पूज्य गुरुदेव ने की प्राणरक्षा
हमारा जन्म उड़ीसा में हुआ था। जब मैं करीब २४- २५ वर्ष का था, हमारे गाँव में भागवत् कथा करने एक सन्त श्री रामचरणदास जी (मौनी बाबा)आते थे। मैं भी भागवत सुनता था। उसमें मैंने सुना कि शरीर नाशवान् है। यह सुन कर मन में आता रहता था, यदि शरीर नाशवान् है तो इसे रख कर क्या करूँगा।
एक दिन होली की पूर्णिमा रात्रि में, हाथ में जहर लेकर, शरीर को नष्ट करने का संकल्प लेकर सुनसान समुद्र के किनारे जा बैठा। जैसे ही जहर खाने (पीने) का प्रयास किया तो मेरे हाथ में झटका सा लगा। विषपात्र हाथ से छूट कर गिर गया। मैंने सोचा इस सुनसान में कौन आ गया! देखा लम्बा कुर्ता धोती पहने एक आदमी बोला- क्या पागल हो गये हो? इसको नष्ट करने का अधिकार तुम्हें नहीं है। यह बात सुनकर मैं अचरज में पड़ गया। कोई आदमी यहाँ था नहीं। यह कहाँ से आ गया। मैंने पूछा- आप कौन हैं ?? वह आदमी मुस्कुराया और बोला- आपको इस जीवन में बहुत काम करना है, जीवन को ऐसे नष्ट करने के लिए तुम्हारा जन्म नहीं हुआ है। यह बात बोलकर वह आदमी धीरे- धीरे समुद्र के अन्दर जाने लगा। जल में उसके पैर जमीन में चलने की तरह पड़ रहे थे। मैं ने भी पानी में उतरकर पकड़ने का प्रयास किया, लेकिन कुछ दूर जाकर मैं समुद्र की लहर में डूब गया और बेहोश अवस्था में समुद्र के किनारे आ गया। ईश्वर कृपा से जब मुझे होश आया तब चारों तरफ से मछुआरे घेरे खड़े थे। मुझे अनुभव हो रहा था कि वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं था।
मछुआरों को जब मैंने अपना परिचय दिया तो उन्होंने मुझे घर पहुँचा दिया। जब मौनी बाबा फिर से गाँव में भागवत् कथा करने आए तो उन्होंने मुझे बुलवाया। फिर मैंने उनसे दीक्षा भी ले ली। करीब दो वर्ष बाद मैं जगन्नाथपुरी रथ यात्रा देखने गया था। उसी भीड़ में फिर मेरी मुलाकात मौनी बाबा से हो गई। वे मुझे एकांत में ले गए और राष्ट्र निर्माण के बारे में विचार विमर्श करने लगे। उन्होंने कहा- आपको मत्त जी के पास जाना है। वे हरिद्वार में हैं। गायत्री के बारे में, राष्ट्र निर्माण के बारे में समझाते हैं। वर्ष १९९६ में पहली बार गायत्रीतीर्थ शान्तिकुञ्ज हरिद्वार आया, गुरु जी (मत्त जी) के बारे में बाबाजी से सुन रखा था। मैं दो घंटे शान्तिकुञ्ज का दर्शन करता रहा। अचानक मुझे स्मरण हो आया, जहर पीने का प्रयास करते समय जिस व्यक्ति को मैंने देखा था, वही स्वरूप आचार्य श्रीराम शर्मा जी के चित्र में पाया। मैं बार- बार सोचने लगा कि इन्होंने ही मेरे प्राण की रक्षा की है। इस शरीर से वे क्या कार्य कराएँगे वही जाने।
मैं गौ रक्षा समिति में १९९८ में काम कर रहा था। उड़ीसा से बिहार प्रांत में आया। मैं चकाई में गौ रक्षा हेतु कार्य करने लगा। उसमें गायत्री परिवार के परिजन भी शामिल हो गए। धीरे- धीरे सम्पर्क बढ़ता गया। २००९ में ट्रस्ट का गठन हुआ। अब चकाई में गौशाला निर्माण, प्राकृतिक चिकित्सा के साथ- साथ आयुर्वेदिक औषधि के निर्माण के कार्य में लगा हुआ हूँ। मैं गुरु कृपा से इस गायत्री परिवार से जुड़ गया हूँ। परम पूज्य गुरुदेव के विचारों पर चलकर समाज सेवा के कार्य में संलग्न हूँ। जिन्होंने मेरी प्राण रक्षा की है, यह जीवन अब उन्हीं का है।
उड़िया बाबा जमुई (बिहार)
अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
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