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आत्मचिंतन के क्षण
इस दानशील देश में हमें पहले प्रकार के दान के लिए अर्थात आध्यात्मिक ज्ञान के विस्तार के लिए साहसपूर्वक अग्रसर होना होगा! और यह ज्ञान-विस्तार भारत की सीमा में ही आबद्ध नहीं रहेगा, इसका विस्तार तो सारे संसार में करना होगा! और अभी तक यही होता भी रहा है! जो लोग कहते हैं कि भारत के विचार कभी भारत से बाहर नहीं गये, जो सोचते हैं कि मैं ही पहला सन्यासी हूँ जो भारत के बाहर धर्म-प्रचार करने गया, वे अपने देश के इतिहास को नहीं जानते! यह कई बार घटित हो चुका है! जब कभी भी संसार को इसकी आवश्यकता हुई, उसी समय इस निरन्तर बहनेवाले आध्यात्मिक ज्ञानश्रोत ने संसार को प्लावित कर दिया!
~ स्वामी विवेकानन्द
श्रेष्ठ मनुष्यों की मित्रता पत्थर के समान सुदृढ़, मध्यम मनुष्यों की बालू के समान और निकृष...
आत्मचिंतन के क्षण
शरीर से सत्कर्म करते हुए, मन में सद्भावनाओं की धारण करते हुए जो कुछ भी काम मनुष्य करता है वे सब आत्मसन्तोष उत्पन्न करते हैं। सफलता की प्रसन्नता क्षणिक है, पर सन्मार्ग पर कर्तव्य पालन का जो आत्म-सन्तोष है उसकी सुखानुभूति शाश्वत एवं चिरस्थायी होती है। गरीबी और असफलता के बीच भी सन्मार्ग व्यक्ति गर्व और गौरव अनुभव करता है।
यदि आत्म-निरीक्षण करने में, अपने दोष ढूँढने में उत्साह न हो, जो कुछ हम करते या सोचते हैं सो सब ठीक है, ऐसा दुराग्रह हो तो फिर न तो अपनी गलतियाँ सूझ पडेगी और न उन्हें छोडनें को उत्साह होगा। वरन् साधारण व्यक्तियों की तरह अपनी बुरी आदतों का भी समर्थन करने के लिए दिमाग कुछ तर्क और कारण ढूँढता रहेगा जिससे दोषी होते हुए भी अपनी निर्दोषिता प्रमाणित की जा सके। &nb...
आत्मचिंतन के क्षण
सब लोग सुखी तो होना चाहते हैं, परंतु उसके लिए परिश्रम नहीं करना चाहते। यह तो न्याय की बात है, कि बिना कर्म किए फल मिलता नहीं। यदि आप उत्तम फल चाहते हैं तो पुरुषार्थ तो अवश्य ही करना होगा। यदि भोजन खाना है, तो रसोई में तो जाना ही होगा, वहां भोजन बनाने का परिश्रम तो करना ही होगा। तभी अच्छा भोजन प्राप्त हो सकेगा। इसी तरह से जो लोग मन की शांति और सुख पूर्वक जीवन जीना चाहते हैं, तो उन्हें इसके लिए दो कार्य करने होंगे।
पहला - प्रतिदिन सुबह शाम नियमित रूप से ईश्वर की उपासना करना। चाहे 15/ 20 मिनट ही करें, परंतु नियमित रूप से करें। इससे आपकी आत्मा की बैटरी चार्ज हो जाएगी। उसमें ईश्वरीय गुण न्याय दया सेवा परोपकार सच्चाई ईमानदारी आदि प्रविष्ट हो जाएंगे। फिर इन गुणों की सहाय...
आत्मचिंतन के क्षण
कठिनाइयों से, प्रतिकूलताओं से घिरे होने पर भी जीवन का वास्तविक प्रयोजन समझने वाले व्यक्ति कभी निराश नहीं होते, वे हर प्रकार की परिस्थितियों में अपने लक्ष्य से ही प्रेरणा प्राप्त करते तथा श्रेष्ठता के पथ पर क्रमशः आगे बढ़ते जाते हैं।
श्रम की उपयोगिता निःसन्देह बहुत अधिक है। शारीरिक अङ्गो के परिचालन रक्त संचार में क्रिया- शीलता तथा पाचन संयत्रों को मजबूत बनाये रखने के लिये परिश्रम का बड़ा महत्त्व है। इसमें आलस्य करने से स्वास्थ्य गिरता है, शक्ति क्षीण होती है और स्फूर्ति चली जाती है। आलस्य और प्रमाद से शारीरिक शक्तियाँ शिथिल पड़ जाती हैं, मनोबन गिरता है और समाज का गौरव नष्ट हो जाता है। परिश्रम जीवन का प्रकाश है। जिससे मनुष्य सरलता पूर्वक अपनी विकास- यात्रा पूरी कर लेता है।
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आत्मचिंतन के क्षण
मानसिक शुद्धि, पवित्रता एवं एकाग्रता पर आधारित है, जिसका मन जितना पवित्र और शुद्ध होगा, उसके सकंल्प उतने ही बलवान् एवं प्रभावशाली होंगे। सन्त- महात्माओं के शाप, वरदान की चमत्कारी घटनाएँ उनकी मन की पवित्रता एवं एकाग्रता के ही परिणाम हैं। इस तथ्य से सारे विश्व के सभी धर्म शास्त्रों ने मन को पवित्र बनाने पर जोर दिया है।
हम सुख- भोगों पर दुखों का सहर्ष स्वागत करने के लिये तैयार रहें, सुविधायें प्राप्त करें ,पर कठिनाइयों से जूझने की हिम्मत भी रखें ।। समाज और साहचर्य में रहकर जीवन को शुद्ध और एकान्त में आत्म- चिंतन, आत्म- निरीक्षण की साधना भी चलती रहे, तो हम स्वस्थ और स्वाभाविक जीवन जीते हुये भी अपना जन्मउद्घेश्य पूरा कर सकते हैं, शाश्वत शान्ति प्राप्त कर सकते हैं।
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आत्मचिंतन के क्षण
राष्ट्रपिता का मन्तव्य हर स्त्री- पुरुष जिन्दा रहने के लिए शरीर श्रम करें। मनुष्य को अपनी बुद्धि की शक्ति का उपयोग आजीविका या उससे भी ज्यादा प्राप्त करने के लिए ही नहीं, बल्कि सेवा के लिए, परोपकार के लिए करना चाहिए। इस नियम का पालन सारी दुनिया करने लगे, तो सहज ही सब लोग बराबर हो जायें, कोई भूखों न मरे और जगत् बहुत से पापों से बच जाय, इस नियम का पालन करने वाले पर इसका चमत्कारी असर होता है, क्योंकि उसे परम शान्ति मिलती है, उसकी सेवा शक्ति बढ़ती है और उसकी तन्दुरुस्ती बढ़ती है। गीता का अध्ययन करने पर मैं इसी नियम को गीता के तीसरे अध्याय में यज्ञ के रूप में देखता हूँ। यज्ञ से बचा हुआ वही है, जो मेहनत करने के बाद मिलता है। अजीविका के लिए पर्याप्त श्रम को गीता ने यज्ञ कहा है।
आत्मचिंतन के क्षण
शरीर, मन और बुद्धि तीनों में ही काम शक्ति क्रियाशील है। शौर्य, साहस पराक्रम, जीवट, उत्साह और उमंग उसकी ही विभिन्न भौतिक विशेषताएँ हैं। उत्कृष्ट विचारणाएँ उदात्त भाव सम्वेदनाएँ काम की आध्यात्मिक विशेषताएँ हैं। संयम और ऊर्ध्वगमन की साधना द्वार, काम, का रूपान्तरण होता है। रूपान्तरण का अर्थ है- सम्पूर्ण व्यक्तित्व में उल्लास का समावेश हो जाना।
मानसिक क्षमता, चारित्रिक दृढ़ता ,संवेदनाएँ, उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कार्यों को करने का जीवट आदि विषय स्थूल मस्तिष्क के नहीं हैं। चेतना की परिधि में आने वाली इन विशिष्टताओं का विशद अध्ययन परामनोवैज्ञानिक कर रहे है इन सबके निष्कर्ष यही हैं कि प्रसुप्त शक्तियों का जागरण एवं मानसिक क्षमताओं का पूर्ण उपयोग ही जीवन की समस्त स...
आत्मचिंतन के क्षण
भाग्यवाद एवं ईश्वर की इच्छा से सब कुछ होता है- जैसी मान्यताएँ विपत्ति में असंतुलित न होने एवं संपत्ति में अहंकारी न होने के लिए एक मानसिक उपचार मात्र हैं। हर समय इन मान्यताओं का उपयोग अध्यात्म की आड़ में करने से तो व्यक्ति कायर, अकर्मण्य एवं निरुत्साही हो जाता है।
प्रतिभा किसी पर आसमान से नहीं बरसती, वह अंदर से ही जागती है। उसे जगाने के लिए केवल मनुष्य होना पर्याप्त है। वह अन्य कोई प्रतिबन्ध नहीं मानती। वह तमाम सवर्णों को छोड़कर रैदास और कबीर का वरण करती है, बलवानों, सुंदरों को छोड़कर गाँधी जैसे कमजोर शरीर और चाणक्य जैसे कुरूप को प्राप्त होती है। उसके अनुशासन में जो आ जाता है, वह बिना भेदभाव के उसका वरण कर लेती है।
अपव्ययी अपनी ही बुरी आदतों ...
आत्मचिंतन के क्षण
हम प्रथकतावादी न बनें। व्यक्तिगत बड़प्पन के फेर में न पड़ें। अपनी अलग से प्रतिभा चमकाने का झंझट मोल न लें। समूह के अंग बनकर रहें। सबकी उन्नति में अपनी उन्नति देखें और सबके सुख में अपना सुख खोजें। यह मानकर चलें कि उपलब्ध प्रतिभा, सम्पदा एवं गरिमा समाज का अनुदान है और उसका श्रेष्ठतम उपयोग समाज को सज्जनतापूर्वक लौटा देने में ही है।
क्षमा न करना और प्रतिशोध लेने की इच्छा रखना दुःख और कष्टों के आधार हैं। जो व्यक्ति इन बुराइयों से बचने की अपेक्षा उन्हें अपने हृदय में पालते-बढ़ाते रहते हैं वे जीवन के सुख और आनंद से वंचित रह जाते हैं। वे आध्यात्मिक प्रकाश का लाभ नहीं ले पाते। जिसके हृदय में क्षमा नहीं, उसका हृदय कठोर हो जाता है। उसे दूसरों के प्रेम, मेलजोल, प्रतिष्ठा एवं आत्म-संतोष से...
आत्मचिंतन के क्षण
साधना का तात्पर्य है, अपने आप के कुसंस्कारों, दोष- दुर्गुणें का परिशोधन, परिमार्जन और उसके स्थान पर सज्जनता, सदाशयता का संस्थापन। आमतौर से अपने दोष- दुर्गुण सूझ नहीं पड़ते। यह कार्य विवेक बुद्धि को अन्तर्मुखी होकर करना पड़ता है। आत्मनिरीक्षण, आत्म सुधार, आत्म निर्माण, आत्म विकास इन चार विषयों को कठोर समीक्षण- परीक्षण की दृष्टि से अपने आप को हर कसौटी पर परखना चाहिए। जो दोष दीख पड़े, उनके निराकरण के लिए प्रयत्न करना चाहिए।
मस्तिष्क एक प्रत्यक्ष कल्प वृक्ष है, जीवन की सक्रियता एवं स्फूर्ति मस्तिष्क की क्रियाशीलता पर निर्भर है। व्यक्तित्व का सारा कलेवर यहीं विनिर्मित होता है। यही वह पावर हाउस है, जहाँ से शरीरिक इन्द्रियाँ शक्ति प्राप्त करती हैं।। स्थूल गतिविधियाँ ही नही...