Magazine - Year 1940 - Version 2
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Language: HINDI
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सोना बनाने की विद्या
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(श्री जगन्नाथप्रसाद शर्मा, अध्यापक, दाँता)
मगध देश का एक राजा था। उसका नाम था चित्रंगद। वह अपनी प्रजा के सुख दुखों का पता लगाने के लिए राज्य भर में भ्रमण करने निकला। पुराने जमाने में यात्रा के आज जैसे साधन न थे। रेल और मोटरें थी नहीं, पक्की सड़कें भी कम थीं। दूर देश जाने के लिए घने जंगलों को पार करना पड़ता था। राजा अपनी यात्रा करते हुए एक बड़े जंगल में होते हुए निकले।
दिन भर की यात्रा से सब लोग थक गये थे। वे कहीं विश्राम करने की फिक्र में ही थे कि सामने एक सुन्दर सरोवर दिखाई दिया। चारों ओर हरियाली थी, सुन्दर पुष्प खिले हुए थे, पक्षियों के कलरव से वह स्थान बड़ा शोभायमान हो रहा था। इस और रात को वहीं डेरा डाल देने का हुक्म दे दिया। सब लोग अपना श्रम मिटाने लगे।
पास में कुटी दिखाई दी। राजा ने नौकरों को पता लगाने भेजा- “देखो तो इस कुटी में कौन रहता है?”
नौकर वहाँ पहुँचे। देखा कि एक महात्मा भगवान का भजन कर रहे हैं। नौकरों ने जो देखा था राजा को बता दिया। राजा ने सोचा इस एकान्त वन में भजन करने वाला साधु निश्चय ही धनाभाव के कारण कष्ट उठाता रहता होगा। हम आज इसके आश्रम में आये हैं, राजा का धर्म है कि अपने राज्य में महात्मा को कष्ट न होने दे। इसलिए इसे कुछ धन देना चाहिए।
राजा ने एक दूत के द्वारा महात्मा के लिए सौ रुपये भेजे। नौकर साधु के पास पहुँचे और हाथ जोड़कर कहा- महाराज! आज आपके आश्रम में इस मगध देश के राजा चित्राँगद आये हुए हैं। उन्होंने यह धन आपके लिये भेजा है।
थैली को देखकर साधु मुस्कुराया और उसने धीमे स्वर में कहा- “यह धन किसी भूखे नंगे को दे देना मुझे इसकी जरूरत नहीं है।” बारबार आग्रह करने पर जब साधु ने यही उत्तर दिया तो दूत निराश लौट आया और साधु का उत्तर राजा को कह सुनाया।
राजा ने सोचा- साधु को कदाचित अधिक धन की आवश्यकता होगी। इन थोड़े रुपयों को देखकर वह असंतुष्ट हुआ होगा इसीलिए उन्हें लौटा दिया है। राजा ने दुबारा पाँच सौ रुपये भेजे। किन्तु साधु ने फिर वही उत्तर दिया। तीसरी बार एक हजार, चौथी बार दो हजार, पाँचवीं बार दस हजार रुपये राजा ने भेजे पर साधु टस से मस नहीं हुआ। उसने यही कहा- मुझे रुपयों की कोई जरूरत नहीं है।
अब तो राजा का कौतूहल बहुत बढ़ा और वे स्वयं साधु से पास चल दिये। राजा ने महात्मा को प्रणाम किया और पास में पड़ी हुई चटाई पर बैठ गये। चित्राँगद ने साधु से कहा- भगवन् क्यों मेरा धन आप स्वीकार नहीं करते? जीवन निर्वाह की उपयोगी वस्तुएँ धन द्वारा प्राप्त होती हैं। इससे आपके निर्वाह की आवश्यकताएं पूरी होंगी धन को ग्रहण करके मुझे कृतार्थ कीजिए।
साधु ने सहज स्वाभाविक हँसी हँसते हुए कहा- राजन! धन लौटाने से मेरा तात्पर्य यह नहीं था कि आपका धन कम है या उसमें कुछ दोष है। बात केवल इतनी सी है मुझे तुम्हारे धन की आवश्यकता नहीं थी। मेरी जरूरत के लिए मेरे पास धन है। राजा ने आश्चर्य से पूछा- आपकी कुटी में तो मुझे कुछ भी दिखाई नहीं देता, फिर वह धन कहाँ है?
महात्मा राजा का कल्याण करना चाहते थे। साधुओं का स्वभाव ही दूसरों का कल्याण करने का होता है। अपनी अंतर्दृष्टि से राजा की वर्तमान मनोदिशा परख ली और उसको मार्ग तक ले पहुँचने की युक्ति भी सोच ली। उन्होंने राजा के कान के पास मुँह ले जाकर चुपके से कहा- “मैं रसायनी विद्या जानता हूँ- ताँबे से सोना बना लेता हूँ।” राजा चुपचाप वापस चले आये।
चित्राँगद को रात भर नींद नहीं आई। वह सोचता रहा- किसी प्रकार मैं रसायनी विद्या सीख जाऊं तो कैसा अच्छा हो। धन की मुझे किसी प्रकार की कमी न रहे। खजाने सोने से भरे रहें। वैभव हजारों गुना बढ़ जाय और पृथ्वी भर का स्वामी हो जाऊं। तरह-तरह के सुनहले दृश्य उसके मस्तिष्क में घूमने लगे। किसी भी प्रकार हो इस विद्या को सीखूँ। राजा का मन व्याकुल हो रहा था। कब सवेरा हो कब साधु के पास पहुँचु। एक-एक क्षण वर्ष की बराबर बीत रहा था। बड़ी मुश्किल से उसने रात काटी। बड़े तड़के नित्यकर्म से निवृत्त होकर राजा कुटी की ओर लपका।
महात्माजी भजन में मग्न बैठे हुए थे। राज उनके चरणों में लोट गया। साधु ने उसे उठाकर बिठाया और कुशल समाचार पूछा। राजा ने कहा- भगवन् किसी प्रकार मुझे भी वह रसायनी विद्या सिखाइये जिसे सोना बना सकूँ। इससे मेरा जीवन सफल हो जायगा।
साधु अपनी युक्ति की सफलता पर मन ही मन बहुत प्रसन्न हुए और कहा- राजन! मैं तुम्हें सिखा दूँगा। परन्तु इसके लिए कुछ समय चाहिए। तुम मेरे पास नित्य आया करो एक वर्ष के पश्चात तुम्हें वह विद्या सिखा दूँगा। राजा ने यह स्वीकार कर लिया और अपने रहने की ऐसी व्यवस्था करली कि नित्य साधु के पास आकर उनसे सत्संग कर सके।
उच्च आत्माएं मुख से कह कर या शरीर से कार्य करके ही नहीं वरन् आध्यात्मिक बल से भी संबंध रखने वालों में विचित्र परिवर्तन कर देती है। राजा साधु से निकटवर्ती वातावरण में बैठता और उनकी विचार गंगा में स्नान करके पवित्र हो जाता।
यही क्रम नित्य चलने लगा। माया ममता के द्वंद्व उससे छूटने लगे। और आत्मा के पवित्र स्वरूप का दर्शन करने लगा। सोना बनाना सीखने के लिए जो व्याकुलता थी, आध्यात्मिक शान्ति में परिणत होने लगी। राजा का मन भगवान के चरणों में रस लेने लगा। जैसे-जैसे दिन बीतते जाते थे उसका परिवर्तन तेजी से बढ़ता जाता था।
पूरा एक वर्ष बीत या। राजा अब स्वयं एक महात्मा, संसार का सच्चा अर्थ समझने वाला आदर्श त्यागी हो गया था। साधु ने उस दिन अपने निकट बिठाया और सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा- वत्स! रसायनी विद्या सीखोगे?
राजा ने गुरु के चरणों में शीश झुका दिया और कहा प्रभो, अब तो मैं स्वयं रसायन बन गया। अब और क्या सीखने को बाकी रह गया। किसी नश्वर विद्या को सीखने की अब मुझे आवश्यकता नहीं है।
राजा सचमुच सच्ची रसायनी विद्या सीख गया था। सोने या लोहे के पहाड़ जमा करके उसे अब कुछ नहीं करना था।