आत्मचिंतन के क्षण
सुख- दुःख हर तरह की परिस्थिति में सन्तुष्ट रहने को सन्तोष कहते हैं। कुसंस्कारों के परिशोधन एवं सुसंस्कारों के अभिवर्द्धन के लिए स्वेच्छापूर्वक जो कष्ट उठाया जाता है- वह तप कहलाता है। स्वयं के अध्ययन- विश्लेषण के लिए किया जाने वाला अध्यवसाय स्वाध्याय है। अपने चित्त को श्रद्धापूर्वक परमात्मा के दिव्य स्वरूप में नियोजित करना ईश्वर प्राविधान कहलाता है।
संकीर्ण स्वार्थपरता एवं आसुरी जीवन दर्शन को निरस्त करने के लिए आवश्यक है कि चिन्तन की उत्कृष्टता ,स्वभावगत शालीनता और व्यवहार की आदर्शवादिता के दूरगामी सत्परिणामों को तर्क, प्रमाण और उदाहरणों सहित समझाया जाय।
भगवान् पत्र, पुष्पों के बदले नही, भावनाओं के बदले प्राप्त किये जाते हैं और वे भावनाएँ आवेश, उन्माद या कल्पना जैसी नहीं, वरन् सच्चाई की कसौटी पर खरी उतरने वाली होनी चाहिए। उनकी सच्चाई की परीक्षा मनुष्य के त्याग, बलिदान, संयम, सदाचार एवं व्यवहार से होती है।
आदर्शवादी और उत्कृष्टता वादी चिंतन के साथ जब गायत्री उपासना की जाती है, तो उसे सोने में सुगन्ध मिलने की तरह सराहा जाता है। इस सम्बन्ध में अपना दृष्टिकोण साफ रखना चाहिए कि उपासना का जितना महत्त्व है, उतना ही, बल्कि उससे भी कहीं अधिक महत्त्व साधना का है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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