Magazine - Year 1941 - Version 2
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Language: HINDI
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धर्म का आचरण
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(श्री स्वामी विवेकानन्दजी)
आप यह अच्छी तरह समझ रक्खें कि किसी धर्म-पुस्तक का पाठ करने अथवा उसमें लिखी हुई धर्म विधियों की कवायद करने से ही कोई धार्मिक नहीं हो सकता। किसी धर्म या धर्म-पुस्तक पर विश्वास करने से ही यह ‘जन्म सार्थक नहीं होगा’ उसमें बताये हुए मार्गों का अनुभव करना चाहिये। ‘जिनका अन्तःकरण पवित्र है, वे धन्य हैं, वे ईश्वर को देख सकेंगे ।’ यह बाइबिल का कथन अक्षरशः सत्य है। परमेश्वर का साक्षात्कार करना ही मुक्ति है। कुछ मन्त्र रट लेने या मन्दिरों में शब्दाडम्बर करने से मुक्ति नहीं मिलती,परमात्मा की प्राप्ति के लिए बाह्य साधन कुछ काम नहीं आते, उसके लिये आन्तरिक सामग्री की जरूरत है। इससे कोई यह न समझलें कि बाहरी साधनों का मैं विरोधी हूँ। आरम्भ में उनकी आवश्यकता होती ही है पर साधक जैसा-जैसा उन्नत होता है, वैसी-वैसी उसकी उस ओर से प्रवृत्ति कम हो चलती है, आप यह निश्चय समझें कि किसी पुस्तक ने ईश्वर को उत्पन्न नहीं किया किन्तु ईश्वर की प्रेरणा से धर्म पुस्तकों की रचना हुई है। यही बात जीवात्मा और परमात्मा का ऐक्य कर देने का है। यही विश्वधर्म है। कल्पना और मार्ग भिन्न 2 होने पर भी सबका केन्द्र एक ही है। सब धर्मों का मूल्य क्या है? ऐसा यदि कोई मुझ से प्रश्न करे तो मैं उसे यही उत्तर दूँगा कि ‘आत्मा की परमात्मा से एकता कर देना ही सब धर्मों का मूल है। सच्ची दृष्टि से छाया के समान देख पड़ने वाले और इंद्रियों से अनुभव होने वाले इस जगत में जिस दिन परमात्मा का अनुभव कर लेंगे उसी दिन हम कृतकार्य होंगे तब हमको इस बात के विचार करने की आवश्यकता न होगी कि हमें यह दसा किस मार्ग से प्राप्त हुई है। आप चाहे किसी मत को स्वीकार करें, या न करें किसी मत या पन्थ के कहावें या न कहावें परमेश्वर का अस्तित्व अपने आप में अनुभव करने से ही आपका काम बन जायगा। कोई मनुष्य संसार के सब धर्मों पर विश्वास करता होगा, संसार के सब धर्म ग्रन्थ उसे कंठस्थ होंगे, संसार के सब तीर्थों में उसने स्नान किया होगा । तो भी यह सम्भव नहीं है कि परमात्मा की स्पष्ट कल्पना भी उसके हृदय में हो ! इसके विपरीत सारे जीवन में जिसने एक भी मन्दिर या धर्मग्रन्थ नहीं देखा और न उसमें लिखी कोई विधि ही की होगी, ऐसा पुरुष परमात्मा का अनुभव अन्तःकरण में करता हुआ देख पड़ना सम्भव है। जो मनुष्य कहता है कि मैं कहूँ वह सच है और सब मिथ्या है यह कभी विश्वास योग्य नहीं। एक धर्म सच है तो अन्य धर्म क्योंकर मिथ्या हो सकते हैं? जो परम सहिष्णु और मानव जाति पर प्रेम करे वही सच्चा साधु समझना चाहिए। परमेश्वर हमारा पिता और हम सब भाई हैं, यही भावना मनुष्य को उन्नत बना सकती है। यदि कोई जन्म से अज्ञान है तो क्या उसका कर्त्तव्य ज्ञान सम्पादन करने का नहीं है? वह यों कहे कि हम जन्म से मूर्ख हैं तो अब क्यों ज्ञानी बनें । तो सब उसे महामूर्ख कहेंगे। यदि हमारे संकुचित विचार हों तो उन्हें महान बनाना क्या हमारे लिये कोई अपमान की बात है? धर्मोपासना के विशिष्ट स्थान, निश्चित और खास विधि धर्म-ग्रन्थों में बताये हैं, उनके लिये एक दूसरों का उपहास करना क्या कोई बुद्धिमानी है। ये तो बालकों के खिलौनों की तरह हैं। ज्ञान होने पर बालक उन खिलौनों की जिस प्रकार परवाह नहीं करते, उसी प्रकार ईश्वर तक पहुँचे हुए लोगों को उक्त साधनों का महत्व नहीं प्रतीत होता किसी खास मत पन्थों को बिना जाने बूझे ज्ञान होने पर भी मानते रहना, बचपन का कुरता युवावस्था में पहनने की इच्छा करने के बराबर उपहास के योग्य है। मैं किसी धर्म पन्थ का विरोधी नहीं हूं और न मुझे उनकी अनावश्यकता ही प्रतीत होती है। पर यह देखकर हँसी रोके से भी नहीं रुकती कि कुछ लोग स्वयं जिस धर्म के रहस्यों को नहीं जानते उसे वे यदि अपना अमूल्य समय इस अध्याषारेघु व्यौपार के बदले उन्हीं तत्वों के जानने में लगावें तो क्या ही अच्छा हो? अनेक धर्मपन्थ उन्हें क्यों खटकते हैं सो मेरी समझ में नहीं आता ! लोग अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार धर्म का अनुसरण करें तो किसी का क्या बिगड़ेगा? रह एक व्यक्ति के लिये स्वतन्त्र धर्म हो तो भी मेरी समझ में कोई हानि नहीं किन्तु लाभ ही । क्योंकि विविधता से संसार की सुन्दरता बढ़ती है। उदर तृप्ति के लिये अन्न की आवश्यकता है, परन्तु एक ही रस की अपेक्षा अनेक रसों के विविध पदार्थ होने से भोजन में अधिक रुचि आती है। कोई ग्रामीण, जिसे तरह-तरह के पदार्थ मत्सर नहीं और जो केवल रोटी तथा प्याज के टुकड़े से पेट भर लेता है यदि किसी शौकीन के खाने के नाना पदार्थ की निन्दा करे तो वह खुद जिस प्रकार उपहास के पात्र होगा, उसी प्रकार एक ही धर्मविधि के पीछे लगे हुए दूसरे धर्मों की निन्दा करने वाले लोग स्तुति के पात्र नहीं हो सकते।