" जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात द्विज उच्चते । " अर्थात जन्म से तो सभी क्षुद्र प्रकृति के होते है, संस्कारो से उन्हे श्रेष्ठ बनाया जाता है। प्राचीन भारत में मनुष्य जीवन को विकसित करने हेतु संस्कार संवर्धन की क्रियाएँ दिनचर्या में समाहित की गयी थी। गरीब हो या अमीर, छोटा हो या बड़ा सभी के लिए विकसित होने के सभी सूत्र संस्कृति के रूप में उपस्थित थे। दैनिक जीवन क्रम, संयुक्त परिवारिक व्यवस्था, तीज- त्यौहार और पर्व- उत्सव के माध्यम से श्रेष्ठ व्यक्तित्वों के निर्माण का क्रम चलता रहता था। दैनिक जीवन क्रम में ही समस्त गुह्य ज्ञान विज्ञान का शिक्षण प्रशिक्षण हो जाता था। धन की तुलना में ज्ञान और जीवन जीने की कला पर विशेष ध्यान दिया जाता था। भारत में देवमानवों को विकसित करते थे। इन दिनो भोगवादी जीवन पद्यति ने अर्थ को अत्यधिक प्रधानता दी है फल स्वरूप व्यक्तित्व विकास का क्रम पिछड़ गया है। सन्तान उत्पादन तो पूर्ववत चल रहा हैं। परन्तु उन्हे सच्चे और अच्छे मनुष्य बनाने की प्रक्रिया बाधित हो गई है। यदि हम चाहते है कि परिवार, समाज और राष्ट्र- विश्व सुख शांतिपूर्वक रहे तो आवश्यकता महसूस होती है श्रेष्ठ नागरिकों की व्यक्ति निर्माण की । यह बड़ी कठिन और श्रमसाध्य प्रक्रिया है । गायत्री परिवार ने सदा ही व्यक्ति निर्माण को वरीयता दी है और अपने संस्थापक संरक्षक की प्रेरणा से "आओ गढ़े संस्कार वान पीढ़ी" का अभियान प्रारंभ किया है। इसके अन्तर्गत नवदम्पति शिविर, गर्भसंस्कार, माँ की संस्कार शाला, बाल संस्कार शाला, किशोर संस्कार शाला, कन्या कौशल और युवा जागृति अभियान के माध्यम से जन्म के पूर्व से लेकर युवावस्था तक एक पूरी पीढ़ी के निर्माण का दायित्व उठाया है। व्यक्ति निर्माण की इस प्रक्रिया मे तीसरा चरण है "माँ की संस्कार शाला" जिसके अन्तर्गत जन्म से लेकर 8 वर्ष की अवस्था, तक बालकों के शारीरिक मानसिक, भावनात्मक एवं सामाजिक विकास हेतु माता- पिता द्वारा किए जाने वाले प्रयासों संस्कारों को ध्यान में रखा गया है। गुरुदेव ने कहा है कि परिवार पाठशाला है और माता- पिता गुरु हैं। घर का वातावरण बच्चे के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। परिवार सांचा है और बच्चे गीली मिट्टी के समान हैं।