Magazine - Year 1940 - Version 2
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Language: HINDI
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आत्मलोचन (कविता)
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(ले.-श्री जिज्ञासु) तरुणी का रति सा यौवन, नर शशि जैसा सुन्दर था।
पल भर पीछे एक वृद्ध थी, झुका एक का सर था॥ उस दिन के धनपति को देखा भिक्षा पात्र संभाले।
नीरव मरघट में सोते देखे सिंहासन वाले॥ चला चली का मेला था, यह गया और वह आया।
सुख का स्वप्न देखने वाला, लुढ़क पड़ा चिल्लाया॥ जो कहते थे हम शासक हैं, धनी गुणी, बलशाली।
वे ठठरी पर लदे हुए थे, कर थे उनके खाली॥ यह सब देखा, देख रहा हूँ, फिर भी आंखें मींचीं।
विष के फल जिन पर आते हैं, वही लताएं सींचीं॥ जान रहा हूँ, जान, जानकर, भी अनजान बना हूँ।
गंगा के तट के पर रहता हूँ, फिर भी कीच सना हूँ॥ ***** देखो मुझे देखने वालों, मैं कैसा बौराया।
जाग रहा हूं, पर सोने वाले का स्वाँग बनाया॥***** ***** *****
पल भर पीछे एक वृद्ध थी, झुका एक का सर था॥ उस दिन के धनपति को देखा भिक्षा पात्र संभाले।
नीरव मरघट में सोते देखे सिंहासन वाले॥ चला चली का मेला था, यह गया और वह आया।
सुख का स्वप्न देखने वाला, लुढ़क पड़ा चिल्लाया॥ जो कहते थे हम शासक हैं, धनी गुणी, बलशाली।
वे ठठरी पर लदे हुए थे, कर थे उनके खाली॥ यह सब देखा, देख रहा हूँ, फिर भी आंखें मींचीं।
विष के फल जिन पर आते हैं, वही लताएं सींचीं॥ जान रहा हूँ, जान, जानकर, भी अनजान बना हूँ।
गंगा के तट के पर रहता हूँ, फिर भी कीच सना हूँ॥ ***** देखो मुझे देखने वालों, मैं कैसा बौराया।
जाग रहा हूं, पर सोने वाले का स्वाँग बनाया॥***** ***** *****