आलस्य एक प्रकार की आत्म-हत्या ही है (भाग २)
शरीर की सुरक्षा श्रम द्वारा ही की जा सकती है। आलस्य में निष्क्रिय पड़े रहने से इसके सारे कल-पुर्जे ढीले तथा अशक्त हो जाते हैं, अनेक व्याधियाँ घेर लेती हैं। आरोग्य चला जाता है। अस्वस्थ शरीर आत्मा को भी अस्वस्थ कर डालता है। आत्मा चेतनास्वरूप परमात्मा का पावन अंश है, उसे इस प्रकार निस्तेज, निश्चेष्ट अथवा अपावन बनाने का अधिकार किसी जीव को नहीं है। और जो अबुद्धिमान ऐसा करता है वह नास्तिक जैसा ही माना जायेगा। आलसी निश्चय ही इस पाप का दोषी होता है।
परमात्मा ने शरीर दिया, शक्ति दी, चेतना दी और बोध दिया। इसलिये कि मनुष्य अपनी उन्नति करें और जीवन-पथ पर आगे बढ़े। स्वयं सुख पाये और उसके प्यारे अन्य प्राणियों को सुखी होने में सहयोग दे। मनुष्य का कर्तव्य है कि ईश्वर की इस अनुकम्पा को सार्थक करे और अपने उपकारी के प्रति भक्ति- भावना से कृतज्ञता प्रकट करे। पर क्या आलसी अपने इस कर्तव्य को पूरा करता है? निश्चय ही नहीं। वह दिन-रात प्रमाद में पड़ा ऊँघता रहता है। औरों को सुखी करना तो दूर, उल्टा उन्हें दुःख ही देता रहता है और स्वयं भी दीनता, दरिद्रता, रोग तथा निस्तेजता का दुःख भोगा करते हैं। क्या इस प्रकार की अकर्तव्य शालीनता पाप नहीं कही जायेगी?
जो अभागा आलसी अपने साधारण जीवन-क्रम का निर्वाह प्रसन्नता, तत्परता तथा कुशलता से नहीं कर पाता वह स्वस्थ तन, प्रसन्न मन एवं उज्ज्वल आत्मा द्वारा कृतज्ञता प्रदर्शन रूप, पूजा-पाठ, जप-तप, सेवा-उपासना, भजन-कीर्तन का नियमित आयोजन कहाँ निभा सकता है? दोपहर तक सोते रहने, दिन में खाकर पड़े रहने और कष्टपूर्वक कोई आवश्यक कार्य कर सकने वाला प्रमाद उन्मादी भगवत्-भक्ति करता अथवा कर सकता है, ऐसा सम्भव नहीं। नियमित रूप से, भक्ति-भावना से भरी उपासना न करना उस अनुग्राहक ईश्वर के प्रति कृतघ्नता है। कृतघ्नता का पाप जघन्यता की कोटि का पाप है जिसका सबसे पहले अपराधी आलसी ही होता है। जिसके पास समय ही समय रहता हो वह परमात्मा की उपासना न करे उससे बढ़कर पापी और कौन हो सकता है जबकि व्यस्त जीवन में से भी समय निकाल कर प्रभु की याद न करने वाले आत्मधारी तक आलोचना एवं निन्दा के पात्र बनते हैं।
.... क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति नवम्बर 1966 पृष्ठ 24
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