जीवन साधना के त्रिविध पंचशील (भाग 2)
प्रज्ञा साधकों के लिए उपरोक्त तीन क्षेत्र के लिए इस प्रकार हैः-
व्यक्तित्व का विकास
(१) प्रातः उठने से लेकर सोने तक की व्यस्त दिनचर्या निर्धारित करें। उसमें उपार्जन, विश्राम, नित्य कर्म, अन्यान्य काम- काजों के अतिरिक्त आदर्शवादी परमार्थ प्रयोजनों के लिए एक भाग निश्चित करें। साधारणतया आठ घण्टा कमाने, सात घण्टा सोने, पाँच घण्टा नित्य कर्म एवं लोक व्यवहार के लिए निर्धारित रखने के उपरान्त चार घण्टे परमार्थ प्रयोजनों के लिए निकालना चाहिए। इसमें भी कटौती करनी हो, तो न्यूनतम दो घण्टे तो होने ही चाहिये। इससे कम में पुण्य परमार्थ के, सेवा साधना के सहारे बिना न सुसंस्कारिता स्वभाव का अंग बनती है और न व्यक्तित्व का उच्चस्तरीय विकास सम्भव होता है।
(२) आजीविका बढ़ानी हो तो अधिक योग्यता बढ़ायें। परिश्रम में तत्पर रहें और उसमें गहरा मनोयोग लगायें। साथ ही अपव्यय में कठोरता पूर्वक कटौती करें। सादा जीवन उच्च विचार का सिद्धान्त समझें। अपव्यय के कारण अहंकार, दुर्व्यसन, प्रमाद बढ़ने और निन्दा, ईर्ष्या, शत्रुता पल्ले बाँधने जैसी भयावह प्रतिक्रियाओं का अनुमान लगायें। सादगी प्रकारान्तर से सज्जनता का ही दूसरा नाम है। औसत भारतीय स्तर का निर्वाह ही अभीष्ट है। अधिक कमाने वाले भी ऐसी सादगी अपनायें जो सभी के लिए अनुकरणीय हो। ठाट- बाट प्रदर्शन का खर्चीला ढकोसला समाप्त करें।
(३) अहर्निश पशु प्रवृत्तियों को भड़काने वाले विचार ही अन्तराल पर छाये रहते है। अभ्यास और समीपवर्ती प्रचलन मनुष्य को वासना, तृष्णा और अहंकार की पूर्ति में निरत रहने का ही दबाव डालता है। सम्बन्धी मित्र परिजनों के परामर्श प्रोत्साहन भी इसी स्तर के होते हैं। लोभ, मोह और विलास के कुसंस्कार निकृष्टता अपनाये रहने में ही लाभ तथा कौशल समझते हैं। ऐसी ही सफलताओं को सफलता मानते हैं। इसे एक चक्रव्यूह समझना चाहिये। भव- बन्धन के इसी घेरे से बाहर निकलने के लिए प्रबल पुरुषार्थ करना चाहिये। कुविचारों को परास्त करने का एक ही उपाय है- प्रज्ञा साहित्य का न्यूनतम एक घण्टा अध्ययन अध्यवसाय। इतना समय एक बार न निकले तो उसे जब भी अवकाश मिले, थोड़ा- थोड़ा करके पूरा करते रहना चाहिये।
.....क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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