आलस्य एक प्रकार की आत्म-हत्या ही है (भाग ३)
आलसी का हठ रहता है कि शरीर उसका अपना है। मान लो उसका है तब भी तो उसे नष्ट करने का अधिकार उसे नहीं हो सकता है। शरीर उसका है तो शरीर जन्य सन्तानें भी तो उसकी ही होती हैं और उनका भी उसके शरीर पर कुछ अधिकार होता है। शरीर नष्ट कर वह उनके शरीर का हनन तो नहीं कर सकता। शरीर से उपार्जन होता है और उपार्जन से बच्चों का पालन-पोषण। शिथिल एवं अशक्त शरीर आलसी उपार्जन से ऐसे घबराता है जैसे भेड़ भेड़िये से दूर भागती है। धन तो परिश्रम का मीठा फल है आलसी जिसे लाकर परिवार को नहीं दे पाता और रो-झींक कर, मर-खप कर विवश हो कर लाता भी है वह अपर्याप्त तो होता ही है साथ ही उसकी कुढ़न उसके साथ जुड़ी रहती है जो कि बच्चों के संस्कारों एवं शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य पर कुप्रभाव डालती है। इस प्रकार आलसी बच्चों का पालन करने के स्थान पर परोक्ष रूप से उनका भावनात्मक हनन ही किया करता है, जो एक अक्षम्य अपराध तथा पाप है। यदि बच्चों का सम्बन्ध न भी जोड़ा जाये तो भी अपने कर्मों से शरीर का सत्यानाश करना आत्महत्या के समान है जो उसी तरह पाप ही माना जायेगा।
आलस्य के कुठार द्वारा कल्पवृक्ष के समान उस शरीर की जड़ काटते रहना, उसकी शक्ति , क्षमताओं एवं योग्यताओं को नष्ट करते रहना पाप ही है जो मानव के महान से महान मनोरथों को चूर कर सकता है। शक्ति , सम्पन्नता, गौरव, ज्ञान, मान, प्रतिष्ठा, यश, कीर्ति आदि ऐसी कौन-सी समृद्धि अथवा ऐश्वर्य है जो शरीररूपी देवता को प्रसन्न करने पर नहीं मिल सकता। ऐसा कौन-सा पुण्य-परमार्थ है जो आत्मा की मुक्ति में सहायक हो और शरीर द्वारा सम्पन्न न किया जा सकता हो। मनुष्य श्रम-साधना द्वारा इस पंच-तात्विक देवता को प्रसन्न करने, समृद्धिय पाने, पुण्य-परमार्थ करके आत्मा को मुक्त करने के लिए है, वचन-बाध्य है। “मैं नहीं चाहता”—कहकर मनुष्य इस उद्देश्य से मुक्त नहीं हो सकता।
उसका जन्म, उसकी नियुक्ति इस कर्तव्य के लिये ही की गई है और उसने जीवन-लाभ के लिए सर्व समर्थ को यह वचन दिया था कि वह उसके दिये जीवन को सुन्दर एवं समृद्ध बनाकर संसार की शोभा बढ़ायेगा और उसके आत्मा रूपी प्रकाश की किरणें आवरण से मुक्त कर उसमें ही मिला देने की लिए किसी परिश्रम, पुरुषार्थ तथा परमार्थ से विमुख न होगा। परमात्मा ने उसके इसी वचन पर विश्वास करके उसे सृष्टि की सर्वश्रेष्ठता प्रदान की। बल, बुद्धि एवं विवेक सब योग्य बना दिया। अब वचन से फिरकर कर्तव्य से विमुख हो जाना कहाँ तक उचित है? यह भयंकर पाप है, विश्वासघात के समान ही पाप है और आलसी इस पाप को जान-बूझकर किया करता है। मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी और जीव-जगत का राजा है। संसार की व्यवस्था एवं सुन्दरता का भार उसके परिश्रम एवं पुरुषार्थ पर निर्भर है। किसी को कोई अधिकार नहीं कि वह उत्तरदायित्व से फिरकर आलस्य, प्रमाद अथवा निष्क्रियता द्वारा पृथ्वी का भार बने और उसे असुन्दर, अव्यवस्थित, अशाँत अथवा असुखकर बनाने की दुरभिसन्धि किया करे। आलसी एवं अकर्मण्य लोग निश्चय ही यह अपराध किया करते हैं जबकि उन्हें अपना सुधार कर ऐसा नहीं करना चाहिए। उनकी यह दुष्प्रवृत्ति अपरिमार्जन किसी प्रकार भी शोभनीय अथवा वाँछनीय नहीं है।
.... क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति नवम्बर 1966 पृष्ठ 24
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