति असफलताओं, अवरोधों से हताश होकर, हिम्मत हारकर बैठ जायँ तब तो संसार की सारी सक्रियता ही नष्ट हो जाए। पतझड़ के बाद वसंत- रात्रि के बाद दिन- दुख के बाद सुख तो सृष्टि-चक्र की सुनिश्चित गति-व्यवस्था है। इसमें निराश होने जैसी कोई बात है नहीं।
इससे भी उच्च मनः स्थिति उन महापुरुषों की होती है, जो अपने समय की पतनोन्मुख प्रवृत्तियों से जूझने का संकल्प लेकर आजीवन चलते रहते हैं, यह जानते हुए भी कि पीड़ा का विस्तार अति व्यापक है और पतन की शक्तियाँ अति प्रबल हैं। अपने प्रयास का प्रत्यक्ष परिणाम संभवतः सामान्य लोगों को नहीं ही दीखे तो भी वे लक्ष्य-पथ पर धीर गंभीर भाव से बढ़ते ही जाते हैं। वे उत्कृष्टतम मनःस्थिति में जीते हैं।
ऐसे ही व्यक्ति देश समाज और युग के पतनोन्मुख प्रवाह का विपरीत दिशा में भी उस हेतु उत्साह जगा देते हैं। अपनी गतिविधियों से आये परिवर्तनों को नवीन दिशाधारा को वे स्वयं तो स्पष्ट देख पाते हैं, पर सामान्य व्यक्ति अपने परिवेश में कोई अधिक स्थूल परिवर्तन उस समय तक उत्पन्न नहीं देख पाने के कारण उन परिवर्तनों और सफलताओं को देख समझ नहीं पाते।
विशाल वटवृक्ष के पत्तों में वायु की प्रत्येक पुलक से स्पन्दन होता है, पीपल या बरगद के आधार में रंचमात्र हलचल नहीं होती। जबकि छोटे कमजोर पौधे झंझा के एक ही थपेड़े में लोटपोट हो जाते हैं। अवरोधों की राई को पहाड़ मान बैठने और निराशा के नैश अन्धकार में ऊषा की स्वर्णिम आभा का अस्तित्व ही भुला बैठने की गलती तो नहीं ही करनी चाहिए निराशा एक भ्राँति है यथार्थ जीवन में उसका कोई स्थान नहीं है।
अखण्ड ज्योति, जुलाई 1983
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