Magazine - Year 1942 - Version 2
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Language: HINDI
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ऋण से सच्ची मुक्ति।
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तीन कर्ज चुकाते जाओ!
हम तीन तार का यज्ञोपवीत पहनते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि हमारे कन्धे पर देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण का भार रखा हुआ है। इसे चुकाना आवश्यक है, यदि न चुकायेंगे तो कर्जदार बने रहेंगे और वारंट द्वारा पकड़ पकड़ कर इसी कैद खाने में डाले जावेंगे। तीन सत्ताओं द्वारा तीन तत्व प्राप्त करके हमने जीवन यात्रा आरंभ करने योग्य क्षमता पाई है। मानव जीवन की सारी महत्ता और सरसता इन्हीं तत्वों के आधार पर है। इनके अभाव में हम केवल पशु रह सकते थे।
पशु और मनुष्य के बीच में जो अन्तर हैं वह यह है कि (1) मनुष्य आत्मकल्याण का मार्ग जानता हैं और उसमें प्रवृत्त होने की योग्यता रखते हैं। (2) मनुष्य स्वार्थ की अपेक्षा परमार्थ का महत्व समझता है। (3) मनुष्य जो वस्तु प्राप्त करता है उसका बदला चुकाने की इच्छा करता है। पशुओं में यह तीनों बातें बहुत ही अल्प मात्रा में होती हैं। जीवन में यह दैवी तत्व जितने अधिक बढ़ते जाते हैं उतना ही मनुष्यत्व का विकास होता जाता है। आत्म चेतना, दैवी-ईश्वरीय सत्ता का अंश है, परमार्थ इच्छा ऋषि सत्ता का भाग है और ऋण प्रतिशोध पितृ सत्ता की देन है। इस प्रकार हम आत्म चेतना को देव ऋण, परमार्थ इच्छा को ऋषि ऋण और ऋण प्रतिशोध आकाँक्षा को पितृ ऋण कह सकते हैं।
आत्मचेतना उत्पन्न करके ईश्वर ने हमें अपने खजाने की सारी कुँजियाँ दे दी हैं। आत्मा के अन्दर इतनी चमत्कारिक बहुमूल्य शक्तियाँ भरी पड़ी हैं कि उनमें से कुछ का भी यदि ठीक प्रकार उपयोग किया जाय तो ऐसी अद्भुत सफलताएँ मिल सकती हैं, जिन्हें देख कर दुनिया हैरान रह जावे। अष्ट सिद्धि, नव सिद्धि का खजाना अपने अन्दर है, योग के अपरिचित चमत्कार तंत्र विज्ञान की अलौकिक करामातें यह सब अपने अन्दर ही तो भरा हुआ है। इसकी कुछ बूँदें पाकर रावण, हिरण्यकश्यप, सहस्रबाहु सरीखे वाममार्गी और राम, कृष्णा, बुद्ध सरीखे दक्षिण मार्गी इस संसार में अपना प्रताप प्रकट कर चुके हैं। मोची का मुसोलिनी, आवारे का हिटलर बन जाता इसी शक्ति का छोटा सा प्रताप है। मनुष्य को करीब करीब ईश्वर की बराबर योग्यता दी गई है और उसका प्रयोग करने या न करने की पूरी पूरी आजादी देकर परमात्मा ने उसे बड़ा गौरवपूर्ण पद प्रदान किया है। यदि आध्यात्मिक योग्यता प्राप्त न हुई होती तो हम भी कीड़े मकोड़े से तुच्छ होते और लोक-परलोक का आनन्द लाभ करने से वंचित रह जाते। ईश्वर की यह कितनी बड़ी अनुकम्पा हमारे ऊपर है, इस कृपा के लिए हमें ऋणी होना चाहिए और देव ऋण को सदैव स्मरण रखना चाहिए।
संसार इतना परमार्थी है उदार और देने वाला है कि उसकी कृपा का परिचय एक एक पग पर प्राप्त होता है। जन्म लेते ही माता का पवित्र और निर्मल प्रेम तैयार मिलता है वह कितने कष्ट सह कर पालन पोषण करती है, अपने शरीर का रस निचोड़ कर पिलाती है और अन्त समय तक अपनी शीतल छाया से अलग नहीं होने देती। पिता हमारे लिए नाना प्रकार की उपयोगी वस्तुएँ इकट्ठी करते हैं, बहिन खिलाती है, स्कूल के साथी बड़ा प्रेम करते हैं, अध्यापक शिक्षा देते हैं, विवाह होने पर धर्मपत्नी सेवा सुश्रूषा करती है, सेवक आज्ञा में खड़े रहते हैं, दुकानदार हमारे लिए नाना प्रकार की उपयोगी वस्तुएँ देते हैं, गौएँ, घोड़े, बैल, कुत्ते अपनी सेवाओं में आनन्द देते हैं, प्रकृति माता के दान का तो कुछ अन्त ही नहीं, इस प्रकार हम जिधर भी दृष्टि उठा कर देखते हैं, उधर ही संसार को दान देता हुआ, परमार्थ करता हुआ, उपकार में प्रवृत्त देखते हैं, संसार ने हमें इतना अधिक दिया है कि उसकी उदारता के लिए सहज ही मस्तक नत हो जाता है। परमार्थ की यह ऋषिसत्ता हमारे अधूरे और लँगड़े लूले जीवन को पूर्ण और प्रसन्न बनाने में कितना परिश्रम के साथ निरन्तर लगी रहती है, उसका आभार मानना आवश्यक है। कौन अभागा ऋषि ऋण को स्वीकार करने से इन्कार कर सकता है।
दुनिया हम से जो लेती है, वह हमें ज्यों का त्यों लौटा देती है। भूमि में जो बीज बोया जाता है वह उग आता है, दुकानदार को पैसा देते ही वह बदले की वस्तु दे देता है, मजदूर श्रम कर देता है, अध्यापक शिक्षा दे देता है, जिसके लिए, जब, जैसा, जितना काम किया जाता है, उसका फल निस्संदेह देर या सवेरे में प्राप्त हो ही जाता है। पूर्वजों से प्राप्त हुई वस्तु आगे वालो को देना यह क्रम-सृष्टि के आदि से चला आता है। प्रपितामह ने पितामह का पोषण किया था, उन्होंने अपने पुत्र का पोषण किया, पिता जी ने हमारा पोषण किया है, तो हमें अपने बच्चों का करना होगा। यह शृंखला केवल बच्चे उत्पन्न करने तक ही सीमित नहीं हैं और न केवल जन्म देने वाले को ही पितृ कहा जायगा। जिन महानुभावों द्वारा हमें आध्यात्मिक, मानसिक, शारीरिक और साँसारिक दान प्राप्त होते हैं, वे सभी हमारे पितृ हैं। इन पितृों ने अपने पितृों से जो पाया था, वह हमें दिया, अब हमारा भी कर्तव्य है कि जितनी योग्यता, शक्ति, बुद्धि, विद्या, संपत्ति आदि प्राप्त की है, उसे अपने आगामी संपत्ति के लिए छोड़ जावें। जिस प्रकार, सभी प्रकार की योग्यता देने वाले महानुभाव हमारे पितृ हैं, उसी प्रकार हमारी संतति भी हमसे पिछड़ी हुई जन प्रकार की प्रेरणा देकर उनका किन्हीं अंशों में कुछ निर्माण कर सकता है वे सभी हमारी संपत्ति कहलावेंगे। बेटे-बेटी को संपत्ति कहना यहाँ उस आध्यात्मिक विवेचना में अप्रासंगिक होगा। ऋण प्रतिशोध, पितृ से प्राप्त वस्तु की संपत्ति को देने का क्रम अत्यन्त महत्व का है। हमें इसे चालू रखना होगा। अपने पितृ ऋण को भली भाँति हृदयंगम करना होगा।
कंधे पर रखा हुआ तीन तार का यज्ञोपवीत हमें बार बार सचेत करता हैं कि कंधे पर रखे हुए तीन कर्जों को चुकाने में भूल न करो। इन्हें चुकाये बिना न कोई व्यक्ति उऋण हो सकता हैं न ईमानदार कहला सकता है और न छुटकारा पा सकता है। इसलिए विवेकवान मनुष्य का कर्तव्य है कि इन ऋणों को चुकाने में जरा भी भूल न करे। ‘अखण्ड ज्योति’ द्वारा प्रसारित ‘सत्य आन्दोलन’ का मन्तव्य है कि मनुष्य तीन ऋणों से वाण प्राप्त करके मुक्ति का अधिकारी बने। सत्य, प्रेम, न्याय की त्रिवेणी से उन ऋणों की उऋणता हो सकती है। दैव ऋण का सत्य द्वारा, ऋषि ऋण का प्रेम द्वारा, पितृ ऋण का न्याय द्वारा परिशोध हो सकता है। ईश्वर की कृपा से सत्य का जागरण हमारी आत्मा चेतना से होता है हमें चाहिए कि उस संदेश को दूसरे लोगों तक पहुँचावें। विश्व का ऋषि तत्व निस्वार्थ भाव से हमारे ऊपर पग पग पर कृपा करता हुआ अपना प्रेम प्रदर्शित करता हैं। हमें चाहिए कि संसार के अन्य प्राणियों को अपने प्रेम का अमृत चखावें। पितृ गुण हमें अपनी संपदा प्रदान करते हैं, हमें चाहिए कि न्यायपूर्वक संसार की वस्तु संसार को लौटा दें।
ईश्वर के सम्मुख हमें उसका दूसरा ऋण चुकाने के लिये उपस्थित होना चाहिए और प्रार्थना करना चाहिए कि हे परमात्मन्! आपने मेरी आत्मा में अमूल्य खजाना भर देने की कृपा की है, मैं आपके प्रयत्न को व्यर्थ न करूंगा, इस खजाने को खोलूँगा और काम में लाऊँगा। पिता अब आप से दूर न भटकूँगा, वरन् आपकी शान्तिप्रदशरण में विश्राम करूंगा। अपनी आत्मा के सम्मुख हमें विश्व के ऋषितत्व का ऋण चुकाने के लिए उपस्थित होना चाहिए और प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि-’हे मेरी आत्मा में बैठे हुए ऋषि तत्व ! मुझे विश्व का प्रेम प्राप्त होता हैं, मैं विश्व के कण कण से प्रेम करूंगा। मैं प्राप्त करता हूँ, इसके बदले में दूँगा। देना मेरा धर्म होगा ‘त्याग‘ को मेरे जीवन क्रम में प्रमुख स्थान रहेगा।
संसार के सम्मुख हमें उसका पितृ ऋण चुकाने के लिए उपस्थित होना चाहिए और उसे विश्वास दिलाना चाहिए कि-हे पितृ ! आपके ऋण का प्रतिशोध करूंगा, आपने मुझे दिया है मैं आपको दूँगा। न्याय की शृंखला को भंग न करूंगा। अपने को निर्बल बना कर अपना अनावश्यक भार आप पर न डालूँगा। अन्याय पूर्वक किसी को उसके अधिकार से वंचित न करूंगा। भूतल पर से अनीति मिटाने के लिए तप करूंगा, धर्म युद्ध में प्रवृत्त रहूँगा। हे पितृ, आपने मेरे साथ न्याय किया हैं, मैं अपनी संतति के साथ न्याय करके ऋण का प्रतिशोध करूंगा।
सत्य, प्रेम और न्याय की भावनाओं को हृदयंगम करने और उसके अनुसार आचरण में प्रवृत्त होने पर हम देव ऋण ऋषि ऋण और पितृ ऋण से छुटकारा पाते हैं और जीवन मुक्त होकर परम पद पाने के लिए स्वतन्त्र हो जाते हैं।