छूट गयी कमर की बेल्ट और बैसाखी
बचपन से ही मैं बागवानी का शौकीन रहा हूँ। जब मैं नौकरी पेशा में था, तो मैंने अपने छोटे से आवास को तरह- तरह के फूलों और पौधों से सजा रखा था। व्यस्तताओं से भरे जीवन में भी मैं उन पौधों की देखभाल के लिए समय निकाल ही लेता था।
एक दिन मैं पौधों में पानी डाल रहा था। छुट्टी का दिन था, सो मैं सोच रहा था कि लगे हाथों बेतरतीबी से बढ़ आए पौधों की कटाई- छँटाई भी कर डालूँ। सभी तरह के औजार पास ही पड़े थे। मैंने कैंची उठाकर छँटाई शुरू कर दी। तभी मेरी नजर उस बेल पर गयी जिसे रस्सियों के सहारे छत पर पहुँचाया गया था।
एस्बेस्टस की छत पर इस लता ने अपना घना आवरण बिछा रखा था, जिससे गर्मियों में काफी ठण्डक बनी रहती थी, लेकिन धीरे- धीरे यह दीवार के पास ही इतना घना होने लगा कि आसपास की सुन्दरता में बाधक बन गया था। इसकी करीने से छँटाई करने के लिए स्टूल के सहारे दीवार पर चढ़ गया। दीवार मात्र दस इंच चौड़ी थी। सावधानी से दोनों पैर जमाकर मैंने छँटाई शुरू की। रस्सी के चारों ओर बेतरतीबी से फैली हुई लताओं को काटता हुआ अपना हाथ ऊपर की ओर उठाने जा रहा था। मेरी कोशिश थी कि छत के पास तक की छँटाई अच्छी तरह से हो जाए। छत की ऊँचाई को छूने की कोशिश में मेरा संतुलन बिगड़ा और मैं उस पार सड़क पर जा गिरा। गिरते ही पीड़ा से चीख उठा, जिससे आसपास के लोगों की भीड़ जमा हो गई। अन्दर से पत्नी दौड़ी आई और मुझे इस तरह पड़ा देख जोर- जोर से रोने लगी और उस बेल को कोसने लगी। लोगों ने मुझे उठाकर बरामदे में पड़े बिछावन पर लिटा दिया। कई बहिनों ने पंखा झलना शुरू किया। दो भाई डॉक्टर बुलाने के लिए दौड़ पड़े। डॉक्टर आए और दवा, इंजेक्शन आदि देकर, मरहम पट्टी कर चले गए। पड़ोस से आए लोग भी एक- एक कर जा चुके थे। मैं पीड़ा से कराहता हुआ गुरुदेव को स्मरण कर रहा था। बीच- बीच में पत्नी के रोने- बिलखने की आवाज से ध्यान बँट जाता।
थोड़ी देर बाद फोन से सूचना पाकर मेरे सम्बन्धी डॉ. विधुशेखर पाण्डेय जी आ पहुँचे। उन्होंने मुझे अपने निजी नर्सिंग होम, आरोग्य निकेतन ले जाने का निर्णय लिया। मेरे लड़के प्रेमांकुर और डॉ. साहब के बीच मोटर साइकिल पर बिठाकर मुझे भगवानपुर ले जाया गया। वहाँ एक्स- रे करने पर पता चला कि दाएँ पैर की एड़ी बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गई है। दूसरे दिन अस्थि विशेषज्ञ डॉ. ए.के. सिंह को भी दिखाया गया। पैर में सूजन हो गई थी, इसलिए तत्काल प्लास्टर न कर कच्चा प्लास्टर चढ़ाया गया। एक सप्ताह बाद पक्का प्लास्टर हुआ। चिकित्सक के निर्देशानुसार डेढ़ माह तक पूरी तरह बिस्तर पर रहना था। इतनी लम्बी अवधि तक निकम्मों की तरह पड़े रहना होगा, यह सोच- सोचकर जीवन भार- सा लगने लगा। शौचादि क्रिया भी बिस्तर पर लेटे- लेटे ही करनी थी। सेवा सुश्रुषा के लिए पत्नी भी अस्पताल चली आईं।
निरंतर डेढ़ माह तक लेटे रहने से रीढ़ एवं कमर के नीचे बैक सोर हो गया था। निर्धारित समय पर प्लास्टर कटा और मैं बैसाखी- इंकलेट, कमर के ऊपर लगने वाले लोहे के प्लेट युक्त विशेष बेल्ट के सहारे चलनेफिरने लगा। फिर भी मन में इतना संतोष तो था ही कि गुरुवर की अनुकम्पा से मैं अपाहिज होने से बच गया। तीन दिन बाद घर आ गया। एक दिन गुरुजी ने स्वप्र में दर्शन दिए और मुझे शान्तिकुञ्ज जाने को कहा। उसी अवस्था में मैंने जाने की तैयारियाँ शुरू कर दीं।
२ मई २००७ को मैं शान्तिकुंज आ गया। यहाँ आते ही मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे शरीर में कोई पीड़ा, कोई क्लेश है ही नहीं। यहाँ आने के एक माह बाद एक दिन शान्तिकुञ्ज के वरिष्ठ कार्यकर्त्ता आदरणीय अमल कुमार दत्ता, एम.एस. ने मेरी शारीरिक परेशानियों के सम्बन्ध में विस्तार से जानकारी ली। एक्स- रे करवाया और रिपोर्ट देखकर बोले- अब बगैर छड़ी बेल्ट, इन्कलेट के चलने की आदत डालें। मुझे असमंजस में देखकर उन्होंने आश्वस्त किया, चिंता न करें- गुरुदेव सब अच्छा ही करेंगे।
मैंने उसी समय आँखें बन्द करके पूज्य गुरुदेव का स्मरण किया। बेल्ट, इन्क्लेट उतारे, छड़ी को बगल में दबाया और पूज्य गुरुदेव की समाधि की ओर बढ़ चला। तब से लेकर आज तक मिशन के काम से तीसरी मंजिल पर बने ढेर सारे विभागों के कार्यालयों तक जाने- आने के लिए हर रोज सैकड़ों सीढ़ियाँ आराम से चढ़ता उतरता हूँ। सब पूज्यवर की ही कृपा है।
डी.एन. त्रिपाठी पूर्व जोन, शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार (उत्तराखण्ड)
अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
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