आत्मचिंतन के क्षण
हम प्रथकतावादी न बनें। व्यक्तिगत बड़प्पन के फेर में न पड़ें। अपनी अलग से प्रतिभा चमकाने का झंझट मोल न लें। समूह के अंग बनकर रहें। सबकी उन्नति में अपनी उन्नति देखें और सबके सुख में अपना सुख खोजें। यह मानकर चलें कि उपलब्ध प्रतिभा, सम्पदा एवं गरिमा समाज का अनुदान है और उसका श्रेष्ठतम उपयोग समाज को सज्जनतापूर्वक लौटा देने में ही है।
क्षमा न करना और प्रतिशोध लेने की इच्छा रखना दुःख और कष्टों के आधार हैं। जो व्यक्ति इन बुराइयों से बचने की अपेक्षा उन्हें अपने हृदय में पालते-बढ़ाते रहते हैं वे जीवन के सुख और आनंद से वंचित रह जाते हैं। वे आध्यात्मिक प्रकाश का लाभ नहीं ले पाते। जिसके हृदय में क्षमा नहीं, उसका हृदय कठोर हो जाता है। उसे दूसरों के प्रेम, मेलजोल, प्रतिष्ठा एवं आत्म-संतोष से वंचित रहना पड़ता है।
दुष्कर्म करना हो तो उसे करने से पहले कितनी ही बार विचारों और उसे आज की अपेक्षा कल-परसों पर छोड़ो, किन्तु यदि कुछ शुभ करना हो तो पहली ही भावना तरंग को क्रियान्वित होने दो। कल वाले काम को आज ही निपटाने का प्रयत्न करो। पाप तो रोज ही अपना जाल लेकर हमारी घात में फिरता रहता है, पर पुण्य का तो कभी-कभी उदय होता है, उसे निराश लौटा दिया तो न जाने फिर कब आवे।
दोष दिखाने वाले को अपना शुभ चिंतक मानकर उसका आभार मानने की अपेक्षा मनुष्य जब उलटे उस पर कु्रद्ध होता है, शत्रुता मानता और अपना अपमान अनुभव करता है, तो यह कहना चाहिए कि उसने सच्ची प्रगति की ओर चलने का अभी एक पैर उठाना भी नहीं सीखा।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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