आत्मचिंतन के क्षण
मनुष्य बड़ा उतावला प्राणी है। तत्काल लाभ प्राप्त करने की उसकी बड़ी इच्छा होती है। सफलता के परिपाक के लिये जितने घड़ी-घण्टे अभीष्ट होते हैं, वह उन्हें लाँघना चाहता है, पर ऐसी आशा दुराशा-मात्र है। हथेली में सरसों जमाने की बाल कल्पना कभी फलवती नहीं होती। नौ माह गर्भ में पकने वाला बालक एक-दो माह में पैदा हो जाना कठिन ही नहीं, असम्भव भी है। सफलता की अन्तिम मंजिल तक पहुँचने के लिये प्रतीक्षा करनी ही पड़ती है। इसके लिये धैर्य चाहिए, ध्रुव-धैर्य चाहिए।
मनुष्य आनन्द की खोज में है। आनन्द में ही उसे तृप्ति मिलती है, पर यह आनन्द मिलता उन्हीं को है, जिन्होंने सुख और दुःख की वास्तविकता को समझ लिया है अर्थात् जिन्होंने संसार और उसके प्रपंच, आत्मा और उसके स्वरूप को जान लिया है। यह स्थिति बन जाने पर वह मोह ग्रसित नहीं होता, संसार की किसी वस्तु से उसे लगाव नहीं रहता। लोकोपकारी कर्मों का सम्पादन करना ही उसका ध्येय बन जाता है। इस तरह के कर्त्तव्य पालन में ही सर्वांगीण व्यवस्था रहती है और व्यवस्था रहते हुए दुःख का कोई नाम नहीं रहता। कर्मयोग का इतना ही रहस्य है कि मनुष्य कर्म को पा कर्त्तापन का अभिमान न करे। इसमें साँसारिक सुख भी है और पारलौकिक हित भी। अनासक्त जीवन ही शुद्ध और सच्चा जीवन है।
सुख-शान्ति की उपलब्धि किन्हीं बाहरी साधनों तथा उपकरणों में नहीं होती। सुख-शान्ति का निवास मनुष्य की मानसिक वृत्तियों में ही होता है। जिसके हृदय की वृत्ति प्रसन्न है, प्रफुल्ल तथा प्रमोदमयी है उसे बात-बात में हर्ष और प्रसन्नता की ही उपलब्धि होगी। जिसका मन विषादि, प्रमादी और असंतुष्ट है उसे जलन-घुटन, असंतोष तथा कुँठाओं की विभीषिका में पड़ना होगा। जिसने अपने मन का परिष्कार कर लिया है, उसे अपने वश में कर लिया है, उसको संसार में किसी भी सहायक की आवश्यकता नहीं रहती। स्वाधीन मन मनुष्य का सबसे बड़ा और सच्चा सहायक होता है। मन का परिमार्जन स्वयं ही एक बहुत बड़ा तप है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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