Saturday 23, November 2024
कृष्ण पक्ष अष्टमी, मार्गशीर्ष 2024
पंचांग 23/11/2024 • November 23, 2024
मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष अष्टमी, पिंगल संवत्सर विक्रम संवत 2081, शक संवत 1946 (क्रोधी संवत्सर), कार्तिक | अष्टमी तिथि 07:57 PM तक उपरांत नवमी | नक्षत्र मघा 07:27 PM तक उपरांत पूर्व फाल्गुनी | इन्द्र योग 11:41 AM तक, उसके बाद वैधृति योग | करण बालव 06:57 AM तक, बाद कौलव 07:57 PM तक, बाद तैतिल |
नवम्बर 23 शनिवार को राहु 09:28 AM से 10:46 AM तक है | चन्द्रमा सिंह राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 6:53 AM सूर्यास्त 5:13 PM चन्द्रोदय 12:31 AM चन्द्रास्त 1:03 PM अयन दक्षिणायन द्रिक ऋतु हेमंत
- विक्रम संवत - 2081, पिंगल
- शक सम्वत - 1946, क्रोधी
- पूर्णिमांत - मार्गशीर्ष
- अमांत - कार्तिक
तिथि
- कृष्ण पक्ष अष्टमी - Nov 22 06:08 PM – Nov 23 07:57 PM
- कृष्ण पक्ष नवमी - Nov 23 07:57 PM – Nov 24 10:20 PM
नक्षत्र
- मघा - Nov 22 05:10 PM – Nov 23 07:27 PM
- पूर्व फाल्गुनी - Nov 23 07:27 PM – Nov 24 10:16 PM
सद्गुरु वचनामृत
170_Aatm_Nirikshan_Aavashyak_Hai_2.mp4
ईश्वर भक्ति और आदर्शों के लिए समर्पण |
किसी व्यक्ति को कैसे ऊंचा उठाएं |
अपने में अच्छी आदतें डालिए |
सुप्रवृत्तियों के विकास से अच्छी आदतों का निर्माण होता है, मनुष्य अपने उत्तम गुणों का विकास करता है और चरित्र में, अंधकार में प्रविष्ट दुर्गुणों का उन्मूलन होता है। अतः हमें प्रारंभ से ही यह जान लेना चाहिए कि हम किन किन गुणों तथा आदतों का विकास करें।
नैतिकता:—
उत्तम चरित्र का प्रारंभ नैतिकता से होता है। नैतिकता अर्थात् श्रेष्ठतम आध्यात्मिक जीवन हमारा लक्ष्य होना चाहिए। नैतिकता हमें सद् असद्, उचित अनुचित, सत्य असत्य में अन्तर करना सिखाती है। नैतिकता सद्गुणी जीवक का मूलाधार है। यह हमें असद् आचरण, गलतियों अनीति और दुर्गुणों से बचाती है। नैतिकता का आदि स्रोत परमेश्वर है। अतः यह हमें ईश्वरीय जीवन व्यतीत करने की शिक्षा प्रदान करती है। यह वह जीवन शास्त्र है जो हमारे जीवन के कार्यों की आलोचना कर हमें उच्च आध्यात्मिक जीवन की ओर प्रेरित करती है।
नैतिकता धर्म का व्यवहारिक स्वरूप है। हम प्रायः उत्तम ग्रन्थ पढ़ते हैं, अनेक जीवन सूत्र जानते हैं किन्तु उत्तम आचरण जीवन में नहीं करते हैं। नैतिकता उस ज्ञान के व्यवहार और प्रयोग का नाम है। यह हमें जीवन को सही रूप में जीना सिखाती है। हमें क्या करना चाहिए? हमारा क्या कर्त्तव्य है? सही मार्ग कौन सा है? किस कार्य से हमें सर्वाधिक आत्म संतोष प्राप्त हो सकता है?—यह नैतिकता के मूल प्रश्न हैं। आपको वही करना चाहिए, जो उचित है, सबसे अधिक फल देने वाला है, जिसमें कोई गलती नहीं है। यह सब ज्ञान हमें नैतिकता से जीवन व्यतीत करने पर प्राप्त होते हैं।
नैतिकता के बिना धर्म का कोई अर्थ नहीं है। यह अव्यावहारिक और कल्पना शील बनता है। बिना नैतिकता के धर्म एक ऐसे वृक्ष के समान है जिसमें जड़ नहीं है। बिना नैतिकता के व्यवहारिक जीवन ऊँचा नहीं उठ सकता, न ईश्वरीय तथ्यों का जीवन में प्रकाश हो सकता है।
अखण्ड ज्योति, अप्रैल 1955 पृष्ठ 18
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
आप हमारे लिए कीजिए हम आपके लिए करेंगे |
गायत्री उपासना क्या है |
गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन
आज का सद्चिंतन (बोर्ड)
आज का सद्वाक्य
नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन
!! आज के दिव्य दर्शन 23 November 2024 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!
!! परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी का अमृत सन्देश !!
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
गायत्री मंत्र की महत्ता, बेटे मैं नहीं जानता मैं एक प्रयोग कर रहा हूं अगर यह सार्थक होगा, फायदेमंद होगा तो मैं आपसे कहूंगा और फायदेमंद नहीं है तो मैं यह कहूंगा कि मैंने जुआ खेला, जुए के दांव पर मेरा नुकसान हो गया और मैं यह प्रयोग करता हूं इसका नुकसान मुझे उठाना चाहिए आपको क्यों उठाना चाहिए। जिस बात के बारे में मैंने प्रयोग नहीं किया है आपको बता दूं आपका समय खराब होगा कि नहीं होगा, आपका पैसा खराब होगा कि नहीं होगा, आपको अविश्वास पैदा होगा कि नहीं होगा। इसलिए मुझसे बहुतों ने पूछा बार-बार, बार-बार 24 साल तक आप बताइए क्या करते हैं, मैं नहीं बता सकता, मैं कुछ करता रहता हूं,राम नाम लेता रहता हूं इससे कोई फायदा होता है मैं नहीं जानता फायदा होगा तब मैं बताऊंगा आपको अभी नहीं बता सकता। बेटे मैं प्रयोग करता रहा प्रयोग करते करते 24 साल के पश्चात 24 साल के पश्चात जब मुझे कुछ लाभ हुआ मुझे मालूम पड़ा कुछ काम की बात है, उपयोगी बात है, तब मैंने लोगों से उसका फायदा बताना भी शुरू किया। वह तरीका भी बताना शुरू किया। कौन सा वाला तरीका? जिससे कि गायत्री मंत्र सार्थक बन सकता है, फलदायक बन सकता है, लाभदायक बन सकता है।
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड-ज्योति से
ईश्वर को किसी ने देखा नहीं है और न वह सर्वव्यापी निराकार होने के कारण देखने की वस्तु है। इसकी प्रतीक प्रतिमा तो इसलिए बनायी जाती है कि मानवी कलेवर में उत्कृष्टता की पक्षधर भाव-श्रद्धा को उस माध्यम के साथ जोड़कर परब्रह्म को विशिष्टताओं की परिकल्पना करना सर्वसाधारण के लिए सहज संभव हो सके। राष्ट्रध्वज में देश भक्ति की भाव-श्रद्धा का समावेश करके उसे गर्व-गौरव के साथ दुहराया और समुचित सम्मान प्रदान किया जाता है। इसी प्रकार सर्वव्यापी, न्यायनिष्ठ सत्ता का प्रतिमा में आरोपण करके भाव-श्रद्धा को उस स्तर की बनाया, सुविकसित किया जाता है कि वह सत्प्रवृत्तियों के समुच्चय परब्रह्म के साथ जुड़ सकने योग्य बन सके।
भगवान का दर्शन करने के लिए लालायित अर्जुन, काकभुसुण्डि, यशोदा, कौशल्या आदि के आग्रह का जब किसी प्रकार समाधान होते न दीख पड़ा और साकार दर्शन का आग्रह बना ही रहा तो उन्हें तत्वज्ञान की प्रकाश प्रेरणा ने इस विशाल विश्व को ही विराट् स्वरूप दर्शन का वर्णन-विवेचन गीताकार ने अलंकारिक ढंग से समझते हुए यह प्रयत्न किया है कि विश्वव्यापी उत्कृष्टता ही उपासना योग्य ईश्वरीय सत्ता है। यों यह समस्त विश्व-ब्रह्मांड में तो एक नियामक सूत्र संचालक के रूप में जानी मानी जा सकती है। उसे अनुशासन, संतुलन, सुनियोजन आदि के रूप में ही वैज्ञानिक दृष्टि से समझा जा सकता है। उसकी अनुभूति भाव श्रद्धा के रूप में ही हो सकती है। तन्मय और तद्रूप होकर ही उसे पाया जा सकता है। अग्नि के साथ एकात्मता प्राप्त करने के लिए ईंधन को आत्म समर्पण करना पड़ता है और अपना स्वतंत्र अस्तित्व मिटाकर तद्रूप होने का साहस जुटाना पड़ता है। ईश्वर और जीव के मिलन की यह प्रक्रिया है। नाले को नदी में अपना विलय करना पड़ता है। पानी को दूध में घुलना और वैसा ही स्वाद स्वरूप धारण करना पड़ता है। पति और पत्नी इस समर्पण की मानसिकता को अपना कर ही द्वैत से अद्वैत की स्थिति में पहुँचते हैं। मनुष्य भी जब देवत्व से संपन्न होता है तो देवता बन जाता है और जब उसमें परमात्मा जैसी व्यापकता ओत-प्रोत हो जाती है तो आत्मा की स्थिति परमात्मा जैसी हो जाती है। उसमें बहुत कुछ उलटफेर करने की अलौकिकता भी समाविष्ट हो जाती है। ऋषियों और सिद्ध पुरुषों को इसी दृष्टि से देखा और उन्हें प्रायः वैसा ही श्रेय सम्मान दिया जाता है।
विभिन्न मतमतान्तरों के अनुरूप विभिन्न प्रकार की पूजा पद्धतियाँ क्षेत्र या सम्प्रदाय विशेष में प्रचलित पायी जाती हैं, पर उन सबके पीछे लक्ष्य और रहस्य एक ही काम करता है कि अपने आप को परिष्कृत एवं सुव्यवस्थित बनाया जाय। यही है ईश्वर की एक मात्र पूजा, उपासना एवं अभ्यर्थना। विश्व व्यवस्था में निरन्तर संलग्न परमेश्वर को इतनी फुरसत नहीं कि वह इतने भक्तजनों की मनुहार सुने और चित्र-विचित्र उपहारों को ग्रहण करे। यह सब तो मात्र अभ्यर्थना के माध्यम से अपने आपको उत्कृष्टता के मार्ग पर चल पड़ने के लिए स्वसंकेतों के रूप में रचा और किया जाता है। ईश्वर पर न किसी की प्रशंसा का कोई असर पड़ता है और न निंदा का। पुजारी नित्य प्रशंसा के पुल बाँधते और निन्दक हजारों गालियाँ सुनाते हैं। इनमें से किसी की भी बकझक का उस पर कोई असर नहीं पड़ता। गिड़गिड़ाने, नाक रगड़ने पर भी चुनाव आयोग किसी को अफसर नियुक्त नहीं करता। छात्रवृत्ति पाने के लिए अच्छे नम्बर लाने और प्रतिस्पर्धा जीतने से कम में किसी प्रकार भी काम नहीं चलाता। ईश्वर की भी यही सुनिश्चित रीति-नीति है उसकी प्रसन्नता इसी एक केन्द्र-बिन्दु पर केन्द्रित है कि किसने उसके विश्व उद्यान को अधिकाधिक सुन्दर-समुन्नत बनाने के लिए कितने अनुदान प्रस्तुत किये। अपने को कितना प्रामाणिक एवं परिष्कृत बनाया। उपासनात्मक कर्मकाण्ड इसी एक सुनिश्चित व्यवस्था को जानने-मानने के लिए किये और अपनाये जाते हैं। यदि कर्मकाण्ड भर लकीर पीटने की तरह पूरे किये जायँ और परमात्मा के आदेश-अनुशासन की अवज्ञा की जाती रहे, तो समझना चाहिए कि यह बालक्रीड़ा मात्र खेल-खिलवाड़ है। उतने भर से क्या किसी का कुछ भला हो सकने वाला है? नहीं?
देवपूजा के कर्मकांडों को प्रतीकोपासना कहते हैं - जिसका तात्पर्य है कि संकेतों के आधार पर क्रिया-कलापों को निर्धारित करना। देवता का प्रतीक एक पूर्ण मनुष्य की परिकल्पना है जिससे प्रेरणा पाकर उपासक को भी हर स्थिति में सर्वांग सुन्दर एवं नवयुवकों जैसी मनःस्थिति में बने रहना चाहिए। देवियाँ मातृसत्ता की प्रतीक हैं। उनको तरुणी एवं सौंदर्यमयी होते हुए भी कुदृष्टि से नहीं देखा जाता, वरन् पवित्रता की मान्यता विकसित करते हुए उन्हें श्रद्धा-पूर्वक नमन-वंदन ही किया जाता है। नारी मात्र के प्रति साधक की मान्यतायें इस स्तर की विनिर्मित, विकसित होनी चाहिए।
पूजा-अर्चना में जल, अक्षत, पुष्प, चंदन, धूप-दीप नैवेद्य आदि को संजोकर रखा जाता है। इसका तात्पर्य उन माध्यम संकेतों को ध्यान में रखते।
अखण्ड ज्योति, सितम्बर 1993
Newer Post | Home | Older Post |