प्रेतात्माओं का किया गया दीक्षा संस्कार
पहले मैं पुनर्जन्म में तो विश्वास करता था पर प्रेत योनि (भूत, पिशाच आदि) पर मेरा जरा भी विश्वास नहीं था। एक दिन प्रसिद्ध लेखक बी.डी. ऋषि की पुस्तक ‘परलोकवाद’ मेरे हाथ लगी।
उसे पढ़कर कई तरह की जिज्ञासाओं ने मुझे घेर लिया-परलोक में हमारी ही तरह लोग कैसे रहते हैं? क्या करते हैं? उन्हें भूख-प्यास लगती है या नहीं? आदि, आदि।
१९७२ में पूर्व रेलवे जमालपुर (मुंगेर) वर्कशॉप में नौकरी के रूप में गुरुदेव का आशीर्वाद मुझे हाथों-हाथ मिल चुका था। एक दिन वर्कशाप में ही भोजन के समय विभाग के वरीय अभियंता श्री राम नरेश मिश्र ने भूत-प्रेत आदि की बातें छेड़ दीं। मैंने हल्की अरुचि के स्वर में कहा-मैं इन बातों पर विश्वास नहीं करता। मिश्रा जी ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया-तुम मानो या न मानो, मेरे जीवन में तो यह घटित हुआ है। आज मैं तुम लोगों को अपने जीवन में घटी वह सच्ची घटना सुनाता हूँ।
उनकी इस बात पर सबके कान खड़े हो गए। मिश्रा जी ने आप बीती सुनाते हुए कहा-‘‘आज से बीस साल पहले की बात है। मेरी शादी हो गई थी। उसके कुछ ही दिनों बाद मेरी भेंट एक प्रेतात्मा से हो गई, और यह मुलाकात धीरे-धीरे सघन सम्पर्क में बदल गई।
वह रोज रात में आकर मुझसे भेंट करती और तरह-तरह की बातें भी करती थी। कभी पैरों में लाल रंग लगा देती तो कभी कुछ और तो कभी कुछ और तरह के क्रिया कलाप होने लगते।’’
मिश्र जी रेलवे के अच्छे पद पर कार्यरत थे। मुझसे उम्र में भी बड़े थे, इसलिए मैं उन्हें भैया जी कहा करता था। वे एक गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे। इसलिए उनकी बातों को हल्केपन से लेना मेरे लिए संभव नहीं था।
कई घटनाएँ उन्होंने इतने जीवन्त रूप में सामने रखीं कि भूत-प्रेत के अस्तित्व को लेकर मेरी जिज्ञासा दोहरी हो गई थी। उनकी बताई ढेर सारी बातों में मुझे सबसे अधिक आश्चर्य इस बात पर हुआ कि वह थी तो एक मुस्लिम परिवार की प्रेतात्मा लेकिन अपना नाम शांति बताती थी।
दूसरे दिन जब मिश्रा जी आए, तो घबराए हुए थे। सीधे सेक्शन में आकर मेरे पास बैठ गए और कहा-विजय जी, वह २० साल बाद आज रात में फिर से आ गई। मैं तो तबाह हो जाऊँगा। अब मैं एक बाल बच्चेदार आदमी हो गया हूँ।
उनकी बातें सुनकर मैं भी डर-सा गया। आश्चर्य से पूछा-भैया, कौन आ गई, आप किस तबाही की बात कर रहे हैं। मिश्रा जी ने कहा-वही प्रेतात्मा जो अपना नाम शांति बताती है। कल मैंने तुम लोगों से उसकी चर्चा की थी, शायद इसलिए फिर आ गए। समझ में नहीं आता है अब मैं क्या करूँ!
मैंने उन्हें ढाढस बँधाते हुए कहा-चिन्ता की कोई बात नहीं। आप अपने यहाँ गायत्री हवन करा लीजिए, सब ठीक हो जायगा। गायत्री चालीसा में लिखा है- ‘‘भूत पिसाच सबै भय खावें, यम के दूत निकट नहिं आवें।’’ मेरी बातों से वे कुछ हद तक आश्वस्त हो गए।
तीसरे दिन जब मिश्र जी वर्कशॉप आए तो उन्होंने और भी आश्चर्य भरी बात सुनाई। कहा-शांति फिर आई थी। उसने मुझसे कहा है- मैं विजय बाबू को अच्छी तरह से जानती हूँ।
मैं तो यह सुनकर बिल्कुल ही घबरा उठा कि एक प्रेतात्मा मुझे कैसे जानती है। मैंने मिश्र जी को कहा-अगर वह फिर आ जाए तो उससे पूछें कि मुझे किस तरह से जानती है।
अब शांति प्रतिदिन मिश्र जी के पास आने लगी थी। अगले दिन मिश्र जी ने मुझे अकेले मैं ले जाकर कहा- वो तो कहती है कि विजय जी हमारे गुरु भाई हैं।
यह सुनकर मुझे थोड़ा साहस तो मिला पर सोच-सोचकर पागल हुआ जा रहा था कि मैं इस प्रेतात्मा का गुरुभाई कैसे हो गया। इसका मतलब तो यह है कि कभी इस जीवात्मा ने परम पूज्य गुरुदेव से दीक्षा ली है। एक मुसलमान औरत की दीक्षा! आखिर यह कब और कैसे संभव हुआ?
मैंने हँसते हुए कहा कि वे शांति बहिन से इन सवालों का जवाब माँगकर आएँ। अब तक शांति नामक उस प्रेतात्मा से मेरा भय समाप्त हो गया था। अगले दिन मिश्र जी ने एक रहस्य का उद्घाटन किया- शांति तुम्हारे ही गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य की शिष्या है।
मैंने चकित होकर पूछा- यह कैसे संभव हुआ। मिश्र जी बोले मैंने तुम्हारे कहने के मुताबिक उससे पूछा था कि तुम उसके गुरुभाई कैसे हो? तो जवाब में उसने कहा-सन् १९७० ई. में टाटानगर में १००८ कुण्डीय यज्ञ हो रहा था। उसी समय मैं कई अन्य आत्माओं के साथ भटकती हुई वहाँ पहुँच गई थी। इतने बड़े यज्ञ का आयोजन देखकर हम सभी परम पूज्य गुरुदेव से प्रभावित हो गईं।
फिर कुछ रुककर शांति ने कहना शुरू किया- हम सभी ने आचार्यश्री से समवेत प्रार्थना करते हुए कहा कि हे ऋषिवर! इन मानवों का तो आप उद्धार कर रहे हैं, पर हम प्रेतात्माओं का उद्धार कौन क रेगा? हमारे पास न तो स्थूल शरीर है और न टिककर रहने का कोई स्थान। दिन-रात इधर से उधर बेमतलब भटकते रहना ही हमारी नियति है। आप तो अवतारी चेतना हैं। कृपाकर हम लोगों का भी उद्धार करें। तब परम पूज्य गुरुदेव ने यज्ञ-पंडाल वाले मैदान से अलग हटकर टाटा के ही दूसरे बड़े मैदान में हम सभी को पंक्तिबद्ध कर दीक्षा संस्कार कराया और सबका नामकरण भी कर दिया। मेरा नाम गुरुवर ने शांति रखा था।
यह सब सुनकर शांति के बारे में जानने की जिज्ञासा बढ़ती गई। हमने मिश्रजी के द्वारा ही शांति से जानकारी ली कि ये सभी सूक्ष्म जगत में क्या करते हैं? शांति बहिन का कहना था- हम सब सूक्ष्म जगत में उनके अनुशासन में काम करते हैं, बस।
मिश्र जी ने जब फिर जानना चाहा कि इस समय पूज्य गुरुदेव हिमालय प्रवास में कहाँ हैं और क्या कर रहे हैं, तो शांति ने कहा- एक सीमा के बाद हम सबको कुछ भी बताने की मनाही है, इसलिए मैं इससे अधिक और कुछ नहीं बता सकती। अब मुझे प्रेतात्माओं के अस्तित्व पर पूरा विश्वास हो चुका था। मैं यह भी जान चुका था कि परम पूज्य गुरुदेव की पराशक्ति से परिचालित ये सूक्ष्म शरीरधारी शिष्यगण सूक्ष्म जगत में भी युग परिवर्तन के लिए अदृश्य रूप में कार्यरत रहते हैं।
इस घटना के लगभग एक वर्ष बाद तक परम पूज्य गुरुदेव की प्रेतात्मा शिष्या शांति मेरे भी सम्पर्क में विधेयात्मक रूप में रही। फिर एक दिन ऐसा भी आया कि वह उस इलाके से हमेशा के लिए चली गई। बहुत याद करने पर भी उसका आना नहीं हुआ।
सन् १९७३ ई. में परम पूज्य गुरुदेव शान्तिकुञ्ज पधार चुके थे। शान्तिकुञ्ज के वशिष्ठ और विश्वामित्र नामक भवन में ‘प्राण प्रत्यावर्तन शिविर’ आयोजित किया गया था। इस शिविर में शिष्यों से उच्चस्तरीय योग साधनाएँ कराई जाती थीं। सौभाग्य से मुझे भी इसमें भाग लेने का अवसर मिला था।
इसी शिविर के दौरान एक दिन शांति का ध्यान आया और मैं गुरुदेव से भेंट के समय पूछ बैठा- गुरुदेव, शांति बहिन का क्या .....? वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था कि गुरुदेव ने तपाक से कहा- ‘‘बेटा, उसका चोला बदल गया.....चोला बदल गया। ’’
पूज्य गुरुदेव की उस समय की मुद्रा देखकर आगे कुछ पूछने का साहस नहीं हुआ। साक्षात् शिव की तरह भूत- प्रेतों का भार वहन करने वाले महाकाल के अवतार को श्रद्धापूर्वक नमन करके मैं वापस लौट पड़ा।
विजय कुमार शर्मा जमालपुर- मुंगेर (बिहार)
अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
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