Magazine - Year 1940 - Version 2
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Language: HINDI
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उसने कुछ नहीं खोया
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(महात्मा ‘राम जी राम जी’ महाराज)
आसुरी तपस्या में सिद्धियाँ का बाहुल्य होता है। आसुरी तपों का संसार में इसीलिए प्रचलन अधिक है कि उनके द्वारा तत्काल और चमत्कारिक परिणाम उपस्थित होते हैं। शुक्राचार्य असुरों के गुरु थे उन्होंने अपनी उग्र तपस्या द्वारा अनेक सिद्धियाँ प्राप्त की थी। इनमें सबसे बड़ी सिद्धि मृतक को जीवित कर देना था। ऋषि शुक्राचार्य किसी भी मृत पुरुष को जीवित कर देने की सामर्थ्य रखते थे।
एक बार सुर-असुरों में घोर संग्राम हुआ। संसार में भौतिक सुख सामग्री परिमित है उसमें से सबको थोड़ा सा हिस्सा मिल सकता है। किंतु इतना संतोष है किसे? हर एक चाहता है कि मैं बड़ा वैभवशाली बनूँ दूसरे मुझसे छोटे रहें। बस सारी लड़ाइयों की यही एक जड़ है। देवता चाहते थे कि हम शासक रहें असुर चाहते थे कि हमारे हाथ में सत्ता हो। इसी बात पर घोर देवासुर संग्राम आरंभ हो गया।
युद्ध में लड़ाके मरते ही हैं। दोनों दलों के असंख्य योद्धा हवाहत होने लगे। असुरों के जो योद्धा मरते शुक्राचार्य उन्हें मंत्र शक्ति से फिर जीवित कर देते, किन्तु देवताओं के पास इस प्रकार का कोई साधन न था। उनकी संख्या दिन-दिन घटती जा रही थी। निदान देवता घबरा गए और उन्होंने गंभीरतापूर्वक समस्या पर विचार किया-अब क्या करना चाहिए ?
लंबे विचार विमर्श के पश्चात् निश्चय किया गया कि देव कुमार कच को शुक्राचार्य के पास वह मृत संजीवनी विद्या पड़ने भेजा जाय। शुक्राचार्य की पुत्री देव यानी कच को चाहती थी। कच वहाँ जायगा और विद्या सीखने की प्रार्थना करेगा तो देव यानी की उसे विशेष सहायता मिलेगी और काम सफल हो जाएगा। वह सुँदर षडयंत्र देवताओं के मस्तिष्क में उपज पड़ा।
यही किया गया। कुमार ‘कच’ शुक्राचार्य के आश्रम में पहुँचा। देवयाणी जिस स्वप्न को वर्षों से देखा करती थी वह आज मूर्तिवत् सामने आ खड़ा हुआ। प्रसन्नता के मारे उसका रोम-रोम विह्वल हो गया। कुमारी ने युवक का स्वागत किया और उत्सुकता पूर्वक उसके आने का कारण पूछा।
“तुम्हारे पिता से विद्या पढ़ने आया हूँ, देवयानी” कच ने उत्तर दिया।
देवयानी अपने पिता के स्वभाव को समझती थी। विरोधियों के बालक को विद्या न सिखायेंगे। जिस विद्या के कारण वे असुरों के गुरु बने हुए हैं उसे विरोधी को कैसे बता देंगे ? कार्य बड़ा कठिन था। परन्तु देवयानी कच को बहुत प्रेम करती थी। उसने तय किया वह कच की पूरी मदद करेगी। कच ने भी जब देवयाणी के सम्मुख यही आशंका प्रकट की तो उसने दिलासा दी और वचन दिया कि पिता से विद्या दिलाने में शक्ति भर प्रयत्न करूंगी।
कच आचार्य के सामने उपस्थित हुआ। उसने गुरु चरणों में शीश झुकाते हुए संजीवन विद्या सीखने की इच्छा प्रकट की। शुक्राचार्य बड़े असमंजस में पड़े। वे शत्रुओं के बालक को किस प्रकार विद्या पढ़ावें, इसमें तो उनकी हानि ही हानि थी।
अवसर जानकर देवयानी चली आई। उसने पिता से कहा-पिता। विद्या देना ब्राह्मण का प्रथम मुख्य धर्म है। जिस प्रकार अन्य वर्ण भिक्षुक को अपने द्वारा पर से विमुख लौटा कर पाप के भागी बनते हैं उसी प्रकार अधिकारी को विद्या दान न देकर ब्राह्मण नरकगामी होता है। आप धर्म तत्व के मर्मज्ञ हैं। इसलिए स्वार्थ के कारण इस अधिकारी बालक को विद्या से विमुख मत कीजिए।
देवयानी के धर्म नीति युक्त वाक्यों से शुक्राचार्य बहुत प्रभावित हुए। वे उसका आदर करते थे। पुत्री की इच्छा देखकर वे कच को विद्या पढ़ाने के लिए सहमत हो गए।
कच आचार्य के आश्रम में रहकर विद्याध्ययन करने लगा। देवयानी से उसकी घनिष्ठता बढ़ने लगी। दोनों साथ-साथ हंसते-बोलते-खेलते खाते-पीते। प्रेम दिन-दिन बढ़ने लगा दोनों एक दूसरे के बिना चैन से न रहते।
आज मनुष्य का हर एक व्यवहार पाप दृष्टि से आरंभ होता है और उसका अन्त भी पाप में ही जाकर होता है। सभ्यता के इस आधुनिक विकास ने मनुष्य का मस्तिष्क दूषित कर दिया है। परन्तु सदा से ऐसी बात न थी। हम विनाश के जितने नजदीक पहुँचते जा रहे हैं उतने ही पाप पंक में फंस रहे हैं। यदि वह पापमयी सभ्यता पूर्व काल में ही आरंभ हो गई होती तो इंसान का आस्तित्व अब तक दुनिया से मिट गया होता। कच देवयानी में घना प्रेम था, दोनों वयस्क हो चले थे साथ-साथ रहते थे, परन्तु वह प्रेम साधारण बाल-प्रेम था। दूध जैसा शुभ्र, हिमि जैसा स्वच्छ।
विद्या अभ्यास और आध्यात्मिक साधनाएं एक दिन में पूरी नहीं हो जाती। उसके लिए निष्ठा, एकाग्रता और बहुत काल तक निरंतर अभ्यास की जरूरत होती है। कच को शिक्षा प्राप्त करते हुए वर्षों बीत गए।
किसी प्रकार वह समाचार असुरों को मिला। वे बड़े व्याकुल हुए, ‘शत्रु कच को भी यह विद्या मिल जाएगी तो हम उन्हें जीत न सकेंगे। यह प्रश्न उनके जीवन मरण का प्रश्न था। उन्होंने कच को मार डालना तय किया। गुप्त रूप से दूसरे ही दिन असुरों ने उसे मार डाला। कच की मृत्यु का समाचार जब गुरु के आश्रम में पहुँचा तो सब लोग बड़े दुखी हुए। आचार्य ने उन्हें धैर्य बंधाया और कच की लाश मंगाकर मंत्र से उसे जीवित कर दिया।
असुर, गुरु को रुष्ट करने का साहस नहीं कर सकते थे। इसलिए उन्होंने प्रत्यक्ष में तो उनसे कुछ न कहा पर गुप्त रूप से अपने प्रयत्न बराबर जारी रखे। जहाँ वे मौका पाते कच का वध कर देते, गुरु उसे फिर जीवित कर देते। कई बार यह क्रम चला। अन्त में असुरों ने एक दूसरा उपाय निकाला। उन्होंने कचा को मार कर भोज्य पदार्थों में मिलाया और गुरु को निमंत्रित करके उसका भोजन करा दिया। असुर प्रसन्न थे कि अब कच का मृत शरीर बाहर तो है नहीं। पेट में से उसे निकालेंगे तो स्वयं मर जायेंगे। इसलिए अब उसका अंत हो गया।
आश्रम में कच न पहुँचा तो फिर तलाश हुई। बहुत ढूंढ़ने पर उसकी लाश तक का कुछ पता न चला। देवयानी कच के बिना अन्न जल तक ग्रहण न कर रही थी। विद्वान गुरु को अपनी दिव्य दृष्टि से उसे ढूंढ़ना पड़ा। उन्होंने देखा कि कच का शरीर उन्हीं के पेट में परिपाक होकर रक्त माँस में मिल गया है। अब उसे जीवित किस प्रकार किया जाय ? आचार्य को अपना प्राण जाने का भय था। अब की बार मामला बहुत पेचीदा था।
इसका हल भी देवयानी ने ही निकाला। उसने कहा पिता ! अपने पेट के अन्दर कच को जीवित करके उसे संजीवनी विद्या का अन्तिम पाठ पढ़ा दीजिए। वह आपका पेट फाड़कर निकल आवेगा तब आपको पुनः जीवित कर देगा।
शुक्राचार्य को बात माननी पड़ी। पेट में कच को अन्तिम पाठ पढ़ाया गया। वह पेट फाड़कर बाहर निकला और गुरु को पुनः जीवित कर दिया।
जिस कार्य के लिए कच आया हुआ था वह पूरा हो गया। जब उसने गुरु से वापिस जाने की आज्ञा चाही। देवयानी को यह पता चला तो उसका हृदय धड़कने लगा। वह अपना सर्वस्व कच पर निछावर कर चुकी थी। उसे दृष्टि से दूर नहीं होने देना चाहती थी। सच तो यह है कि देवयाणी कच के साथ विवाह बंधन में बंधना चाहती थी। वह उस पर प्राण निछावर कर चुकी थी।
देवयानी की आंखें झलक आईं। उसने आँसू पोंछते हुए कच से कहा-अब मेरा प्रेम तुम्हें आत्म समर्पण किया चाहता है। क्या तुम मुझे स्वीकार न करोगे ?
-शेष अगले अंक में